प्रफुल्ल कथा - 23 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 23


आकाशवाणी इलाहाबाद केंद्र पर जबरन दूसरी बार भेज दिए जाने और उस अवधि में वहाँ बेमन से काम करने के बाद मैनें 13 जुलाई 1984 को समान पद पर आकाशवाणी गोरखपुर ज्वाइन कर लिया | यहाँ मेरे सहकर्मी के रूप में कुछ नए लोग भी आ चुके थे |जैसे - वी० के० श्रीवास्तव, दिनेश गोस्वामी , अनिल भारती,बृजेन्द्र नारायण,सुनीता काँजीलाल , विनय कुमार आदि | मुझे केंद्र पर एडजेस्टमेंट की कोई दिक्कत ही नहीं थी |जाना पहचाना केंद्र था ,जाने पहचाने लोग थे |
कवि–संपादक डा०धर्मवीर भारती ने अपनी कविता “मैं क्या जिया” में जीवन की परिभाषा कुछ इस प्रकार की है –
“मै क्या जिया?
मुझको जीवन ने जिया-
बूंद - बूंद कर पिया |
मुझको पीकर पथ पर खाली,
प्याले सा छोड़ दिया !
मैं क्या जला ?
मुझको अग्नि ने छला –
मैं कब पूरा गला ?
मुझको थोड़ी सी आंच दिखा ,
दुर्बल मोमबत्ती सा मोड़ दिया ! देखो मुझे,
हाय मैं हूँ वह सूर्य
जिसे भरी दुपहरी में
अँधियारे ने तोड़ दिया !”
अपनी आत्मकथा लेखन और उसके धारावाहिक रूप से सोशल मीडिया और पत्र- पत्रिकाओं (“प्रकृति मेल” और मातृभारती ऐप) में होते जा रहे प्रकाशन के दौरान बार -बार मुझे कुछ हितैषियों ने याद दिलाना चाहा कि मुझे अपनी निजी ज़िंदगी का सच या स्याह पन्ना सामने नहीं लाना चाहिए | मुझे उनकी यह सलाह समझ में नहीं आ रही है क्योंकि आत्मकथा में अगर अपने जीवन का सच नहीं लिखना है या यूं कहें कि झूठ ही लिखना है तो वह आत्मकथा कैसे कहला पाएगी ? झूठ तो किसी कथा, कहानी,कविता या उपन्यास के रूप में परोसा जा सकता है | इसलिए मैं बेधड़क और बेबाकी से अपने निजी जीवन को भी आत्मकथा के इन पन्नों में उकेरा है | आपको अच्छा लगे या बुरा !अब देख लीजिए ना , बचपन के एक तथाकथित मित्र ने मित्रता का स्वांग रच कर मेरी भावनाओं , मेरे आर्थिक संसाधनों का भरपूर उपयोग करते हुए मेरे संबंधों से खेलने वाले बहुनामी व्यक्ति ने तो बाकायदा फोन पर गाली गलौज तक कर डाली |भगवान उनका भी भला करें !
