सृष्टि के प्रारम्भ में जब ब्रह्मा ने सनकादि पुत्रों को उत्पन्न किया और वे निवृत्ति परायण हो गये तब इन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। इस क्षोभ के कारण ब्रह्मा रजोगुण और तमोगुण से अभिभूत हो गये। इससे ब्रह्मा के दाहिने अंग से स्वायम्भुव मनु की और बायें भाग से शतरूपा की उत्पत्ति हुई। स्वायम्भुव मनु ने जब तपस्या के द्वारा शक्ति संचय करके सृष्टि की अभिवृद्धि करने की आज्ञा प्राप्त की तब उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा के आदेशानुसार सकलकारणस्वरूपिणी आद्याशक्ति की आराधना की। इनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती ने वर-याचनाकी प्रेरणा की। स्वायम्भुव मनु ने भगवती से बड़े विनयपूर्वक कहा—‘यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसी कृपा कीजिये, जिससे प्रजा की सृष्टि का कार्य निर्विघ्न चलता रहे। देवी ने ‘तथास्तु’ कहा और अन्तर्धान हो गयीं। इसके बाद मनु ने ब्रह्मा से एक उपयुक्त स्थान के लिये प्रार्थना की। ब्रह्मा ने मनु को भगवान् विष्णु की शरण लेने का उपदेश किया। इसी समय भगवान् वाराहरूप धारण करके ब्रह्मा की नासिका से निकल पड़े और थोड़े ही समय में बड़ा विशाल रूप धारण करके भीषण गर्जना करने लगे। उस समय सभी देव-दानव, ऋषि-मुनि उनकी महिमा का गायन करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् ने जलमग्न पृथ्वी को उद्धार और उसकी स्थापना की। स्वायम्भुव मनु पृथ्वी पर रहकर सृष्टिकार्य करने लगे। पहले उनके प्रियव्रत, उत्तानपाद नाम के दो तेजस्वी पुत्र एवं आकूति, देवहूति और प्रसूति नाम की तीन कन्याएँ हुईं। उत्तानपाद से ध्रुव-जैसे भगवद्भक्त प्रकट हुए और इनकी देवहूति नाम की कन्या से स्वयं भगवान् ने कपिलरूप में अवतार ग्रहण किया। भगवान् के आज्ञानुसार राज्य करते हुए इन्होंने भृगु आदि ऋषियों को व्याज बनाकर अनेक प्रकार के धर्मों और नीतियों का प्रचार किया तथा सम्पूर्ण मानवजाति के लिये एक ऐसी सुन्दर व्यवस्था की, जिसके द्वारा अपने अपने अधिकारानुसार सब भगवान् को प्राप्त कर सकें। अन्त में इनके मन में यह बात आयी कि घर में रहकर विषयों को भोगते-भोगते बुढ़ापा आ गया, किंतु इन विषयों से वैराग्य नहीं हुआ। भगवान् के भजन बिना जीवन का यह अमूल्य समय यों ही बीत गया, यह सोचकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। यद्यपि पुत्रों ने उन्हें घर में रहकर राज्य करते रहने का बड़ा आग्रह किया, फिर भी उनके विरक्त हृदय ने पुत्रों की एक भी न मानी, अन्ततः पुत्रों को राज्य देकर वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ घर से निकल पड़े। नैमिषारण्य में जाकर इन्होंने ऋषिमुनियों का सत्संग प्राप्त करके समस्त तीर्थों में स्नान किया, देवताओं के दर्शन किये और फिर वल्कल वस्त्र पहनकर हविष्य भोजन करते हुए शरीर की और संसार की परवाह छोड़कर द्वादशाक्षर मन्त्र का सप्रेम जप करते हुए भगवान् के चिन्तन में लग गये। उनके मन में एकमात्र यही अभिलाषा थी कि इन्हीं आँखों से भगवान् के दर्शन हों। इस तरह बड़ी कठोर तपस्या करते-करते हजारों वर्ष बीत गये। इस बीच में कई बार ब्रह्मा, विष्णु, महेश इनके पास आये और इन्हें वर देने के बड़े-बड़े प्रलोभन दिये; परंतु ये तनिक भी विचलित नहीं हुए। शरीर सूखकर काँटा हो गया, केवल हड्डी-ही-हड्डी अवशेष रह गयीं। परंतु इनके मन में तनिक भी व्यथा का अनुभव नहीं हुआ। महाराज स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की इस अनन्य तपस्या को देखकर बड़ी ही गम्भीर और भगवत्कृपापूर्ण आकाशवाणी हुई कि तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर माँग लो। भगवान् की यह अमृतभरी वाणी सुनकर उनका शरीर सर्वांगसुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हो गया। सारा शरीर पुलकित हो गया। हृदय प्रेम से भर गया और उन्होंने दण्डवत् करके भगवान् से प्रार्थना की—‘प्रभो! आप बड़े भक्तवत्सल हैं; ब्रह्मा, शंकर और विष्णु भी आपकी चरणधूलि की वन्दना करते हैं। यदि आप मुझ पर सचमुच प्रसन्न हैं तो आपका वह स्वरूप जो शिव के हृदय में निवास करता है, काकभुशुण्डि जी जिसका ध्यान करते हैं और वेदों में जिसे सगुण होते हुए भी निर्गुण और निर्गुण होते हुए भी सगुण कहा गया है, वही स्वरूप हम अपनी इन्हीं आँखों से देखें। उनकी प्रेम से भरी बात भगवान् को बड़ी प्रिय लगी और भगवान् उनके सामने प्रकट हो गये। दम्पती का ध्यान टूटा और उन्होंने भगवान् श्रीराम की ओर देखा। भला, भगवान् की उस रूपमाधुरी का कोई क्या वर्णन कर सकता है! आदिशक्ति भगवती सीता और पुरुषोत्तम भगवान् राम की अनूप रूपराशि को देखकर उनकी आँखें निर्निमेष हो गयीं। उन्हें तृप्ति होती ही न थी। आनन्दातिरेक से शरीर की सुध-बुध जाती रही और वे बिना सहारे की लकड़ी की भाँति उनके चरणों पर गिर पड़े। भगवानु ने उन्हें बलात् उठाकर उनके सिर पर अपने करकमल फेरकर अपने हृदय से लगा लिया। जब भगवान् ने उन्हें धैर्य धारण कराकर वर माँगने की प्रेरणा की तो पहले उन्हें बड़ा संकोच हुआ, परंतु भगवान् के बहुत ढाढ़स देने पर और यह कहने पर कि तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है, वे बोले— मैं तुम्हारे ही सरीखा पुत्र चाहता हूँ। भगवान् ने कहा—‘मेरे सरीखा तो मैं ही हूँ, अतः मैं ही तुम्हारा पुत्र बनूंगा।' इसके बाद भगवान् ने शतरूपापर अपनी कृपादृष्टि डाली और उनसे वर माँगने की प्रेरणा की। शतरूपा ने वह वर तो माँगा ही जो उनके पतिदेव ने माँगा था, साथ ही भक्त-जीवन की प्रार्थना की। भगवान् ने बड़ी प्रसन्नता से कहा—‘इतना ही नहीं, तुम्हारे मन में जो-जो रुचियाँ हैं, सब पूर्ण होंगी; इसमें सन्देह नहीं।’ इसके पश्चात् महाराज मनु ने ऐश्वर्यभक्ति के स्थान पर वात्सल्यरति-पुत्रविषयक प्रेम की याचना की और कहा कि संसार के लोग चाहे मुझे मूर्ख ही क्यों न समझें, आप कृपा करके यह वर दीजिये कि आपके वियोग में मेरा जीवन रहे ही नहीं। इसके बाद स्वायम्भुव मनु दशरथ और उनकी पत्नी शतरूपा कौसल्या हुईं। भगवान् ने इनके पुत्ररूप से जन्म ग्रहण किया। इन पुण्यश्लोक आदिराज स्वायम्भुव मनु एवं उनकी पत्नी शतरूपा का चरित्र बड़ा ही विस्तृत है, इसका पूर्ण अनुशीलन तो इतिहास-पुराणों में ही हो सकता है। यहाँ तो केवल उनका स्मरणमात्र कर लिया गया है। श्रीरामचरितमानस-बालकाण्ड में इनके तप का प्रसंग वर्णित है।