कंचन मृग - 11-12. अब वे अकेले हो गए हैं Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 35

    "सर..."  राखी ने रॉनित को रोका। "ही इस माई ब्रदर।""ओह।" रॉनि...

  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

श्रेणी
शेयर करे

कंचन मृग - 11-12. अब वे अकेले हो गए हैं

11. अब वे अकेले हो गए हैं-

प्रातः लोग तैयारी कर ही रहे थे कि शिशिरगढ़ से पुरुषोत्तम कुछ सधे अश्वारोहियों के साथ आ पहुँचे। उन्होंने आल्हा का चरण स्पर्श किया। आल्हा ने उन्हें गले लगा लिया तथा वस्तु स्थिति से अवगत कराया। उदय सिंह और देवा ने भी आकर पुरुषोत्तम का चरण स्पर्श किया।
‘हम लोग अलग न जाकर शिशिरगढ़ में ही वास करें, पुरुषोत्तम ने प्रस्ताव किया।
‘शिशिरगढ़ भी महोत्सव का ही अंग है। यहाँ निवास महाराज परमर्दिदेव की आज्ञा का उल्लंघन होगा,‘आल्हा ने संकेत किया।’ ‘अब चंदेल सीमा के बाहर ही निवास उचित होगा। जो आरोप हम पर लगाए गए हैं उनका प्रत्युत्तर न देना ही सबसे बड़ा उत्तर है।’
‘भ्राता, आपने महाराज को कोई पत्र दिया था।’ उदय सिंह से न रहा गया।
‘हाँ दिया था’, पुरुषोतम ने कहा।
‘क्या हम लोगों के बारे में?’’
‘आपके बारे में नहीं, पत्र चाहमान नरेश की महत्त्वाकांक्षा के बारे में था। मैनें संकेत दिया था कि चाहमान नरेश पृथ्वीराज की महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ गई हैं। वे कभी भी महोत्सव पर आक्रमण की योजना बना सकते हैं। पुरुषोत्तम ने पुनः माण्डलिक से प्रार्थना की किन्तु वे महोत्सव की सीमा में रहने के लिए प्रस्तुत नहीं हुए। अन्ततः पुरुषोत्तम को विदाकर दल ने कान्यकुब्ज के लिए प्रस्थान किया।
पुरुषोत्तम भी व्यथित थे। उन्हें लगता था कि अब वे अकेले हो गए हैं।



12. लौटा, तो सुमुखी का पता नहीं-


महोत्सव में दिवाकर उगने की पूरी तैयारी में है। क्षितिज की लालिमा आह्लादित कर रही है। पारिजात कलम्बुट लिए घर में पत्नी सुमुखी को पुकारते हैं, सुमुखी का कहीं कोई पता नहीं। पड़ोसियों से पूछताछ करने पर भी कुछ ज्ञात नहीं हो सका। चिन्तित पारिजात घर से कुछ दूर ही गए होंगे कि रोहित दिखाई पड़ा लपक कर पूछा,’ मित्र आपने इधर किसी स्त्री को जाते हुए तो नहीं देखा? ‘स्त्रियों का आना जाना तो बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गया है। आज सोमवार है, मन्दिरों के द्वार तो बहुत पहले खुल चुके हैं।’
‘पर सुमुखी मन्दिर नहीं जाएगी।’
‘यह सुमुखी कौन है मित्र?’
‘मेरी पत्नी।’
‘आपकी पत्नी का पता नहीं! आप पंडित पारिजात हैं न। पत्नी के लिए कारवेल्ल ला रहे थे तभी हमारी भेंट?’
‘हाँ, मुझे भी स्मरण हो आया। आप अयसकार रोहित हैं न ?’
‘हाँ, मुझे रोहित कहते हैं।’
‘मित्र, मैं कलंबुट लेने गया था ? लौटकर देखता हूँ, घर में सुमुखी नहीं है।’
‘जाते समय आपने उसे देखा था।’
‘जाते समय तो मैंने उसे नहीं पुकारा, निवृत्त होने के लिए पात्र लिया और जंगल की ओर चला गया। सागर में स्नान किया। कलम्बुट लिया। लौटा तो सुमुखी का पता नहीं।’
‘उसका अपहरण तो नहीं हुआ?’
‘मैं कैसे कह सकता हूँ ?’
‘सत्ताधरी, तान्त्रिक साधक एवं आक्रमणकारी सुन्दरियों की खोज करते रहते हैं।’
‘नवीन समाचार दे रहे हो मित्र।’
‘यह समाचार आपके लिए नवीन हो सकता है क्योंकि आप काशी के संस्कृत विद्यालय के घेरे में पल कर बड़े हुए। यहाँ इस तरह की घटनाएँ असामान्य नहीं हैं मित्र।’
‘क्या सुमुखी अब नहीं मिलेगी? राजा परमर्दिदेव की वैभवपूर्ण नगरी में ।’
‘वैभव नगरियाँ विलास नगरियों में बदल रही हैं मित्र......? जो इन समस्याओं से जूझना चाहता था वह निष्कासित कर दिया गया। अब तो शासकीय अनुचर भी मनमानी करने लगे हैं। अभी श्रेष्ठियों का एक दल कालिन्दी पार से आया है। उसने बताया कि मार्ग में दस्युओं का आतंक बढ़ गया है।’
‘पर सुमुखी?’
‘सुमुखी के लिए बलाध्यक्ष, मन्त्रिवर देवधर या पुरुषोत्तम से सम्पर्क करें।’
‘यह क्या कहे रहे हो मित्र? राजनीति और शासकों में मेरी रुचि कभी नहीं रही। इसीलिए शुक्रनीति और अर्थशास्त्र पढ़ने में मेरा मन नहीं रमता था।’
‘पर दूसरा उपाय क्या है?’
‘मित्र, मैं स्वयं सुमुखी की खोज करूँगा। शासकों पर मेरा विश्वास नहीं टिकता। विदुर ने ठीक कहा है-
स्त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्याय प्रभु शत्रुणा
भोगेष्वायुषि विश्वास कः प्राज्ञः कर्तुमर्हति।
ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो स्त्री, राजा , साँप , पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्यशाली व्यक्ति,शत्रु, भोग और आयुष्य पर पूर्ण विश्वास कर सकता है?’
‘यदि मेरे सहयोग की आवश्यकता होगी तो सूचित कीजिएगा।’
‘अवश्य......अवश्य’ कहते हुए पारिजात चल पड़े। रोहित अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया।
पं0पारिजात नगर के गलियारों, बीथियों में घूमते रहे, पर कहीं उन्हें सुमुखी का कोई पता नहीं चल सका। भूखे थके चिन्तित, वे कर्बुदार वृक्ष से उढँग गए। कुछ क्षण में उन्हें नींद ने आ घेरा। वे स्वप्न देखते रहे। स्वप्न में सुमुखी उन्हें दिखाई पड़ी। उन्होंने स्वप्न में ही पुकारा ‘सुमुखी?’ नदी किनारे एक श्मशान में कापालिक उसे लिए जा रहा था। उसने अपने केश खोल दिए थे। साक्षात देवी लग रही थी वह। पारिजात ने दूसरी बार अधिक तेज स्वर में पुकारा ‘सुमुखी ?’ और इसी के साथ उनकी नींद खुल गई। नींद खुलते ही उनकी अकुलाहट बढ़ गई। वे सोचने लगे, ‘क्या सचमुच सुमुखी किसी कापालिक के साथ......?’ उनका माथा भन्ना उठा था।
‘मै सुमुखी की हर इच्छा पूर्ति हेतु तत्पर रहता था किन्तु....वह मुझे छोड़ कर चली गई, वे सोचते रहे। किन्तु यह तो स्वप्न था। उन्होंने मन को शान्त किया और घर की ओर चल पड़े-हो सकता है कि वह घर लौट आई हो?’
घर अब भी साँय-साँय कर रहा था। प्रातः लाया गया कलम्बुट उसी तरह रखा था। भूख और थकान की जगह स्वप्न उन पर हावी था। चिन्तित वे कभी बैठते, कभी उठकर चक्कर लगाते, पुनः बैठते, पर उपाय सूझ नहीं रहा था।