वैसे ट्रांसपेरेंसी के इस युग में अब कुछ छिपाने लायक रह भी नहीं गया है |और छिपाना क्या, अब तो दिखाने का प्रचलन है | इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक देख लीजिए |अगर वह ए.आई. तकनीक की छवियाँ नहीं हैं (ज्यादातर नहीं) तो फिर मर्यादा और शील सम्पन्न समाज की युवतियों और अधेड़ महिलाओं द्वारा अपना अंग - प्त्यंग और वासनात्मक उमंग आखिर क्यों प्रदर्शित किया जा रहा है ? सिर्फ़ लाइक और प्रशंसा पाने के लिए ही तो ? इसलिए अच्छा हो कि “ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ की तरह मैं भी अपने जीवन (कुआरे ,निजी , सामाजिक या दाम्पत्य जीवन) में मिले अनुभव को, उसके संघर्ष को अगली पीढ़ी तक पहुंचा रहा हूँ | मेरी दृष्टि में आज के मनुष्य का पारिवारिक - यौन जीवन भी अथक संघर्ष से गुजर रहा है |यौन सुख, चरम सुख, यौन जीवन न मिल पाने का दुख, चरम सुख या उसकी अतृप्त अवस्था, सेक्स – वंश वृद्धि का एकमात्र साधन आदि ऐसे प्रसंग हैं जिन पर आप चर्चा करने में शर्म कर सकते हैं,लेकिन जिन्हे आप एकदम से नकार नहीं सकते हैं |
ओहियो यूनिवर्सिटी के सर्वेक्षण में इस बात पर 45 से 65 साल के 62 प्रतिशत पुरुषों ने एक मत से यह माना है कि अगर उनकी शारीरिक जरूरतें पूरी होती रहें तो वे प्रसन्न रहते हैं| इस सवाल पर मात्र 37 प्रतिशत महिलाएं सहमत दिखीं | पुरुषों ने यह भी माना कि उन्हें अपने पार्टनर का स्वावलंबी होना पसंद है और यह भी कि वो उन्हें उनके हिसाब से ज़िंदगी जीने दें| उधर, एक पत्नी को अपने पति से क्या चाहिए ? इस पर प्रसिद्ध लेखक हैडरिक्स अपनी चर्चित पुस्तक “गेटिन्ग दि लव यू वांट “ में लिखते हैं –“ पुरुषों को यह समझना होगा कि स्त्री उनसे सिर्फ़ प्यार और आश्वासन चाहती है |इसके बदले में वो अपनी पूरी ज़िंदगी देने को तैयार रहती है |” उधर बेस्ट सेलिंग बुक ”होल्ड मी टाइट “ की लेखिका स्यू जानसन कहती हैं कि “जीवन साथी एक दूसरे को लंबे समय तक कस कर पकडे रह सकें इसके लिए जरूरी है झूठ बोलते रहना |” इससे स्पष्ट है कि लिविंग रिलेशनशिप में रहने वाले या सात फेरे लेकर बने पति- पत्नी या प्रेमी प्रेमिका के आपसी संबंधों में कुछ निश्चित बिन्दु नहीं हुआ करते हैं जिनसे दोनों एक समतल सतह पर खूबसूरती के संग- संग ज़िंदगी बिता सकते हैं |
बहरहाल , कुल मिला कर अपनी कहानी कुछ यूं रही है कि पारिवारिक जीवन रहा हो , कार्यालय जीवन अथवा दाम्पत्य जीवन- प्रभु कृपा से मैं हर जगह हारते- हारते जीत जाता रहा हूँ | अपनी शारीरिक विकलांगता 69%को अभिशाप मानकर अगर मैं अपनी ज़िंदगी और अपने एवरेस्ट समान हौसलों से हार मान जाता तो आज मैं सगर्व अपनी आत्मकथा भी नहीं लिख पाता |अपने 22 वर्ष के सैन्य अधिकारी पुत्र लेफ्टिनेंट यश आदित्य की वर्ष 2007 में एक एक्सीडेंट में हुई असामयिक शहादत से उपजे घोर डिप्रेशन को अगर मैं हावी हो जाने देता तो.. तो, मैं अपनी शेष अवधि की आकाशवाणी की सेवा कतई पूरी नहीं कर पाता |बल्कि यह अवश्य होता कि मैं आज घनघोर डिप्रेशन का शिकार होकर पागलखाने में होता |इससे उलट ज़िंदगी में कुछ बड़ा और औरों से हट कर करने की सतत साधना में मैं सदा रत रहा |हाँ,मेरे गुरुदेव और उनकी साधना पद्धति मुझे संबल देती रही |सपनों का लगातार पीछा करते रहना और अंत में जीवन और अपने कर्म से संतुष्ट होकर ज़िंदगी को हँसते हँसते “गुड बाय.. फिर मिलेंगे “ कहना मेरा उद्देश्य रहा है |आने वाली पीढ़ियों से मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि बड़ी से बड़ी बाधाओं का सामना करने से डरें नहीं क्योंकि वे सिर्फ़ सिरफिरे बादलों की तरह हुआ करती हैं | आप , अपने आप को आकाश समझिए |बेहतर है कि खुद पर भरोसा रख कर अपनी भाग्य कुंडली स्वयं बनाइये |
वर्ष 1980 में मेरी शादी हो चुकी थी |उन दिनों मैरिड कपल्स का हनीमून जाने का ज्यादा प्रचलन नहीं था फिर भी हम हनीमून मनाने गुलाबी नगरी जयपुर पहुंचे |पहले आगरा रुके और प्रेम के प्रतीक ताजमहल का हमने दीदार किया| आगरा का किला भी देखे |आगरे के किले में हम जब अपनी दुपहरिया बिता रहे थे तो जाने क्या मेरी जवानी को उबाल आया कि..... | हम उसके बाद बस से जयपुर पहुंचे जहां उन दिनों मेरी बड़ी बहन विजया रहती थीं |उनके पति भूगर्भ शास्त्री (जियालॉजिस्ट) थे |वे भीलवाड़ा में फील्ड पोस्टिंग पर थे।जयपुर घूमकर हम झीलों की नगरी उदयपुर के लिए बस से निकले |भोर में ही भीलवाडा पड़ा जहां जीजा जी ने हमें रिसीव किया और अपनी जीप से अपने कैंप ले गए |खुले स्थान पर लगे कैंप में एक रात बिताकर हम लोग झीलों की नगरी उदयपुर गए |मुझे याद है कि उन दिनों मुझे यह हिदायत दी गई थी कि होटल किसी पुलिस थाने के आसपास ही ढूँढना |यथासंभव हम वैसा ही करते भी रहे | लगभग एक सप्ताह उदयपुर में बिता कर ,अपनी शारीरिक प्यास को प्राकृतिक झीलों की शांत लहरों में उतारते हुए वहाँ रहकर हम वापस गोरखपुर आ गए थे ।
हनीमून या शारीरिक चाहत की रस्म अदायगी होने के बाद गोरखपुर आकर मैं अपने काम में तल्लीन हो गया| कुछ ही महीने बाद मेरी पत्नी मीना गर्भवती हो गईं |अब हम अपने एक नए अनुभव से गुजरने लगे |परिवार में आपसी सदस्यों के बीच बहुत अच्छा सौहार्द नहीं था |बहनें तो अपने- अपने ससुराल में थीं और वे वहाँ एडजेस्ट कर रही थीं |यहाँ गोरखपुर में घर की खिच- खिच से तंग आकर पिताजी ने सभी का चौका-चूल्हा अलग कर डाला था |यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि ऐसे कठिन दिनों में मेरे ससुराल के लोगों ने हर तरह से मेरी बहुत मदद की |
