उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 1 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 1

नीरजा हेमेन्द्र

 

सम्मान -- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान। फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार। सेवक साहित्यश्री सम्मान। हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान। कथा साहित्य विभूषण सम्मान, अनन्य हिन्दी सहयोगी सम्मान आदि।

हिन्दी की लगभग सभी अति प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल सुलभ रचनाएँ एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनाएँ आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित।

हिन्दी समय, गद्य कोश, कविता कोश, मातृभारती, प्रतिलिपि, हस्ताक्षर, स्त्रीकाल, पुरवाई, साहित्य कुंज, रचनाकार, हिन्दी काव्य संकलन, साहित्य हंट, न्यूज बताओ डाॅट काॅम, हस्तक्षेप, नूतन कहानियाँ आदि वेब साईट्स एवं वेब पत्रिकाओं में भी रचनाएँ प्रकाशित।

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" मेरी बात "

मुझे अपना यह नया उपन्यास " उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए " पाठकों को समर्पित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। मेरे इस उपन्यास का कथ्य यद्यपि समकालीन न होते हुए अब से लगभग चार दशक पूर्व का है, तथापि इसमें तत्कालीन कालखण्ड को चित्रित करने के साथ आज के समय की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक बदलावों को भी रेखांकित करने का प्रयास मैंने किया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का वह क्षेत्र जिसे सतही तौर पर देखने वाले पिछड़ा क्षेत्र मानते थे, मानते हैं। जब कि यथार्थ इसके विपरीत है। देश के अन्य भागो की भाँति यह क्षेत्र भी उस समय विकास की दौड़ में शामिल था। आज उसके विकास की कहानी किसी से छुपी नही है। उस समय इस क्षेत्र के गाँव कस्बों में, कस्बे छोटे-बड़े शहरों में तब्दील हो रहे थे। यह परिवर्तन मात्र भैतिक परिवर्तन नही था। इस क्षेत्र के स्त्री-पुरूष, युवा-बुजुर्ग सबकी मानसिकता, सबकी सोच, सबके सपनों के परिवर्तन का दौर था। आधुनिकता कहीं न कहीं सबकी सोच में समा रही थी, तो कहीं मात्र दिखावे व छलावे का प्रदर्शन भी कर रही थी। उस समय का युवा छद्म आध्ुनिकता का शिकार हो रहा था। सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन के साथ पारिवारिक रिश्तों की शुचिता व नैतिकता भी प्रभावित हो रही थी। स्पष्ट शब्दों में कहें तो क्षरण हो रहा था। राजनीति सेवा से हटकर महत्वकांक्षा के पथ पर अग्रसर होने लगी थी। कारण सत्ता की शक्ति से खेतिहर मजदूर से लेकर विद्यार्थी तक परिचित होने लगे थे। रसोई व चुल्हे-चैके तक सिमटी स्त्रियाँ राजनीति के क्षेत्र में कदम रख़ने को तत्पर होने लगी थीं। सत्ता व शक्ति हासिल करने के लिए दिखावे व ढोंग से भी परहेज नही था। इतना होने के पश्चात् भी आधुनिक होते उस समाज से कुछ अच्छी चीजें भी छनकर बाहर आ रही थीं। दबी-कुचली, सहमी-सिकुड़ी स्त्रियाँ अपनी आलोचनाओं की परवाह किए बिना शिक्षा, आत्मनिर्भरता व अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही थीं। ग़ुलामी की जंजीरों को काटने के लिए तत्पर थीं। ंअब यह क्षेत्र प्रदेश व देश के विकास की मुख्य धारा में शामिल हो बुद्धिमत्ता व विकास के नये-नये प्रतिमान गढ़ रहा है।

भटका हुआ मन शान्ति और सम्बल महामानवों की शरण व उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही प्राप्त करता है। यह तब भी था और आज भी। यह यथार्थ है......यही शाश्वत् है।

इस उपन्यास " उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए " में कुछ ऐसे ही सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक ताने-बाने को रोचक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास मैंने किया है। आशा है सुधी पाठकों को मेरा यह उपन्यास अवश्य अच्छा लगेगा। पाठक उपन्यास के प्रति अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत् करायें, हार्दिक प्रसन्नता होगी।

आपकी शुभेच्छु

नीरजा हेमेन्द्र

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए

भाग 1

समय भी भला कब, किसकी प्रतीक्षा करता है? वो तो बस......अपनी ही धुन में चलता रहता है। वह किसी के साथ नही चलता, सब उसके साथ चलते हैं। बल्कि यूँ कहें तो जीवन समय के साथ चलता है...समय की बाहें पकड़े हुए। समय छूट गया तो जीवन छूट गया। मैं भी समय का हाथ पकड़े हुए यहाँ तक आयी गयी थी। न जाने कब समय आगे बढ़ गया और मै वहीं खड़ी रह गयी। ऐसा महसूस हुआ मानो जैसे जीवन यहीं छूट गया हो।

अभी-अभी एक खूबसूरत साथी मुझसे बाहें छुड़ाकर आगे बढ़ गया है। बस यही अनुभूति होती थी मुझे। ये खूबसूरत साथी था मेरा बचपन। बचपन न जाने कहाँ चला गया और न जाने कब चुपके से किशोर उम्र ने मेरी बाहें पकड़ लीं। किन्तु मन-मस्तिष्क के न जाने किस कोने में बचपन छुप कर बैठा था। अवसर पाते ही वो अल्हड़ता व चंचलता के रूप में बाहर आ जाता। किशोर उम्र के साथ सम्मिलित हो कर बाहर झाँकता रहता। किशोर उम्र भी ऐसा ही होता है... बचपन जैसा अल्हड़.... जिसमें शरीर तो बढ़ जाता है, किन्तु मन के भीतर बैठा बचपन गाहे-बगाहे बाहर आता रहता है। शनै-शनै शरीर किशोरावस्था पार कर युवा पथ पर अग्रसर होने लगता है, किन्तु मन के भीतर बैठा अबोध बच्चा बड़ा होना नही चाहता।

युवा दिनों में किशोरावस्था की परछाँईयाँ साथ-साथ चलती हैं। किशोरावस्था के वे दिन युवावस्था में भी विस्मृत नही होते। युवा दिनों में ही क्यों उम्र के किसी भी पड़ाव पर किशोरावस्था के खूबसूरत दिन कभी भी विस्मृत नही होते। उम्र समय की एक-एक सीढ़ियां चढ़ती हुई आगे बढ़ती जाती है। समय की सीढ़ियों के साथ किशोर उम्र भी जैसे साथ-साथ चलता है।

अन्तराल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी .किशोरावस्था के अल्हड़, अलमस्त और बेफिक्री भरे दिन कभी विस्मृत नही होते। किशोरावस्था के उन दिनों को भला मैं भी कैसे विस्मृत कर सकती थी? अन्ततः वे दिन ही तो मेरे जीवन के सबसे मोहक दिनों में से एक थे। वे दिन........ मुझे स्मरण है उस वर्ष मैं दसवीं कक्षा में थी। पढ़ने-लिखने के साथ ही खेलना -कूदना, सजना-सँवरना, कुछ बनने व सबसे अलग कुछ करने के सपने देखा करती थी.......बस यही जीवन था उस समय। डाॅक्टर, शिक्षक वकील, दरोगा, खिलाड़ी........न जाने क्या-क्या बनने के सपने देख करती थी।

उम्र की न जाने कितनी अनगिनत सीढ़ियाँ चढ़ कर अब समझने लगी हूँ कि वो उम्र स्वप्नजीवी होता है, जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नही होता। उस उम्र में हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु बारिश से धुली सृष्टि के समान स्वच्छ व मनोहारी लगती है। पडरौना कस्बाई छोटा-सा शहर जो मेरी जन्मस्थली था, प्राकृतिक दृष्टि से बहुत ही खूबसूरत स्थान था।

विकासशील, आधुनिक सुख सुविधाओं की ओर अग्रसर होता हुआ मेरा जन्मस्थान मुझे बहुत ही प्रिय था। यहाँ की नहरें, पुलिया, खेत-खलिहान, मेरे आम के बाग, मेरा कॉलेज, नैसर्गिक रूप से बेतरतीब बसे आस-पास के गाँवों के साथ, नये प्लान बनाकर साफ-सुथरे ढंग से बस रही नयी काॅलोनियाँ, बाजार तथा वो सब कुछ जो मैंने यहाँ बचपन से देखा था, सब कुछ ..... मुझे बहुत अच्छा लगता था।

