श्री यशोधरजी Renu द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री यशोधरजी

श्रीदिवदासजी के वंश में उत्पन्न श्रीयशोधरजी के घर में अनपायनी भक्ति प्रकट हुई। आपके स्त्री-पुत्र आदि सभी लोग आपके मत से सहमत थे। सभी भगवत्परायण थे। आप भगवान् की एवं उनके भक्तों की सद्भाव से सेवा करते थे। आपके श्रीमुख से निरन्तर श्रीरामनामरसामृत की धारा बहा करती थी। श्रीविश्वामित्रजी ने अयोध्यापुरी में आकर श्रीदशरथजी से कहा─ हे राजन् ! यज्ञरक्षा के लिये आप अपने दोनों पुत्र श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को दे दीजिये। श्रीदशरथजी ने दे दिया, तब श्रीरामलक्ष्मण ने श्रीविश्वामित्रजी के साथ गमन किया। सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रथम वनगमन का आपने अति सुन्दर ढंग से वर्णन किया है। गान करते हुए आप प्रेमावेश में विभोर हो गये। वियोग सहन नहीं हुआ। मैं भी साथ चलूंगा'─ऐसा कहकर रोने-पुकारने लगे। प्रभु ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर कहा कि─'तुम यहीं रहो, मुनि के यज्ञ को सम्पन्न कराकर हम अभी आते हैं। परंतु वियोग न सह सकने के कारण आपने अपने प्राणों को प्रभु पर निछावर कर दिया। इस आशय के आपके पद लोक में अति प्रसिद्ध हुए। आपकी वाणी से गायी गयी श्रीरामजी की मधुर लीलाएँ सन्तों को परमानन्द देनेवाली हुईं .
श्रीयशोधरजी के विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है─

श्रीयशोधर जी दिवोदास के वंशमें उत्पन्न हुए थे। आप श्रीराम के प्रथम वन-गमन का अति प्रेम से गान करते थे, वह सुखद एवं सर्वप्रसिद्ध था। भक्त-भगवन्त की सेवा में आपकी दृढ़ निष्ठा थी। आप साधुओं को अपना सर्वस्व समर्पण करने के लिये तैयार रहते थे। इनकी दृढ़ प्रतिज्ञा को देखकर एक दिन भगवान्ने परीक्षा लेने का विचार किया और एक साधु का वेष धारणकर पधारे। आपने यथोचित सेवा की। उसके बाद साधुवेषधारी भगवान् बोले─'यशोधर जी ! मेरे मन में एक अभिलाषा है, परंतु कहने में संकोच होता है। आपने कहा─'प्रभो! बिना किसी भय और संकोच के आप मुझ दास पर कृपा करके अपने मन की बात कहिये।' इस प्रकार बहुत अनुनय करने पर बोले-'मेरा मन विवाह करने का है। आपने कहा─'प्रभो! बहुत अच्छी बात है, मेरे यहाँ चार दिन ठहरिये। मैं आपके स्वरूपानुरूप कन्या से आपका विवाह कर दूंगा।' यह सुन वे बोले─मैं दूसरी कन्या से नहीं, आपकी कन्या से विवाह करना चाहता हूँ।' इस पर प्रसन्न होकर उन्होंने कहा─ भगवन् ! तब तो आपकी महती कृपा है, इससे मुझे अत्यन्त ही सुख-सन्तोष होगा।' यशोधरजी ने उसी क्षण अपनी स्त्री और पुत्री को बुलाकर पूछा। दोनों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इनके परिवार में वैमत्य था ही नहीं। विवाह की सभी विधियों को सम्पन्न करने की तैयारियाँ होने लगी। शुभ कार्य में बिलम्ब नहीं करना चाहिये। कल ही शुभलग्न है। इन्हें पूर्ण रूप में तैयार देखकर वे सन्त भगवान् बोले-'मैं ऐसे विवाह नहीं करूंगा। दहेज में एक लाख रुपये लूंगा।' श्रीयशोधरजी ने कहा─'महाराज! मेरे परिवार के सभी सदस्यों का मूल्यांकन कीजिये। जो कई लाख का है। वह आपको अर्पित होकर आपकी सदा सेवा करेगा।' उन्होंने कहा─तो सारे परिवार को बुलाकर पूछो। सभी को बुलाकर पूछा गया। सभी ने स्वीकार कर लिया। इन सबकी ऐसी दृढ़ निष्ठा देखकर प्रभु ने अपने को प्रकट कर दिया। दर्शन करके सभी कृतार्थ हो गये।

एक बार भक्तवर श्रीयशोधर जी एक गाँव से सन्त-सेवा निमित्त कुछ अन्न-धन लेकर अपने घर को आ रहे थे। रास्ते में इन्हें देखकर डाकुओं ने लूटना चाहा। पीछा करते हुए जब एकान्त जंगल में पहुँचे। तब उन्होंने घात लगायी। इतने में उन्हें साँवरे-गोरे दो किशोर धनुष-बाण लेकर संधान किये हुए श्रीयशोधरजी के साथ दिखायी पड़े, अतः लूट न सके। ये कौन हैं─यह जानने की इच्छा से वे इनके घर पर आये और पूछने लगे कि वे दोनों किशोर कहाँ हैं, कौन हैं, उन्हें देखने की इच्छा है। उनके द्वारा कहे गये लक्षणों से आप समझ गये कि, स्वयं श्रीराम-लक्ष्मणजी ने आकर मेरी रक्षा की। उन्हें भी समझाया कि वे कोई साधारण सिपाही या राजकुमार न थे। अब उन डाकुओं के मन में युगल स्वरूप की स्मृति सुदृढ़ हो गयी। उन्होंने श्रीयशोधरजी से उपदेश लेकर चोरी-डाका छोड़ दिया। सन्मार्ग को अपनाया भगवद्भक्त हो गये।