कन्हैया Mayank Saxena Honey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्हैया

कन्हैया

 

अचानक एक चौराहे पर मोटर कार आकर रुकी कि एक बच्चे ने अपने एक झोले (कंधे पर लटके एक कपडे के थैले) से एक रसायन की बोतल निकाल कर, कार के काँच पर रसायन उढ़ेल कर, एक कपड़े से कार के काँच को साफ़ करना शुरू किया। कोई कुछ समझ पाता उससे पहले कार के पीछे की सीट के पास वाले काँच पर खटका कर, हाथों से भोजन खाने जैसा कुछ इशारा किया। ये संकेत से कार के पीछे की सीट पर बैठे विदित और माधुरी ने काँच को नीचे करके उस लड़के से पूछा:

विदित: "क्या तुमने खाना नहीं खाया? भूखे हो क्या"

लड़का: "साहब तीन दिन से पानी पर गुज़ारा चल रहा है, कुछ पैसा मिल जाता तो कुछ खा लेता"

माधुरी: "तुम्हारी उम्र कितनी है, बेटा?"

लड़का: "पंद्रह का होने वाला हूँ।"

विदित: "पढाई करते हो?"

लड़का: "साहब, खाने को पैसे नहीं है, पढूँ कैसे? और फिर ये भारत है यहाँ खाली जेब बाप को बेटा पहचानने से मना कर देता है, मुझ ग़रीब को कौन अपने विद्यालय में पढ़ने देगा?"

इतनी देर में सिग्नल हरा हुआ। मोटर कार को आगे बढ़ने का संकेत देने के लिए उस कार के पीछे लगे वाहनों ने "पी पूं" हॉर्न बजाना शुरू कर दिया। विदित ने आनन् फानन में 50 रुपये का नोट उस बच्चे के हाथ में रखा और ड्राइवर को गाडी आगे बढ़ाने का त्वरित निर्देश दिया।

 

गाड़ी अपनी रफ़्तार पकड़ चुकी थी और माधुरी अभी भी विदित की ओर प्रश्नपूर्ण निगाहों से देख रही थी।

विदित: "क्या हुआ माधुरी? तुम मुझे ऐसे क्यों देख रही हो?"

माधुरी: "नहीं! कुछ ख़ास नहीं, पर आपको उस लड़के के लिए ऐसा नहीं लगता कि हमें कुछ करना चाहिए?"

विदित: "माधुरी, तुम्हे कुछ पता भी है, भारत में इस भिक्षावृत्ति का भी व्यवसायीकरण हो चुका है। सिग्नल पर एक दिन में न जाने कितनी गाड़ियाँ आकर रूकती होंगी और दिन भर में न जाने कितने लोग इससे यही सवाल पूँछते होंगे और ये भी एक मँझे हुए कलाकार या नेता की भाँति अपनी वही कहानी सभी को दोहराता होगा। कोई 10 रुपये देता होगा तो कोई भावनात्मक मूर्खता की पराकाष्ठा के चलते 200 रुपये भी दे देता होगा। इनकी दैनिकी एक सफल अभियंता से भी ज़्यादा होती है।"

माधुरी: "पर फिर भी बालक मासूम है, और जीवन के यथार्थ को भलीभाँति समझता जान पड़ रहा था। निःसंदेह कोई मजबूरी ही रही होगी जो उसे भीख़ माँग कर जीवन यापन करना पढ़ रहा है।"

विदित: "मजबूरी का तो ईश्वर ही जाने, पर इसकी अर्थव्यवस्था एक मध्यम-वर्गीय आम नागरिक से बेहतर होगी।"

माधुरी: "कल रविवार है, आप चलिएगा मेरे साथ। मुझे उस लड़के से एक बार पुनः बात करनी है।"

विदित: "चलो जैसा तुम्हे उचित लगे।"

 

माधुरी पेशे से एक शिक्षिका थी और समाज सेविका के रूप में समाज के लिए कुछ न कुछ करती रहती थी। वहीँ उसके पति विदित एक सॉफ्टवेयर कंपनी में प्रबंधक के तौर पर कार्यरत थे। दोनों के विवाह को तीन वर्ष पूर्ण हो चुके थे किन्तु उनके कोई संतान न थी और संभवतः इसी लिए माधुरी समाज सेविका के तौर पर छोटे बच्चों के लिए अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ न कुछ करती रहती थी। शायद इसी के चलते माधुरी को वो भिक्षुक लड़के में एक बालक नज़र आ रहा था।

 