अब मात्र स्मृतियाँ ही तो शेष हैं....स्मृतियाँ भी ऐसीं जैसे सब कुछ अभी-अभी घटित हो रहा हो---

" नीरू, ये लो तुम्हारी पत्रिका रीडर्स डायजेस्ट। अभी-अभी डाकिया देकर गया है। " दीदी ने मेरी सर्वाधिक पसंदीदा पत्रिका रीडर्स डायजेस्ट मेरी ओर बढा़ते हुए कहा। जैसे ही पत्रिका मैंने अपने हाथ में पकड़ी, मेरे भीतर का कौतुहल और प्रसन्नता बाहर आ गया। मैं वहीं खड़े-खड़े ही पत्रिका के पन्ने पलटने लगी।

प्रारम्भ से ही मैं पढ़ने में रूचि रखती थी। उस समय पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त मैं साहित्य की पुस्तकें तथा पत्र-पत्रिकायें पढ़ना पसन्द करती थी। उस समय छोटे-से शहर में अच्छी पुस्तकें सरलता से नही मिलती थीं, इसीलिए बाबूजी कुछेक अच्छी पुस्तकें डाक द्वारा नियमित रूप से हम लोगों के लिए मंगवाते थे। जिसे हम सभी अर्थात दीदी के अतिरक्त मैं और हमारा छोटा भाई प्रांजल खाली समय में पढ़ते हैं।

हम तो बाद में पुस्तक पढ़ने के लाभ समझ पाये किन्तु बाबू जी जानते थे कि अच्छी पुस्तकें हमारी पथप्रर्दशक व मित्र होती हैं जो हमें बहुत कुछ सिखाती हैं। अतः बाबजीू हम लोगों के पढ़ने के लिए अच्छी साहित्यिक पुस्तकें, पत्र-पत्रिकायें मंगवाते रहते थे। वास्तविकता यह भी है कि बाबूजी वकील होने के बावजूद स्वंय साहित्यिक पुस्तके पढ़ने में रूचि रखते हैं। उनके कारण ही हम सब भाई-बहनों में भी ये अभिरूचि विकसित हो गयी थी।

लोग कहते हैं कि वकील साहित्य में रूचि कम ही रखते हैं। किन्तु बाबूजी इसके अपवाद थे। उन्हें समय कम मिलता किन्तु जो भी मिलता उसमें वे पुस्तकें पढ़ते। रीडर्स डायजेस्ट लेकर मैं वहाँ से स्टडी रूम में जाकर मैं पत्रिका के पन्ने पलटने लगी। इस बीच मुझे यह विस्मृत होे गया कि पाँच बजने वाले हैं और यह समय बाबूजी के चाय पीने का है। इस समय मुझे चाय बना कर बाबूजी का देनी रहती है।

सुबह की चाय दीदी बनाती है तथा शाम की मैं। काम का ऐसा बँटवारा माँ ने इस लिए कर दिया है कि हम दोनों बहनों को काम के साथ-साथ पढ़ने का भी पर्याप्त समय मिले। घर में यह व्यवस्था मात्र पढ़ने के लिए थी। आवश्यकता पड़ने पर मैं व दीदी एक दूसरे का सहयोग करते। घर के कार्यों में माँ का सहयोग करते। ये समय मेरे चाय बनाने का था, किन्तु पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता में यह बात मैं विस्मृत कर बैठी थी। माँ कहती हैं तथा मैं भी इस बात को समझती हूँ कि प्रत्येक काम समय पर हो तो ही ठीक रहता हैं। किन्तु मैंने समय का ध्यान नही रखा था।

" नीरू! चाय बना लाओ बेटा! चाय का समय हो रहा है। " माँ ने आँगन से मुझे आवाज लगाई।

" जी! अभी लायी माँ। " कह कर पत्रिका मेज पर रख तीव्र गति से मैं रसोई की ओर बढ़ गयी। चाय का पानी गैस पर चढ़ा कर प्याले टेª में लगाने लगी। इतनी देर में चाय का पानी उबल चुका था। मैंने चाय बनायी तथा माँ, बाबूजी, भाई, अपनी तथा दीदी की चाय टेª में रखकर रसोई से बाहर ले आयी। अम्मा, बाबूजी की चाय ड्राइंग रूम में देकर, बाकी सबकी चाय डायनिंग टेबल पर रखकर तेज स्वर में दीदी तथा भाई को चाय के लिए आवाज लगा दी।

कुछ ही क्षणों में भाई व दीदी मेज पर हाजिर हो गये । हम सब वहीं खड़े होकर चाय पीते हुए गप्पें मारने लगे। इधर-उधर की बातें करते हुए यूँ ही किसी बात पर हम सभी ठहाका लगाकर हँस पड़ रहे थे। ऐसा अक्सर ही होता है कि भोजन करते समय, चाय वगैरह पीते समय हम सब किसी न किसी बात कर खूब हँसा करते। हम सब भाई बहनों के बीच खूब हास-परिहास होता रहता है ।

आज चाय पीते-पीते मेरा ध्यान बार-बार इस ओर चला जा रहा था कि दीदी आज चुप-सी थी। हमेशा खुश रहने वाली दीदी आज न जाने किन विचारों में खोयी, गम्भीर मुद्रा में चुपचाप चाय पी रही थी। न हँसना, न मुस्कराना न हमारी किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करना। दीदी ऐसी तो न थी।

दीदी के व्यवहार में यह परिवर्तन मैं आज पहली बार देख रही थी। अन्यथा दीदी भी हम सब के साथ गप्पें मारने व हँसने में किसी से पीछे नही रहती थी। हाजिर जवाबी में तो कोई मिसाल नही था दीदी का। किसी भी बात का तत्काल उत्तर उसे सूझता था। घर में सबसे अधिक बुद्धिमान जो है दीदी ।

दीदी मुझसे दो वर्ष बड़ी है और इण्टरमीडिएट में पढ़ती है। मेरे व दीदी के बीच बहनों से अधिक मित्रवत् सम्बन्ध हैं। दीदी मेरी किसी भी ग़लती पर मुझे डाँट सकती है, समझा सकती है। मैं उसकी किसी बात का बुरा नही मानती। मेरे हृदय में दीदी के लिए अत्यन्त सम्मान है। इस समय दीदी की खामोशी देखकर मेरी व्याकुलता भी बढ़ रही थी।

दीदी का इस तरह चुप रहना मुझे अच्छा नही लग रहा था। प्रांजल चाय पी कर पापा के पास ड्राइंगरूम में चला गया। उसने दीदी में आये इस परिवर्तन पर ध्यान नही दिया। कदाचित् उसे कुछ समझ में नही पाया। हम सबसे वो छोटा जो है। दीदी अब भी न जाने किन ख्यालों में विचारमग्न थी। मैने दीदी को इस प्रकार व्याकुलता की स्थिति में खोये हुए कभी नही देखा था। अतः मुझसे रूका नही गया और साहस कर दीदी से पूछ बैठी, " क्या हुआ दीदी...? तुम कुछ परेशान-सी दिख रही हो। "

" कुछ नही नीरू! कोई बात नही है। " दीदी ने अपने मन के भावों को छुपाते हुए कहा।

न जाने क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कुछ तो है, जिसे दीदी मुझे बताना नही चाहती। मैंने कई बार पूछा किन्तु दीदी ने कुछ नही बताया। जब भी दीदी का उदास चेहरा मैं देखती, बार-बार कारण पूछती। किन्तु दीदी कुछ नही बताती। समय आगे बढ़ता जा रहा था। किन्तु बात आयी-गयी नही हो पा रही थी। क्यों कि दीदी अब बहुधा ऐसे ही दिखाई देती। बातें करते-करते सहसा उदास हो जाती और कहीं खो जाती। कभी-कभी बैठी शून्य में देखती मिलती। दीदी को देख मैं सोचती घर में तो सब कुछ ठीक है, फिर दीदी को आखिर हुआ क्या है? मै दीदी से कारण पूछना चाहती, किन्तु दीदी कुछ भी बताना नही चाहती थी।

समय का पहिया अपनी गति से चलता चला जा रहा था। समय के साथ ऋतुयें भी परिवर्तित हो रही थीं। हमारी जन्मस्थली पडरौना पूर्वी उत्तर का एक छोटा-सा, खूबसूरत-सा विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ शहर धीरे-धीरे विकसित तो हो रहा था। तथापि अपने मूल स्वरूप को अपने भीतर समेटे हुए भी था।

वह हरे-भरे खेतों, बाग-बगीचों, तालतलैयों आदि प्राकृतिक सम्पदा से भरा शान्त स्थान था। यही उसका मूल स्वरूप था। शहरी आबोहवा से दूर यहाँ आस-पास के गाँव व गाँव के लोग अपनी कला, संस्कृति, बोली, खानपान, तीज-त्योहार आदि में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए थे। मेल-जोल, सौहार्द व अपनी भोजपुरी भाषा की मिठास के साथ सबके हृदयों पर अमिट छाप छोड़ता हुआ पडरौना शनैः-शनैः विकास की सीढ़िया चढ़ रहा थां ।

अषाढ़ का महीना प्रारम्भ हो गया था। तपती ग्रीष्म ऋतु प्रकृति पर अपने चिन्ह छोड़कर जा चुकी थी। फलस्वरूप हरितिमा से भरे हरे पत्ते पीले होकर, वृक्षों से टूटकर भूमि पर इधर-उधर उड़ रहे थे। वृक्षों की निपात टहनियों पर नयी कोंपले, नये पत्ते कब का अपना स्थान ले चुके थे, ग्रीष्म की आपाधापी में किसी को ये पता ही नही चला। बारिश की कुछ फुहारें पड़ी ही थीं कि तब तक आम, महुए, लीचियों के वृक्ष छोटे-छोटे कच्चे फलों से भर गए थे।

जुलाई का महीना प्रारम्भ हो गया था। स्कूल-कॉलेज खुल गये थे। आज कॉलेज का प्रथम दिन मैं और दीदी कालेज जा रहे थे। उस समय हम पैदल ही कॉलेज जाया करते थे। हम ही नही बल्कि उस समय पडरौना के अधिकांश बच्चे पैदल ही स्कूल -कॉलेज जाते थे। छोटे-से रूाहर में सब कुछ समीप था। कुछ भी दूर नही था। उसी समय सहसा मेरी दृष्टि सड़क के बायीं ओर जलकंुभियों से भरे तालाब की ओर गयी। कितना मनोरम दृश्य मानो स्वर्ग से कोई टुकड़ा टूटकर यहाँ गिरा हो और बस यहीं ठहर गया हो। ये तालाब तो हम आते-जाते प्रतिदिन ही देखते थे किन्तु अषाढ़ माह में बारिश की कुछ फुहारों में ही यह इस प्रकार कमलिनियों व जलकुभियों से भर जायेगा इसका अनुमान हमे न था।

’दीदी उधर देखो, कितना अच्छा लग रहा है। ’ मैंने दीदी से कहा।

किन्तु दीदी अनमनी-सी थी। उसने एक दृष्टि उधर डाली और पुनः अपने ख्यालों में खो गयी। जब कि बारिश का मौसम दीदी का सर्वाधिक पसन्दीदा मौसम हुआ करता था। दीदी स्वंय भी प्रकृति की खूबसूरती का आनन्द उठाया करती थी। बारिश, वसंत, सर्दियों की गुनगुनी धूप या गर्मियों की शाम हो, वह मनोरम ऋतृओं में प्रकृति से जुड़ जाती। कभी छत पर तो कभी बाहर लाॅन में घंटो बैठकर ऋतुओं की सुन्दरता को निहारा करती, और उसकी खूबसूरती का वर्णन हम सबसे करती न थकती।

पडरौन के मौसम की बात ही क्या थी। हिमालय की तराई में बसे इस क्षेत्र में प्रत्येक ऋतु मनोरम होती है। सर्दियों का मौसम झीने-झीने कोहरे में डूबी पूरी सृष्टि, गेहूँ के मखमली कालीन सदृश्य हरे-भरे खेतों में उगे चने और मटर की धानी लतरों पर चमकती ओस की बूँदें उस समय मोती सदृश्य चमक उठतीं, जब कोहरे को चीर कर सूर्य की सुनहरी किरणें बाहर निकल पड़तीं।