कंचन मृग - 46. तो कौन बच सकेगा?(भाग-2) Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 46. तो कौन बच सकेगा?(भाग-2)

रात्रि में कुँवर, उदयसिंह, देवा, तालन, धन्वा, व्यूह रचना पर विमर्श ही कर कर रहे थे कि रूपन उपस्थित हुआ। उसने बताया कि कुमार की चिता यहीं जलेगी। माण्डलिक महाराज परमर्दिदेव के साथ प्रातः यहीं पहुचेंगे। सुरक्षा की व्यवस्था हमें करनी है। रातोरात सूखे चन्दन काष्ठ की व्यवस्था की गई। प्रातःहोते होते महाराज परमर्दिदेव, महारानी मल्हना, वेला, माण्डलिक, देवल, सुवर्णा , पुष्पिका कुमार के शव को लेकर युद्ध स्थल पर आ गए। चामुण्डराय को सूचना मिली उसने विघ्न उपस्थित करने का मन बनाया पर महाराज ने रोक दिया। यद्यपि कुँवर और उदयसिंह विघ्न से निपटने की योजना बना चुके थे पर पृथ्वीराज के निर्णय से उन्हें प्रसन्नता हुई। वेला शृंगार करती रही आवेश में बोलती रही, ‘यदि कुमार का बचाया नहीं जा सका तो कौन बच सकेगा?’ चिता की तैयारी होती रही। जीवन की क्षणभंगुरता का बोध शमशान घाट पर अधिक होता है। यह तो रणभूमि थी। यहाँ जीवन और मृत्यु का खेल क्षण-क्षण खेला जाता है। वीर केवल लक्ष्य साधते, कभी फल की चिन्ता नहीं करते। आवेशित वेला बुदबुदाती रही, ‘यदि कुमार को बचाया नहीं जा सका तो कौन बच सकेगा?’ चिता तैयार हुई तो कुमार के शव को नहला कर सुगन्धित पदार्थ लगाया गया। शव को चिता पर रखा गया। वेला शिविर से निकली। उसने नव वधू का शृंगार किया था। जिन लोगों ने उसे देखा सभी की आँखों में अश्रु भर आए। आवेशित वेला चिता की परिक्रमा करने लगी। तीन चक्कर लगा कर जैसे ही चौथे चक्कर के लिए बढ़ी, स्वयं गिर पड़ी। उसी के साथ उसके भी प्राण पखेरू उड़ गए। महाराज परमर्दिदेव , मल्हना, देवल, माण्डलिक, कुँवर, उदयसिंह, देवा, सुवर्णा , पुष्पिका , चन्द्रा सहित सभी रो पड़े। पर युद्ध भूमि में रोने के लिए भी समय न था। उसको भी उठाकर चिता पर रखा गया। महाराज परमर्दिदेव ने स्वयं चिता को अग्नि दी। सभी के मुख मण्डल उदास थे। युद्ध का यह लघु अन्तराल था।
रात्रि में विमर्श प्रारम्भ हुआ। महाराज परमर्दिदेव के लिए महोत्सव की अपेक्षा कालिंजर अधिक सुरक्षित समझा गया। कालिंजर का दुर्ग विशाल था। वह दुर्गम पहाड़ी पर स्थित था। उसे ध्वस्त करना किसी भी आक्रमणकारी के लिए अत्यन्त कठिन था। दुर्ग में जल का भी उत्तम प्रबन्ध था- पाताल गंगा, पाण्डु कुण्ड, मृग धारा, कोटतीर्थ आदि। यह निश्चित किया गया कि महाराज महारानी सहित कालिंजर में निवास करें। महासचिव देवधर को भी महाराज के साथ ही रखने का निर्णय हुआ। माण्डलिक के संरक्षण में महाराज को कालिंजर पहुँचाने की योजना बनी। माण्डलिक ने व्यवस्था सँभाल ली। मल्हना बहुत उदास हो गईं। उन्हें महोत्सव छोड़ना अखर रहा था पर नियति के आगे उन्हें झुकना पड़ा। देवल, सुवर्णा और पुष्पिका युद्ध शिविर में आ गई थीं। चन्द्रा का प्रश्न था। उसे चन्देल सीमा से हटाने का प्रस्ताव हुआ पर चन्द्रा ने इसे तत्काल स्वीकार नहीं किया। चन्द्रा स्वयं विचलित थी। उदयसिंह एवं महारानी मल्हना ने उसे समझाने का प्रयास किया पर वह उबल पड़ी, ‘मुझे वामावाहिनी का नेतृत्व करना हैं। नारियां केवल शृंगार की वस्तु नहीं हैं।’
