Akhbaar Wala books and stories free download online pdf in Hindi

अखबार वाला

"न्यूज़ पेपर, न्यूज़ पेपर" हमेशा की तरह रट लगाते हुए 'श्लोक' ने श्याम बाबू के घर पर दस्तक दी। श्लोक अखबार दरवाज़े पर रखकर जा ही रहा था कि अचानक से घर का प्रवेश द्वार खुला। आज अखबार उठाने कोई सुन्दर युवती आई थी। साँवली और आकर्षक काया, सुन्दर नयन-नक्श, घुँघराले बाल और गुलाबी होंठ की स्वामिनी वह 'प्रिया' थी। श्लोक पल भर के लिए वहीँ ठहर सा गया। प्रिया को श्लोक के उसकी ओर देखने का एहसास हुआ अतः वह क्रोधित होकर बड़बड़ाती हुई दरवाज़ा बंद करके अंदर को चली गई। श्लोक अभी भी सम्मोहित सा द्वार की ओर ही देखे जा रहा था कि एकाएक उसे याद आया कि आज से कॉलेज खुल रहा है और उसकी क्लास है। श्लोक ने एक माह पहले ही शहर के नामचीन कॉलेज में विधि में स्नातक पाठ्यक्रम (एल एल बी) में दाख़िला लिया था और यह दाखिला भी उसे देशस्तर की प्रवेश परीक्षा में पहली रैंक प्राप्त करने के कारण मिला था। यहाँ तक कि इस उपलब्धता के चलते कॉलेज ने उसका शुल्क भी माफ़ कर दिया था। श्लोक अच्छी कद काठी वाला हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति था। उसकी कंजी आँखें थी और उसके नीचे काले घेरे थे। ये काले घेरे भी इसलिए पड़ गए थे क्योंकि श्लोक सुबह जल्दी उठकर अखबार बाँटता था और दिन भर अन्य घरेलू कामों को करके देर रात तक पढ़ता था। उसकी एक छोटी बहन भी थी, जिसका नाम प्रतिज्ञा था।

श्लोक जल्दी से अखबार बाँट कर घर पहुँचकर जल्दी से तैयार होकर कॉलेज के लिए निकल जाता है। श्लोक वक़्त का पाबन्द था, उसे कहीं भी जाना होता तो वो समय से पाँच दस मिनट पहले ही पहुँचता था। श्लोक कॉलेज पहुँच कर कक्षा की ओर जा ही रहा था कि अचानक उसकी निगाह प्रिया की ओर पड़ी जो अपनी दोस्त प्रीति के साथ कॉलेज के पार्क में बैठी हुई बात करने में खोई हुई थी। श्लोक पुनः सम्मोहित सा उसे देखने लगा कि बात करते करते प्रिया की नज़र श्लोक की ओर पड़ी। प्रिया गुस्से में बड़बड़ाने लगती है।

प्रीति (प्रिया से): "क्या हुआ प्रिया, क्या बड़बड़ा रही हो? बात क्या है?"

प्रिया: "तुम उस लड़के को देख रही हो?"

प्रीति: "कौन, वो सामने? श्लोक?"

प्रिया: "हाँ, कोई सा भी लोक हो। ये सुबह से मुझे देखे जा रहा है। जी तो करता है इसकी आँखें नोच लूँ। बेवक़ूफ़ अखबार वाला।"

प्रीति (प्रिया से): "क्या तुम वही लड़के की बोल रही हो जो ठीक सामने खड़ा है?"

प्रिया: "हाँ बहन उसी लड़के की बोल रही हूँ।"

प्रीति: "तुम्हे पता है ये कौन है?"

प्रिया: "हाँ दो टके का अख़बार वाला।"

प्रीति: "ये और अखबार वाला, ये तो...."

(अचानक क्लास के लिए ज़ोर से घण्टी बजती है)

प्रिया: "छोड़ ये, जल्दी से क्लास चल मैं पहले दिन देरी से नहीं पहुँचना चाहती।"

और इसी के साथ सारे विद्यार्थी क्लास में पहुँच जाते हैं।

लेक्चर पूरा होने के बाद श्लोक प्रिया से दोस्ती के लिए पूछने का निर्णय करता है।

50 मिनट के लेक्चर के बाद पुनः ज़ोर की घण्टी बजती है और प्रिया प्रीति के साथ क्लास से बाहर चल देती है। बात करने के विचार से श्लोक उनके पीछे चल देता है। थोड़ा आगे जाने पर प्रिया को एहसास होता है कि कोई उसका पीछा कर रहा है। प्रिया जैसे ही मुड़ कर देखती है कि क्रोध के आवेश में आपे से बाहर होकर श्लोक की तरफ आकर उसके गाल पर एक ज़ोर का थप्पड़ मार देती है।

