उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 7 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 7

भाग 7

यही तो हमारे समाज की परम्परा है। यही तो शिक्षा देता है हमारा समाज? हमारे माता- पिता भी तो बचपन से यही बात स्मरण कराते रहते हैं कि तुम लड़की हो, तुम्हें तोे व्याह कर एक दिन अपने घर जाना है। माता-पिता के घर को अपना घर मानने नही दिया जाता। बार-बार किसी नये दूसरे घर को अपना घर मानने की सीख दी जाती। जिस प्रकार जमीन पर लगे किसी पौधे को वहाँ से उखाड़कर किसी दूसरे स्थान पर, दूसरे वातावरण में लगा दिया जाये। बहुधा ऐसे पौधे मुरझा जाते हैं। कभी-कभी सूख भी जाते हैं।

कुछ ऐसा ही हमारा समाज लड़कियों के साथ करता है। कभी-कभी मैं सोचती कि यदि लड़कियों को वो अपना नया घर भी उन्हें स्वीकार न करे तो वो कहाँ जायेंगी? माता-पिता यही सोच कर लड़कियों का व्याह करते हैं कि अब ये अपने घर की हो जायेगी। बेटी का उत्तरदायित्व पूरा कर उन्हें मुक्ति मिल जायेगी। यदि लड़की के ससुराल में उसे किसी प्रकार का कष्ट हुआ तो उन परिस्थितियों से उसे स्वंय जूझना होगा।

अपने माता-पिता से बहुत अधिक सहयोग इन्हें नही मिल पाता। कभी-कभी तो बिलकुल भी नही। माता-पिता कन्यादान कर अपने उत्तरदात्वि से मुक्त जो हो चुके हैं। जीवन जीने के लिए, उसे अनुकूल बनाने के लिए बहुत-सी बेटियाँ विपरीत परिस्थितियों से संघंर्ष करती रहती हैं। इन संघर्षों के दौरान कभी-कभी बेटियों की जान भी चली जाती है, तब भी उनके लिए माता-पिता के घर के दरवाजे उनके लिए बन्द रहते हैं। हमारे समाज का नियम और परम्परा ही ऐसी है।

कन्यादान कर मुिक्त पाये माता-पिता को पुनः लड़की रूपी जंजाल और बन्धन क्यों अच्छा लगेगा भला? विवाह के पश्चात् किन्हीं कारणों से लड़की को अपने माता-पिता के घर रहते देख हमारा समाज अनेक प्रश्न पूछ-पूछ कर लड़की के मताा-पिता का जीना कठिन कर देता है।

समय व्यतीत होता जा रहा था। मैं घर की व अपने आस-पास की परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न कर रही थी, बल्कि कर चुकी थी। आगे की शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित कर रही थी। स्नातकोत्तर करने की तैयारियों में मैंने स्वंय का व्यस्त कर लिया था।

♦ ♦ ♦ ♦

एक दिन दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजे की घंटी तो किसी के आने पर बजती ही है। किन्तु उस दिन एक अनजान व्यक्ति ने मेरे घर के दरवाजे की घंटी बजायी थी। मेरा भाई प्रंाजल कदाचित् उसे थोड़ा बहुत पहचानता होगा। इसलिए उसने दरवाजा खोलकर उन्हें ड्रइंगरूम में बैठाया। घर में किसी से पूछे बिना किसी अनजान व्यक्ति को बुला कर बैठा लेना, स्पष्ट था कि उसने आगंतुक को अवश्य पहचान लिया था।

" प्रांजल! कौन है? " माँ ने अन्दर कमरे से आवाज लगाई।

" माँ! देखो तो दीदी की ससुराल से कोई आया है। " प्रांजल ने अन्दर आकर माँ से कहा।

" उसकी ससुराल से कोई आने वाला है ये बात तो अनु ने बताई नही। न ही उसने फोन पर कभी ज़िक्र किया कि यहाँ कोई आने वाला है। चलो कोई बात नही। अनु ने नही बताया है तो भी कोई बात नही। अतिथि आया है तो उसके लिए चाय-पानी की व्यवस्था करो। " माँ ने प्रांजल से कहा।

माँ ने अभी तक अतिथि को देखा नही था कि वो है कौन? बस दीदी की ससुराल का जान कर प्रांजल का चाय-नाश्ते की व्यवस्था करने के लिए बोल दिया। किन्तु मैं मानने वाली नही थी। मैंने खिड़की से झाँक कर ड्राइंग रूम में देख लिया।

" अरे....रे....रे..... " उस अतिथि को देख कर मेरे मुँह से सहसा निकल पड़ा।

" ये तो वही लड़का है जो दीदी के विवाह में मुझे व मेरी सहेलियों को छेड़ रहा था, ठिठोली कर रहा था। बहुत परेशान किया था इसने हम लोगों को। " मैंने उस अतिथि का पूरा परिचय देते हुए कहा।