‘कौन तुम्हें शृंगार सामग्री बता रहा है चन्द्रे’ मल्हना बोल पड़ी, ‘केवल रणनीति का ध्यान रखकर यह निर्णय लिया जा रहा है।’
‘पर मुझे यह प्रस्ताव अप्रीतिकर लग रहा है माँ। युद्ध भूमि में प्राण देना अधिक श्रेयस्कर प्रतीत होता है।’ चन्द्रा ने आर्त स्वर में कहा।
‘माँ, मुझे बच्चों का झुनझुना नहीं समझा जाना चाहिए।’
‘ऐसा कोई नहीं सोचता चन्द्रे’, उदयसिंह भी बोल पड़े।
‘माँ का निर्देश युक्ति संगत है।’
‘पर वीरजू कायरता का लांछन क्या केवल पुरुषों के लिए है, नारियों के लिए नहीं? क्या हम युद्ध भूमि से भयातुर मृगी की भाँति पलायन करेंगी? प्रकृति ने नारी को सौन्दर्य प्रदान किया है, पर निर्भर तो समाज बना देता है। यह समाज ही हमें आत्मनिर्भर होने का अवसर नहीं प्रदान कर पाता। क्यों हमें यही सिखाया जाता है कि हम मात्र......’कहते कहते चन्द्रा की आँखें चमक उठी। ‘नारी भोग्या है, किसी को भी परोसी जा सकती है। आश्रित है, कोमलांगी है, जाने क्या-क्या कह कर उसे पिंजरे का पंछी ही बनाया गया है। काश! नारी पिंजरे को लेकर भी उड़ सकती।’ ‘इस समय के संकट को अनुभव करो चन्द्रे’, उदयसिंह ने कहा।
‘हम दस को मौत के घाट उतार कर प्राण देना चाहते हैं वीरजू ।’ महारानी मल्हना, चित्रा, चंदन, उदयसिंह सभी की आँखें भर आई थीं। केवल चन्द्रा की आँखों से उत्स छिटक रहा था।
‘मैं पूछती हूँ क्यों करते हो युद्ध? इसीलिए न, कि हम पराधीन नहीं होना चाहते। आप कहते हैं कि हम आत्मरक्षार्थ युद्ध कर रहे हैं। चाहमान सेना ने आक्रमण किया है। युद्ध के अतिरिक्त चन्देलों के पास और कोई विकल्प नहीं है। पर क्या इस युद्ध ने नारियों को प्राण छोड़ने को बाध्य नहीं किया? कोई कुदिन जिसके लिए आप हमें हटाना चाहते हैं, आ ही गया तो हमें उसका सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। मुझे इसमें कोई असंगति नहीं दिखायी देती वीर जू। यह मेरी ही नहीं सम्पूर्ण नारी जाति की अस्मिता का प्रश्न है। नारी अपहरण से कब मुक्त हो सकेगी?’ चन्द्रा आवेश में बोलती रही। सभी सुनते रहे।
‘ओ माँ! मेरा शीश भन्ना रहा है।’
‘चित्रे , रानी जू का ध्यान रखना’, कहती हुई महारानी उठ पड़ीं। उदयसिंह भी साथ ही उठ पड़े। चित्रा, चन्द्रा का शीश दबा, गुनगुनाने लगी ‘एक चना दो देउली’
माई साउन आए।’
‘अब कभी साउन नहीं आएगा, चित्रे । हम सबके स्वप्न केवल स्वप्न रह जाएँगे।’ ‘नहीं रानी जू , आप का स्वप्न अवश्य पूरा होगा।’
‘नहीं चित्रे, मैने स्वप्न देखना ही बन्द कर दिया है। महोत्सव की दीवारों में कान लगा कर कभी सुना है चित्रे?’
‘नहीं रानी जू’
‘दीवारों के कान ही नहीं होते , उनमें शब्द भी होता है पर सभी कहाँ सुन पाते हैं? महोत्सव की दीवारें सिसक रही है, चित्रे।’
‘चन्दन, मैं तेरे लिए भी कुछ न कर सकी।’
‘मैंने बहुत कुछ पाया है रानी जू।’
‘पर शेष भी बहुत कुछ है, है न?’ चित्रा की ओर देखकर चन्द्रा मुस्करा उठी। चित्रा की आँखें झेंप गईं। चन्दन भी धरती की ओर देखने लगा। पर कनखियों से वह निहार लेता। रानी जू उठ पड़ीं। उन्होंने अपने गले का हार उतार कर चित्रा को पहना दिया। चित्रा का हाथ चन्दन के हाथ में देकर कहा, ‘ध्यान रखना।’ चन्द्रा इससे अधिक कुछ नहीं कह सकी। दोनों ने चन्द्रा का चरण स्पर्श किया। एक क्षण के लिए प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी।
‘प्राणों का मोह तो नहीं है चित्रे?’
‘प्राण आप की सेवा के लिए हैं, रानी जू। उनके लिए मोह कैसा?’
‘पर मेरा क्या ठिकाना? क्या करना पड़े?’
‘पर मेरा ठिकाना आपके साथ ही है, रानी जू।’
‘मेरी तलवार उठा ला चित्रे।’ चित्रा दौड़कर तलवार उठा लाई। रानी जू तलवार की
धार देखने लगीं। धार देखने में ही उँगली से रक्त निकल आया। चन्दन दौड़ा। औषधि लेकर आ गया। चित्रा ने औषधि का लेपन किया। रक्तस्राव बन्द हुआ। पर रानी जू विचार मग्न थीं। रक्त का निकलना भी उन्होंने नहीं देखा। कल क्या होगा, वे विचारती रहीं। इसीबीच उदयसिंह पुनःउपस्थित हुए।
‘चन्द्रे, मैंने बहुत विचार किया। पर मेरा मन कहता है कि तुझे सुरक्षित स्थान की ओर प्रस्थान करना चाहिए। महाराज को भी महोत्सव छोड़ने में कष्ट हो रहा है। पर रणनीति की दृष्टि से ही उन्होंने कालिंजर में शरण लेना उचित समझा। तू अपना हठ छोड़ दे चन्द्रे। कुँवर और हमने पर्याप्त विमर्श के बाद निर्णय लिया है।’
अन्ततः चन्द्रा को कान्यकुब्ज राज्य के अन्तर्गत कुछ समय के लिए काशी भेजने का निर्णय हुआ। चन्द्रा के साथ कुछ अश्वारोही, चित्रा और चन्दन, पुनिका के साथ वामावाहिनी का एक दल तैयार हुआ। माण्डलिक का पुत्र ईंदल यद्यपि छोटा था, पर उसे भी साथ किया गया।
चाहमान सेना ने योजना बनाई कि कुँवर लक्ष्मण राणा पर दबाव बढ़ाया जाए। उदयसिंह को उनसे दूर ले जाया जाए। योजनानुसार ही प्रातः चामुण्डराय ने चाहमान सेना को ब्यूहबद्ध किया। चन्देल सेना भी उसी के प्रत्युत्तर में आ गई। चामुण्डराय ने उदयसिंह को ललकारते हुए मैदान के वाम भाग में व्यस्त रखा। जबतक वे एक दल को ध्वस्त करते, दूसरा आ जाता। कुँवर को दाएँ भाग में खींच लिया गया। वे व्रजराशिन पर बैंठ कर तीरों की बौछार से चाहमान सेना को तितर बितर करते रहे। धन्वा और कुँवर के प्रहार से चाहमान सेना को भागते देखकर वीर भुंगता आगे आ गए। धन्वा ने उन्हें घेरा। पर उनकी शमशीर धन्वा के धड़ को अलग करती हुई निकल गई। सैयद ने यह दृश्य देखा। क्रुद्ध होकर वे आगे बढ़ गए। वीर भुगंता को ललकारा। सैयद और वीरभुगंता अपना-अपना कौशल दिखाते रहे। दोनों रक्त रंजित हो उठे पर शरीर पूरी गति के साथ कार्य करता रहा। दोनों प्रहार करते, बचाते, पुनःप्रहार करते। पर वीरभुगंता का एक प्रहार सैयद द्वारा बचाया न जा सका। उनका सिर धड़ से अलग होते देखकर कुँवर ने मातुल गंगा को संकेत किया। वे वीरभुगंता पर झपट पड़े। दोनों वीर थे। अपना कौशल दिखाते रहे। समय बीतता रहा। पर गंगा का एक प्रहार वीरभुगंता पर भारी पड़ गया। उन्हें धराशायी देखकर धाँधू ने गंगा को ललकारा। गंगा ने पूरी शक्ति से धाँधू पर प्रहार किया। धाँधू बचा ले गए। सिंह शावक की भाँति दोनों गरजते, प्रहार करते और बचाते। अन्य सैनिक इस दृश्य को देखने लगे। पर रणक्षेत्र में जीवन-मृत्यु का नृत्य होता है धाँधू का एक प्रहार गंगा का सिर उड़ा ले गया। गंगा को गिरते कुँवर ने देख लिया। उन्होंने व्रजराशिन को आगे बढ़वाया।
धाँधू जबतक अपना पसीना पोंछें, कुँवर ने उन्हें ललकारा। धाँधू ने तुरंत एक कुन्त फेंककर प्रहार किया। कुँवर ने ढाल पर उसे ले लिया। धाँधू और कुँवर माँ जगदम्बा का स्मरण कर प्रहार करते और बचाते। दोनों का युद्ध कौशल देखने योग्य था। दिवाकर भी अस्ताचल की ओर जा रहे थे। कुँवर ने एक कुन्त धाँधू पर फेंका।
धाँधू बचा न सके। उनकी अँतड़ियाँ कुन्त के साथ ही बाहर हो गईं। उनका अश्व रघुनंदन उन्हें लेकर भागा। पर शिविर के पृष्ठ भाग में पहुँचते ही वे अश्व से गिर पड़े। सूर्यास्त के साथ ही सेनाएं लौट पड़ीं।
दोनों शिविरों में समीक्षा एवं घायलों की सुश्रूषा का कार्य चलता रहा। उदयसिंह पूरे दिन कुँवर से न मिल सके। सायंकाल दोनों गले मिले। दूसरे दिन की योजना बनाई। उदयसिंह अपने शिविर में गए तो सुवर्णा और पुष्पिका को देखा। दोनों ने घायलों की सेवा का भार सँभाल लिया था। वे अत्यंत प्रसन्न हुए।
प्रातः हुई। दोनों ओर की सेनाएँ सन्नद्ध होने लगीं। चामुण्डराय ने अपनी योजनानुसार उदयसिंह को वाम भाग में उलझाने का प्रयास किया। उदयसिंह और कुँवर स्वयं भी दो भिन्न दिशाओं में युद्ध के लिए चलते, जिससे सम्पूर्ण सेना पर दृष्टि रख सकें, उनका मनोबल बनाए रख सकें। कुँवर ने मोर्चा सँभालते ही चाहमान सेना पर भयंकर प्रहार प्रारम्भ कर दिया। कदम्बवास और कुँवर का रण कौशल देख, लोग उँगली दबाते। दो प्रहर तक तांडव चलता रहा। एक बालक उन्हें छका रहा है, कदम्बवास सोचते। पर वे जो भी प्रहार करते, कुँवर बचा ले जाते। कुँवर की एक साँग कदम्बवास के हाथी के मस्तक पर लगी। हाथी रुक नहीं सका। कुँवर पसीना पोंछने का समय पा गए। अल्प विराम के बाद उन्होंने व्रजराशिन को आगे बढ़ाया । उनकी ललकार से चाहमान सेना भागने लगी। यह दृश्य देखते ही पृथ्वीराज की आँखों में रक्त उतर आया। उन्होंने आगे बढ़कर कुँवर को ललकारा। ‘आइए महाराज, हम आप ही अपना कौशल दिखाएँ। ’ कुँवर ने कहा। पृथ्वीराज तमतमा उठे। उन्होंने कुन्त उठाकर कुँवर पर फेंका पर कुँवर बच गए। अनेक सैनिकों की दृष्टि दोनों के रण कौशल पर थी। पृथ्वीराज और कुँवर का यह समर एक प्रहर से अधिक चलता रहा। दोनों का शरीर रक्त से लथपथ हो चुका था। कुँवर को चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया।
युद्ध की भयंकरता से अनेक सैनिक भाग खड़े हुए। चाहमान सेना का दबाव बढ़ गया। कुँवर ने दृष्टि उठाकर देखा। उनके पक्ष का कोई भी वीर दिखाई न पड़ा। गजपाल ने पूछा, ‘क्या व्रजराशिन को हटाएँ?’ कुँवर ने उसे डाँट दिया। कहा ‘कुँवर कभी पीछे पग नहीं हटाते।’ व्रजराशिन ने चिंघाड़ मारी आगे बढ़ गई। कदम्बवास , संयमा, भी कुँवर की ओर आगे बढ़े। कुँवर अब चारों ओर से घिर गए। पर उनके मनोबल में कोई कमी नहीं आई। उनपर चारों ओर से शस्त्रों की बौछार होने लगी। कदम्बवास, संयमा और पृथ्वीराज तीनों से बचाव करना कठिन था। पृथ्वीराज का एक घातक वार कुँवर को वेघता हुआ निकल गया। कुँवर का फेंका कुन्त आदि भयंकर के मस्तक पर लगा वह चिंघाड़ उठी। तब तक पृथ्वीराज ने दूसरा बाण मार कर उनके गले को काट दिया। शीश धड़ से लटक गया। रुण्ड हौदे में लुढ़क गया। चारों और हाहाकार मच गया। जो जहाँ था, वहीं स्तब्ध रह गया। गजपाल ने आदिभंयकर को शिविर की ओर मोड़ दिया। व्रजराशिन के हौदे से ढाल गिर पड़ी। एक सैनिक ढाल उठाकर चामुण्डराय को सूचित करने दौड़ गया। चामुण्डराय की बाछें खिल उठी। ढाल लेकर उसने अपने हाथी को उदयसिंह की ओर मोड़ दिया। उदयसिंह के सामने पहुँचते ही उसने कुँवर की ढाल को दिखाते हुए कहा, ‘तुम्हारी धरोहर तो लुट गई, देख लो।’ उदयसिंह ने कुँवर की ढाल को देखा। उन्होंने बेंदुल को एड़ लगाई। अश्व को कुदाते हुए कुँवर को खोजने लगे। आँखों से अश्रुधार बहने लगी। ‘कुँवर मेरे मित्र ’ वे बुदबुदाते हुए बढ़ते रहे। हाथियों के बीच उनकी आँखें व्रजराशिन को ढूँढती रहीं। हाथियों का जमाव अधिक था।
उन्हीं के बीच व्रजराशिन के हौदे पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने बेंदुल को पुचकारा। हौदे में कुँवर के क्षतविक्षत शरीर को देख, वे रो पड़े। ‘मित्र हमने संकल्प लिया था कि साथ नहीं छोड़ेंगे। पर आप चले गए। मित्र के लिए प्राण दे दिया, महाराज जयचंद्र , रानी पद्मा को क्या उत्तर दूँगा मैं? हम दो शरीर एक प्राण थे, पर अब? मैंने कहा था जहाँ आपका पसीना गिरेगा वहाँ मैं रक्त बहाऊँगा पर आप ही जीते, मैं हारा। अब आधे प्राण कैसे जीवित रहूँगा मैं? आप ने हमारे लिए रक्त बहाया और हम देखते रह गए। मित्र अब तुम्हारे बिना......नहीं......नहीं मैं भी आ रहा हूँ।’ उन्होंने मन ही मन निश्चय किया। कुँवर को जगनायक को सौंप वे निकल गए। अब उन्हें प्राणों का मोह नहीं था। उनकी धरोहर ही नहीं रही, तब वे ही रह कर क्या करेगे? कदम्बवास, चामुण्डराय , भुण्नैकमल्ल, संयमा सभी उदयसिंह की मनःस्थिति भाँप गए थे। उदयसिंह के सामने जो भी पड़ता उसे यम लोक पहुँचा देते। जो बचाना चाहा कुछ भी तो बच नहीं सका। अब बचाने का प्रयास ही व्यर्थ है। सुमुखी, कुमार, कुँवर सभी का दृश्य एक-एक कर उनके सामने आने लगा। वे अस्त्र चलाते पर उनका मन कहीं और था। सूर्यास्त हुआ। सेनाएं लौट पड़ीं।
कुँवर को लेकर जगनायक शिविर में आ गए थे। कान्यकुब्ज सेना का पखेरू उड़ गया था। चन्देल सेना में जो बच गए थे, प्राण को हथेली पर रख कर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत थे। उदयसिंह, सुवर्णा , पुष्पिका सभी की आँखें बरसती रहीं। माँ देवल तो अचेत हो गई थीं। जगनायक ने उदयसिंह को सान्त्वना देने का प्रयास किया। प्रातः होते ही माण्डलिक भी आ गए। कुँवर के हत होने की सूचना उन्हें मिल चुकी थी। वे दुःखी थे पर उन्होंने सेना का उत्साहवर्द्धन किया। माण्डलिक कुँवर को कान्यकुब्ज भेजने में लग गए।
प्रभाकर की रश्मियों के साथ ही उदयसिंह ने धौंसा बजवा दिया। चन्देल सेना का नेतृत्व करते वे आगे बढे़। प्राणों का मोह छोड़कर वे आज युद्ध भूमि में कूदे थे।
युद्ध का रूप भयंकर होता गया। वे आज बचाव की ओर से किंचित असावधान पर आक्रमण में अधिक सतर्क थे। उनके सामने से योद्धा भागने लगे। भागती सेना को पृथ्वीराज ने देखा । उन्होंने अपने सैनिकों को उत्साहित किया। उदयसिंह विद्युत गति से अस्त्र चलाते घूम रहे थे। तीसरा प्रहर आ गया था। दोनों दल के योद्धा उत्साहित हो, युद्ध का खेल खेलते रहे। चामुण्डराय को देखते ही उदयसिंह ने ललकारा ‘हम आप को ही खोज रहे थे। सैनिकों का प्राण लेने से कोई लाभ नहीं, हम ही आप निपट लें।’ चामुण्ड ने पहुँचते ही प्रहार किया। बेंदुल उछल गया, उदयसिंह बच गए। उदयसिंह ने कुन्त से प्रहार किया। चामुण्ड का हाथी घायल हो भाग चला। कदम्बवास सामने आ गए। उन्होंने साँग से प्रहार किया। उदयसिंह ने ढाल पर रोका। उदयसिंह ने बेंदुल को उछाला। कदम्बवास के हौदे पर रखे कलश को एक औझड़ दिया। कलश धराशायी हो गया। हाथी पीछे हट गया। इसी बीच चामुण्डराय दूसरे हाथी पर सवार हो पुनः आ गया। पहुँचते ही बाणों की वर्षा करने लगा। कदम्बवास, भुण्नैकमल्ल, चामुण्डराय सभी एक साथ प्रहार करने लगे। नीति - अनीति का प्रश्न नहीं रह गया था। उदयसिंह सभी का उत्तर दे रहे थे पर वे जान बूझकर श्येनपात का उपयोग नहीं कर रहे थे। इसी बीच चामुण्डराय का एक कुन्त उदयसिंह के गले को बेधता निकल गया। शीश लटक गया। पर रुण्ड लड़ता रहा। यह दृश्य देखकर लोग भयभीत हो रहे थे। चामुण्डराय ने सिरोही खींच कर मारी जिससे शीश धड़ से अलग हो गया। बेंदुल भी घायल हो रक्त से लथपथ था। चन्देल सेना में हाहाकार मच गया। भगवान भास्कर भी जैसे यह दृश्य देख न सके। वे अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर गए।
चन्देल शिविर में षोक का सागर लहरा उठा। हर कोई उदयसिंह की ही चर्चा करता। अब क्या होगा? आचार्य जगनायक सान्त्वना देने का प्रयास करते पर किसी के अश्रु रुक नहीं पा रहे थे। रात्रि के पिछले प्रहर माण्डलिक लौट सके। मार्ग में ही उन्हें उदयसिंह के वीरगति पाने की सूचना मिली। देवल, पुष्पिका और सुवर्णा की आँखों के अश्रु सूख गए। उदयसिंह का शव सुरक्षित रखने के लिए वैद्य ने व्यवस्था की। माण्डलिक के आते ही शिविर में हलचल हुई। रूपन भी घायल हुआ था। वैद्य ने उसका उपचार करने का प्रयास किया। आचार्य जगनायक ने उन्हें स्थिति से अवगत कराना चाहा पर उनकी वाणी अटक जाती। माण्डलिक डिंडकार छोड़कर रो पड़े। उन्हीं के साथ सम्पूर्ण शिविर रो पड़ा। माण्डलिक का व्यथित मन कहीं स्थिर होकर विश्राम नहीं पा रहा था। उदयसिंह का मुखमण्डल निहारते वे जाने कहाँ पहुँच जाते। कुँवर, उदयसिंह दोनों ने साथ छोड़ दिया। सम्पूर्ण चन्देल सेना उन्हीं का मुँह निहार रही थी। उन्होंने हाथ उठाकर कहा, ‘अभी मैं हूँ। आचार्य, वीरों को सन्नद्ध करो। प्रातः होते ही हमें विजयश्री को खींच लेना है।’ माण्डलिक की वाणी से सैनिक उत्साहित हुए। पूरी रात सैनिक तैयारी ही करते रहे, कोई सो नहीं सका। देवल और पुष्पिका मूर्च्छा से उठ नहीं सकीं। सुवर्णा बार-बार देवल और पुष्पिका को जगाने का प्रयास करतीं पर वे सफल न हो सकीं।
उदयसिंह के निधन से चाहमान सेना का मनोबल बढ़ गया था। उनके शिविर में उत्सव मनाया गया। पिछले प्रहर में लोग झपकी ले सके। पर चन्देल तो मरने मारने को सन्नद्ध सूर्योदय की प्रतीक्षा ही करते रहे। प्रातः होते ही सेना युद्धभूमि की ओर चल पड़ी। माण्डलिक पंचशब्द पर सवार हुए। उदयसिंह के निधन ने उन्हें कठोर बना दिया था। उन्होंने अपनी सेना से कहा, ‘जिन्हें जीवन प्यारा है, वे लौट जाएँ’ पर कोई लौटा नहीं। धौंसा बजते ही चाहमान सेना भी युद्ध भूमि की ओर भागी। युद्ध प्रारम्भ हुआ। माण्डलिक आगे बढ़ते गए। वे जिसे भी देखते, मौत के घाट उतार देते। महाराज पृथ्वीराज एवं चामुण्डराय को खोजते हुए वे घूम रहे थे। अनेक वीरों को मौत के घाट उतार कर भी, वे शान्त नहीं हुए। माण्डलिक का रौद्र रूप देखकर चाहमान सेना भागने लगी। माण्डलिक पृथ्वीराज को दबोच लेना चाहते थे। कोई भी माण्डलिक के सामने डट नहीं रहा था। जो भी सामने आया यमलोक ही गया। ऐसा लगने लगा कि कहीं पृथ्वीराज सामने आने पर जीती लड़ाई हार न जाएँ। पूरा मैदान रक्त और लोथों से पट गया था। चन्देल चाहमान का यह युद्ध कई सहस्र वीरों को यमलोक भेज चुका था। स्थिति की भयंकरता का अनुमान चन्द को था। वे महाराज को दूर ही रखना चाहते थे। वीर संयमा आगे आया। माण्डलिक ने खींच कर सिरोही मारी। उनका पैट कट गया। वे धरती पर गिर पड़े। कदम्बवास ने अपना हाथी आगे बढ़ाया पर माण्डलिक की साँग लगते ही हाथी भाग चला। यह दृश्य देखते ही पृथ्वीराज का रक्त उबल पड़ा। उन्होंने आदि भयंकर को आगे बढ़वाया। दोनो आमने-सामने आ डटे। माण्डलिक की आँखों में रक्त उतर आया था। पृथ्वीराज को देखते ही उन्होंने प्रहार किया, हौदे का रस्सा कट गया। पृथ्वीराज ने खींच कर बाण मारा जिसे माण्डलिक ने ढाल पर लिया। दोनों रौद्र रूप धारण कर चुके थे। दोनों को अपनी शक्ति और कुशल ता में आस्था थी। माण्डलिक के दूसरे प्रहार से हौदे का शेषांग भी कट गया। हाथी घायल हो चिंघाड़ उठा। पृथ्वीराज धरती पर गिर अचेत हो गए। माण्डलिक आवेश में थे। पृथ्वीराज के धरती पर आते ही वे आगे बढ़ गए। माण्डलिक घूमते रहे। चाहमान सेना उनके सामने से भागती रही। चामुण्डराय को देखते ही प्रतिशोध की ज्वाला में उतर, वे उनकी ओर लपके। चामुण्डराय की साँग ढाल पर लेते हुए उन्होंने अपना कुन्त उनपर चला दिया। कुन्त हाथी के मस्तक में धँस गया। चिंघाड़ते हुए हाथी भाग चला।
