यशवंत कोठारी
स्तम्भ लेखन की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?
एक मित्र के अनुसार किसी पत्रिका के एक स्तम्भ में किसी के एक या दो लेख छप जाये तो वह लेखक स्तम्भकार हो जाता है, मैं इस से सहमत नहीं क्योकि यह अत्यंत सरलीकृत परिभाषा है एक अन्य लेखक जो किसी पत्रिका के लतीफा स्तम्भ में अपने लतीफे छपवाते थे अपने आप को उस पत्रिका का स्तंभ लेखक कह कर गोरवान्वित होते थें. मेरी असहमति यथावत रही.
कालांतर में यह स्पष्ट हो गया की यदि किसी लेखक को कोई पत्रिका या अख़बार स्तंभ दे और केवल उसे ही उस स्तम्भ में छापे तो यह स्तम्भ लेखन हुआ और वह लेखक स्तंभकार हुआ. दैनिक पत्रों में इस तरह के व्यंग्य खूब छपे जो अख़बार व सेठों के पेट भरने के काम आये. यह लेखन दैनिक मासिक या साप्ताहिक भी हो सकता है. यह लेखन उस स्तम्भकार के विचारों पर आधारित होता है ये विचार संपादक के हो यह जरूरी नहीं असहमति की संभावना हमेशा रहती है, लेकिन असहमति के बावजूद स्तम्भ चलता रहना चाहिए तभी मज़ा है.
विदेशों में भी कॉलम लिखने व लिखवाने की परम्परा है, शायद यह परम्परा वहीँ से हमारे यहाँ आई.
अब आते हैं हिंदी व्यंग्य में स्तम्भ लेखन की परम्परा पर. अन्य भारतीय भाषाओँ की तरह हिंदी में भी यह परम्परा दैनिक पत्रों से साप्ताहिक पत्रों में आई होगी ऐसा मानना उचित ही होगा. गोपाल प्रसाद व्यास का दैनिक स्तम्भ वर्षों तक लिखा और पढ़ा गया वे उसी अख़बार में काम करते थे सो यह स्वाभाविक और सरल था. बाद में कई स्थानीय –क्षेत्रीय पत्रों में भी दैनिक हास्य व्यंग्य स्तंभ लिखे गए, पढ़े गए लेखक बदलते रहे कालम के नाम पुराने ही रहे, कभी कभी लेखक पुराने रहे कालम के नाम बदलते गए. एक ही अख़बार के अलग अलग संस्करणों में अलग अलग लेखकों के व्यंग्य कालम छपते रहे. ये व्यंग्य कालम किसी विचार से नहीं सम सामयिक घटना के आधार पर लिखे जाते रहे. पाठक पढता खुश होता और भूल जाता. यत्र तत्र सर्वत्र और नारद जी खबर लाये हैं ऐसे ही कालम थे. लेकिन ख्वाजा अहमद अब्बास का ब्लिट्ज में छपा कालम विशेष था. आज़ाद कलम अपने आप में एक विचार था.
मराठी, गुजराती पत्रों में भी स्तम्भ आते थे लोग पढ़ते थे आनंदित होते थे समय मिलने पर आपस में इस पर चर्चा भी करते थे. बहुत सारा ऐसे साहित्य किताबों की शकल में नहींआ पाया क्योकि श्रेष्ट अख़बार भी चोबीस घंटे तक ही जीवित रहता है. कई बार एक जैसे विषयों पर एक जैसा मेटर आता था लेकिन यह सब सामान्य बात थी.
आज़ादी के पहले के कालमों में अंग्रेजों की खिलाफत थी बाद में यह देशी साहबों व भ्रष्टाचार पर लिखने का आसान काम हो गया. खूब लिखा गया. कई लोग अख़बार के स्टाफ में रह कर लिखने लगे कई बाहर से लिखने लगे. खाकसार ने भी कुछ अख़बारों में बाहर से लिखा लेकिन चल नहीं पाया.
शिव शम्भू के चिठ्ठे बहुत महत्वपूर्ण लेखन था.
दैनिक अख़बारों में स्टाफ के लोगों ने वर्षों लिखा लेकिन ज्यादातर मेटर किताबी शक्ल में नहीं आया.
