36. भीत नहीं हूँ मैं-
चित्ररेखा उद्यान में पुष्प इकट्ठा कर रही थी। पुष्पिका के आ जाने से उसका काम बढ़ गया था। चन्द्रा के लिए जिन पुष्पों को चुनती उसी तरह के पुष्प पुष्पिका के लिए भी। वही पुष्पिका और चन्द्रा के बीच संवाद सूत्र का भी काम करती। सूर्योदय होने में अभी कुछ देर थी। क्षितिज के छोर सिन्दूरी होने लगे थे। कुसुमित पुष्पों की सुगन्ध से उद्यान सुवासित था। चित्ररेखा ने दृष्टि घुमाई तो चन्दन पीछे खड़ा था।
‘मैं कुछ सहायता करूँ,’ उसने कहा।
‘पुष्प मुझे ही चुनना है इसमें सहायता की कोई आवश्यक ता नहीं। तुम्हें पुष्पों की कोई जानकारी भी है?’
‘पुष्प मुझे भी प्रिय हैं किन्तु उससे अधिक प्रिय हैं उसे चुनने वाली सुकुमार उँगलियाँ।’
‘मैं वामा अनी की सदस्य हूँ। जानते हो?’
‘क्या इसमें भी सन्देह है? पर पौरुष प्रदर्शन के लिए पुरुष के रूप में जन्म लेना पड़ेगा।’
‘क्यों?’
‘वामा अनी क्या करेगी? युद्ध भूमि में पदार्पण करते समय विष की पुटिका भी बाँधकर चलेगी। क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि आत्महत्या ही करना है?’
‘यह किसने कहा, तुमसे? हम विषपान कर प्राण नहीं देते।’
‘आप का युद्ध आत्मरक्षार्थ है न?’
‘नहीं तो। हम अन्यायी पर आक्रमण करते हैं। जब मैं अश्वारोही के वेष में निकलूँगी, तुम पहचान नहीं सकोगे।’
‘सायंकाल घुँघअओं की छूम-छमा-छम भी तो होगी।’
‘तुम्हें कब से बता रही हूँ। संगीत एक कठिन साधना है। पर तुम्हारी मोटी बुद्धि में तो कुछ धँसता ही नहीं।’
‘यदि मैं इसका प्रमाण दे दूँ कि मेरी बुद्धि तुमसे तीक्ष्ण है।’
‘सच’?
और क्या झूठ?’
‘वह कैसे?’
‘गोपनीयता का बन्धन न होता तो मैं तुम्हें बता देता ।’
‘मुझसे भी गोपनीयता बरतोगे?’
‘बरतना ही पड़ेगा।
‘क्यों?’
‘बालिकाओं के पेट में बात वैसे भी नहीं पचती। यह तो अत्यन्त गोपनीय प्रश्न है?’
‘गोपनीयता के नाम पर बालिकाओं को लांछित कर रहे हो।’ चित्रा का मुख मण्डल लाल हो उठा। ‘तुम पुरुष हो इसलिए अपने को.....। बताना हो तो बता दो नहीं तो मैं चलती हूँ।’
‘मन की बात ही तो बताने आया था। ’
‘मन की बात नहीं, उस गोपनीय बात को बताओ।’
‘पर पहले शपथ लेना होगा कि उसे गोपीनीय रखोगी।’
‘मैं शपथ नहीं लेती, तुम्हें विश्वास हो तो बताओ, नहीं तो मैं चलूँ।’
‘विश्वास को तोलना कठिन है। तुम मेरी कठोर परीक्षा ले रही हो। मैं बता दूँ, बात फैल जाए तो मेरे प्राण संकट में पड़ जाएँगे। ’
‘ठीक है, मैं चली।’ कह कर चित्ररेखा आगे बढ़ गई। चन्दन ने उसे दौड़कर रोका,
‘मैं तुमसे कुछ भी नहीं छिपा सकता। पर बात ही कुछ ऐसी है।’
‘मैं तुम्हारे गोपनीय प्रसंगों में बाधक नहीं बनूँगी। मुझे जाने दो।’
‘गोपनीय प्रसंग तुम्हारें लिए गोपनीय नहीं रहना चाहिए। पर मेरा ध्यान रखना’, गला रेतने का अभिनय करते हुए, उसने कहा।
‘ओह हो।’
‘यहाँ और कोई तो नहीं है।’ वह इधर उधर देखता है। चित्ररेखा भी देखकर कहती है, ‘कोई नहीं है।’
तुम जानती ही हो, रानी जू का कृपा पात्र हूँ, अब मैं भी।’
‘बात बताओगे या…….।’
‘बात ही तो बता रहा हूँ। रानी जू ने मुझे महाराज पृथ्वीराज की सैनिक तैयारी का पता लगाने भेजा था।’
‘और तुमने लगा लिया पता?’
