रानी श्रीगणेशदेईजी Renu द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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रानी श्रीगणेशदेईजी


काशीवाले महाराज श्रीअनिरुद्धसिंहजी (करैया-दतिया) महान् धर्मात्मा थे। इनकी रानी का नाम विजयकुँवरि था। ये भी भगवद्भक्ता एवं पतिव्रता थीं। निरन्तर धर्माचरण-परोपकार के फलस्वरूप वि० संवत् १५६९ में इनके यहाँ एक पुत्री का जन्म हुआ। जिसका बाल्यकाल में कमला, फिर गणेशदेई नाम प्रसिद्ध हुआ। इन पर माता-पिता का अपार वात्सल्य था। माता ने पुत्री को श्रीविश्वनाथभगवान् की उपासना का उपदेश दिया। भोरी-भारी कन्या के सहज-प्रेम पर भगवान् विश्वनाथ रीझ गये और उन्होंने कृपा करके श्रीरामभक्ति का श्रेष्ठ वरदान दिया। वि० संवत् १५९६ में ओरछा नरेश महाराजा मधुकरशाह के साथ आपका विवाह हुआ। ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाहजी अनन्य श्रीकृष्णभक्त थे और उनकी रानी श्रीगणेशदेईजी श्रीरामजी की अनन्य उपासिका थीं। एक बार श्रावण के महीने में झूलन के उत्सव पर श्रीमधुकरशाहजी तो वृन्दावन आये और रानी श्रीगणेशदेईजी ने अयोध्या की यात्रा की। उत्सव समाप्त होने पर महाराज श्रीमधुकरशाह जी तो ओरछा चले गये, परंतु श्रीगणेशदेई जी अयोध्या से नहीं लौटीं। महाराज मधुकरशाहजी ने दो-चार बार पत्र भी लिखा कि मैं श्रीवृन्दावन से आ गया, अब तुम भी अयोध्या से चली आओ। परंतु श्रीगणेशदेईजी का श्रीअवध में ऐसा मन रमा कि उनका ओरछा जाने का मन ही नहीं करता था। अन्त में श्रीमधुकरशाहजी ने खिसियाकर पत्र लिखा कि 'बार-बार बुलाने पर भी नहीं आती हो, लगता है कि अबकी बार श्रीरामजी को लेकर ही लौटोगी।' राजा की यह बात महारानी गणेशदेई को लग गयी। इन्होंने प्रेमावेश में राजा को पत्र लिख दिया कि सचमुच अब तो मैं श्रीप्रभु को लेकर ही ओरछा को आऊँगी, अन्यथा यहीं शरीर छोड़ देंगी।'

इसके बाद महारानी श्रीगणेशदेई जी ने मन में विचार किया कि राजा हमारे प्रेम का उपहास कर रहे हैं। अरे, हमारे समान तो श्रीराजाराम की न जाने कितनी दासियाँ हैं। यदि सबकी सब आग्रह करें तो श्रीराम श्रीअयोध्या का सुख छोड़कर दासियों के साथ कहाँ-कहाँ जायँगे। फिर धाम छोड़ने का हठ कौन करेगा? कहा गया है— जो सेवक साहिबहिं संकोची। निज हित चहै तासु मति पोची उधर बिना प्रभुको लिये मैं ओरछामें पाँव नहीं रख सकती; क्योंकि तब तो राजा मेरा और मेरे प्रभु का और भी अधिक उपहास करेंगे। यह सब सोचकर रानी प्रेम के कारण अत्यन्त विकल हो गयीं। इन्हें प्रभु का वियोग व्याप गया। जब विरह असह्य होने लगा तो रानी तन-त्याग का संकल्प कर श्रीसरयूजी में कूद गयीं। परंतु यह क्या? अगाध जलराशि में कूदते ही श्रीरघुनाथ जी इनकी गोद में आ गये और रानी को श्रीसरयूजी के प्रवाह से बाहर निकाल लाये और बोले—चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारे साथ सहर्ष ओरछा चलने के लिये तैयार हूँ। श्रीप्रभु का दर्शनकर एवं कृपामय वचनों को सुनकर रानी परमानन्दसिन्धु में मग्न हो गयीं।

रानी ने उस दिन श्रीअयोध्या में बड़ा-भारी उत्सव मनाया और तुरंत महाराज मधुकरशाह को पत्र लिखा कि मैं प्रभु को लेकर आ रही हूँ, आप प्रभु के स्वागत की तैयारी करें। पत्र पढ़ते ही राजा को महान् हर्ष हुआ। उन्होंने तुरंत राजाराम के स्वरूपानुरूप विशाल मन्दिर बनवाने का हुक्म दे दिया और स्वयं श्रीरामजी के स्वागतार्थ बहुत बड़े लाव-लश्कर को साथ लेकर श्रीअयोध्या आये। शुभ मुहूर्त पुष्य नक्षत्र में प्रस्थान की तैयारी हुई। प्रस्थानकाल में राजा ने साधु-ब्राह्मणों का दान-मान से बहुत बड़ा सत्कार किया और सबकी आज्ञा एवं आशीर्वाद लेकर महाराजोचित साज-समाज के साथ बड़े समारोहपूर्वक ओरछा के लिये प्रस्थान किया। राजारानी ने यात्रा का नियम यह बना रखा था कि केवल पुष्य नक्षत्र में चलते थे। इसके बाद विश्राम करते थे। महीनेभर एक जगह पड़ाव पड़ा रहता। महाराजोपचार विधि से अनेकानेक उत्सव होते रहते । जब पुनः पुष्य नक्षत्र युक्त शुभमुहूर्त आता तब प्रस्थान करते । इस प्रकार विविध उत्सव सुख-समारोहपूर्वक पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करते हुए श्रीराजाराम ओरछा आये। यहाँ आनेपर राजा-रानी ने बहुत बड़ा उत्सव मनाया। संयोग की बात ओरछा आने तक मन्दिर बनकर तैयार नहीं हो पाया था, शिखर बनना शेष था। अतः श्रीराजाराम भगवान् को रानी के महल में ही विराजमान कराया गया। दर्शनार्थियों का समुदाय उमड़ पड़ा प्रभु-दर्शन के लिये। सबने भगवान् श्रीराजाराम का साक्षात् दर्शनकर अपने को धन्य माना।

भगवान् श्रीराजाराम का वह श्रीविग्रह खड़े रूप में था। अतः महारानी श्रीगणेशदेई जी भी खड़े-खड़े ही प्रभु की सेवा करती थीं। समस्त सेवा-कार्य अपने ही हाथ से करने के कारण रानी को लगभग चार-चार घण्टे तक सेवा में खड़े रहना पड़ता था। रानी का सुकुमार शरीर इतना श्रम सहने लायक नहीं था। अतः करुणावरुणालय श्रीप्रभु ने एक दिन रानी से कहा कि आज मेरे पाँव दु:ख रहे हैं। रानी ने विकल होकर पूछा–'प्रभो ! क्या कारण है?' तब भगवान्ने कहा—'इसलिये कि तुम बहुत देरतक खड़ी-खड़ी मेरी सेवा करती हो तो तुम्हारे पाँव दुःखने लगते हैं तो मेरे भी दुःखने लगते हैं। अतः तुम बैठकर मेरी सेवा किया करो। तुम्हारा कष्ट मुझसे सहा नहीं जाता है। रानी ने हाथ जोड़कर कहा कि 'प्रभो! हमें तो दो-चार घण्टे सेवा में खड़े रहना पड़ता है और आप तो परम सुकुमार होकर भी चौबीसों घण्टे खड़े ही रहते हैं। मैं आपसे भी अधिक सुकुमार थोड़े ही हूँ, जो चार घण्टे भी खड़ी नहीं रह सकती। आप खड़े रहें और मैं बैठकर सेवा-पूजा करूँ यह उचित नहीं है।' श्रीरामजी ने कहा—'तो क्या मैं बैठ जाऊँ?' रानीने कहा—'हाँ, यदि आप बैठ जायँ तो मैं भी बैठकर सेवा-पूजा कर सकती हूँ।' भगवान्ने कहा कि 'अच्छा मैं तुम्हारे कहने से बैठ तो जाता हूँ, परंतु अब यहाँ से उठूंगा नहीं। यहीं अचल होकर रहूँगा।' रानी ने स्वीकार कर लिया। फिर रानी के देखते-देखते श्रीराजाराम जी वीरासन से वहीं बैठ गये। जो दर्शनार्थी कल खड़े भगवान् का दर्शन कर गये थे, वे आज उन्हें बैठे देखकर बड़े चकित हुए और उन्हें यह विश्वास हो गया कि भगवान् मूर्ति नहीं बल्कि साक्षात् स्वरूप हैं। भला कहीं किसी ने मूर्ति को बैठते देखा है। इस लीला से भगवान्ने उन लोगों का सन्देह दूर कर दिया, जो इस बात पर अविश्वास करते थे कि रानी को श्रीराजाराम साक्षात् मिले हैं। मन्दिर तैयार होने पर राजा ने श्रीराजारामजी को मन्दिर में विराजमान करवाने का प्रस्ताव रानी के सामने रखा तो रानी ने श्रीराजाराम जी की अविचलता की बात बतायी। तब राजा मधुकरशाहजी ने श्रीराजाराम पर प्रेमभरा व्यंग्य किया कि 'यदि घर घुसल्लू ही बनकर रहना था तो मन्दिर क्यों बनवाये?' रानी ने यह बात श्रीराजाराम को सुनायी तो उन्होंने कहा कि 'मैं तो आपके प्रेमवश आया हूँ, मुझे आपकी सेवा प्रिय है। अतः राजा कुछ भी कहें हम तो महल में ही रहेंगे। उनसे कह दो कि वे मन्दिर में किसी और मूर्ति को पधरा लें। तब राजा ने उस नवनिर्मित मन्दिर में चतुर्भुजभगवान् की प्रतिष्ठा की। आज भी मन्दिर में चतुर्भुजभगवान् एवं महल में श्रीराजाराम का दर्शन होता है। महली चौखट पर आज भी यह दोहा अंकित है—
मधुकरशा महाराजकी रानी कुंवरि गणेश।
अवधपुरीसे ओरछे लाईं अवध नरेश॥