अगले ही दिन प्रातः दोनों पति पत्नी उसी चौराहे पर जाते हैं जहाँ उन्होंने कल उस लड़के को भीख मांगते हुए देखा था। उन्होंने अपनी कार पार्किंग स्टैंड में लगाई और उस लड़के की खोजबीन करनी शुरू की। उसके जितनी उम्र वाले लड़कों को, जो वहां भिक्षावृत्ति कर रहे थे, उसका हूलिया बताया तो उन लड़को ने सड़क के उस पार लगे खम्बे की तरफ इशारा किया। माधुरी और विदित जब उस खम्बे के पास पहुंचे तो देखा कि वहाँ वही लड़का अन्य लड़कों के साथ किसी कपडे को सूँघ कर झूम रहा है और उसकी ऊपर चढ़ी आँखों से उसके नशामग्न होने का बोध बड़ी ही सहजता से किया जा सकता था। माधुरी ने उससे बात करने का प्रयास किया लेकिन वो लड़का जैसे होश में आने को तैयार ही न था, कि एकाएक माधुरी ने उसके हाथ से कपडा खींच कर और उसके गाल पर एक ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दिया। थप्पड़ की गूँज से वहाँ मौजूद सभी लड़के भाग खड़े हुए लेकिन वो लड़का वही ज़मीन पर गिर पड़ा। विदित ने पास की दुकान से एक पानी की बोतल खरीदी और जैसे ही ठन्डे पानी की कुछ बूंदे उस लड़के के चेहरे पर मारी वो अचानक से होश में आ गया।

 

लड़का: "आप दोनों यहाँ?"

माधुरी: "तुम्हें होश में लाने के लिए ही तो ईश्वर ने हमें यहाँ भेजा था। मुलाक़ात तो होनी स्वाभाविक ही है। वैसे तुम्हारा नाम क्या है?"

लड़का: "नाम का तो पता नहीं पर सब कन्हैया बुलाते हैं।"

माधुरी: "हरकतें तो तुम्हारी राक्षसों जैसी है, कन्हैया। पर ये सब क्या कर रहे थे तुम? कपड़े को सूंघ क्यों रहे थे?"

कन्हैया: "नशा कर रहा था। कपडे पर एक द्रव डालकर उसे सूंघने का आनंद ले रहा था।"

माधुरी: "तुम्हारा दिमाग ख़राब है। तुम पागल हो सकते हो, तुम मर भी सकते हो..."

कन्हैया: (बात बीच में काटते हुए) "मर सकता था, लेकिन मरा नहीं और मरता भी भला कैसे गरीबों को मौत भी इतनी आसानी से कहाँ आती है।"

माधुरी: "कन्हैया, तुम बहुत छोटी उम्र में ही परिपक्व हो गए लगते हो। वयस्कों की तरह वाद-विवाद करने में निपुण जान पड़ रहे हो। फिर भला नशा कैसे और क्यों?"

कन्हैया: "भूख का ईलाज इस संसार में भला किसके पास है? या तो खाने को एक रोटी नसीब हो जाए या फिर अवचेतन मन के साथ एक गहरी नींद। मैं नींद का चुनाव करता हूँ।"

विदित: "बेवक़ूफ़ न बनाओ कन्हैया। दिन भर का तुम आराम से दो से ढाई हज़ार रुपया कमा लेते होगे और सौ - दो सौ रुपये का खाना खाना तुम्हारे लिए कौन सा मील का पत्थर है।"

कन्हैया: "पत्थर। पत्थर तो बुद्धि पर पड़ते हैं और ये पत्थर तो मेरे नसीब, मेरी किस्मत पर फेंक फेंक कर मारे गए हैं।"

माधुरी: "कन्हैया! साफ़ साफ़ कहो क्या करते हो इतने पैसों का?"

कन्हैया: "मेरा जन्म किसी और राज्य में हुआ है। मुझे, मेरे ही जैसे तमाम लड़कों के समूह के साथ यहाँ लाया गया था। उस पूरे समूह को एक अधेड़ आदमी को बेचा गया था, जो हमें रोज़ाना मारता पीटता था और भिक्षा जबरन माँगने का दबाव बनाता था। कई दिनों तक हमें भूखा प्यासा भी रखा जाता था। भूख के सामने बालहठ ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली किन्तु भिक्षा में प्राप्त आय का अधिकाँश भाग वो ले लेता है।"

विदित: "फिर भी भोजन जितना भी नहीं बचता?"

कन्हैया: "प्रतिदिन की भीख से केवल 100 रुपये हमें दिए जाते हैं। कम भीख मांगने पर 100 रुपये भी दूर की कौड़ी है उल्टा जानवरों से भी बदतर तरह से हमें पीटा जाता है।"

विदित: "तो भी 100 रुपये से भी प्रतिदिन भोजन करना संभव है और..."