‘क्या मैं तुम्हें अक्षम प्रतीत होता हूँ? मैंने जाने कितने भेष बदल कर यह कार्य किया है। इस कार्य के लिए मैं कृच्छ्राचारी, पीठमर्द, विट,विदूषक तक बना।’
‘हूँ’, जैसे ही चित्रा के मुख से निकला, बातचीत करते दो लोगों के स्वर सुनाई पड़े। चन्दन और चित्रा दोनों मौन हो, वाटिका में छिप गए। सैनिक वेष में एक व्यक्ति आया । उसके साथ चलने वाला व्यक्ति थोड़ा लँगड़ाकर चल रहा था।
‘तुम कह रहे थे चन्द्रा या उसकी सेविका चित्रा कोई न कोई उद्यान में अवश्य मिल जाएँगी। ’
‘मैंने कहा था। अब भी वही कह रहा हूँ। यह ताम्बूल का नगर है। ताम्बूल खाओ तब तक मैं देखता हूँ। ’ कहते हुए उसने ताम्बूल की पुटिका सैनिक की ओर बढ़ा दी।
‘मुझे ताम्बूल देकर टरकाओ नहीं जिस कार्य के लिए लाए हो, वह होना चाहिए’, सैनिक ने ताम्बूल लेते हुए कहा।
‘अवश्य , मैं देखता हूँ’, कहते हुए वह व्यक्ति उद्यान में धँस गया।
सैनिक इधर-उधर देखकर चहल कदमी करता रहा। कुछ क्षण तक जब कोई दिखाई नहीं पड़ा, वह विचालित होने लगा। अपनी तलवार घुमाता चारों ओर जिज्ञासु दृष्टि से देखता। ’आप का स्वागत है वीरवर’, एक पुष्प की ओट से चित्रा ने आकर प्रणाम किया। सैनिक के नेत्र कसमसा उठे। उसका मुख मण्डल प्रसन्नता से उद्दीप्त हो उठा।
‘तुम्हें पाने के लिए मैंने यह दुस्साहस किया’, सैनिक की दृष्टि चित्रा पर टिक नहीं पा रही थी। ‘तुम कहते तो मै स्वयं उपस्थित हो जाती। यह धरती वीरों की भोग्या है न?’
‘मुझे लज्जित न करो।’
‘इसमें लज्जा की कौन सी बात है वीरवर, नारी अपहरण में ही लोग अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं। मैं स्वेच्छा से तुम्हारे साथ चलने को प्रस्तुत हूँ पर अभी हम लोगों का परिचय नहीं हुआ। यहाँ उद्यान में कोई देख लेगा तो दोनों के प्राण संकट में पड़ जाएँगे। उद्यान में ही वह देखो एक विश्राम कक्ष है। उसी में चलकर बातें करें तो ठीक रहेगा।’
‘वहाँ संकट तो नहीं उत्पन्न हो जाएगा।’
‘वीर होकर संकट से भय खाते हो।’
‘मैं तनिक भी भयभीत नहीं हूँ,’ चित्रा ने सैनिक का हाथ पकड़ लिया। सैनिक मुग्ध हो चल पड़ा । चलते हुए सैनिक ने बात करने का प्रयास किया, पर चित्रा ने ओठों पर उँगली रखकर बातें न करने का संकेत किया। दोनों चुपचाप चलते रहे। पर दोनों के मन में आँधी चल रही थी। विश्राम कक्ष की सज्जा देखकर सैनिक चकित हो रहा था। चन्दन की सुगंधित लकड़ी का पलँग, उस पर सुचित्रित तोशक एवं चादर, भित्तियों पर सुन्दर युगल चित्र। सैनिक एक टक निहारता रहा। ‘बैठो वीर’ कह कर चित्रा अन्दर का कपाट खोल निकली। विश्राम कक्ष से चित्रा के बाहर होते ही बाहर और भीतर के दोनों कपाट एक साथ बन्द हो गए। सैनिक चौंका, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
चन्दन और चित्रा हाथ में तलवार लेकर उस लँगड़े व्यक्ति को खोजने लगे। थोड़ी ही दूर पर पुष्पों की झुरमुट में वह श्वान की मुद्रा में बैठा था। अपनी जिह्वा उसने मुख से बाहर निकाल रखी थी। चन्दन और चित्रा पीछे से आए। उसके ऊपर उत्तरीय डालकर दोनों ने एक-एक हाथ कस कर पकड़ लिया। उस व्यक्ति ने बहुत छुड़ाने का प्रयास किया पर हाथ छूट न सका। दोनों ने उसे ले जाकर विश्राम कक्ष के निकट बने एक दूसरे कक्ष में बन्द कर दिया। चन्दन नग्न तलवार हाथ में ले वहीं पहरा देता रहा और चित्रा रानी जू को सूचित करने के लिए दौड़ गई। महारानी मल्हना, महाराज, उदयसिंह को सूचना मिली। महारानी ने महाराज से अनुमति ले दोनों को बन्दी गृह में डलवा दिया। उदयसिंह बन्दियों से सूचना प्राप्त करने में लग गए।