प्रिया (श्लोक से): "तुम अपने आप को समझते क्या हो? सुबह से तुम मुझे घूर रहे हो अब पीछा कर रहे हो। अगर मैं चाहूँ तो तुम्हें दो मिनट में अन्दर करवा सकती हूँ। मेरे पिताजी इस कॉलेज के ट्रस्टी और सत्ताधारी पार्टी के एक कद्दावर नेता हैं। आज के बाद तुमने कभी भी कहीं भी मेरा पीछा करने की या मुझे घूरने की कोशिश की तो तुम ज़िन्दगी भर नहीं भूलोगे कि तुम्हारा पाला किस्से पड़ा था।"

प्रीति: "प्रिया बस करो, चलो यहाँ से।"

प्रिया: "विधि पड़ने आया है बेअकल को इतना भी नहीं पता कि ये सब अवैधानिक है।"

श्लोक ने ऐसा सपने में भी कभी न सोचा था कि दोस्ती का सिला दुश्मनी होगी और फूल चुनने में काँटा पहले चुभेगा। लेकिन उसे ये बेशक पता था कि पत्थर फलदार पेड़ को ही पड़ते हैं। और फिर नारीप्रधान विधि के दण्ड से बचने के लिए दिल किसको और कैसे दिखाएगा? कौन देखेगा उसकी भावनाओं को, और कैसे? ऐसा सोचकर श्लोक वहां से अगले लेक्चर के लिए अपने क्लासरूम की ओर चला जाता है।

उस दिन के बाद से श्लोक ने प्रिया की ओर देखना तक बंद कर दिया और तो और अखबार डालने का काम भी बंद कर दिया।

अगले दिन सुबह आवाज़ आई, "आज की खबर, आज की खबर"। प्रिया ने दरवाजे पर जाकर जब देखा तो वो बहुत खुश हुई। ये अखबार डालने वाला श्लोक नहीं था। मन ही मन अपनी दबंगई पर खुश होने लगी कि अच्छा सबक सिखाया उस गँवार अखबार वाले भीखमंगे को। कि एकाएक उसकी निगाह मुख्य पृष्ठ के कोने में छपे एक इंटरव्यू पर गई। अरे ये तो उसकी फोटो है। अरे ये तो वो अखबार वाला है। इस अनपढ़ गरीब की खबर, आखिर छपा क्या है ऐसा सोच कर उस इंटरव्यू को पढ़ने लगी।

पहला प्रश्न था, "आपको कैसा लग रहा है? आपने अखिल भारतीय विधि प्रवेश परीक्षा में प्रथम रैंक हासिल की है।"

श्लोक: "जी, मुझे बेहद ख़ुशी है।"

प्रिया हतप्रभ होकर अपनी आँखों पर भरोसा नहीं कर पा रही है, "ये और इतना होशियार!", आगे देखती हूँ क्या छपा है।

रिपोर्टर: "आपको स्वयं प्रधानमंत्री जी ने व्यक्तिगत शुभकामनायें दी, उस पर आप कुछ कहना चाहेंगे?"

श्लोक: "जी। मेरे लिए ये सौभाग्य की बात है कि स्वयं प्रधानमंत्री जी ने मुझे इस काबिल समझा जो अपनी शुभकामनाये व्यक्तिगत तौर पर मुझे भेजी। मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूँ।"

प्रिया (स्वयं से): "प्रधानमंत्रीजी से शुभकामनाएं! मुझे भरोसा नहीं होता!"

रिपोर्टर: "आपने वो ही कॉलेज को क्यों चुना जबकि आप देश के नंबर एक लॉ कॉलेज में भी दाखिला ले सकते थे?"

प्रिया (स्वयं से): "मेरा मन कुढ़ाने के लिए और क्यों लिया होगा"

श्लोक: "इस कॉलेज का चयन मैंने तब किया था जब यहाँ के ट्रस्टी श्री अलोक मेहता जी ने मुझे व्यक्तिगत तौर पर दाखिला लेने का अनुरोध किया। साथ ही मेरी पूरी फीस माफ़ करवाने और किताबों का पूरा खर्च वहन करने का आश्वासन भेजा। यकीनन कोई कॉलेज बुरा नहीं होता और फिर ये तो मेरे अपने शहर का नामी कॉलेज है।"

प्रिया (स्वयं से): "आलोक मेहता!", "मतलब पापा ने इसको..."

रिपोर्टर: "आपके घर में कौन कौन है?"

श्लोक: "मैं और मेरी छोटी बहन प्रतिज्ञा।"

रिपोर्टर: "और माता पिता?"

श्लोक: "जी वो इस दुनिया में नहीं रहे। आज से तीन वर्ष पहले एक कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।"

प्रिया (पुनः स्वयं से): "मतलब कार भी थी इसके यहाँ!"

रिपोर्टर: "आप भविष्य में क्या बनना चाहते हैं?"

श्लोक: "अपने पिता की तरह एक अच्छा न्यायाधीश।"

रिपोर्टर: "वो कहाँ न्यायाधीश थे?"

श्लोक: "हमारे ही राज्य के उच्च न्यायलय में।"

प्रिया (स्वयं से): "इतने बड़े जज का बेटा और अखबार....!! मुझे तो अपनी आखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा।"

रिपोर्टर: "और कुछ बताना चाहेंगे आप अपने बारे में?"

श्लोक: "जी। मैंने अपने पिताजी माताजी के समय में कभी कोई अभाव नहीं झेला। समृद्ध परिवार था हमारा। उस कार दुर्घटना में पिताजी की तत्काल मृत्यु हो गई थी जबकि माँ काफी दिनों तक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत से लड़ती रही। माँ पुनः ठीक होंगी इस आशा में जैसा चिकित्सकों ने कहा हमने किया। जितना जहाँ खर्च बताया उतना दिया, किन्तु अंत में माँ ने भी हमारा साथ छोड़ दिया। फिर मैंने अचानक से आए अभाव झेले। ज़िन्दगी का मर्म जाना और गुज़र बसर के लिए कई जगह नौकरी की। पर जाना कि लोगों की नीयत बड़ी गन्दी है। पूरा काम करवा कर पैसा मार लेते हैं। तब ये सोचकर कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता मैंने अखबार डालने का निर्णय किया। लेकिन अखबार डालते वक़्त मैंने शायद किसी के ह्रदय को ठेंस पहुंचा दी इसलिए कल से मैं अखबार न डालकर अपना वक़्त पढ़ाई को दूंगा।"

रिपोर्टर: "आपके भविष्य की मंगलकामना करते हैं।"

श्लोक: "धन्यवाद।"

प्रिया को उस खबर को पढ़ने के बाद यह एहसास हुआ कि शायद उससे श्लोक को समझने में कुछ भूल हुई है। श्लोक अच्छे घर परिवार का लड़का था और उसने उसका स्तर अखबार डालने से अनुमान लगाया। प्रिया ने सोचा वह अपने किये का पश्चाताप करेगी और श्लोक से क्षमा मांगेगी।

प्रिया समय से कॉलेज के लिए रवाना हुई। कॉलेज पहुँचा तो देखा भीड़ लग रही है। उसी भीड़ से प्रीति बाहर आती दिखी। प्रिया ने प्रीति को आवाज़ देकर बुलाया और पूछा कि आखिर ये भीड़ जमा क्यों है?

प्रीति (प्रिया से): "तुझे पता है कल जिस लड़के को तूने थप्पड़ मारा था वो All india first ranker है। उसका एक और इंटरव्यू आज प्रकाशित हुआ है।"

प्रिया: "एक और? पहला कब हुआ था?"

प्रीति: "कल ही तो हुआ था प्रसारण। बड़े बड़े न्यूज़ चैनल पर।"

प्रिया: "तो कल तू मुझे बता नहीं सकती थी, मैंने न जाने उसको क्या समझ कर उसके गाल पर एक थप्पड़ जमा दिया।"

प्रीति: "मैंने तुझे कल भी बताने की कोशिश की थी पर क्रोध के आवेश में तू असामान्य होकर न जाने कैसा व्यवहार करने लगी थी। सुनने की स्तिथि में तो जैसे थी ही नहीं। न्यायाधीश के बेटे और इतने मेधावी छात्र को पता नहीं तूने कौन कौन से कानून समझा दिए।"

प्रिया: "अब तू मुझे सुनाती ही रहेगी या उससे बात भी करवाएगी मेरी?"

प्रीति: "मैं क्यों करवाऊंगी भला? क्या मुझसे पूछ कर तूने उसे थप्पड़ मारा था?"

प्रिया: "चल तो कम से कम मेरे साथ। कैसी दोस्त है, न जाने कितना सुना रही है। भीड़ कम होते ही दोनों उससे बात करने चलेंगे।"

और इसी के साथ दोनों भीड़ के कम होने का इंतज़ार करने लगते हैं। लगभग आधे घण्टे के बाद जब भीड़ छँटी तो प्रिया और प्रीति श्लोक के पास पहुँचे।

प्रिया (श्लोक से): आज तुम अखबार डालने नहीं आये?

श्लोक: "तुम्हें पसंद नहीं था इसलिए।"

प्रिया: "कल के अपने व्यवहार के लिए मैं शर्मिंदा हूँ लेकिन कल तुम हमारा पीछा क्यों कर रहे थे?"

श्लोक: "तुमसे दोस्ती का पूछने के लिए।"

प्रिया: "तुम पापा से मिल चुके हो, कल ये तुमने क्यों नहीं बताया?"

श्लोक: "तुमने कुछ कहने लायक छोड़ा कब था।"

प्रिया: "अच्छा, कल के लिए माफ़ी। और अगर तुम चाहो तो हम दोस्त बन सकते हैं।"

श्लोक: "सोच लो।"

प्रिया: "सोच लिया।"

और इसी के बाद दोनों अक्सर मिलने लगे। कैन्टीन में साथ कॉफी पीने से लेकर, क्लास में एक साथ बैठने तक। बाहर एक साथ घूमने जाने से लेकर, एक साथ पढाई करने तक। सब कुछ। और तो और अब तो प्रिया श्लोक के घर भी पढाई के बहाने से जाने लगी। शायद प्रिया को श्लोक कुछ ज़्यादा ही पसंद आ गया था। एक रोज़ प्रिया ने श्लोक को अपने दिल का हाल सुना दिया कि वह श्लोक को दोस्त से बढ़कर मानने लगी है। श्लोक ने उससे पूछा कि क्या उसके पिता आलोक अंकल मानेंगे? क्या प्रिया के चाचा श्याम बाबू मानेंगे?

प्रिया ने कहा "पता नहीं लेकिन दस दिन बाद तीन दिनों के लिए मैं अपने पिता के पास जा रही हूँ। वहाँ उनसे पूछकर, उनको मनाकर फिर तुम्हें उनका निर्णय मैसेज से भेजूंगी। अगर उनका निर्णय हाँ हुआ तो क्या तुम मेरे घर आओगे?"

श्लोक: "मैं चाहें आऊं या ना आऊं लेकिन तुम जब भी महसूस करोगी मुझे अपने पास पाओगी। और हाँ उनको बता देना कि मैं एक अख़बार वाला हूँ।"

प्रिया (तुनक कर): "तुम मुझ पर तंज कस रहे हो न"

श्लोक: "नहीं, बिल्कुल नहीं। मेरे कहने का आशय है कि अपनी औकात से क्यों भागना भला।"

प्रिया: "हाँ मैं देख लूँगी कि मुझे क्या कितना बोलना है, तुम चुप रहो।"

और इसी के साथ दस दिन का समय ऐसे ही मिलते जुलते, बातचीतों में व्यतीत हो जाता है और वक़्त आ ही जाता है जब प्रिया अपने घर जाने के लिए निकल रही होती है।

प्रिया (श्लोक से): "अपना ध्यान रखना और प्रतिज्ञा का भी।"

श्लोक (दुःखी मन से): "हमारा ध्यान तो तुम्हे ही रखना है।"

प्रिया: "हाँ मैं ही रखूंगी। पर अभी मुझे चलना होगा। अगर उनका हाँ हुआ तो तुम मुझसे वहां मिलने आओगे।"

श्लोक: "मैंने तुम्हें बोला तो मैं तो हमेशा ही तुम्हारे साथ हूँ। जब मन करे महसूस कर लेना।"