" ठीक है, अभी तो उसको चाय-पानी देने दो। " माँ ने कहा।

" आते ही उसको चाय-वाय देने की आवश्यकता क्या है..? पडरौना से कुशीनगर है कितनी दूर? आधे-पौन घंटे का भी तो रास्ता नही है। घर से भी तो कुछ खा-पीकर आया होगा। " मैंने माँ से कहा।

" माँ! दीदी यूँ ही विवाह वाला खुन्नस निकाल रही है। दीदी के विवाह में खूब परेशान किया था इन लड़कों ने इनको व इनकी सहेलियों को, इसीलिए ऐसा बोल रही है। " प्रांजल की बात सुनकर माँ मुस्करा पड़ी।

वो लड़का दिन भर मेरे घर रूका रहा। रात का भोजन करने के उपरान्त ही वह गया। माँ से पूछने पर ज्ञात हुआ कि उसे कोई काम नही था। बस! ऐसे ही मिलने चला आया। मैं सोच रही थी कि यूँ ही कोई कैसे किसी के घर मिलने चला आयेगा और दिन भर रूका रहेगा? पडरौना से कुशीनगर है कितनी दूर? चाहता तो सब से मिल कर एकाध घंटे में वापस चला जाता, किन्तु दिन भर यहीं रूका रहा। जो भी हो दिन भर के पश्चात् वो शाम को चला ही गया।

मुश्किल से दस दिन व्यतीत हुए होंगे कि एक दिन पुनः वही लड़का घर आया। मैं सोच रही थी कि न जाने क्या बात है..? यह दूसरी बार क्यों आया? दीदी का सगा रिश्तेदार तो है नही, दूर का रिश्तेदार ही तो है। अब दुबारा क्यों आ गया? माँ-बाबूजी ने इस बार भी उसकी खूब आवभगत की। बात धीरे-धीरे खुली और ज्ञात हुआ कि वो लड़का अभी-अभी नौकरी में चयनित हुआ है, और मुझसे विवाह करना चाहता है।

उसने मुझे दीदी के विवाह में देखा था तभी से मुझे पसन्द करता था। माँ और बाबूजी भी उसे पसन्द करते हैं तथा उससे मेरा विवाह करने में रूचि भी रखते थे। वो लड़का देखने में आकर्षक था, हँसमुख था और अब नौकरी में चयनित हो गया था, किन्तु मुझे पसन्द था या नही ये मैं नही जानती थी। बस ये जानती थी कि मुझे माँ-बाबूजी के पसन्द किये गए लड़के से ही मुझे विवाह करना है, तो यह लड़का भी ठीक है। माँ-बाबूजी की पसन्द में ही मेरी पसन्द थी। दिनभर रूकने के पश्चात् शाम को वो कुशीनगर चला गया।

दूसरे दिन दीदी का फोन मेरे पास आया कि क्या तुम्हारा विवाह तय कर दिया गया है? दीदी का बात सुन कर मैं आश्चर्यचकित थी कि दीदी मेरे विवाह की बात मुझसे क्यों पूछ रही है ? माँ-बाबूजी से क्यों नही पूछ रही है? जहाँ तक मेरी जानकारी में जो बात है, वो यह कि अभी मेरे विवाह के लिए लड़के की ओर से प्रस्ताव आया है। विवाह तय नही किया गया है।

" दीदी मुझे नही मालूम मेरे विवाह के बारे में। आप माँ-बाबूजी से पूछ लीजिए। " मेरा उत्तर सुनकर दीदी ने कुछ औपचारिक बातों के पश्चात् फोन रख दिया। दीदी के पूछने और फोन रखने के ढंग से मैं समझ गयी कि मेरी बात से दीदी संतुष्ट नही थी। मेरा एम0ए0 पूरा होने वाला था। मैं उतनी भी छोटी और नासमझ नही थी कि ये बात भी न समझती कि दीदी को मेरा उस लड़के के साथ रिश्ता पसन्द नही आया। किन्तु इन सबके लिए मैं उत्तरदायी तो नही थी।

मैं अभी विवाह करना ही नही चहती थी। मैं आगे और पढ़ना चाहती थी। पढ-़लिख कर कुछ बनना चाहती थी। संगीत, पेन्टिंग, और साहित्य में रूचि थी मेरी। मैं विवाह के झमेले से दूर रह कर अपना पूरा समय अपनी रूचियों को पूरा करने में लगाना चाहती थी, किन्तु विवश थी। माँ-बाबूजी के समक्ष मै विवशता और संकोच का आवरण ओढ़े चुप रही।

वो लड़का जिसका नाम भी अब मुझे पता चल गया था अभय......हाँ, यही नाम था उसका वो गाहे-बगाहे अवकाश के दिनों में मेरे घर आता। दिन भर रहता शाम को चला जाता। मेरी उससे कभी बात नही हुई, किन्तु उसे देख कर मुझे ऐसा प्रतीत होता कि वह मेरे घर आकर खुश हो जाता है। इस प्रकार कुछ दिन और व्यतीत हो गये। यही कोई लगभग एक माह।

सहसा एक दिन दीदी अपने पति के साथ घर आ गयी। दीदी के आने से घर में सभी प्रसन्न थे। शाम को दीदी, जीजा, माँ-बाबूजी ड्राइंग रूम में बैठे बातें कर रहे थे। उन सभी के स्वर धीमा होने के पश्चात् भी उनकी बातचीत बगल के मेरे कक्ष में स्पष्ट सुनाई दे रही थी।

" माँ! उसके घर से मेरी ससुराल वालों के सम्बन्ध अच्छे नही हैं। सोमेश भी उसे पसन्द नही करते हैं। रिश्तेदारों को जिस प्रकार शादी-विवाह में पूछा जाता है, वैसे ही उन्हें भी बुलाया गया था। उसका रिश्ता मेरे घर हो, ये मैं नही चाहती। " दीदी ने अपना विरोध प्रकट किया। मैं अब समझ पायी कि दीदी अभय के बारे में बात कर रही थी। मैंने उनकी बातों पर ध्यान केन्द्रित कर लिया था। क्यों कि बात मुझ पर व अभय पर केन्द्रित थी।

" उसमें बुराई भी क्या है? लड़का अच्छा है। हमें लड़के से मतलब है। दूर का रिश्ता है तो नीरू के विवाह के पश्चात् समीप का हो जायेगा। " बाबूजी के स्वर थे वे दीदी को समझाने का प्रयत्न कर रहे थे।

" नही माँ, नीरू के लिए और बहुत से लड़के मिल जायेंगे। अच्छी नौकरी वाले लड़के मिलेंगे " दीदी की आवाज थी।

" बेटा! अभय अच्छा लड़का है। उसने स्वंय नीरू से विवाह की इच्छा प्रकट की है। " दीदी को पुनः समझाते हुए बाबूजी ने कहा। इस बार निराशा भरे स्वर थे बाबूजी के।

" सुना है बहुत दिनों से वो यहाँ आ-जा रहा है, इस बात की जानकारी न तो उसने मुझे देना आवश्यक समझा, न तो आप लोगों ने....? अब आप इतना आगे बढ़कर उसके साथ नीरू का विवाह कर लेने की बात सोच रहे हैं। " दीदी के स्पष्ट स्वर मेरे कमरे तक आ रहे थे।

" बेटा! लड़का अच्छा है। अभी-अभी नौकरी ज्वाइन किया है। नीरू के साथ उसकी जोड़ी अच्छी रहेगी। वो स्वंय चलकर मेरे घर आया है। नीरू से विवाह का इच्छुक है। इतना अच्छा लड़का हमें ढूँढ़ने से भी शीघ्र नही मिलेगा। " बाबूजी बार-बार समझाते हुए दीदी से कह रहे थे।

" क्या नीरू भी ऐसा चाहती है...? " दीदी के स्वर मेरे कानों मे पड़े। मुझे अच्छा भी लगा कि दीदी मेरे लिए, मेरे विचारों को प्रमुखता दे रही थी।

" नीरू कुछ नही कहती है। उसने न तो विरोध किया है न तो सहमति दी है। उसने निर्णय हम लोगों पर छोड दिया है। लड़का अच्छा है। कमाता है। सरकारी नौकरी में है। इसलिए हम लोग चाहते हैं कि नीरू का विवाह उससे हो। " कह कर बाबू जी चुप हो गये। कमरे से बातचीत की आवाजें आनी बन्द हो गयीं। बात क्यों समाप्त हो गयी ? इसके पश्चात् दीदी की क्या प्रतक्रिया थी, मुझे कुछ भी नही पता चला।

उस बातचीत के पश्चात् दूसरे दिन भी दीदी ने मुझसे कुछ नही पूछा। न विवाह के बारे में, न मेरी सहमति-असहमति के बारे में। वह कुछ उखड़ी-उखड़ी, कुछ उदास-उदास-सी, कुछ रूष्ट-रूष्ट-सी एक दो दिन माँ के घर रही फिर चली गयी। जाते समय भी दीदी माँ बाबूजी से सामान्य रही किन्तु मुझसे कोई बात नही की। मेरे साथ दीदी के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से मुझे पीड़ा हुई। पीड़ा से अधिक इस बात से मैं चिन्तित थी कि अभय से मेरा विवाह हो या न हो ये मेरी इच्छा तो न थी, फिर दीदी मुझसे इस प्रकार का उपेक्षा पूर्ण व्यवहार कैसे कर सकती है? क्या दीदी ये सोचती है कि मैं अपने घर में इस विवाह का विरोध करूँ? क्यों मैं क्यों ऐसा करूँ? मैं अभय से अपने विवाह का विरोध क्यों करूँ? न तो मैंने अभय को पसन्द किया है, न मेरा किसी अन्य लड़के के साथ प्रेम सम्बन्ध है? मेरा विवाह तो माँ और बाबूजी की पसन्द से होगा। दीदी का मेरे साथ यह व्यवहार मुझे उचित नही लगा। इस बीच अभय ने अपने घर में मेरे साथ अपने विवाह की इच्छा बता दी थी। उसके घर में इस रिश्ते के लिए सब तैयार थे।

समय व्यतीत होता रहा । शीघ्र ही अभय की प्रथम नियुक्ति कुशीनगर से दूर दूसरे शहर में हो गयी। उसने नौकरी ज्वाइन कर ली। अभय की इच्छा थी कि नौकरी ज्वाइन करते ही उसका व्याह हो जाये, किन्तु उसके माता-पिता चाहते थे कि कम से कम एक वर्ष अभय वहाँ दूसरे शहर में रहकर नौकरी कर ले, तत्पश्चात् कुशीनगर में अपने स्थानान्तरण के लिए प्रार्थना पत्र लगा दे।

आखिर अपना इतना बड़ा घर व सब कुछ होते हुए घर से इतनी दूर वो किराये के मकान में रह कर मात्र नौकरी करने के लिए जीवन व्यतीत क्यों करे...? नौकरी करना ही तो जीवन नही है। नौकरी के अतिरिक्त भी जीवन में बहुत कुछ है। उसके माता-पिता की सोच भी उचित थी। इकलौता पुत्र यदि समीप रहे तो माता-पिता को कोई चिन्ता नही रहती। अभय की सोच भी उचित थी। आत्मनिर्भरता भी आवश्यक है।

दीदी के विरोध के पश्चात् भी बाबूजी ने मेरा विवाह अभय के साथ तय कर दिया। मेरा रोका कर दिया गया था, तथा अभय के कुशीनगर में स्थानान्तरण की प्रतीक्षा की जा रही थी। बाबू जी ने अभय से कह दिया था कि उसका स्थानान्तरण हो या न हो, आने वाली सर्दियों की लग्न में वे मेरा व्याह कर देना चाहते हैं। अभय ने बाबूजी की बात मान ली थी।

अभय का स्थानान्तरण तो इतनी शीघ्र नही हुआ किन्तु मेरा व्याह आने वाली सर्दियों की लग्न में अवश्य हो गया। व्याह के लगभग दो वर्ष के पश्चात् अभय का स्थानान्तरण भी कुशीनगर हो गया। अभय जीजा की भाँति किसी बड़े व पैसे वाले पद पर तो नही था। किन्तु जो भी था किसी से कम न था। उसकी नौकरी व उसके साथ मैं सन्तुष्ट थी। विवाह पश्चात् अभय के प्रति मेरे हृदय में प्रेम बढ़ता गया। अभय भी मेरी खुशियों का पूरा ध्यान रखता था। मेरे दोनों बच्चे मेरी गोद में आ गये थे।

शनैः-शनैः मेरे विवाह को चार वर्ष हो गए। विवाह के पश्चात् अभय में न जाने क्यों और कैसा परिवर्तन आया कि वो पडरौना जाना ही नही चाहता था। गिने-चुने अवसरों पर एक-दो बार मुझे ले गया। विवाह पूर्व बार-बार प्रत्येक अवकाश के दिनों में दौड़-दौड़ कर पडरौना जाने वाला अभय अब वहाँ जाने का नाम नही लेता। मैं उसकी भावनायें समझती थी।

पडरौना के प्रति उसकी इस विरक्ति का कारण हो सकता था कि दीदी का उसके प्रति ईष्र्यालु व्यवहार जिसे वह बखूबी समझ गया था। अन्य कारण भी हो सकते थे, जिन्हें मैं जानना, समझना नही चाहती। अभय के बिना मैं भी वहाँ जाना नही चाहती थी। अभय की भावनाओं का मैं पूरा सम्मान करती हूँ और करूँगी। पापा ने मेरा विवाह अभय के साथ अपनी पसन्द, अपनी इच्छा से किया था, किन्तु दीदी समझती है कि मेरा विवाह मेरी सहमति से उसके रिश्ते के लड़के से हुई है। यह भी कि अभय से मैंने प्रेम विवाह किया है। मैं समझ नही पा रही हूँ कि अभय का व्याह मुझसे न होकर किसी और से होता तो क्या वह दीदी की पसन्द से होता? यहीं सब कुछ बातें हैं जिसके कारण मेरा मन भी वहाँ जाने के लिए उत्साहित नही होता था।

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