पृथ्वीराज के निकट एक पक्षी आ गया। वीर संयमा ने निकट ही पड़े पृथ्वीराज को देखा। उसे लगा कि पृथ्वीराज की आँखों पर पक्षी आघात कर देगा। उन्होंने अपने शरीर से मांस का एक टुकड़ा काटा और पक्षी की ओर फेंक दिया और पक्षी मांस का टुकड़ा ले उड़ गया। इसी बीच पृथ्वीराज में चेतना लौटी। उन्होंने संयमा को देखा ।वे उठे। गजपाल तबतक आ गया था। उन्होंने संयमा को उठाने के लिए कहा। उन्हें हौदे में रखकर पृथ्वीराज को बिठा, गजपाल शिविर की ओर चल पड़ा। प्रभाकर की रश्मियाँ सिन्दूरी होने लगी थीं। सेनाएँ शिविरों की ओर लौट पड़ीं।
माण्डलिक शिविर में लौटे। वे उदयसिंह के शव के निकट बैठ गए। पुष्पिका की चेतना अब भी नहीं लौटी थी। सुवर्णा कभी शिविर को सँभालती और कभी देवल और पुष्पिका को। रात में माण्डलिक माँ शारदा की आराधना में लग गए। मध्य रात्रि में गोरक्षनाथी साधुओं का एक दल शिविर के निकट आ गया। साधु माण्डलिक के सखा थे। माण्डलिक आवेश में थे ही, साधु की वाणी ने उन्हें सम्मोहित कर दिया। ‘एक नया क्षेत्र आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। कदलीवन प्रयाण करो’, साधु ने कहा, ‘रक्तपात बहुत हो चुका। आपने भरपूर जीवन जिया है अब साधना का समय आ गया है।’
माण्डलिक दल के कुछ सदस्यों के साथ एक वृक्ष के नीचे आकर बैठ गए। साधु की वाणी रात की नीरवता में खनकती रही।
रात का अन्तिम प्रहर। शिविर में सुवर्णा चींख उठी। देवल, पुष्पिका , रूपन तीनों के प्राण उड़ चुके थे। वेदनापूर्ण कराह के साथ बेंदुल ने भी प्राण छोड़ दिया।
उसी रात काशी के राज प्रासाद में चित्रा और पुनिका जगीं। चन्द्रा रात देर तक जगी थी। उन्हें सुबह नींद लग गई। पुनिका ने झाडू देना प्रारम्भ किया। इसीबीच एक कौवा मुँडेर पर आकर बैठ गया। उसकी काँव-काँव से पुनिका ने ऊपर देखा। चित्रा भी आँगन में आ गई थी। दोनों हाथ उठा उदयसिंह के सन्देश की प्रतीक्षा में कह उठीं ‘उड़ियो रे कागा।’ पर कागा के उड़ने पर भी उदयसिंह का सन्देश क्या पहुँच सकेगा? पर मन कंचन मृग के पीछे भागता तो है ही।
‘व्यष्टि ही नहीं समष्टि, सत्ता, सभी कंचन मृग के पीछे क्यों भागते हैं? कंचन मृग नए-नए रूपों में उगता रहा है और मनुष्य उसके पीछे विवेक रखते हुए भी भागता ही है। क्या यही नियति है? हर व्यक्ति अपने लिये कंचन मृग खोज लेता है, सत्ता और समाज भी। वह उसकी ओर भागने में ही अपनी सार्थकता समझता है पर कंचन मृग विनाश और विघटन का बीच बोकर अन्तर्धान हो जाता है। युगों से यही हुआ है पर’, कच्चे बाबा प्रातः बैठे विचार कर रहे हैं, ‘कब तक?’