कन्हैया: (बात काटते हुए) "100 रुपये में संभव है लेकिन 100 रुपये भी तो नसीब में हो। आप नहीं समझ पाओगे गणित।"

माधुरी: "कन्हैया, बेटा तुम समझाओ तो!"

कन्हैया: "आपको क्या लगता है ये सड़क मेरे बाप की है? मैं यहाँ भीख माँगता हूँ तो इस सड़क से निकलते अधिकारी या तंत्री-मंत्री-संतरी नहीं देखते होंगे? वो जो यातायात पुलिस वाला है वो क्यों अपनी आँखें बंद किये हमें यहाँ भीख मांगने देता है? मानवता? छोडो साहब खुल कर बोलना शुरू किया तो न जाने कितने लोगो की धोतियाँ खुल जायेगी। हम भिखारियों की भीख पर न जाने कितने दरिद्र अधिकारियों के पेट पल रहे हैं। बस 20 रुपये में दो समय के लिए भूख मिटाने की जो युक्ति उचित लगती है वही हम सब करते हैं।"

विदित: "और ये आपकी युक्ति आप कहाँ से प्राप्त करते हैं महाराज।"

कन्हैया: "वो सामने जो दुकान है वही है हमारे मसीहा।"

विदित माधुरी की ओर देखते हुए: (व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ) "चलिए हम भी गरीबों के मसीहा से आशीर्वाद ले लें।"

माधुरी: "हाँ अब तो चलना ही पड़ेगा।"

 

दोनों पति पत्नी उस दुकानदार के पास जाते हैं।

माधुरी: "भैय्या, वो लड़का देख रहे हो सामने, कन्हैया, वो 10 या 20 रुपए में कोई द्रव आपसे लेता है वो मिलेगा।"

दुकानदार: "अभी देते हैं।"

माधुरी: "वैसे भैय्या ये किस प्रयोग में आता है।"

दुकानदार: "पेन से गलत लिख जाने पर इससे शुद्ध किया जा सकता है।"

माधुरी: "अच्छा तो ये शुद्ध करने के काम आता है। तो इसका मतलब वो लड़का कन्हैया आपसे ये खरीद कर शुद्ध हो रहा है। लेकिन लिखना पढ़ना तो वो जानता ही नहीं है? फिर.."

दुकानदार: (बीच में रोकते हुए): "आप पुलिस में हो?"

माधुरी: "नहीं"

दुकानदार: "तो क्यों बेकार में पूछताछ सी कर रही हो। करता होगा कोई नशा।"

माधुरी: "मतलब आपको पता है कि वो इससे नशा करता है फिर भी आप इतने छोटे लड़के और उसके दोस्तों को प्रतिदिन ये शुद्ध करने वाला सामान बेचते हो। आपको थोड़ी भी अक्ल है?"

दुकानदार: "ज़्यादा ज्ञान देने की ज़रूरत नहीं है और फिर मेरा सामान बिक रहा है, मुझे मुनाफ़ा (लाभ) हो रहा है, तो मैं क्यों ज़्यादा सोचूँ?"

माधुरी: "मतलब चंद पैसों के लिए आप अपना ज़मीर बेच देंगे, देश बेच देंगे और तो और देश का भविष्य ये बच्चे.."

दुकानदार: (बात काटते हुए): "आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे जब कोई पैसों के अभाव में भूख से मर रहा होता है तो आप उसे और उसके परिवार को दो वक़्त का भोजन उपलब्ध करवाने जाती हो? रहने दो मुझे ज्ञान देकर कोई लाभ नहीं। मैं नहीं बेचूँगा तो ये किसी और से खरीदेंगे। भला नशा की लत किसी की छूटती है?"

विदित: "माधुरी चलो यहाँ से।"

माधुरी और विदित उसी खम्बे के पास वापस पहुँचते हैं जहाँ उन्होंने कन्हैया को छोड़ा था। किन्तु कन्हैया अब वहा नहीं था। तमाम पड़ताल करने पर भी कन्हैया का कोई सुराग न मिलने पर विदित और माधुरी वहां से वापस लौट जाते हैं। शायद उन लड़कों में से किसी ने उस अधेड़ व्यक्ति को सूचित कर दिया हो जिसके चलते वो कन्हैया को कहीं और ले गया हो। रोज़ाना उसी सड़क से निकलते समय निगाहें कन्हैया की तलाश में जैसे व्याकुल होती लेकिन कन्हैया था कि ज़िन्दगी की बहुत बड़ी हक़ीकत बता कर वहां से अदृश्य हो गया था। क्या गलत कहा था उसने। पूरा खेल तो भूख का ही था। चाहें फिर वो भूख रोटी की हो या पैसों की।

किसी ने बेचा, किसी ने खरीदा। क्यों? पैसा!

किसी ने भीख मँगवाई और किसी ने भीख़ मांगते देख कर भी आँखें बंद कर ली। क्यों? पैसा!

कोई समर्थ होकर भी एक भिखारी के पैसों से अपना स्वार्थ जोड़ कर बैठा रहा। क्यों? पैसा!

व्यापारी जान बूझ कर चंद रुपयों के लिए लड़को को ऐसा सामान बेचता रहा जिससे वो नशा कर पाए। क्यों? पैसा!

नशा मुक्ति अभियान सिर्फ पोस्टरों में नशा समाप्त करता है। धरातल पर नशा समाप्त तब होता है जब देश का प्रत्येक नागरिक इसे अपनी ज़िम्मेदारी समझें।

 

माधुरी और विदित ने कन्हैया को ढूंढने का हर भरसक प्रयास किया। पुलिस को उसके लापता होने की भी सूचना दी कि एक रोज़ माधुरी के पास पुलिस का फ़ोन आया।

इंस्पेक्टर: "माधुरी जी से बात हो रही है।"

माधुरी: "जी मैं बोल रही हूँ आप..."

इंस्पेक्टर: "जी मैं थाना हाईवे से इंस्पेक्टर बात कर रहा था। वो कन्हैया के सिलसिले में.."

माधुरी: (अत्यन्त ख़ुशी के चलते बात को काटते हुए): "अच्छा वो मिल गया? कैसा है वो? कहाँ है वो?"

इंस्पेक्टर: "माधुरी जी क्षमा करें। कन्हैया अब इस दुनिया में नहीं रहा।"

ये खबर सुनते ही माधुरी स्तब्ध सी कुछ बोलने जैसी स्तिथि में भी नहीं थी।

इंस्पेक्टर: "आप सुन रही हो? हेलो हेलो?"

माधुरी: "जी! जी मैं.. बताइये"

इंस्पेक्टर: "कन्हैया की लाश एक नाले के पास से बरामद हुई है। शव को परीक्षण हेतु भेजने पर पता चला है कि कन्हैया की मृत्यु खोपड़ी में भयंकर रक्तस्राव के चलते हुई है। कन्हैया के रक्त में नशे का कोई रसायन की उपस्तिथि पाई गई है और भूख के चलते उसकी आँतें सिकुड़ गई हैं।"

माधुरी: "पर ये सब कैसे?"

इंस्पेक्टर: "अनुमान लगाया जा रहा है कि शायद नशे की स्तिथि में नाले के पास से गुज़रते वक़्त इसका पाँव फिसला होगा और सर किसी शिला या पत्थर से ज़ोरदार तरीके से टकराया होगा जिससे खोपड़ी में रक्त स्राव हुआ होगा और मौके पर ही इसकी मौत हो गई होगी। खैर! आप चाहें तो शव को ले जा सकते हैं।"

माधुरी थाना हाईवे के मार्ग पर मोटर कार से बढ़ती हुई गहरी सोच में डूब चली और खुद से ही बातें करने लगी: "विदित सही तो कहते हैं कि भिक्षावृत्ति भी व्यावसायीकृत और व्यावसायिकता से पूर्ण हो चली है। न जाने कितने बच्चे कितने लड़के इसकी भेंट चढ़े होंगे। पता नहीं कन्हैया मरा होगा या मारा गया होगा। मारा ही गया है। उसकी गरीबी, उसकी भूख और उसकी लाचारी ने उसे मार दिया। काश पहले ही दिन हमने उस बच्चे का हाथ थाम लिया होता। काश इस नशे की लत से हम उसे बाहर ला पाते। काश कुछ अधिकारियों ने अपना ज़मीर न बेचा होता। काश चंद रुपयों के लालच में छोटे से उस लड़के को नशे का ज़हर न बेचा गया होता तो काश कन्हैया आज भी ज़िंदा होता।"

 

लेकिन विदित और माधुरी ने कन्हैया को कभी मरने ही नहीं दिया। वो जब भी किसी चौराहे पर किसी "कन्हैया" को भिक्षावृत्ति में संलिप्त पाते या नशा करते हुए देखते वो पूरी ज़िम्मेदारी और अपनी पूरी सामर्थ्यानुसार उसे उससे बाहर लाने का प्रयास करते रहते। शायद कन्हैया उन्हें जीवन जीने की एक वजह दे गया था।...."

 

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

पुरानी विजय नगर कॉलोनी,

आगरा, उत्तर प्रदेश – 282004

(दिनांक 01/जून/2024 को लिखी गई एक कहानी)