सोने के कंगन - भाग - २ Ratna Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सोने के कंगन - भाग - २

कुशल बड़े ही भारी मन से अपनी माँ के सोने के कंगन लेकर साहूकार के पास पहुँचा। साहूकार को कंगन दिखाते हुए उसने पूछा, “क्या इन कंगनों को गिरवी रखकर आप मुझे तीन लाख रुपये दे सकते हैं? जब भी मेरे पास पैसे की व्यवस्था होगी मैं यह कंगन वापस ले जाऊंगा।”

वज़न दार सोने के सुंदर कंगनों को देखकर साहूकार की आँखों में चमक आ गई। उसने कंगनों की शुद्धता और वज़न देखने के बाद कहा, “ठीक है, मैं तुम्हें तीन लाख रुपये दे रहा हूँ पर इसका ब्याज तुम्हें देते रहना होगा।”

कुशल ने दुखी मन से कंगन उसे सौंप दिए और पैसे लेकर अस्पताल के लिए निकल गया। रास्ते में वह सोच रहा था कि माँ के उन कंगनों की कीमत तो अनमोल है; भगवान चाहेगा तो वह इन कंगनों को ज़रुर वापस लाएगा।

अस्पताल पहुँच कर बिल का भुगतान कर अपनी नन्हीं परी को लेकर वे सब अपने घर लौट आए।

छोटी सी गुड़िया को गोद में लेते ही कुशल अपने सारे दुःख भूल गया।

आज उनके घर में गाना बजाना, मिठाई बांटना सभी कुछ चल रहा था। पूरा परिवार बेहद खुश था।

बिटिया रानी का नाम सब ने मिलकर सारिका रखा। सारिका धीरे-धीरे एक माह की हो गई। उसने विकसित होने की रफ़्तार भी पकड़ ली। वह जब भी हाथ पैर चलाती तो अपने हाथ पाँव में बंधे काले मोतियों की डोरी को देखकर बहुत खुश हो जाती। जैसे-जैसे वह बड़ी हो रही थी, उसके पहने ओढ़ने के शौक भी बड़े हो रहे थे। गले में माला, हाथ में कंगन और पाँव में पायल, बालों में रंग-बिरंगे रबर बैंड इत्यादि।

कुशल और अनामिका बहुत ही सोच समझकर अपने घर का बजट बनाते थे। जितनी आमदनी थी उसके अंदर ही ख़र्च होने चाहिए। कभी किसी से उधार मांगने की ज़रूरत नहीं आनी चाहिए। यह संस्कार कुशल को उसकी माँ से ही मिले थे। कुशल के माता-पिता भी सब समझते थे। दरअसल कुशल के पिता हार्ट के मरीज थे, जिसके चलते उन्हें कई बीमारियों ने घेर रखा था। उनकी दवाओं का ख़र्च भी लगा ही रहता था।

अब तो सारिका भी बड़ी हो रही थी। वह घर में हो रही बातें सुनती और उन्हें समझती भी थी। कई बार सोनम के कंगन जो अब तक छुड़ाए नहीं गए थे उनका भी ज़िक्र होता ही रहता था और कभी-कभी तो सोनम यहाँ तक कह देती थी कि अब भूल जाओ उन्हें। हमारी इतनी प्यारी बिटिया हमारे साथ है जो उन सोने के कंगनों से कहीं ज़्यादा कीमती है। उनकी बात सुनकर सारिका सोच में पड़ जाती कि दादी ऐसा क्यों कहती हैं।

एक दिन सारिका ने अपनी मम्मी से आखिरकार पूछ ही लिया, “मम्मा दादी ऐसा क्यों कहती हैं कि अब भूल जाओ उन कंगनों को, हमारी इतनी प्यारी बिटिया हमारे साथ है।”

तब अनामिका ने सोचा कि अब सारिका को सच बता ही देना चाहिए। उसने कहा, “सारिका जब तुम पैदा हुई थीं तब बहुत कमजोर थीं क्योंकि तुम वक़्त से पहले इस दुनिया में आ गई थीं। तुम बच भी पाओगी या नहीं कुछ समझ नहीं आ रहा था। तब अचानक तीन-चार लाख रुपये अस्पताल में ख़र्च हो गए। जब बिल आया तो बिल की रक़म देखकर तुम्हारे पापा के हाथ कांपने लगे क्योंकि हमारे पास इतने सारे पैसे एकदम से इकट्ठे नहीं थे। बिना पैसे दिए हम घर वापस नहीं आ सकते थे। डॉक्टर ने पहले ही कह दिया था कि बिल की रक़म चुकाने के बाद ही आप लोग घर जा सकेंगे। तब तुम्हारी दादी ने उनके हाथों में जो कीमती सोने के कंगन पड़े थे उन्हें गिरवी रखने के लिए तुम्हारे पापा को दे दिए। वह कंगन तुम्हारी दादी को पापा की दादी ने दिए थे लेकिन तुम्हारी दादी ने वह कंगन देकर अस्पताल की फीस भरवाई थी। तब जाकर डॉक्टर ने हमें घर जाने दिया।”

“तो मम्मा हम वह कंगन वापस क्यों नहीं लाते?”

“बेटा इतने सारे खर्चे हैं, दादाजी की दवाइयाँ भी हैं। अकेले पापा कैसे पूरा करें, जितनी बनती है उससे ज़्यादा ही मेहनत करते हैं।”

“मम्मा यदि दादी के कंगन नहीं होते तो मेरी जान भी नहीं बच पाती, है ना?”

तब तक सोनम भी वहाँ आ गईं और उसे समझाते हुए कहा, “बिटिया रानी गहने तो होते ही हैं इसलिए कि मुसीबत में, बुरे वक़्त में, परिवार के काम आ सकें।”

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः