कंचन मृग - 32. बेतवा का पानी लाल हो गया Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 32. बेतवा का पानी लाल हो गया

32. बेतवा का पानी लाल हो गया-

राजकवि जगनायक के साथ माण्डलिक, उदयसिंह, देवा, तालन तथा कुँवर लक्ष्मण राणा भी तैयार हुए। महाराज जयचन्द ने कुँवर लक्ष्मण राणा को सावधान किया। चाहमान नरेश चन्देलों से निर्णायक युद्ध करना चाहते हैं। भयंकर युद्ध की संभावना है। कुँवर की पत्नी पद्मा को भी युद्ध की भयंकरता का अनुमान हो गया था। कुँवर को विदा करते समय उसकी आँखों से अश्रु छलक आए। हाथी व्रजराशिन को मोदक खिलाते हुए उसने कहा, ‘कान्यकुब्ज की लाज रखना। कुँवर को तुम्हें सौंपती हूँ।’ व्रजराशिन ने सूँड़ उठा कर पद्मा को आश्वस्त किया। टीका लगा कर कुँवर की बाँहों में समा गई। कुँवर ने उत्तप्तगात का स्पर्श किया। कुछ क्षण बीत गए। व्रजराशिन ने हुंकार भरी। उसी के साथ दोनों अलग हुए। पद्मा पर दृष्टि डाल हाथी पर सवार हुए। वे माँ तिलका के द्वार पर गए। माँ ने भी सावधान करते हुए तिलक कर विदा दी। कुँवर अपनी सेना में आ गए, जहाँ धन्वा और लला तमोली उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
कुँवर के आते ही प्रस्थान वाद्य बजा। सैनिकों ने मार्ग पकड़ लिया। अश्वारोही अश्वों को नचाते, हस्तिपाल हाथियों को दौड़ाते, पैदल भी दौड़ लगाते, अस्त्र खनकाते चल रहे थे। महोत्सव के सैनिक घर लौटते विशेष प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे। कुड़हरि पहुँचने पर जगनायक ने स्वर्ण खचित कशा की बात उदयसिंह को बताई। उदयसिंह ने कुड़हरि नरेश से भेंट की। भयभीत नरेश ने एक कर्मी को अपराधी बता कशा लौटा दी। कल्माषी पारकर सेनाएं तेज गति से आगे बढ़ीं। वेत्रवती के निकट पहुँचते ही गोधूलि वेला आ गई। नदी के तट पर ही शिविर लग गए। शिविर अध्यक्ष सैनिकों की व्यवस्था में लग गए।
‘चामुण्डराय को जब यह ज्ञात हुआ कि कान्यकुब्ज से वनस्पर बन्धु कुँवर लक्ष्मण के साथ महोत्सव जा रहे हैं, उसने रात्रि में ही वेत्रवती के सभी निकटस्थ बयालीस घाटों पर अपनी सेना लगा दी। कान्यकुब्ज के हाथियों का एक दल नदी में विहार हेतु उतर गया था। चामुण्डराय ने उन हाथियों को घिरवा लिया। माण्डलिक और कुँवर लक्ष्मण राणा को सूचना मिली। विचार विमर्श हुआ। माण्डलिक घाटों को मुक्त कराने का दायित्व कुँवर को देना चाहते थे। जैसे ही उन्हें इसका पता चला उन्होंने अपनी सहमति दे दी।
प्रातः होते ही कान्यकुब्ज की सेनाएं घाटों की ओर बढ़ीं। तालन, धन्वा, लला, तमोली, कुँवर के नेतृत्व में सन्नद्ध हुए। उदयसिंह भी साथ जाना चाहते थे पर माण्डलिक ने उन्हें विश्राम करने के लिए कहा। बात कुँवर को चुभ गई। उन्होंने उदयसिंह को यह कह कर रोक दिया कि ‘वेत्रवती के घाटों को मुक्त कराने का संकल्प मेरा है। इसमें किसी की भी भागीदारी नहीं होगी।’ उदयसिंह की आँखों में अश्रु आ गए। पर कुँवर ने समझाया, ‘अभी व्रजराशिन बूढ़ी नहीं हुई और मेरी शक्ति का ह्रास नहीं हुआ है।’ कुँवर जानते थे कि यह उनकी शक्ति का परीक्षण है इसमें उन्हें खरा उतरना है। वीरों को इस तरह का परीक्षण क्षण-क्षण देना होता था। सेना में केवल क्षत्रिय ही नहीं अन्य वर्णों के लोग भी सम्मिलित होते थे। सैन्य कर्म एक व्यवसाय था। लोग दूर-दूर से आकर सेना में भर्ती होते थे। सेनाएं भी राजा, सामन्त किसी की भी हो सकती थीं। कान्यकुब्ज की सेनाओं में धन्वा तेली, लला तमोली जैसे वीर नेतृत्व सँभाल रहे थे। सेना में मुस्लिम एवं तुर्क भी सम्मिलित होते थे। वाराणसी के सैयद तालन कान्यकुब्ज और चन्देलों के संवर्ग में प्रमुख भूमिका निभाते थे।
कुँवर की सेनाएँ नदी के झाबर में प्रवेश कर गईं। हाथियों को नदी पार घेर दिया गया था। उसी के साथ चामुण्डराय के हाथियों का भी एक झुण्ड था। कुँवर ने सभी हाथियों को अपने घेरे में करवा लिया। चामुण्डराय को सैनिकों ने सूचित किया। अपनी विशाल वाहिनी के साथ चामुण्डराय मैदान में आ डटे। उन्होंने आगे बढ़कर कुँवर को वनस्पर बन्धुओं का साथ छोड़ने के लिए प्रेरित किया, ‘वनस्पर ओछी जाति के हैं। आप उत्तम कुल के हैं। आपका उनके साथ रहना शोभा नहीं देता। आप कान्यकुब्ज लौट जाएँ।’ चामुण्डराय का कथन कुँवर को अनुचित लगा। उन्होंने कहा,’ आपका भेद डालने का प्रयास सफल नहीं होगा। कान्यकुब्ज और वनस्पर बन्धु एक हो चुके हैं। घाट से अपनी सेनाएं हटा लें या युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाए।’ कुँवर से इतना सुनते ही चामुण्डराय लौट पड़े। धौंसा बज गया। कान्यकुब्ज सेनाएं भी आगे बढ़ीं। दोनों से तुमुल युद्ध प्रारम्भ हो गया।
कुँवर अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए आगे बढ़ गए। गजव्रज और अश्वानीक भी उनके साथ ही उत्साह से आगे बढ़े। चाहमान सेना में भी नया रक्त हरहरा रहा था। सैनिक कान्यकुब्जेश्वर की जय और महाराज पृथ्वीराज की जय के उद्घोष के साथ ही आपस में भिड़ जाते। रक्त और लोथों से झाबर पटने लगा। चाहमान नरेश की ओर से कदम्बवास, ताहर, पज्जूनराय, चामुण्डराय तथा कान्यकुब्ज की ओर से कुँवर लक्ष्मण , धन्वा, सैयद तालन, लला तमोली भयंकर युद्ध कर रहे थे। दो प्रहर बीत गया था। प्रभाकर की रश्मियाँ तेज हो गई थीं। कभी कभी बादलों के कारण उन्हें छाया मिलती। रूपन अश्वों की एक टोली को पानी पिलाने वेत्रवती तट पर ले गया। वेत्रवती का पानी देखकर उसका माथा ठनका। युद्ध की भयंकरता का अनुमान कर वह भागा। शिविर में आते ही माँ देवल मिल गईं। वह चीख पड़ा, ‘बेतवा का पानी लाल हो गया है, कुँवर का कोई समाचार नहीं मिल रहा है।’ देवल यद्यपि पूजा पाठ में ही अपना अधिक समय व्यतीत करती थीं किन्तु रूपन की सूचना से उन्हें अनर्थ की आशंका हुई। वे रूपन के साथ तुरन्त उदयसिंह के शिविर में जा पहुँचीं। उदयसिंह और पुष्पिका ने चरणस्पर्श किया पर वे उदयसिंह को डाँटते हुए बोल पड़ीं ‘बेतवा का पानी लाल हो गया है, कुँवर का पता नहीं और तुम शिविर में मोद मना रहे हो। यदि कुँवर को कुछ हो गया तो कान्यकुब्जेश्वर के सामने सिर उठा सकोगे?’ उदयसिंह तुरन्त माण्डलिक के पास गए। स्थिति की गम्भीरता को देखकर माण्डलिक ने सेना तैयार होने का आदेश दिया। सेना तैयार हो रही थी कि उदयसिंह अपने कुछ सधे हुए सैनिकों को साथ ले आगे बढ़ गए। वे पश्चाताप कर रहे थे। कुँवर को अकेले क्यों जाने दिया? उन्होंने बेंदुल को एड़ लगाई। वह पवन की गति से आगे बढ़ा। सैनिक भी पीछे पीछे आगे बढ़ते रहे।
वेत्रवती का पानी रक्ताभ हो चुका था। पानी का रंग देखते ही उदयसिंह उद्विग्न हो उठे। उन्होंने दूर से ही देखा, झाबर में भयंकर युद्ध हो रहा था। कान्यकुब्ज सैनिक तितर बितर हो रहे थे। कुछ सैनिक दबे पाँव इधर-उधर भागते दिखाई पड़े।
एक अश्वारोही से उन्होंने कुँवर के बारे में पूछा। पर वह कुछ भी बता नहीं सका। उसने तो केवल इतना कहा कि चाहमान सेनाओं ने कान्यकुब्ज सेनाओं को घेर लिया है। उन्होंने भागते हुए सैनिकों को रोका। उन्हें अपने साथ लिया और आगे बढ़े। उदयसिंह को देखते ही कान्यकुब्ज सैनिकों में उत्साह की एक लहर दौड़ी। पर जिधर भी वे दृष्टि घुमाते, कुँवर कहीं दिखाई नहीं पड़ते। उनका मन सशंकित हो उठा। एक मित्र को खोकर वे जीवित कैसे रहेंगे? वे तेजगति से बढ़ते जा रहे थे।
कुछ दूर बढ़ने पर गजबल का जमाव दिखाई पड़ा। उनकी आँखें व्रजराशिन को खोज रही थीं। कान्यकुब्ज एवं चाहमान सेना के अनेक योद्धा वीरगति प्राप्त कर चुके थे। सैयद, तालन, धन्वा, को देखकर उदयसिंह ने कुँवर का समाचार पूछा। पर वे भी निश्चित रूप से कुछ बता न सके। उन्हें भी साथ ले उदयसिंह आगे बढ़ गए। हाथियों की दहाड़ चीत्कार के बीच व्रजराशिन को ढूँढ़ती आँखें। गजबल को लाँघते हुए उदयसिंह बढ़ रहे थे। कुछ दूर पर उन्हें कदम्बवास दिखाई पड़े। वे उधर ही बढ़ गए। उन्हीं के सम्मुख कुँवर की व्रजराशिन को देख वे शीघ्रता से उसी ओर लपके। उन्होंने बेंदुल को एड़ लगाई और ढाल की धमक से कदम्बवास के हौदे का कलश गिरा दिया। पर इसके पूर्व ही कदम्बवास का तीर छूट चुका था। व्रजराशिन के मस्तक पर तीर लगते ही वह चिंघाड़ उठी। उदयसिंह को देखते ही कदम्बवास हँस पड़े। कुँवर ने भी उदयसिंह को देखा। गजपाल ने तीर निकाल दिया। उदयसिंह और कदम्बवास का द्वन्द्व प्रारम्भ हो गया। कदम्बवास के तीरों को खेलते हुए उदयसिंह ने कसकर साँग चलाई जिससे कदम्बवास के धनुष के दो टुकड़े हो गए। दूसरी साँग लगते ही उनका हाथी भाग खड़ा हुआ। कदम्बवास के हटते ही उनकी सेना भी तितर-बितर होने लगी। चाहमान सेनाएँ सभी घाटों पर लगी हुई थीं। इसलिए तुरन्त झाबर में पहुँचना उनके लिए कठिन था। घाट खुलते ही कान्यकुब्जेश्वर एवं उदयसिंह की सेनाएँ बेतवा पार करने लगीं। तत्काल तो युद्ध टल गया था पर सम्भवतः एक निर्णायक युद्ध की यह पूर्वपीठिका थी। कुँवर को पाकर उदयसिंह का मन प्रमुदित हो उठा। वे गले मिले, कुँवर भी भावुक हो उठे। ‘माँ जगदम्बा ने लाज रख ली’ उन्होंने कहा। सैन्य बल उत्साह के साथ महोत्सव की ओर बढ़ा।
महाराज परमर्दिदेव एवं महारानी मल्हना ने माण्डलिक उदयसिंह, कुँवर लक्ष्मण राणा का हार्दिक स्वागत किया। नगर में स्थान-स्थान पर स्वागत द्वार बनाए गए। नर-नारी अटारियों पर खड़े, पुष्पवर्षा कर दल का अभिनन्दन करते रहे। माण्डलिक भी प्रसन्न हुए। देवल, सुवर्णा , पुष्पिका महोत्सव लौटकर प्रसन्न हुई। नगरवासियों में नया उत्साह दिखाई पड़ रहा था। चन्द्रा-पुष्पिका की जोड़ी एक बार फिर सक्रिय हो उठी। नृत्यगान के साथ ही जीवन का संचार हुआ। उजड़े हुए उपवन को जीवित करने में कुछ समय लगा। कुँवर लक्ष्मण राणा के लिए भी आवास की व्यवस्था हुई।