कंचन मृग - 20. यह युद्ध नहीं युद्धों की श्रृंखला थी Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 20. यह युद्ध नहीं युद्धों की श्रृंखला थी

20. यह युद्ध नहीं युद्धों की श्रृंखला थी-

चाहमान नरेश का अंतरंग सभा कक्ष, जिसमें मन्त्रिगण एवं मुख्य सामन्त आसीन हैं। महाराज पृथ्वीराज के प्रवेश करते ही सभी लोगों ने खड़े होकर महाराज का स्वागत किया। बाइस वर्षीय महाराज की आँखों में राज्य विस्तार की आकांक्षा झलक रही थी। युवा रक्त युद्ध भूमि में अपना प्रदर्शन करने के लिए हरहरा रहा था। आखेट में रात्रि जागरण के कारण आँखें लाल हो उठी थीं। आज की सभा में चामुण्डराय अधिक उत्तेजित थे। उनकी एक सैन्य टुकड़ी को महोत्सव में अपमानित होना पड़ा था। उन्होंने महाराज के सम्मुख निवेदन किया, ‘महाराज, महोत्सव नरेश परमर्दिदेव के पंख उग आए हैं। वे एक चक्रवर्ती सम्राट के सैनिकों का सम्मान तक करना नहीं जानते। हमें आज्ञा मिले तो उन्हें इसका.......
‘हमारी सैन्य टुकड़ी की अपेक्षाएँ क्या थीं, यह तो ज्ञात हो,’ ‘चन्द ने जोड़ा । ‘भोजन विश्राम के अतिरिक्त एक टुकड़ी की क्या अपेक्षा हो सकती है?’ चामुण्डराय ने विश्वासपूर्वक कहा। ‘पौर बलाध्यक्ष ने सैन्य बल को धमकाने का प्रयास किया।’
‘हमारे सैन्य बल के किस व्यवहार से यह स्थिति उत्पन्न हुई इस का भी विश्लेषण आवश्यक है। मुझे जानकारी मिली है कि राजपरिवार के लिए ले जाया जा रहा कलम्बुट हमारे सैनिकों ने छीन लिया। पौर बलाध्यक्ष का इस पर क्रुद्ध होना स्वाभाविक है। यह भी पता चला है कि हमारे सैनिकों ने लूट-पाट की। हमारे सैनिकों को भी अनुशासित रहना चाहिए।’ चन्द ने स्पष्ट किया।
‘अनुशासन का अधिक पाठ सैनिकों को पिछलग्गू बना देगा। शासन प्रताप से चलता है। महाराज का प्रताप दिग्दिगन्त में व्याप्त है। उस प्रताप पर आँच आने पर शासन की चूलें हिल जाएँगी’, चामुण्डराय कहते रहे। महाराज और कदम्बवास अभी तक केवल सुन रहे थे। उन्होंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। ‘हमारे सैनिकों को मिलने वाला कलम्बुट अनेक राजाओं के भाग्य में नहीं होता,’ चामुण्डराय ने पुनः जोड़ा, सैनिक सम्राट के प्रतिनिधि हैं। सैनिक की अवमानना सम्राट की अवमानना है। चाहमान वंश का सम्बन्ध भी चंदेल वंश से है। ऐसी स्थिति में उन्हें इस सम्बन्ध को भी निभाने का प्रयास करना चाहिए था।’
‘महामन्त्री कदम्बवास सम्पूर्ण प्रकरण की जाँच कर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत करें,’ चन्द ने प्रस्ताव किया जिसे स्वीकार कर लिया गया। मन्त्रिवर कदम्बवास चाहमान एवं चंदेल शासित प्रदेशों का मानचित्र प्रस्तुत कर महाराज को राज्य की जानकारी दे रहे थे कि प्रतिहारी ने मस्तक झुकाकर निवेदन किया-
‘उरई नरेश माहिल महाराज की सेवा में उपस्थित होना चाहते है।’ महाराज की दृष्टि उठी। उन्होंने माहिल को सादर लाने की आज्ञा दे दी। माहिल ने प्रवेश कर महाराज को प्रणाम किया। महाराज ने महोत्सव और उरई का समाचार पूछा। माहिल ने माण्डलिक के कान्यकुब्ज प्रवास की बात बताई। चामुण्डराय ने सैनिकों के अपमान की बात कही। माहिल यद्यपि परमर्दिदेव के मन्त्री थे किन्तु अपनी बातचीत में उन्होंने चाहमान सैनिकों का ही पक्ष लिया। इससे चामुण्डराय का उत्साह बढ़ गया। उन्होंने कहा’, ‘महाराज सुना जाता हैं कि परमर्दिदेव के महोत्सव में सम्पत्ति का भण्डार है। उत्तम अश्वानीक हैं। उन्होंने हमारे सैनिकों को अपमानित कर हमें चुनौती दी है। यदि हम उन पर आक्रमण कर विजयश्री प्राप्त कर लें तो सम्पत्ति के साथ अश्वानीक के पृनर्गठन हेतु अश्वों की भी एक अच्छी संख्या हमें उपलब्ध हो जाएगी।’
‘परमर्दिदेव से युद्ध कोई खेल नहीं हैं महाराज’, चन्द से न रहा गया। ‘चाहमान नरेश जैसे ही महोत्सव पर आक्रमण करेंगे माण्डलिक एवं उदयसिंह भी कान्यकुब्जेश्वर की सहायता ले युद्ध में कूद पडे़गे। शिशिरगढ़ के पुरुषोत्तम भी परमर्दिदेव की सहायता करेंगे ही, आवश्यकता पड़ने पर अन्य सामन्त भी उनकी सहायता करेंगे। ‘पर हमारी शक्ति उन सब से कहीं अधिक है। हमारा प्रहार उन्हें सन्धि के लिए बाध्य कर देगा। हमें अपनी शक्ति का परीक्षण भी करते रहना चाहिए।’ चामुण्डराय ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया।
उरई का महोत्सव में सम्मिलित होना माहिल को टीस जाता था। मन्त्रि पद पाकर भी अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए वे निरन्तर प्रयास करते रहते। उनका चाहमान नरेश से मिलना भी इसी नीति का एक पक्ष था। महोत्सव की शक्ति क्षीण होते ही, वे उरई को स्वतन्त्र करा लेंगे ऐसी उनकी धारणा थी। माण्डलिक के कान्यकुब्ज आ जाने से उन्होंने महाराज जयचन्द से सम्पर्क कम कर लिया था। उनकी सूचना के अपने स्रोत थे। सूचनाओं का लाभ उठाकर वे अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते। वे जहां भी जाते उसके हित की ही बात करके उसका विश्वास अर्जित कर लेते। ऐसा प्रतीत होने लगता कि माहिल ही उसके एक मात्र हितैषी हैं। उन्होंने कहा, ‘महाराज आपकी शक्ति के सम्मुख अन्य राजतन्त्र खद्योत के समान हैं। आपकी प्रतिभा और शौर्य से कौन प्रभावित नहीं होगा? उत्तर भारत में आप से टक्कर लेने का साहस कौन कर सकेगा? आल्हा एवं उदयसिंह महाराज जयचन्द की सेवा में चले गए, और विश्वस्त सूत्रों ने सूचित किया है कि उन्हें गाँजर प्रदेश के राजाओं से कर उगाहने के लिए लगा दिया गया है। ऐसी स्थिति में तीन, चार मास अन्यत्र जाने की स्थिति में वे नहीं होंगे। महाराज परमर्दिदेव ने उन्हें निष्कासित किया है। इसलिए वे महोत्सव की ओर अपना पग नहीं बढ़ा सकते।’
‘पर शिशिरगढ़ के पुरुषोत्तम तो सहायता के लिए उपलब्ध होगें,’ चन्द ने कहा ‘इसीलिए रणनीति ऐसी बननी चाहिए कि पहले शिशिरगढ़ पर विजय प्राप्त की जाए। शिशिरगढ़ पतन के बाद महोत्सव को विजित करने में सुगमता होगी’, चामुण्डराय ने जोड़ा। ‘पर महाराज इस समय विदेशी आक्रमण का दबाव बढ़ रहा हैं। ऐसी स्थिति में अपने पड़ोसी राज्यों से सौमनस्य आवश्यक है’, चन्द ने अपना विचार रखा। यह भी तो हो सकता है कि हम चन्देल राज्य को करद बना लें। तब भी वे हमारा सहयोग करने के लिए बाध्य होंगे।’
चामुण्डराय ने कहा। ‘परमर्दिदेव की सम्पत्ति हमारे कोष में होगी। उनके पास पारसमणि होने की बात की जाती हैं। यदि यह केवल किंवदन्ती मात्र हो तब भी उनके पास सम्पत्ति है। हमें अपने कोष को भी समृद्ध करना है। हमारी सेना बैठकी में तुन्दिल न हो जाए, यह भी तो देखना है।’ तुन्दिल होने की बात पर महाराज को हँसी आ गई। उन्हीं के साथ अन्य लोग भी हँस पड़े और चामुण्डराय के तनाव ग्रस्त मुखमंडल पर भी मुस्काराहट दौड़ गई। ‘मन्त्रिवर कदम्बवास आपका क्या विचार है?’
एक सभासद ने प्रश्न किया।
‘आचार्य चन्द और वीरवर चामुण्डराय दोनों ने जिन पक्षों को रखा है वे महत्त्वपूर्ण हैं। अन्तरंग सभा एक बार पुनः सम्पूर्ण तथ्यों पर विचार कर ले। महाराज का आदेश ही सर्वोपरि होगा’, कदम्ब का उत्तर था।
सभा विसर्जित हो गई। माहिल को अतिथि कक्ष में ले जाया गया। वहाँ वे विश्राम कम, चामुण्डराय से विचार-विनिमय अधिक करते रहे। चामुण्डराय ने कदम्बवास को भी अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। उन्होंने राजमाता कर्पूरदेवी से भी सम्पर्क साधा।
‘युद्ध के लिए प्रेरित करना मेरा धर्म नहीं है,’ कर्पूरदेवी ने कहा।
‘पर महाराज का यश दिग्दिगन्त में व्याप्त हो यह तो आप भी चाहेंगी,’ चामुण्ड ने तार जोड़ा।
‘हाँ, यह तो महाराज की सम्पूर्ण प्रजा चाहेगी।’
‘युद्ध की अग्नि में महाराज का यश कंचन की भाँति निखर उठेगा। वे आर्यावर्त के अप्रतिम सम्राट् होंगे।’
‘पर युद्ध से प्रजा को भी कष्ट होगा।’
‘वह इसकी अभ्यस्त है।’
‘पर इसमें आपका हित?’ कर्पूरदेवी ने माहिल की कोर को स्पर्श किया। ‘महाराज का हित ही मेरा हित है’ कहकर माहिल ने बात टालने का प्रयास किया। ‘युद्ध मैंने अपनी आँखों से देखा है। मैं युद्ध के लिए महाराज को प्रेरित नहीं कर सकूँगी। वे स्वयं जो उचित समझेंगे निर्णय करेंगे।’
माहिल अतिथि कक्ष में आ गए थे पर उनका मन अत्यन्त उद्विग्न था। वे बार-बार उठते, कक्ष में ही टहलते, पुनः बैठते पर मन अशान्त ही बना रहता। उत्तम भोज्य पदार्थ भी उन्हें स्वादहीन लगा। उनका मुँह सूख गया। वे बार-बार जल पीते। उनके बार-बार जल पीने से सेवकों को भी विस्मय हो रहा था।
कुछ क्षणों में ही उन्होंने चामुण्डराय को बुलवा लिया। दोनो ने राजनीति पर विचार किया। महोत्सव युद्ध से महाराज को क्या मिल सकता है, माहिल ने इसकी सूची बनाई। उन्होंने गोपाद्रि राज्य, खर्जूरवाहक की बैठक, उड़न बछेड़े सहित उत्तम अश्वों को सूची में सम्मिलित किया। पर चामुण्डराय ने उसमें ‘चन्द्रावलि का डोला’ भी जोड़ने के लिए कहा और मुस्करा उठे। माहिल भी आज पहली बार मुस्कराए। दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और मन्त्रिवर कदम्बवास से मिलकर अपना पक्ष रखने का निश्चय किया।
माहिल का दिल्ली में बैठ जाना रंग लाया। धीरे-धीरे बात बढ़ती रही और चन्द को भी सहमत होना पड़ा। चन्द का व्यवहार पारदर्शी था। जो भी एक बार निर्णय हो जाता उसे वे प्राणपण से निभाने का प्रयास करते। कूटनीति नहीं, वे राजनीति के पक्षधर थे। अपना स्वार्थ उन्हें छू नहीं गया था। महाराज के वे विश्वसनीय सखा थे । महाराज भी उनका ध्यान रखते। उनके विचार को धैर्यपूर्वक सुनते ।
चामुण्डराय का स्वभाव उग्र था। वे एक बार जो निश्चित कर लेते, उसे पूरा करने का भरपूर प्रयास करते। माहिल से मिलकर उन्होंने शिशिर गढ़ और महोत्सव पर आक्रमण करने की योजना बनाई। महामन्त्री कदम्बवास का भी समर्थन प्राप्त किया। महाराज भी इस योजना के पक्ष में हो गए। यह युद्ध नहीं, युद्धों की शृंखला थी । इसे तब तक चलना था जब तक अन्तिम विजय प्राप्त नहीं हो जाती।