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गऊ

अपने परिवार में कई वर्षों से अनवरत एक क्रम देख रहा हूँ जिसमें माँ बिना कुछ खाए स्नानादि करके पूजा इत्यादि के उपरान्त सबसे पहली कुछ रोटियाँ गाय के लिए बनाती हैं और पिताजी बिना समय व्यर्थ नष्ट करें गाय को वो रोटियाँ खिलाने के लिए रास्ते दर रास्ते नापने में लग जाते हैं कि गाय को कुछ थोड़ा भोजन मिल सके। यदि मेरे परिवार के सभी सदस्यों की आस्तिकता को मापने का काम किया जाए तो मेरा मूल्यांकन कहीं निचले पायदान पर किया जाएगा ऐसा मुझे अटूट विश्वास है। फलतः यदि किसी दिन पिताजी किसी कारणवश गाय को रोटी खिला आने में अक्षम होते हैं और कहीं उस कार्य के पूरे करने की उम्मीद मेरी तरफ आती है तो पूरे वक़्त यही एक वाक्य घर में सुनाई देता है, "अभी जा रहा हूँ।" और वो 'अभी' कई घण्टों का हो सकता है।

 

इस क्रम के साथ एक क्रम और जो बिना रुके चलता था, उसमें, पिताजी मुझे अपने दुपहिया वाहन से प्रातः राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़े एक चौराहे तक छोड़ने आते थे जहाँ से अपने कार्यस्थल (निजी विश्वविद्यालय) तक आने हेतु हमारा एक निजी वाहन हमें लेने आता था। 'थे' इसलिए प्रयुक्त किया है क्योंकि ये क्रम उस वक़्त टूट गया था जब मुझे छोड़ने आते वक़्त पिताजी और मैं दोनों दुर्घटनाग्रस्त हुए और उस दुर्घटना में पिताजी के कन्धे की हड्डी टूट गई।

 

बात 2021 दिसम्बर की रही होगी कि हमेशा की तरह पिताजी प्रातः मुझे छोड़ने चौराहे की तरफ चल दिए। रास्ते में प्यारी सी स्वर्णिम त्वचा वाली एक गाय खड़ी थी। देवत्व और गाय में क्या समानता होती है ये उस प्यारे से भोले पशु को देखने मात्र से ही सहज अनुभव किया जा सकता था। दुपहिया वाहन नज़दीक रुकने पर भी उस पशु ने कोई हानि न करते हुए बड़े ही प्रेम भाव से पिताजी की ओर अपना मुँह कर लिया। यद्यपि मेरे आचरण से मेरे आस्तिक होने पर हमेशा प्रश्न चिन्ह लगता रहा है फिर भी उस पशु के देवत्व और प्रेम भाव को देखने मात्र से ही मैंने अनुभव कर लिया था और शायद उसी अनुपात में जिसमें कोई कट्टर आस्तिक करता होगा। आखिर प्रेम शब्दों से परे ह्रदय का प्रत्यय है। उसकी प्यारी सी कंचों (काँच की पारदर्शी गोलियों) जैसी आँखें नम थी जिससे उसकी सुंदरता मासूमियत में कई गुना बढ़ोत्तरी हो रही थी। पिताजी ने अपनी जेब से रोटियाँ निकाली, जो कुछ ही मिनट पहले माँ ने बनाई थी, उसको खिलाया और फिर प्यार से उसके माथे और शरीर को स्पर्श किया और मानो वो अभिवादन सदृश आभार व्यक्त कर रही हो। पिताजी ने मुझे चौराहे तक छोड़ा और वापस चले गए। कर्मभूमि तक पहुँचाने वाले सारथी और उसके रथ के इंतज़ार में चौराहे पर खड़ा हुआ मैं मंत्रमुग्ध सा उस पशु पर मोहित होकर विचारों के अधीन हो चला था कि एकाएक मुझे जनवरी 2019 का एक वाद विवाद स्मरण हो आया। उस वक़्त "पातक" का समय चल रहा था क्योंकि चाचा का देहान्त हुए 6 या 7 दिन ही हुए होंगे। पिताजी ने सूर्य देव के उष्ण ताप से विह्वल पौधों का क्रंदन भाँपते हुए उन्हें जीवन देने जैसा जघन्य अपराध करके स्वयं को धर्म के आगे अपराधी साबित कर लिया था। सूखते पौधों को "पातक" समय में जल देने जैसा अपराध करते वक़्त शायद उन्हें थोड़ी तो शर्म करनी चाहिए थी लेकिन नहीं। तुलसी के पौधे को जल देकर आकर शोक संतप्त रिश्तेदारों के सामने बैठकर स्वयं से उन्हें इस कृत्य से अवगत करवा रहे थे कि अचानक एक वाद विवाद छिड़ गया जहाँ एक बनाम अनेक हो चला। हिन्दू धर्म से लेकर गरुड़ पुराण जैसे बड़े बड़े पुराणों से सन्दर्भ आने लगे कि अचानक ही उस वाद विवाद में मुझ जैसा अनासक्त आस्तिक कूद पड़ा और धर्म के प्रकाण्ड विद्वानों और मेरे निकट रिश्तेदारों से मैंने प्रश्न करना शुरू किया। मेरा पहला प्रश्न था तुलसी पौधा को हिन्दू धर्म में क्या स्थान है? जबाव मिला जो भी हो पर शोक के तरह दिन चल रहे हैं। उत्तर न प्राप्त होने की स्तिथि में मैंने ही उत्तर करते हुए बात आगे बढ़ाई कि तुलसी पौधा को माता लक्ष्मी मानता है हिन्दू धर्म और प्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस ने यह सिद्ध किया था कि पेड़ पौधों में भी जीवन होता है। जो पौधा साक्षात् श्री हरि विष्णु जी की अर्धांगिनी माता लक्ष्मी का ही एक स्वरुप है, जो छः से सात दिन में इस स्तर तक सूख गया है क्या लगता है वो तेरह दिन आपके शोक में मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा। दूसरा प्रश्न था कि शोक में कितने ऐसे परिवारी और रिश्तेदार हैं जो दिवंगत से आसक्ति और प्रेम के चलते तेरहवीं तक भोजन का परित्याग करके बैठे हैं? जबाव इस प्रश्न पर भी प्राप्त न होने पर मैंने उत्तर दिया कि गाय तो सबसे पवित्र जीव माना है हिन्दू धर्म ने ऐसे में धार्मिक स्तर पर न सही मानवीय स्तर पर ही सही, एक जीव की भाँति ही गाय को भोजन करवा देने में भला कौन सा धर्म और उसके सिद्धांत दूषित हो रहे हैं। अंततः निष्कर्ष में सारांश सिर्फ इतना ही कहा कि एक व्यक्ति तो मर ही गए हैं उनके शोक में पौधों को मार कर, जीवों को भूखा रख कर 33 कोटिशः देवी देवताओं को भूखा रखने के अपराध से बड़ा अगर तुलसी के पौधे को जल देना है तो बहुत गलत कर दिया पिताजी ने। अब वो गार्गी और याज्ञवल्क्य जैसे शास्त्रार्थ आज के दौर में सोचना दिवास्वप्न से ज़्यादा कुछ भी नहीं है अतः मेरे द्वारा ज्ञान की बात से वो अंधभक्त और झूठे ज्ञान के अहंकारी का चोटिल होता अहम् उनके हाव-भाव से स्पष्ट ही परिलक्षित हो रहा था। इन्हीं विचारों को सोचते सोचते निजी वाहन गंतव्य की ओर ले जाने हेतु आ चुका था। मेरा मन उस जीव को देखकर प्रेम भाव में डूब चुका था। निजी विश्वविद्यालय में उस वक़्त परीक्षाओं का दो पालियों में आयोजन हो रहा था। दोनों पालियों में भी सेवा देने के बाद उस दिन मन में एक अलग ही शान्ति थी।

 

शाम को विश्वविद्यालय से वापस लौटते वक़्त सभी सहकर्मी आपस में बातचीत कर रहे थे कि अचानक उस निजी वाहन की एक ज़ोरदार टक्कर हुई। कोई कुछ समझने जैसी स्तिथि में जैसे था ही नहीं। आखिर ऐसा क्या था जिसकी टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि अचानक ध्यान आगे सड़क पर गिरे पड़े हुए एक बछड़े की ओर गई। चालक ने बताया कि किसी ने राजमार्ग के दूसरी तरफ बछड़े को छेड़ा जिस कारण बछड़ा अचानक दौड़ पड़ा। दौड़ता दौड़ता वो बछड़ा अचानक से वाहन के आगे आ गया। चालक ने वाहन को नियंत्रित करने का प्रयास किया किन्तु विफ़ल रहा। वाहन में सवार सभी लोगों के चेहरे के उड़े हुए हाव भाव से उनके दुःख को स्पष्ट ही जाना जा सकता था।

 

मेरी दृष्टि उसी बछड़े की ओर थी जिसके पेट और घुटनों से रक्त छलक रहा था। बछड़ा स्वयं से उठने के तमाम प्रयास कर रहा था किन्तु उसका घायल शरीर उसके मनोबल को जीतने नहीं दे रहा था। स्थानीयों ने आकर उस बछड़े को सड़क से दूर ले जाने का प्रयास किया तो उसका घुटना 360 डिग्री के कोण में घूम रहा था। मेरी क्रियात्मकता एक कल्पना का सृजन करने लगी जो निःसंदेह मेरे मन की वेदना का परिणाम था। उस कल्पना में मेरे सामने बस एक ही दृश्य बार बार सजीव हो रहा था जिसमें वो छोटा बच्चा उस दर्द में प्रेम और वात्सल्य से भरे माँ के मातृत्व की छाँव चाह रहा है जैसे शायद वही उस पीड़ित के दर्द को कम कर सकता हो और तभी अपने बच्चे की प्रतीक्षा में रत माँ के सामने उसका घायल बच्चा ले जाया जाता है और वो अपने बच्चे को देखकर बस रो रही है, ईश्वर को कोस रही है कि आखिर उसका अपराध क्या है जिस कारण उसका बच्चा इतने दर्द में तड़प रहा है। "माँ का दर्द" गऊ शब्दों में भी वर्णन करने में अक्षम हैं क्योंकि उसकी भाषा इंसानी भाषा से बिलकुल विपरीत है।

 

पूरे वाहन में जैसे मातम पसर गया था। कुछ गाय को लेकर चिंतित थे और कुछ अपने जीवन को लेकर। कुछ राहगीरों ने चालक को समझाया कि यहाँ रुकना सुरक्षित नहीं है क्योंकि गाँव वाले सही गलत नहीं समझेंगे अतः चालक ने वाहन चला दिया। उस चिंता से पूरे वाहन में मौन पसर गया था। इसी मौन के बीच वाहन मेरे उस चौराहे वाले स्थान तक आ गया था जहाँ से वो मुझे कार्यस्थल ले जाता था। अपने स्थान से घर तक की पदयात्रा में अपनी माताजी को फ़ोन कॉल पर पूरा प्रकरण बताते वक़्त मैं अत्यंत भावुक हो चुका था क्योंकि ये वही पशु था जिसकी मासूमियत से मेरे पूरे दिन में अत्यंत आनंद व्याप्त रहा। सुबह और शाम का दृश्य वर्णन करते वक़्त आँखों में आँसू थे और वहीँ दूसरे अंत पर मेरे माताजी-पिताजी भी दोनों भावुक हो चले थे।

 

ईश्वर ही जानते होंगे कब वो प्यारा पशु स्वस्थ हुआ होगा। गऊ और देवत्व का सम्बन्ध अब स्पष्ट हो चुका था। प्रेम हृदय का प्रत्यय है। विशालकाय होने के बाद भी मातृत्व, प्रेम और वात्सल्य से पूर्ण देवतुल्य पशु गऊ ही हो सकती है। आखिर ऐसे ही नहीं गऊ को हिंदुत्व में परम स्थान दिया गया है।…

 

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

आगरा, उत्तर प्रदेश

(दिनांक 28/अप्रैल/2023 को लिखा गया एक लेख)

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