सोने के कंगन - भाग - ९ Ratna Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सोने के कंगन - भाग - ९

सारिका के मुँह से सोने के कंगन की बात सुनकर रजत स्तब्ध था। उन शब्दों ने रजत को सोचने पर मजबूर कर दिया। उसने सारिका से पूछा, “सारिका तुम कहना क्या चाहती हो?”

“रजत जैसा मेरे उस परिवार में हुआ था बिल्कुल ऐसा ही हमारे इस परिवार में भी हो सकता है।”

रजत को समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसे संभव है। उसने कहा, “सारिका वह कैसे?”

सारिका ने उसे समझाते हुए कहा, “रजत जिस सुख की खोज हमारा परिवार कर रहा है, उसे पाने के साधनों को तो हम सब ने अपने तन पर दुशाले की तरह ओढ़ रखा है। क्या कभी इस दुशाले का वज़न महसूस नहीं होता?”

“सारिका तुम कहना क्या चाहती हो? कौन-सा दुशाला यार?”

“रजत बुरा मत मानना, क्या ज़रूरत है झूठे दिखावे की, झूठी शान की? क्या ज़रूरत है दो-दो कारों की? जब से मैंने यह जाना है मेरे शरीर पर पहने हुए ये गहने मुझे भारी लगने लगे थे। मेरे तन पर मानो वह कांटे चुभा रहे थे। देखो मैंने उन्हें उतार दिया है।”

“सारिका ऐसा क्यों कह रही हो?”

“रजत यह तीन लाख रुपए की घड़ी तुम्हारी कलाई पर तुम्हें चुभती नहीं? उसे पहनने से क्या बहुत इज़्ज़त मिल जाती है? मॉम भी कितना दिखावा करती हैं, किटी पार्टी में जाते समय आज मैंने देखा, उन्होंने स्वयं को गहनों की दुकान बना लिया था। रजत यदि हम इन सभी कीमती उपहारों को, वस्तुओं को एकत्रित करके देखें और इन्हें इनकी अच्छी क़ीमत के साथ बेच दें, तब तो हमारा घर छूट जाएगा ना? यह सब तो हम फिर से खरीद सकते हैं लेकिन अपना आशियाना, अपनी छत को तो हम अपने से दूर नहीं जाने दे सकते ना? इतना सब एकत्रित करके हम हमारा घर तो वापस ले सकते हैं।”

रजत ने टोकते हुए कहा, “पर सारिका दूसरों के सामने अपनी इज़्ज़त …?”

“क्या हो जाएगा इज़्ज़त को …? यदि तीन लाख के बदले तीन हज़ार की घड़ी पहनोगे … यह तो सोचो यदि घर छुड़वा ही नहीं पाए तो कहाँ जाएगी हमारी इज़्ज़त? गहने पहनकर सड़क पर आ जाएंगे। रजत जो सच है वह सच है। झूठी शान में जीने से अच्छा है, कम ही सही हम सच्चाई के साथ हक़ीक़त में हालातों का सामना करके स्वाभिमान से जिएं। सिर्फ़ एक बार इस झंझट से बाहर निकल कर तो देखो, कितना हल्का महसूस होगा। घर में सबके उदास चेहरों पर फिर से ताज़गी आ जाएगी।”

“शायद तुम ठीक कह रही हो सारिका,” कहते हुए रजत ने अपने आँसुओं को रुमाल से पोछा।

सारिका ने कहा, “हम फिर से एक नई शुरुआत करेंगे रजत; फिर इस तरह आँसुओं को तुम्हारे पास आने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। मेहनत के हाथ बहुत लंबे होते हैं। मैंने कभी नौकरी नहीं की पर अब करूंगी।”

“यह सब तो तुम ठीक कह रही हो पर पता नहीं मॉम डैड मानेंगे या नहीं? कहीं वह नाराज़ ना हो जाएं, उनसे बात कौन करेगा?”

“रजत मैं घर में सबसे छोटी हूँ। मुझे लगता है मेरा बोलना शायद सही नहीं लगेगा। तुम ही बात करो … सुख हमारे द्वार पर खड़ा होकर दस्तक दे रहा है रजत, उसका हमारे घर में गृह प्रवेश करवा दो। वह अपने साथ सुकून और शांति लेकर आएगा।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः