कंचन मृग - 31. धरती की पुकार को कोई नहीं सुन रहा Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 31. धरती की पुकार को कोई नहीं सुन रहा


31. धरती की पुकार को कोई नहीं सुन रहा-

कच्चे बाबा का आश्रम। प्रातः उदयसिंह और पुष्पिका ने प्रवेश किया। एक शिष्य ने बाबा को सूचित किया। बाबा एक आस्तरण पर बैठे थे। उन्होंने दोनों को वहीं पर बुलवा लिया। प्रणाम निवेदन कर दोनों निकट ही एक आस्तरण पर बैठ गए।
‘संकट का समय है’, बाबा ने स्वयं कहा। ‘चाहमान नरेश परमर्दिदेव पर आक्रमण की योजना बना रहे हैं। जन धन की हानि के अतिरिक्त उन्हें क्या मिलेगा? सीमाप्रान्त पर निरन्तर आक्रमण हो रहे हैं। दस्युओं का आंतक बढ़ गया है। नारियाँ रक्षित नहीं हैं। ऐसी स्थिति में महायुद्ध? महोत्सव का स्नेह तुम्हें युद्ध में खींच लेगा। जाना ही होगा। पर मैं तुमसे बृहत् कार्य की अपेक्षा करता था। आज संगठन और सहयोग की आवश्यकता अधिक है। साधुओं में भी वैर भाव का उदय हो गया है।
पाश्-र्वनाथी, श्वेताम्बर, दिगम्बर सभी में सहयोग का अभाव खटकता है। लोक सबको देखता है। सबसे ग्रहण करता है। सामान्य जन में चेतना जगाने के स्थान पर केवल हम वृत्त बनाते हैं। युद्ध अहं तुष्टि का एक माध्यम है। पर विनाश लीला उससे कहीं अधिक होती है। भटकाव सभी में है- वैष्णव, शैव और शाक्त, कापालिक, किसकी चर्चा करें। ’ पुष्पिका और उदयसिंह मनोयोग से बाबा की बातें सुनते रहे। ‘धरती की पुकार कोई नहीं सुन रहा। खड्ग से धर्म का प्रसार.....।’ बाबा ध्यानस्थ हो गए।
‘नवीन सुन रहा हूँ बाबा,’ उदयसिंह ने कहा।
‘यही सम्भाव्य है, वत्स’, बाबा ने आँखें खोली।
‘काश! लोगों में विवेकपूर्ण ढंग से स्थितियों का आकलन करने की क्षमता बढ़ती। अभी पारिजात आया था। उसकी पत्नी सुमुखी का पता ही नहीं चल सका। जानते हो कहाँ से?’
‘नहीं बाबा।’
‘उसी महोत्सव से, तुम्हारे नगर छोड़ने के चार प्रहर पश्चात्। विक्षिप्त हो गया है, पारिजात। दिन रात सुमुखी की खोज में ही व्यतीत करता है। पर कौन उसकी सुनेगा? असहायों की पीड़ा का परिहास सहज हो गया है।’ बाबा कहते रहे। इसी बीच पं0 पारिजात आ पहुँचे। बाबा ने इंगित किया वे सामने ही बैठ गए। आश्चर्य चकित उदयसिंह उन्हें देखते रहे। यह तो वही व्यक्ति है जिसने रिजगिरि में प्रवेश कर कहा था, ‘ महोत्सव की ओर चाहमान सेनाओं को प्रस्थान करते मैंने देखा है।’ पारिजात ने पुष्पिका को ध्यान से देखा। उनकी दृष्टि पुष्पिका से हट नहीं रही थी। ध्यान हटा तो उनकी आँखें बन्द हो गईं। वे बुदबुदा उठे, ‘सुमुखी।’
‘बाबा, क्या यही पं0 पारिजात हैं?’, उदयसिंह ने पूछा।
‘हाँ वत्स।’
‘मैं पं0 पारिजात की सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ। पुष्पिका भी.....कहकर उदयसिंह ने पुष्पिका की ओर देखा। उसने सहमति से सिर हिलाया।
‘आवश्यकता नहीं है’, पं0 पारिजात चीख उठे, ‘राजपुरुषों पर मेरा विश्वास नहीं है।’
‘आप ही ने मुझे महोत्सव की ओर चाहमान सेनाओं के जाने की बात बताई थी।’ ‘वह मेरा धर्म था पर तुम यहाँ क्या कर रहे हो? महोत्सव का सिन्दूर यदि लुट गया तो......तुम राजपुरुषों पर कैसे कोई विश्वास करेगा?’
पुष्पिका की ओर देखकर, ‘देवी, क्षमा करना। नारियों के अपहरण की आशंका होते ही, मैं विक्षिप्त हो उठता हूँ।’
‘सुमुखी का अपहरण ही हुआ है?’ उदयसिंह ने पूछा।
‘कैसे बताऊँ तुम्हें? कौन सा प्रमाण प्रस्तुत करूँ जब तक खोज न लूँ…………’
‘बाबा, मैं पं0 पारिजात का सहयोग करना चाहता हूँ। पर इनका अविश्वास…………’
उदयसिंह कहते कहते रुक गए।
‘इसके कारण हैं ’, बाबा ने कहा।
‘मैं किसी राजपुरुष का सहयोग नहीं चाहता।’ पारिजात का स्वरतिक्त हो उठा था।
‘किसी एक राजपुरुष ने विश्वास घात किया होगा। इससे सभी पर अविश्वास कर लेना क्या संगत है आचार्य? मैं तो राजपुरुष भी नही,सेवक हूँ। आप के संकल्प में सहभागी बनने का सौभाग्य मिल सके, इसीलिये निवेदन कर रहा हूँ।’ उदयसिंह ने पुष्पिका की ओर देखा।
‘आज तक हम पर किसी ने अविश्वास नहीं किया,’ पुष्पिका ने जोड़ा ‘हम प्राण देकर भी सुमुखी की खोज करना चाहते हैं। ’
‘तुम पर अविश्वास का हेतु नहीं है वत्स, पं0 पारिजात का पूर्वाग्रह भी मिटेगा।’ बाबा ने आश्वस्त किया।
‘शुभे, मेरी व्यथा नहीं, महोत्सव देखो, जो मेरे साथ हुआ वह औरों के साथ न हो ऐसी व्यवस्था करो,’ पारिजात कहते हुए उदास हो गए।
‘उचित कहते हैं पारिजात। महोत्सव तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है’, बाबा कह उठे, ‘यह आपद्धर्म है। इससे निपट पाओगे तभी कुछ और नियोजित कर सकोगे। तुम्हारे जैसे नवयुवकों से अधिक अपेक्षाएँ पालने लगा मैं।’
‘आप की अपेक्षाओं के लिए प्राण भी अर्पित करना पड़े तो मुझे प्रसन्नता होगी।’ हर कोई प्राण ही अर्पित करना चाहता है। एक प्राण को कहाँ-कहाँ बन्धक बनाओगे। मैं दस राजाओं के अन्तःपुर का निरीक्षण कर चुका हूँ। हर शासक खड्ग पर धार चढ़ा रहा है;’ पारिजात कह उठे।
‘सन्तों से भी समाज को अपेक्षाएँ हैं। उत्तम समाज रचना में उनका योगदान शुभ का विस्तार करता है। चमत्कार नहीं, जनमानस को उद्बुद्ध करने की आवश्यकता है, वत्स। वैराग्य स्व में सीमित होना नहीं, स्व का विस्तार करना है। अहं विगलित नहीं होगा तो विमुक्ति कहाँ? जब भी सन्त समाज में चर्चा हुई, उन्हें इस महत्कार्य हेतु प्रेरित नहीं किया जा सका। यदि अभी वस्तु स्थिति का आकलन नहीं हुआ तो बहुत विलम्ब हो जाएगा। हमें प्रयत्नरत रहना है।’ बाबा बोलते गए़। ‘‘दुन्दुभी बज चुकी है, अब विलम्ब न करो, नहीं तो महोत्सव को भी बचा नहीं पाओगे’’, कहते हुए पारिजात उठ पड़े। बाबा भी उठे, उन्हीं के साथ उदयसिंह और पुष्पिका भी। बाबा से आशीष ले दोनों बाहर आ गए। दोनों देर तक उनकी बातों को गुनते रहे।