वाणिज्यिकृत ईश्वर Mayank Saxena Honey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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वाणिज्यिकृत ईश्वर

वाणिज्यिकृत ईश्वर

 

जब ईश्वर ने इंसान बनाया तब संभवतः ईश्वर भी इस बात से अनभिज्ञ होगा कि एक दिन इंसान ईश्वर बनाएगा। कहते थे भक्त से ईश्वर हैं और ईश्वर से उनका भक्त लेकिन वर्तमान में इसकी परिभाषा परिवर्तित हो गई है और हो भी क्यों न आखिर परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है। आज कहते हैं कि धन से ईश्वर हैं और ईश्वर से धन है। अगर आपकी जेब में धन है तो ईश्वरीय मूर्ति के प्रहरी आपको मूर्ति के निकट आने की अनुमति देंगे और आपके चढ़ावे के अनुरूप वो प्रहरी आपको भावी धन, वैभव, सम्पदा के दिवास्वप्न दिखाएंगे और धन के अभाव में बाहर का रास्ता। अनाज मण्डी, फल मण्डी और सब्जी मण्डी के बाद जो सर्वाधिक चर्चा का विषय है वह ईश्वर की मण्डी। इन प्रहरियों ने ईश्वर का भी वाणिज्यीकरण कर दिया है। बड़े बड़े शहर खुला ईश्वर मण्डी बने हुए हैं। प्रहरियों ने आस्था का गला घोंठ कर अपनी दुकान पर गल्ला जमा दिया है। एक ही दुकान में रखी तमाम मूर्तियों पर चढ़ावे की रकम भी अलग अलग है और प्रत्येक मूर्तियों के प्रहरी की प्रतिक्रिया भी उस रकम के अनुसार निर्धारित होती है। चरणपुष्प चाहिए तो अलग रकम चुकानी है; प्रसाद के लिए एक अलग रकम है और टीका के लिए एक अलग रकम।

एक दौर था जब ये प्रहरी कहते थे कि ईश्वर इतना दान दिलवा देना कि आपकी विधिपूर्वक पूजा संभव हो सके साथ ही उस दिन उस प्रहरी को भूखा न सोना पड़े। आज के प्रहरी की आकांक्षाएं असीमित हो चली है, कहते हैं:

साईं इतना दीजिये, तिजोरियों में जो न समाए।

सीए ताउम्र गिनता रहे और आयकर विभाग भी न गिन पाए।।

                   इन दुकानों के नियम भी व्यक्ति दर व्यक्ति अलग अलग होते हैं। नियमित ग्राहक के लिए अलग नियम और अन्य ग्राहकों में एक साधारण-एक विशिष्ट। ये साधारण ग्राहक अत्यंत भोला है। अत्यंत भोले लोग वर्तमान युग में मूर्ख की उपाधि से सम्मानित होते हैं अतः ये मूर्ख ग्राहक जो आस्था के आधार पर ईश्वर से मिलने की इच्छा रखते हैं वो प्रहरी के नियमों में उलझ जाते हैं। वो लम्बी-लम्बी कतारें, और उसमें धक्के खाते मूर्ख। वही दूसरी और जो विशिष्ट हैं वो प्रहरी को एक निश्चित शुल्क की अदायगी करते हुए निर्बाध ईश्वरीय मूर्ति के निकट पहुँच जाते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर के वाणिज्यीकरण का ज्ञान भी था और बटुए में पैसा भी था।

अभी एक शहर की बड़ी मण्डी की एक बड़ी दुकान में जाने का मौका लगा तो वहाँ बड़े बड़े सूचनापट लगे थे कि श्रृंगार पचास हज़ार एक, आरती इक्कीस हज़ार एक, प्रसाद भोग दस हज़ार एक। और तभी बचपन का एक किस्सा याद आया, मैं उस वक़्त 15-16 वर्ष का था, जहाँ मेरी बड़ी बहन को लड्डू गोपाल जी को झूला झुलाने से ये कारण बताते हुए एक बड़ी मंडी के एक दुकान प्रहरी ने रोक दिया कि इक्यावन रुपये में बस आप हाथ जोड़ सकते हो, अगर झूला झुलाना है तो कम से कम एक सौ इक्यावन चढ़ावा चढ़ाना पड़ेगा और ऐसी बातें वो प्रहरी सभी से कह रहा था।

लोगों ने व्यापार के लिए ईश्वर को भी एक माध्यम बना लिया है। ईश्वर स्वयं ऐसे मन्दिरों से झोला उठा कर चल दिए हैं जहाँ भक्त भक्त की आस्था में पुरोहित फ़र्क़ कर रहे हैं। वाणिज्यिकृत ईश्वर वर्तमान युग के कलयुग होने का प्रमाण है।

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

आगरा, उत्तर प्रदेश

(दिनांक 05/मार्च/2023 को लिखा गया एक लेख)