स्तम्भ लेखन में सबसे ज्यादा चर्चा परसाई व शरद जोशी के लेखन की होती है, इन पर काफी लिखा गया है और खूब शोध भी हो रहे हैं, परसाई घोषित मार्क्सवादी थे और कांग्रेस के पक्ष में लिखते थे, शरद जोशी ने कुछ समय जनवाद को ज्वाइन किया लेकिन बाद में विश्व नाथ प्रताप सिंह के कारण गैर कांग्रेसी विषयों पर लिखने लगे. के पी सक्सेना का भी व्यंग्य स्तम्भ लेखन में एक जरूरी नाम है हास्य युक्त लेखन में उनका सानी नहीं. ज्ञान चतुर्वेदी ने कई जगहों पर लिखा और नए विषय ढूंढे. श्री लाल शुक्ल के स्तम्भ ने भी लोगों का ध्यान खींचा यशवंत व्यास, ओम शर्मा, गोपाल चतुर्वेदी ने भी लिखा. और भी लोग लिख रहे हैं. कई अख़बारों ने नीतिगत निर्णय लेकर व्यंग्य कालम बंद कर दिए, कुछ ने स्पेस कम कर दी शब्द संख्या कम कर दी लेखन का आनंद कम हो गया. कई नए प्रभारी संपादकों ने कभी लेख का सर काट दिया कभी धड़, जहाँ जगह ख़त्म वहां लेख ख़तम.
अब व्यंग्य साहित्य में स्तम्भ लेखन का क्या महत्त्व है ?भूमिका क्या है ? ये विषय समय साध्य है समय और इतिहास तय करेगा की इस लेखन से क्या लाभ या क्या हानि है ?
कुछ लोगों का मानना है की यदि परसाई या शरद जोशी स्तम्भ नहीं लिखते तो ज्यादा बेहतर लम्बी रचनाएँ साहित्य को दे सकते थे, हो सकता है कि वे सही हो लेकिन मैं सहमत नहीं. जिन लोगों ने नयी बड़ी रचनाएँ लिखी वे भी कमज़ोर साबित हो रहे हैं.. व्यंग्य को लोकप्रिय बनाने और जन जन तक पहुँचाने में कालम लेखन के योगदान को नकारा नहीं जा सकता, लोकप्रियता के कारण ही व्यंग्य को विधा का दर्ज़ा मिला यह कालम की सबसे बड़ी उपलब्धि है. हाँ यह बात भी सच है की दैनिक या साप्ताहिक लेखन में लेखक स्वछन्द हो सकता है. वह किसी एक का पक्ष ले सकता है है या अपने निजी फायदे के लिए किसी की छिछालेदर कर सकता है, लिख कर लोगों को बता सकता है की अमुक के खिलाफ लिखा है, कई स्तम्भकारों ने इस लेखन की कीमत भी चुकाई है. आखिर लेखक भी तो एक इन्सान है और उसमे भी इंसानी कमजोरियां होती हैं. कभी कदा पीला हो जाने में कोई हर्ज नहीं है. वैसे भी व्यंग्य लेखन को पत्रकारिता ही समझा गया.
व्यंग्य साहित्य में स्तम्भ की भूमिका कम से कम हिंदी में तो बहुत महत्व पूर्ण है. अमेरिका में तो राज नीतिक व्यंग्यों से सरकारे हिल जाती हैं, भारत में इन दिनों राजनितिक व्यंग्यों पर थोड़ी लगाम है. शरद जोशी, परसाई, श्रीलाल शुक्ल अशोक शुक्ल गोपाल प्रसाद व्यास को लिखने और छपने की जो आज़ादी थी वो आज के लेखक को नहीं हैं बल्कि अख़बार में उतनी महत्वपूर्ण जगह भी उपलब्ध नहीं है, जो स्पेस मिलती है उस में भी लेखकों को बेलेंस कर के छापा जाता है.
तमाम सामाजिक बुराइयों को इन स्तम्भों में जगह मिली, सामाजिक विसंगतिया दूर भी हुई. साहित्यिक शेक्षणिक भ्रष्टाचारों को व्यंग्य ने वाणी दी और व्यवस्था ने सुधार किया. सत्ता का विरोध भी स्तम्भ लेखन से ही हुआ.
पिछले पचहत्तर सालों के भारतीय परिवेश को इन व्यंग्य कालमों के माध्यम से समझा जा सकता है. प्रेमचंद के बाद के भारत को हिंदी व्यंग्य कालमों की मदद से पढ़ा जा सकता है. हो सकता है कुछ उपन्यास या कहानियां नहीं लिखी गयी लेकिन व्यंग्य कॉलम लिखे गए और शानदार लिखे गए कई सरकारें चित्त हो गयी. भ्रष्टाचार पर थोड़ा बहुत ही सही अंकुश लगा. प्रेम और घ्रणा का एक विशाल वितान बना जिस के सायें तले आज का व्यंग्य साँस ले रहा है यही शुभ है. काश नए संपादक इस बात को समझे.
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प्रिय दिक्षित जी, आप ने लिखने अवसर दिया आभार.
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