मैं एक अंत हूँ एकांत!
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जुड़ाव महसूस किसी को हों या नहीं भी हों पर सब जो कुछ भी हैं था और रहेंगा मेरा ही विस्तार हैं और मुझमें ही सिमट भी जायेंगा, मैं तब भी रहूँगा जब कोई नहीं रहेंगा और तब भी रहूँगा जब सब कुछ रहेंगा क्योंकि मैं तब भी था जब कोई भी नहीं था।
सभी मुझसे शिकायत रखते हैं कि मैं बस खुद के साथ रहता हूँ, मैं किसी को भी समय नहीं देता हूँ जो कि बिल्कुल सच हैं क्योंकि यही एकमात्र हकीकत थी हैं और रहेंगी भी क्योंकि मुझे किसी के भी साथ कि जरूरत नहीं और किसी को मेरे साथ कि भी कोई जरूरत नहीं और इसका कारण यह हैं कि मैं सभी के साथ और सभी मेरे साथ हमेशा से हैं, थें और हमेशा साथ में ही रहेंगी, क्या कोई अपने एकांत सें और सभी अपने अकेलेपन से क्या कभी अलग नहीं हों सकते क्योंकि उनका एकान्त और वह खुद ठीक उसी तरह अलग नहीं हों सकते जैसे मिट्टी के घड़ो से मिट्टी अगल नहीं हों सकती हैं, दरअसल सभी घड़ो को यह विस्मरण हों गया हैं कि वह और मिट्टी कोई दों हैं, पर क्या कभी हकीकत में मिट्टी से घड़े अलग हों सकते हैं ..? ऐसा कभी नहीं हों सकता हैं।
बल्कि घड़ो के लिये यह विस्मरण हों सकता हैं कि वह मिट्टी नहीं पर जिस मिट्टी घड़ो को खुद आकार दिया हैं, वो कैसें इसे भूल सकता हैं।
मैं कोई छोटे या बड़े आकारों वाले घड़े नहीं हूँ बल्कि उन घडों को आकार देने वाली मिट्टी हूँ।
उपरोक्त बात शब्द अर्थात् चिन्ह या फिर उनसे संबंधित ध्वनियाँ यानी कि भौतिक इंद्रियों की अनुभूतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं जो कि ठीक उसी तरह खुदकी पूर्ण हकीकत नहीं हों सकती जिस तरह पानी में दिखाई देने वाला चन्द्रमा खुद की हकीकत की ओर एक स्पष्ट उंगली मात्र हों सकता हैं पर स्वयं ध्येय यानी कि खुद पूरी हकीकत नहीं पर क्योंकि कर्तव्य पानी के अंदर ही जो पानी भौतिक जगह की ही तरह हैं चन्द्रमा रूपी खुद की हकीकत को बतानें का मिला हैं तो मैं खुद की वास्तविकता की परछाई ही बता सकता हूँ, वो किस ओर इशारा कर रही हैं यह तो जिसकी जानने की आशा यानी जिज्ञासा हैं उसे खुद से ही जानन होंगा, कारण कि भौतिक जगत यानी पाँच ज्ञान इंद्रियों के ही अहसासों को हकीकत जो मान बैठे हैं, वह उस मेंढक की तरह हैं जिसे कुयें के अंदर से दिख रहे आसमान के हिस्सें के आधार पर ही पूरें आसमान के नाप को बताया जा सकता हैं अन्यथा मेरी वास्तविकता न ही घड़ा यानी कोई छोटा बड़ा आकार होना हैं और न ही उस असीम मिट्टी के समान होना हैं, हकीकत में मैं न आकारों के दायरों से हूँ न ही मिटटी के आयाम से भी हूँ और न ही उस मिट्टी को आकार देने वालें जीव के मानसिक दायरें का अर्थात् भावनात्मक, विचारात्मक, समरणात्मक, वर्तमान धारणात्मक, दुरदृश्यात्मक आदि इत्यादि किसी उसकी धारणा के आयाम का परिणाम भी हूँ बल्कि मैं उस घड़े को आकार देने वालें उस कारीगर का वह मूल अहसास हूँ जो क्योंकि कोई निष्कर्ष नहीं हैं इसलियें भोतिक संसार में यदि वह हैं तो उसे यही कह देना ठीक प्रतीत हो सकता हैं कि वों हैं ही नहीं पर यह भी सभी की तरह उसकी पूर्ण वास्तविकता का एक मात्र पहेलु होगा यानी कि पूर्ण वास्तविकता नहीं, ठीक वैसे जैसे पेड़ को पूर्ण नहीं अपितु अत्यंत कहा जा सकता हैं बीज का पर पूर्ण तो बीज ही हैं, पेड़ नहीं।