रेलवे हास्पिटल की डा० (कुमारी) गायत्री गुप्ता की देखरेख में मीना का मेडिकल चेक- अप चलने लगा |यह तय हुआ कि डिलेवरी रेलवे अस्पताल में होगी |मेरे बड़े बेटे रूपल (दिव्य आदित्य ) का जन्म 5 अगस्त 1981को दिन में 12 -30 बजे के आस पास रेलवे अस्पताल में हुआ | सीजेरियन ऑपरेशन की वजह से लगभग एक हफ्ते हास्पिटल में रहना पड़ा | खून की व्यवस्था में मुझे बहुत भाग दौड़ करनी पड़ी थी हालांकि अंतिम समय में उसकी आवश्यकता नही हुई |मेरी अम्मा बहुत प्रसन्न हुईं | घर में किलकारियाँ गूंजने लगीं |सोहर आदि से घर गुंजायमान होता रहा |
मीना पढ़ी लिखी होने के नाते अति महत्वाकांक्षी महिला थीं |मेरे घर में भी बहुओं की शिक्षा का सम्मान था |मेरी माँ ने बचपन में अपनी माँ को खो दिया था ,घर में उनके पिता ने फिर से शादी करके दूसरी पत्नी ला दिया था इसलिए उनकी पढ़ाई नहीं हो पाई थी जिसका उनको मलाल था |कम उम्र में शादी हो गई और उस समय पिताजी स्वयं इलाहाबाद से पढ़ाई कर रहे थे |लेकिन पिताजी ने अम्मा की चाहत पूरी करने की ठान ली थी और उनको विद्या विनो दिनी तक पत्राचार माध्यम से इंटर कराया |उसके बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से अपनी पाँच संतानो की देखरेख करते हुए मेरी अम्मा ने बी०ए० किया | बड़ी बेटी विजया जब बी० ए० में थी तो उन्होंने राजनीति शास्त्र में एम०ए० पूरा किया |इन सब बातों से मीना भी प्रभावित थीं और उनकी योजना शिक्षिका के रूप में सेवा करने की बनी | जिन दिनों वे गर्भवती थीं उन्हीं दिनों उन्होंने बी ० एड० में ऐडमिशन ले लिया था |मेरे मित्र देव ब्रत के छोटे भाई धर्म व्रत उनके लिए मदद गार बने |
दिव्य जब पैदा हो गए तो कुछ दिनों बाद मीना ने पुन: अपनी पढ़ाई शुरू कर दी |ससुराल से एक नौकर बच्चे की देखभाल के लिए मिल गया था | अम्मा ने भी पूरा सहयोग किया |बी. एड. करने के बाद मीना ने एक विषय हिन्दी में बी.ए. और फिर हिन्दी में एम.ए. की पढ़ाई पूरी की |अब वे किसी प्रतिष्ठित संस्थान में शिक्षण कार्य की तलाश में थीं | दिव्य जब चार साल
के हो गए तो उनके एडमिशन के लिए हम लोग सेंट जोसेफ स्कूल गए | वहाँ एल.के.जी . में बेटे का एडमिशन तो हुआ ही साथ ही मीना को टीचिंग करने के लिए आश्वासन भी मिल गया | बेटा और माँ स्कूल जाने लगे |जीवन अपनी गति में चलने लगा |हमारे पास अब दो पहिया वाहन हो गया था और हम लोग अक्सर उससे गोरखपुर के मुख्य बाजार गोलघर घूमने जाया करते थे | दिव्य जब दूसरी क्लास में पहुंचे तो उन्हीं दिनों मीना पुन: गर्भवती हो गईं | उसी अस्पताल और उन्हीं डाक्टर की देखरेख में 2 जनवरी 1983 को यश (पुकार नाम प्रतुल ) का नार्मल डिलेवरी से जन्म हुआ| अब हम दो और हमारे दो हो गए | इसी बीच केन्द्रीय विद्यालय संगठन की ओर से प्राइमरी शिक्षिकाओं के लिए नियुक्तियाँ आई|पटना संभाग के मुख्यालय पटना में इंटरव्यू हुआ और मीना इंटरव्यू में सफल हो गईं |कुछ ही महीने बाद उनकी पोस्टिंग के०वि० गया (बिहार)के लिए हो गई |उन दिनों आपराधिक सुर्खियों के कारण गया शहर बदनाम था | लोगों ने गया को हिंसक जगह बताते हुए वहाँ जाने से मना किया लेकिन मीना दृढ़ प्रतिज्ञ थीं | उस समय हमारे लिए बहुत मुश्किल दौर था |एक बेटा लगभग सात साल का और दूसरा लगभग एक साल का था |मीना प्रतुल को लेकर गया ज्वाइन करने चली गईं |यहाँ मैंने भरपूर प्रयास किया कि मीना का ट्रांसफर गोरखपुर या आसपास हो जाए | दिव्य का फाइनल इम्तेहान चल रहा था और वे ननिहाल में थे |अंतिम पेपर समाप्त होते ही मैं उसे लेकर गया चला गया | ट्रांसफर के प्रयास बेकार हो गए थे | निरुपाय होकर हमने तय किया कि नौकरी नहीं करनी है | मीना को गया से लेकर मैं वापस गोरखपुर आ गया | उधर इलाहाबाद बैंक में नियुक्त मेरे छोटे भाई दिनेश की शादी अन्नपूर्णा के साथ 19-2-1984 को काशी में सम्पन्न हुई |
मीना के पास सेंट जोसेफ की नौकरी अब नहीं थी और केन्द्रीय विद्यालय वे छोड़ चुकी थीं |घर बैठकर ऊबने से अच्छा उन्होंने कम वेतन पर दाऊदपुर मुहल्ले के एक सेंट पीटर्स स्कूल में ज्वाइन कर लिया |वैसे नियति उनके लिए कुछ और सोच रखी थी और इसीलिए आगे चलकर उनको कुछ पाने के लिए संघर्ष कठिन करना पड़ा था | एक बार फिर से के०वि० में नियुक्तियाँ निकली और इस बार मीना ने भोपाल जोन से फार्म भरा | एक बार फिर उनका इंटरव्यू हुआ और जब परिणाम आया तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा | मीना की नियुक्ति प्राइमरी टीचर पद पर हो गई |अब पोस्टिंग की प्रतीक्षा थी | लेकिन मानो समस्याएं अपना विकराल रूप लेकर उपस्थित होती जा रही थीं |लग रहा था कि वे ज्वाइन नहीं कर पायेंगी | अंतत: विकराल समस्याओं का सामना करते हम सभी की इच्छा न रहते हुए भी 15 सितंबर 1987 को मीना ने ऑर्डिनेंस फैक्ट्री चांदा, चंद्रपुर (महाराष्ट्र)के के.वि. में ज्वाइन किया |उनको ज्वाइन कराने उनकी माता श्रीमती अमरावती मिश्र गईं जिनका बचपन और पढ़ाई लिखाई नागपुर में बीता था और वे मराठी भाषा की अच्छी जानकार भी थीं | हम सभी क्यों नहीं चाहते थे कि मीना सर्विस ज्वाइन करें उसकी भी एक कठिन गाथा है | सुनना चाहेंगे ?
मुझे बचपन और युवावस्था में इस बात का कतई कोई अनुमान नहीं था कि मेरी उम्र के साथ- साथ मेरे शरीर में अज्ञात कारणों से कैल्शियम का भंडार इकट्ठा होता जा रहा है जो आगे चलकर मुझे मेरी असमय मृत्यु का कारण भी बन सकता है | पाठकों, मृत्यु पर तो परमात्मा की अहैतुक कृपा से मैने विजय पा ली लेकिन दशकों से मुझे 69 प्रतिशत विकलांग बनकर शारीरिक -मानसिक कष्ट से अवश्य जूझना पड़ रहा है |कल्पनातीत रही है उस पूरे दौर से अब तक की यह शारीरिक और मानसिक त्रासदी !
मेरी इस शारीरिक अक्षमता के चलते जहां एक ओर लोगो ने मेरा उपहास किया , मुझ पर ताने कसे , मुझे मानसिक- शारीरिक चोट पहुंचाने की कोशिश की वहीं दूसरी ओर मेरी पत्नी ,मेरे बच्चे और मेरे अभिभावक मेरे साथ हमेशा खड़े रहे |मेरी पत्नी ने अपमान सहते हुए वही किया जो वह उचित समझती रहीं | बार- बार के ऑपरेशन के दौरान मेरी जितनी सेवा उन्होंने की शायद ही कोई और करता ! हालांकि उनके बोल इतने कड़वे हैं, व्यवहार इतना रूखा है, दाम्पत्य के प्रति साहचर्य के प्रति दृष्टिकोण इतना संकुचित और दकियानूसी है कि उससे मैं सदैव असंतुष्ट रहा हूँ |
आज जब पीछे मुड़कर ज़िंदगी देखती है तो उसे उसके द्वारा भोगी गई एक- एक कठिनाइयाँ साफ साफ दिखाई देने लगती है | मानो अभी कल की ही तो बात है ! इन सभी बरबादियों और कठिनाइयों का मैं जश्न मनाता चला गया सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मेरे साथ हर क्षण मेरे परमात्मा थे |मुझे जब- जब पीछे धकेले जाने की परीक्षा से गुजरना पड़ा मैं और भी सशक्त होकर बाहर आया |तन से अवश्य कमजोर होता गया लेकिन मन की बुलंदियाँ हमेशा आसमान छूती रहीं हैं |
वर्ष 1981 में अगस्त -सितंबर में मेरी इंकायलाजिंग स्पानडिलाइटिस नामक हड्डी बढ़ने की बीमारी के इलाज में गोरखपुर, लखनऊ जैसे शहरों के बड़े बड़े चिकित्सकों ने अंतत: हार मान कर मुझे एम्स, नई दिल्ली जाने को कह दिया |वहाँ उन दिनों डा०पी०के० दवे हड्डी रोग के विभागाध्यक्ष थे| उन्होंने लगभग एक महीने फिजियोथेरेपी आदि से इलाज किया लेकिन अंतत: अपनी 45 वर्ष की उम्र में मुझे 31 जुलाई 1996 और फिर 28 अगस्त 1996 को एक बार दायाँ और दूसरी बार बायाँ कूल्हा बदलवाना पड़ा | महीनों एम्स में परिजनों के साथ रहना और इलाज करवाना किसी त्रासदी से कम नहीं था | उम्मीद थी कि अब मैं स्वस्थ रहूँगा लेकिन वर्ष 2004 में एक बार फिर मेरे बाएं हिप ज्वाइंट ने काम करना बंद कर दिया और 29 अक्टूबर 2004 को एक बार फिर बाएं कूल्हे का प्रत्यारोपण हुआ | इस बार विभागाध्यक्ष डा०आर० मल्होत्रा और उनकी टीम ने यह ऑपरेशन किया था |एम्स के हड्डी विभाग ने दि ० 12 -02 -1999 को जारी प्रमाण पत्र में मुझे 69 प्रतिशत विकलांग घोषित कर दिया |
To whom it may concern-
“This is to certify that Sh. P. K. Tripathi S/o Sh. P. R. Tripathi ,46 years old male, OPD No. FA/658/96 is a case of Ankylosing Spondylitis with bilateral stiff hips and spine. Bilateral total hip replacement has been done. He is physically handicapped and has 69% (Sixty nine percent) permanent physical impairment in relation to his body.”
(S.Bhan) (H. L. Nag )
Prof.&Head Assoc.Prof.
समझदार और संवेदन व्यक्ति मेरी उन दिनों की मानसिकता समझ सकते हैँ | मैं किस तरह घर और बाहर के जीवन की आ रही इन चुनौतियों का सामना कर रहा था बता नहीं सकता |मेरी बीमारी मुझे जीने नहीं दे रही थी और मैं था कि जिद किए बैठा था कि बीमारी मुझे मेरे हौसलों को शिकस्त नहीं दे पाएगी |
इसके बाद फिर 51 वर्ष की उम्र में दाहिने हिप ज्वाइन्ट को बदलवाना पड़ा | इस बार सावधानी के लिए परिजनों ने चेन्नई के मशहूर मियोट हास्पिटल के विश्व प्रसिद्ध ऑर्थो सर्जन प्रो०पी० वी०ए० मोहनदास की सेवाएं ली | उन दिनों चेन्नई में ही मेरे साढ़ू श्री ओ.पी.मणि त्रिपाठी के पुत्र अनुराग मणि नियुक्त थे और इस अस्पताल के लिए उनकी ही सिफारिश थी |हमने बिना सेकेंड ओपिनियन लिए उस अनजाने गैर भाषी अस्पताल में अपनी जान जोखिम में डाल दी थी | मुझे आज भी याद है कि मेरे पुराने हिप ज्वाइंट का इन्फेक्शन इतना ज्यादा फैल गया था कि खुद डाक्टर घबड़ा गए थे और
अन्य मरीजों से दूर रखने के लिए मुझे आइसोलेशन वार्ड में भेज दिया था | उन्होंने दबी जुबान में यह भी बताया था कि मैं बस चौबीस घंटे (सुबह होने तक ) का मेहमान हूँ | उस पूरी रात बस मैं था और मेरी पत्नी थी | सिर पर मंडरा रही मौत का भय तो था ही !लेकिन प्रभु की कृपा से सुबह की किरण फूटी और मैं राउंड पर आए उसी क्रूर राक्षस डाक्टर को सही सलामत मिला | मैंने उसके ऊपर हिन्दी, अंग्रेजी और भोजपुरी में अपनी सारी भड़ास निकाल डाली और यहाँ तक कह डाला कि तुम तो राक्षस हो, डाक्टर तो कतई नहीं !उसने माफी मांगने की जगह मुझे तुरंत डिस्चार्ज करने के लिए जब कहा तो मैं थोड़ा नरम पड़ा |आखिर मैं अपनी एक टूटी, इंफेकटेड टांग लेकर जाता तो कहाँ जाता ? लगभग एक महीने बाद मुझे वहाँ से डिस्चार्ज किया गया|अनपेक्षित अर्थ भार के साथ |
जीवन सामान्य चलने लगा |लेकिन एक बार फिर 57 वर्ष की दहलीज पर वर्ष 2010 मेरे लिए काल बन कर आया |इस बार दाहिनी टांग में इन्फेक्शन होने लगा |लखनऊ के डाक्टर ने तुरंत दिल्ली के मैक्स हास्पिटल के विश्व प्रसिद्ध आर्थो सर्जन डा० एस० के० एस० मार्या को रेफर किया |बहुत मुश्किल से उनका परामर्श मिला और दो चरणों में (15 -07 -2010 और 14-09-2010 ) एक बार फिर मेरे दाहिने कूल्हे को बदला गया |छोटी मोटी बीमारियाँ तो डर गई थीं लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद वर्ष 2022 में मुझे लीवर एबसेस हो गया | लखनऊ के ग्लोब मेडिकेयर में डा दीपक अग्रवाल ने 8 जुलाई को मेरा ऑपरेशन किया और मुझे 14 जुलाई को डिस्चार्ज किया गया |इस तरह ज़िंदगी तो एक ही मिली है लेकिन असमय मौत के अनेक अवसर मुझे मिलते रहे | अभी भी मैं अपने हिप ज्वाइंट्स के चेक अप के लिए वर्ष में एक बार अपने चिकित्सक से परामर्श के लिए दिल्ली जाता रहता हूँ |
मेरे जीवन को सबसे घातक और मरणांतक कष्ट तब मिला जब 29 अगस्त 2007 को मेरे छोटे पुत्र लेफ्टिनेंट यश आदित्य(प्रतुल) मिलिट्री स्पेशल ट्रेन के एक हादसे में पहले बुरी तरह चोटिल हुए और अंतत:05 सितंबर 2007 को लुधियाना के क्रिश्चियन मेडिकल कालेज एंड हास्पिटल के बर्न यूनिट में उनका देहांत हो गया |उस समय से आज तक तमाम कोशिशें करने के बावजूद मेरी पत्नी डिप्रेशन में चली गई हैं |सारी खुशियां, सारी उपलब्धियां अब हमारे लिए कोई मायने नहीं रख रही हैं |बड़े बेटे दिव्य आदित्य (रूपल) भी आर्मी में सेवारत हैं |आजकल लेफ्टिनेंट कर्नल बन गए हैं और जहां जहां उनकी पोस्टिंग होती रहती है उनके साथ उनकी पत्नी अनामिका और पुत्र दर्श (12 वर्ष) तथा पुत्री अविषा (6 वर्ष) रह रही हैं | छुट्टियों में उन सभी का आना जाना हुआ करता है | लेकिन अपनी ज़िंदगी का सुख- दुख तो स्वयं हमें ही ढोना पड़ रहा है | अब तो साहित्य लेखन और पठन की दिनचर्या ही मेरी जीवन संगिनी बन गई हैं |निजी और पारिवारिक परेशानियाँ कम होने का नाम नहीं ले रही हैं | ऐसे में किसी शायर की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं –“अपनों की साजिशों से परेशान ज़िंदगी, गैरों से पूछती है तरीक़ा निजात का !” जी हाँ , ज़िंदगी भी अपनी ही है और उसकी साजिशें और ये परेशानियाँ भी अपनी | इससे निजात पाने का तरीका मुझे यही समझ में आया है कि मैं अपना जीवन प्रभु के हवाले छोड़ दूँ ! दुख भी तेरा , सुख भी तेरा!
अपने जन्म वर्ष 1953 से अपने जीवन की युवावस्था तक की अवधि का आत्मगंधी लेखा- जोखा मैंने अपनी आत्मकथा के इस पहले खंड प्रफुल्ल कथा उर्फ़ “आमी से गोमती तक “ में दे दिया | इसे पुस्तक का रूप देते हुए इसका अंतिम प्रूफ रीडिंग और कवर पेज चयन का काम मैंने रविवार 11 फरवरी 2024 को अपने पैतृक और अब लगभग उजड़ रहे आवास अरविन्द आवास,बेतियाहाता गोरखपुर (उ.प्र.) में सम्पन्न कर दिया था |लखनऊ से लैपटॉप साथ लाने और अपने मोबाइल में पर्याप्त इंटरनेट डाटा होने से ही यह काम सम्पन्न हो सका | जिस समय यह काम सम्पन्न हुआ मुझे लगा जैसे मैंने किसी लड़की को विदा करने का शुभ काम सुसम्पन्न कर दिया है | चूंकि लैपटॉप पर मुझ नाचीज़ को काम चलाऊ ज्ञान है इसलिए थोड़ी दिक्कतें अवश्य हुईं लेकिन जूझता रहा और तगादा कर रहे प्रकाशक को अपनी विवशता बताता रहा |
पाठकों, आपको बता ही चुका हूँ कि उम्र के 72 वें सोपान पर पहुँच चुकने के बावजूद लेखन मेरा पैशन बन चुका है और जब कुछ लिख लेता हूँ तो उसे पाठकों तक पहुंचाने के लिए बेचैन होना भी स्वाभाविक ही है ! यह भी बताना चाहूँगा कि बावजूद अपने विपरीत स्वास्थ्य,मनोरोगी जीवन संगिनी की देखभाल में व्यस्तता और परिवार में प्रतिकूल परिवेश के मैं लगातार अपनी लेखन प्रक्रिया जारी रख सका हूँ इसके लिए प्रभु और आप हितैषियों के प्रति कृतज्ञ हूँ |
इसी के साथ मैं अपनी आत्मकथा के इस खंड का समापन कर रहा हूँ |अपनी ज़िंदगी की इसके आगे की कहानी आप तक पहुंचाने के लिए मैंने अभी से पुस्तक का नाम चुन लिया है –“गोमती, तुम बहती रहना |” लखनऊ, जहां मैं रह रहा हूँ , उसकी जीवन धारा है गोमती |यदि स्थितियाँ सामान्य रहीं और मैंने अपना शरीर प्राकृतिक रुप से लखनऊ में ही छोड़ा तो मैं माँ गोमती के तट पर ही पंचतत्व में विलीन होना चाहूँगा | ज़िंदगी का यह संयोग देखिए कि माँ आमी ने मुझे जन्म दिया और अब माँ गोमती अपनी गोद में लेकर मुझे प्रकृति माँ के उस पुण्य लोक में पहुंचाएंगी जहां जाना सभी का अभीप्स होता है | लेकिन उसके पहले अपनी कथा – अपनी व्यथा आप तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश होगी अपनी इस आत्मकथा “गोमती ,तुम बहती रहना !” के दूसरा खंड के माध्यम से | तो तब तक के लिए लेते हैं एक छोटा सा ब्रेक !”