श्री सोझाजी दम्पती भगवद्भक्त गृहस्थ थे। धीरे-धीरे जगत्की असारता, सांसारिक सुखों की असत्यता और श्रीहरिभजन की सत्यता का सम्यक् बोध हो जाने पर आपके मन में तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो गया। आपने अपनी धर्मपत्नी के समक्ष अपने गृहत्याग का प्रस्ताव रखा तो उस साध्वी ने न केवल सहर्ष प्रस्ताव का समर्थन किया, बल्कि स्वयं भी साथ चलने को तैयार हो गयीं। इस पर आपने कहा कि यदि तुम्हारे हृदय से समस्त सांसारिक आसक्तियाँ समाप्त हो गयी हों तो तुम भी अवश्य चल सकती हो। अन्ततोगत्वा अर्धरात्रि के समय आप दोनों ने घर-द्वार, बन्धु-बान्धव, कुटुम्ब-परिवार-सबकी ममता का त्याग कर दिया और घर छोड़कर चल दिये। आपकी तो प्रभु कृपा पर अनन्य निष्ठा थी, इसलिये साथ कुछ नहीं लिया, परंतु आपकी पत्नी अपने दस माह के शिशु के प्रति वात्सल्यभाव को न त्याग सकी और उसको भी अपनी गोद में लेते आयी। रातभर पैदल चलने के उपरान्त प्रात:काल के उजाले में आपने जब पत्नी की गोद में शिशु को देखा तो बहुत नाराज हुए और बोले— अभी तुम्हारे मन में संसार के प्रति बहुत राग है, यदि तुम मेरे साथ चलना चाहती हो तो इस शिशु को यहीं छोड़ दो।' पत्नी ने बड़े ही करुण स्वर में कहा—'नाथ! यहाँ इसका लालन-पालन कौन करेगा?' आपने पृथ्वी पर रेंगते हुए जीव-जन्तुओं को दिखाकर कहा—'जो इनका पालन करता है, वही इस बालक का भी पालन करेगा।' आपकी आज्ञा का पालन करते हुए आपकी पत्नी ने बालक को वहीं छोड़ दिया और दोनों लोग आगे बढ़ गये। उधर परिवार के लोगों ने आप दोनों की खोज की तो आप लोग तो मिले नहीं, पर आपका बालक उन लोगों को मिल गया, जिसे आगे चलकर उस देश के राजा ने संतानहीन होने के कारण गोद ले लिया और वह आगे चलकर राजा बना। इधर आप लोगों को चलते-चलते पूरा दिन बीत गया, परंतु कहीं से भोजन तो क्या, अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ। आपने सोचा कि हम लोग तो अब प्रभु के ही आश्रित हैं, ऐसे में प्रभु हमें अपने प्रसाद से क्यों वंचित कर रहे हैं; मेरे पास तो कुछ है नहीं, लगता है कि मेरी पत्नी के पास कुछ धन है, इसीलिये हम प्रभुकृपा से वंचित हो रहे हैं। आपने पत्नी से पूछा तो उन्होंने सोने की एक मुहर दिखाते हुए कहा कि बस यही एक मुहर मेरे पास है। आपने कहा ‘जब घर त्याग दिया, धन-सम्पत्ति त्याग दी, तो इस एक बाधा को क्यों अपने साथ लगाये हो, इसे भी फेंको तभी प्रभु की कृपा का प्रसाद मिल सकेगा।' पत्नी ने तुरंत मुहर फेंक दी और आप लोग आगे बढ़ गये। इन दम्पती की वार्ता और इस घटना को देख रहे लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन लोगों ने मान लिया कि ये लोग सच्चे और सिद्ध सन्त हैं, अतः इनके नगर में पहुँचने से पहले ही इनकी कीर्ति वहाँ फैल गयी। फिर तो लोगों ने इनकी खूब आवभगत की और आदर-सत्कार किया। कुछ दिन तक उस नगर में निवास करने के बाद आप लोग श्रीद्वारकापुरी की यात्रा पर चल दिये। कहते हैं कि मार्ग में कुछ दुष्टों ने इनकी पत्नी का हरण कर लिया। इस पर अपने धर्म की रक्षा के लिये पतिव्रता पत्नी ने भगवान् को पुकारा। अपने अनन्य भक्त के कष्ट को भगवान् अनदेखा कैसे कर सकते थे। उन्होंने तुरंत हनुमान् जी को आदेश दिया और हनुमान् जी ने प्रकट होकर उन दुष्टों को यथोचित दण्ड दिया और आपकी पत्नी को आपके पास वापस लाये, साथ ही भगवान्ने आकाशवाणी से उनकी पवित्रता भी प्रमाणित कर दी। बारह वर्ष बाद अचानक एक दिन आपकी पत्नी को अपने उस दुधमुँहे शिशु की याद आयी, जिसे वे आपके कहने पर रास्ते में ही छोड़कर चली आयी थीं। उन्होंने इस बात को आपसे कहा। प्रभु कृपा से आप तो सब जानते ही थे, फिर भी पत्नी को भगवत् कृपा के दर्शन कराने के लिये उन्हें लेकर अपने देश वापस लौटे। वहाँ वे एक बाग में रुके और माली से पूछा– 'यहाँ का राजा कौन है?' माली ने बताया–'यहाँ के राजा को कोई संतान नहीं थी; अतः उन्होंने भक्त सोझाजी के पुत्र को गोद ले लिया था, जिसे उसके माता-पिता जंगल में छोड़ गये थे, अब वही लड़का यहाँ का राजा है।' सोझाजी की पत्नी इस भगवत्कृपा से गद्गद हो गयीं, उन्हें विश्वास हो गया कि जो अनन्य भाव से प्रभु की शरण में जाते हैं, उनके योग-क्षेम का वहन स्वयं श्री भगवान् करते हैं।