और इसी के साथ प्रिया अपने घर के लिए ट्रेन से निकल जाती है। घर पहुँचकर प्रिया आलोक बाबू को सब बता देती है। आलोक बाबू बताते हैं कि जब वह उसी शहर में रहते थे जहाँ उसके भाई श्याम बाबू रहते हैं, तब श्लोक के पिताजी ने आलोक बाबू के कई राजनीतिक प्रकरणों में उनकी सहायता की थी और फिर श्लोक सुन्दर है, मेधावी है तो भला हम कैसे मना कर सकते हैं। प्रिया ये सब सुनकर मन ही मन अतिप्रसन्न हो रही थी। प्रिया ने तत्काल अपने कक्ष में पहुंचकर श्लोक को मैसेज किया कि उसका परिवार इस रिश्ते को राजी है और श्लोक को अब उससे मिलने आना चाहिए। श्लोक ने बहुत समझाया कि दो और दिन की बात है फिर तो प्रिया वापस लौट आएगी लेकिन प्रिया एक सुनने की मनोदशा में नहीं थी। स्त्रीहठ के सामने तो भला देवता भी हार जाए फिर श्लोक क्या बेचता था। अतः श्लोक ने आने का आश्वासन दे दिया। श्लोक के आगमन की सूचना प्रिया ने अपने घरवालों को भी दे दी और श्लोक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। अगले ही दिन दोपहर दो बजे तक श्लोक को प्रिया के घर पहुँच जाना था। प्रिया दोपहर 12 बजे से श्लोक की यादों में खो गई कि अचानक उसके कक्ष के द्वार पर खटका लगा। प्रिया ने उठकर देखा तो ये और कोई नहीं श्लोक था।

प्रिया: "श्लोक तुम! तय समय से पूरा एक घंटा पहले आए। क्या बात है। समय की पाबन्दगी हो तो ऐसी हो।"

श्लोक: "प्रिया, तुमने बुलाया तो मुझे तो आना ही था। आखिर अपना वायदा जो पूरा करना था।"

प्रिया: "अब हम कभी अलग नहीं होंगे। ये विरह का ताप मेरे अन्तर्मन की देह को प्रतिपल जलाता है।"

श्लोक: "मिलन और विरह तो नियति निश्चित करती है। बस तुम एक वायदा करो।"

प्रिया: "कैसा वायदा? बोलो।"

श्लोक: "प्रतिज्ञा का ध्यान रखोगी।"

प्रिया: "ये भी कोई कहने की बात है।"

इसी बीच प्रिया की माँ सुनैना प्रिया प्रिया ज़ोर से चिल्लाती हैं। प्रिया अपने कक्ष से बाहर भागती है।

सुनैना: "श्लोक किस ट्रैन से आने वाला था?"

प्रिया: "आगरा भोपाल सुपरफास्ट"

सुनैना: "अभी खबर लगी है कि ये ट्रैन बेपटरी हो गई है और सभी यात्री मारे गए हैं एक के भी बचने की खबर नहीं है।"

प्रिया: "लेकिन माँ श्लोक आ चुका है मेरे ही कमरे में है।"

प्रिया श्लोक श्लोक करके अपने कमरे की ओर वापस भागती है। पर अब वहां कोई नहीं है। कमरे का सन्नाटा सांय सांय करके अलग ही पीड़ा दे रहा है कि अचानक प्रिया को श्लोक की बात याद आती है "मैं चाहें आऊं या ना आऊं लेकिन तुम जब भी महसूस करोगी मुझे अपने पास पाओगी।" शायद प्रिया श्लोक की याद में इतना डूब गई कि उसे एहसास नहीं हुआ कि कब पल भर के लिए श्लोक उससे मिलकर चला भी गया। प्रिया वहीँ बेड पर बैठी फूँट फूँट कर रोने लगी। उसे एक एक करके वो सब स्मरण होने लगा कि कैसे एक अखबार वाला उसकी ज़िन्दगी में आया और अखबार की खबर बनकर हमेशा के लिए चला गया। उसे खुद पर गुस्सा आने लगी कि आखिर उसने क्यों श्लोक से आने की ज़िद की जबकि वो नहीं आना चाह रहा रहा और यही सोच सोच कर पागलों की तरह चीखने चिल्लाने लगी। शायद उसके व्यथित और शोक संतृप्त मन का वर्णन शब्दों के माध्यम से संभव न होगा। शायद ईश्वर को भी उस अखबार वाले से इतना प्रेम हो गया था कि प्रिया मिलन से पहले उन्होंने अपने मिलन की नियति रच दी। लेकिन श्लोक प्रिया के लिए आज भी नहीं मरा। एकांत में बैठ जब भी प्रिया उसे सोचती है अश्रुपूरित नयनों से भी उसे साफ़ साफ़ देख पाती है। शायद उनका प्रेम सब बंधनों से मुक्त, पारलौकिक था।

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

पुरानी विजय नगर कॉलोनी,

आगरा, उत्तर प्रदेश – 282004

(दिनांक 30/अगस्त/2021 को लिखी गई एक कहानी)

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED