कंचन मृग - 26. उदय सिंह शय्या पर उठ बैठे Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 26. उदय सिंह शय्या पर उठ बैठे

26. उदय सिंह शय्या पर उठ बैठे

रात्रि का पिछला प्रहर। उदयसिंह अपनी शय्या पर उठ बैठे। उन्होंने एक भयंकर स्वप्न देखा है। चाहमान की विशाल वाहिनी ने महोत्सव को घेर लिया है। नगरवासियों का साँस लेना दूभर हो गया है। दशपुरवा में कदम्बवास की सेना आमोद मना रही है। चामुण्डराय कीर्ति सागर पर अधिकार किए बैठा है। महारानी और चन्द्रा के अश्रु सूखते नहीं हैं। वे लहुरे वीर का नाम लेते ही विलख पड़ती हैं। उन्होंने पुष्पिका को जगाया। उसे स्वप्न की बात बताई। पुष्पिका ने गणना करके बताया कि भुजरियों का पर्व निकट है। उदय सिंह ने शय्या छोड़ दी। वे अलिन्द में टहलने लगे। उन्हें इस बात का कष्ट हो रहा था कि यदि स्वप्न की बात सच हो तो उन्हें सूचना क्यों नहीं मिली।
अभी दो दिन पूर्व ही वे गाँजर प्रदेश से लौटे हैं। उनके अंग पर लगे सभी व्रण अभी सूखे नहीं है। महाराज ने उदयसिंह का भव्य स्वागत किया। उन्हें पुरस्कारों से लाद दिया गया। महाराज का कोष गाँजर की कर उगाही से भर गया था। इसका श्रेय उदय सिंह को था। उनका वसन्त और ग्रीष्म गाँजर नरेशों से युद्ध करते, कर उगाहने में ही बीता है। महाराज ने उन्हें विश्राम करने का परामर्श दिया। गुप्तचरों से सूचनाएँ मिलती रहीं, पर महाराज ने महोत्सव या दिल्ली की चर्चा नहीं की। महाराज जयचन्द अत्यन्त प्रसन्न थे। वे बार बार उदय सिंह की प्रशंसा करते। पर इस प्रशंसा के पीछे उदय सिंह का कठिन श्रम था। माण्डलिक, देवा, तालन सभी का सम्मान बढ़ गया था। नागरिक भी महोत्सव के सैनिकों का अभिनंदन कर रहे थे। उदय सिंह ने पुरस्कार राशि सभी सैनिकों में बँटवा दी । वे सभी से गले मिले। पंडित विद्याधर ने उनकी प्रशंसा में श्लोक रच डाले। कान्यकुब्ज के भरे कोष को देखकर वे गद्गद थे। महाराज ने आल्हा को ‘राव’ की उपाधि से सम्मानित किया।
राजकुमार लक्ष्मण राणा तो उदय सिंह से अभिभूत थे। उन्होंने उदय सिंह को अनुज सदृश स्नेह दिया। आज ही प्रातः उन्होंने गंगातट पर उष्णीष बदलने का कार्यक्रम रखा है। वे इस मित्रता को स्मरणीय बनाना चाहते हैं। धीरे-धीरे रात सरक गई। प्रभाकर की किरणों ने धरती पर स्वर्णिम आभा बिखेर दी। पर उदय सिंह स्वप्न के बारे में ही सोचते रहे। प्रातः वे अलिन्द के निकट टहल ही रहे थे कि एक व्यक्ति उनके सामने आ गया। उसने बताया की चाहमान सेनाओं को महोत्सव की ओर प्रस्थान करते उसने देखा है। उदय सिंह ने उससे अपना परिचय देने को कहा पर उसने कहा- ‘अभी नहीं, कभी अपना परिचय दूँगा।’ इतना कहकर वह व्यक्ति निकल गया। उदयसिंह देखते रहे । ये पंडित पारिजात थे जो कान्यकुब्ज के अन्तःपुर में सुमुखी की खोज कर रहे थे। पर उष्णीष के कार्यक्रम तक इस सम्बन्ध में किसी से चर्चा करना उदयसिंह ने उचित नहीं समझा।
वस्त्र बदलकर वे बैठे ही थे कि देवा और रूपन आ गए। वे राजकुमार लक्ष्मण राणा से मिल कर आ रहे थे। उदय सिंह अन्दर गए। पुष्पिका को कार्यक्रम ज्ञात था। उसने एक सुन्दर कौशेय उष्णीष उदय सिंह के सिर पर रखकर उन्हें विदा किया। कुँवर लक्ष्मण राणा और पंडित विद्याधर तैयार बैठे थे। जैसे ही ये तीनों व्यक्ति उनके सामने पहुँचे, उन्होंने भी सिर पर उष्णीष रखा और व्रजराशिन पर सवार हो गए। गंगा तट पर सभी लोग उतरे। सम्भ्रांत नागरिक और सैनिक भी तट पर आ गए।
एक पर्व का सा दृश्य उपस्थित हो गया। गंगा में स्नान, आचमन कर कुँवर लक्ष्मण राणा और उदयसिंह खड़े हो गए। पंडित विद्याधर ने श्लोक पाठ कर गंगा को ही साक्षी बनाया। उदयसिंह ने अपना उष्णीष लक्ष्मण राणा के सिर पर रखा और लक्ष्मण राणा ने उदयसिंह के सिर पर। दोनों ने आजीवन मित्रता का व्रत लिया। पंडित विद्याधर ने श्लोक पढ़कर दोनों को आशीष दिया। उष्णीष बदलते ही दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया। आलिंगन करते समय दोनों भावुक हो उठे। दोनों के नेत्र भर आए। जनसमूह ने तालियाँ बजाकर दोनों का स्वागत किया। याचक और ब्राह्मणों को दान देकर कुँवर प्रसन्न हुए।
लौटते समय कुँवर ने उदयसिंह को अपने पास बिठा लिया। उदयसिंह ने स्वप्न की बात कही। यह भी संकेत किया, ‘महोत्सव जाना होगा जिससे वास्तविकता ज्ञात हो सके। मेरे जीवित रहते यदि महोत्सव लुट गया तो मेरा जीवन व्यर्थ है। नन्ना माण्डलिक को बताकर जाना सम्भव न होगा। इसीलिए आखेट का ब्याज लेना पड़ेगा।’ कुँवर ने उदयसिंह की बात सुनी। उनका मन उदयसिंह का साथ छोड़ने के लिए प्रस्तुत नहीं था। उन्होंने कहा, ‘महोत्सव मैंने नहीं देखा है। मैं भी नगर देख लूँगा और तुम्हारा साथ भी बना रहेगा। मैं ही महाराज से आखेट की अनुमति ले लेता हूँ।’ सभी लोग राजमहल में आ गए। कुँवर लक्ष्मण राणा ने महाराज से आखेट की अनुमति ली। उन्होंने अनुमति तो दे दी पर चकित भी हुए। उनका अनुमान था कि गाँजर विजय के बाद लोग कुछ दिन विश्राम करना चाहेंगे।
उदयसिंह ने देवा और तालन को तैयार किया। सेना को तैयार होने का संकेत देकर वे और कुँवर राणा माण्डलिक के पास गए। राणा ने ही आखेट तथा उदयसिंह को साथ ले जाने की बात की। माण्डलिक भी चाहते थे कि उदयसिंह कुछ दिन विश्राम करके स्वास्थ्य लाभ कर लें। पर कुँवर लक्ष्मण राणा का आग्रह ठुकरा न सके। उन्होंने अनुमति दे दी पर आखेट में सावधान रहने के लिए कहा। उदयसिंह सुवर्णा से अनुमति लेने अन्दर चले गए। उन्होंने माँ और सुवर्णा से स्वप्न की बात बताई और
महोत्सव जाने का मन्तव्य भी स्पष्ट कर दिया। सुवर्णा पग-पग पर उनकी सहायक रही। उससे और माँ से बात छिपाना उन्होंने उचित नहीं समझा। पर यह संकेत कर दिया कि बड़े भैया माण्डलिक से इसकी चर्चा न करें।
देवा ज्योतिष के जानकर थे। उन्होंने शुभ मुहूर्त में प्रस्थान का निर्देश दिया। कुँवर लक्ष्मण ने माँ को प्रणाम कर अनुमति ली। वे प्रिया पद्मावती से अनुमति लेने उसके कक्ष में गए। पद्मावती सौम्य, सुन्दर एवं गुणज्ञ थी। उसने समझ लिया कि एक नये अधिक दिन चलने वाले युद्ध का सूत्रपात होना है। कुँवर को सतर्क करते उसके नयन भर आए। कुँवर ने अश्रुपूरित नेत्रों को देखकर सान्त्वना देने का प्रयास किया पर उसने कहा, ‘ये स्नेह के अश्रु हैं इन्हें कष्ट से जोड़ना संगत नहीं है।’ रोली चन्दन का टीका लगाकर उसने विदा किया। उदयसिंह अभी गाँजर के लम्बे युद्ध से लौटे थे। पुष्पिका प्रसन्न थी, अब कुछ दिन साथ रहेंगे। पर महोत्सव पर आसन्न संकट जान उसने प्रसन्नता पूर्वक उत्तप्त अधरों से विदा दी। उदयसिंह पर भावना का ज्वार उठा अवश्य पर उन्होंने अपने को सँभाला और सैन्य बल में आ मिले। उदयसिंह, सैयद तालन, देवा, कुँवर लक्ष्मण सभी ने सैनिकों से शीघ्रता करने के लिए कहा। दमामे की
ध्वनि पर सभी ने प्रस्थान किया ।