श्रीराजारामजी के प्रभाव से ओरछा तीर्थ बन गया। निर्जला एकादशी सं० १६४२ वि० गुरुवार को रानी श्रीगणेशदेईजी इस नश्वर शरीर को त्यागकर श्रीराम जी के चरणों में लीन हो गयीं।'

रानी गणेशदेई की सन्तों में बड़ी निष्ठा थी। इनके यहाँ बहुत से सन्त आते और ये उनकी अनेक प्रकार से सेवा करते। खान-पान का सुख देखकर एक साधु बहुत दिन इनके यहाँ रह गया। एक दिन महल में नितान्त अकेली देखकर उसने रानी गणेशदेई जी से पूछा कि 'बताओ धन (मुहरों-जवाहरातों)-की थैलियाँ कहाँ हैं?' इन्होंने कहा कि यदि मेरे पास धन की थैलियाँ हों तो बताऊँ। जब हैं ही नहीं तो क्या बताऊँ? तब उस साधु-वेषधारी ने श्रीगणेशदेई रानी की जाँघ में छुरी मार दी। खून की धारा बह चली। रक्त का प्रवाह देखकर वह तुरंत भाग गया। रानी को सोच हुआ कि कहीं राजा इस घटना को जान जायँगे तो साधु-सेवा बन्द कर देंगे, अतः घाव पर कसकर पट्टी बाँध ली और पौढ़ रहीं। उन्होंने किसी से भी यह बात नहीं कही। जब राजा मधुकरशाह जी इनके पास आये तो इन्होंने कहा कि 'मेरे पास मत आइये। इस समय मुझे मासिक धर्म हुआ है। तीन दिन बीतने पर भी रानी को शय्या पर ही पड़ी देखकर राजा समीप जाकर बोले—हे प्रवीणे ! तुम मुझसे व्यथा का सब रहस्य खोलकर कहो। तब भी रानी ने दो-चार बार इस प्रसंग को टरकाया, परंतु इससे राजा का विचार और भी दृढ़ हो गया कि अवश्य ही इन्हें कोई नयी व्यथा है। अतः बारम्बार बताने का आग्रह किया। तब रानी ने कहा कि 'मैं बता तो दू, परंतु आप जानकर मन में सन्तों के प्रति सन्देह नहीं करना। इसके बाद रानी ने सब बात बता दी। तब रानी की अपार सन्त-निष्ठा देखकर राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पति-पत्नी भाव की लज्जा और संकोच को छोड़कर, भक्ति का प्रभाव विचारकर अपनी रानी गणेशदेई की परिक्रमा की और पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया।