प्रफुल्ल कथा - 7 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

प्रफुल्ल कथा - 7


हां, तो थाम कर ज़िन्दगी का हाथ अपनी ज़िंदगी हौले - हौले अपने पग धरते निकल पड़ी थी | राहें हर ओर अपनी बाहें फैलाए हुए बुला रही थीं तो अजनबी लोगों और परिस्थितियों से जूझने में आत्मविश्वास परीक्षा लेने को तत्पर था | मुझे पता नहीं था कि अब पढाई के बाद किन- किन दौर से गुज़रना होगा, कितनी बार सूखे पत्तों सा बिखरना भी होगा ! कभी ठहराव सी लगेगी ज़िन्दगी तो कभी अभाव सी | लेकिन अपने शहर के साहित्यिक कोहिनूर फि़राक़ साहब ने भी क्या खूब कहा है – “ ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की , बहुत होते हैं यारों चार दिन भी ! “
आगे बढूँ कि उसके पहले के कुछ वर्षों में घटित घटनाओं का ज़िक्र नहीं करूंगा तो जीवन की कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें बताने से रह जायेंगी | मेरे पिताजी आचार्य प्रतापादित्य उस समय के छोटे से गोरखपुर शहर के अत्यंत प्रतिष्ठित नागरिक और फौजदारी के बड़े सरकारी वकील बन चुके थे | उस समय पुलिस – नेता और अपराधियों के संगठित तन्त्र फौजदारी मुकदमों में धड़ाधड़ हो रही सजा से परेशान थे | पिताजी यूनिवर्सिटी में विधि विभाग में पार्ट टाइम लेक्चरार थे ही और विधि की पढाई उन दिनों लगभग हर उभरने वाले युवा नेता अवश्य करते थे | इसके अलावा वे ”आनन्द मार्ग” संगठन के आचार्य और मुख्य कर्ताधर्ता थे | कुष्ठ सेवाश्रम के सचिव और ब्राम्हण एजूकेशनल सोसाइटी के सचिव भी थे | कुष्ठ सेवाश्रम एक ट्रस्ट चलाती थी और ब्राम्हण एजुकेशनल सोसाइटी शहर के तुलसीदास इंटर कालेज चलाती थी | इन दोनों में बहुत आर्थिक घोटाले थे जिन्हें वे प्राणप्रण से ठीक करने में लगे हुए थे | इतना ही नहीं वर्ष 1974 में छठवीं विधानसभा के गठन के लिए हुए विधान सभा चुनाव में पीलू मोदी की अध्यक्षता वाली “स्वतंत्र पार्टी “ के जिलाध्यक्ष के रूप में उन्होंने लगभग हर विधानसभा सीट पर अपने उम्मीदवार भी उतारे थे |
असल में पिताजी की ईमानदार और संकल्पबद्ध होकर काम करने की छवि जग जाहिर थी और इसीलिए इनको काम सौंपकर लोग निश्चिन्त हो जाते थे |पीलू मोदी जब गोरखपुर आये तो उनको बस्ती के राजघराने के श्री भानुप्रताप सिंह ने पिताजी के बारे में बताया था कि वे चुनाव में पार्टी के फंड को बर्बाद नहीं होने देंगे |यही हुआ भी |हालांकि उन दिनों कांग्रेस की आंधी में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी लेकिन हर सीटों पर लड़कर उसने अपनी नीतियों का प्रचार प्रसार किया |आगे चलाकर उसके कुछेक प्रत्याशी दूसरी पार्टी का आसानी से टिकट पाकर विधायक भी बने | ज़ाहिर है उनके ज्ञात - अज्ञात विरोधी उनके विरुद्ध लामबंद होते जा रहे थे | इसीलिए वर्ष 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया और कुछ संगठनों को प्रतिबंधित करने की घोषणा की तो आचार्य जी के इन्हीं विरोधियों ने उन पर भी डी.आई.आर. लगवा कर उन्हें गिरफ्तार करवा दिया |उनकी कोशिश मीसा (मेंटिनेंस आफ़ इन्टरनल सिक्योरिटी एक्ट ) में निरुद्ध करवाने की थी लेकिन उनका मंसूबा कामयाब नहीं हो सका | हमारे परिवार से जुड़े तत्कालीन विधान परिषद सदस्य और पूर्व आई. ए. एस. पं. एस. एन. मणि त्रिपाठी के हस्तक्षेप और सक्रियता से ऐसा हो सका | लेकिन उनके साथ ही गिरफ्तार हुए उनके दोअनन्य गुरूभाई आचार्य रघुनाथ प्रसाद और आचार्य सच्चिदानन्द पर मीसा लग ही गया और उन्होंने बहुत कष्ट भी झेले | हमारे परिवार में यह दौर बहुत ही संकट का रहा है इसीलिए इसकी चर्चा मैंने पहले भी की है |
वर्ष 1976 में मैनें विधि स्नातक की डिग्री द्वितीय श्रेणी में हासिल कर ली थी | अगस्त 1976 में मुझे कानून की मार्कशीट और अक्टूबर में “बैचलर आफ़ लाज़” की डिग्री मिल गई | साथ ही चेयरमैन एस.डी.सिंह से डेलीगेसी के लगातार दो स्तरों तक लिटरेरी सचिव रहकर काम करने का प्रमाणपत्र भी मिला | उन दिनों हरिशंकर चौधरी कुलपति थे | हालांकि कन्वोकेशन में डिग्री पाने की हसरत मन में ही दबी रह गई क्योंकि पिछ्ले कुछ वर्षों से परिसर में अशांति के चलते कन्वोकेशन नहीं हुआ करते थे| अब मेरे पास दो विकल्प थे | अब एल.एल.एम्. किया जाय अथवा कचहरी में वकालत की जाय | एल.एल.एम.के प्रवेश के लिए कट आफ़ मार्क्स में दो प्रतिशत की कमी थी जिसे यदि विभागाध्यक्ष चाहते तो टीचर्स कैंडीडेट के रूप में मुझे दिला सकते थे | लेकिन जैसा मैं बता चुका हूँ विश्वविद्यालय घनघोर जातिवादी राजनीति का शिकार था और मुझे सफलता नहीं मिली |..... अब ? विकल्प में बुझे मन से पिताजी के साथ सिविल कोर्ट जाना मैंने शुरू कर दिया |कुछ दिनों तक काले कोट और सफ़ेद पेंट में और फिर 26 नवम्बर 1976 के बाद बैंड भी लगाते हुए क्योंकि बार काउन्सिल आफ़ उत्तर प्रदेश से मैं अब पंजीकृत अधिवक्ता बन चुका था |मेरी पंजीकरण संख्या 4473 / 76 थी | घर में अब दो वकील हो चले थे एक पिताजी और दूसरा न चाहते हुए मैं !हम दोनों लोग सुबह दस बजे के लगभग रिक्शे से कचहरी निकलते थे और शाम चार बजे के आसपास वापसी हुआ करती थी |मेरे साथ उन दिनों पिताजी के कुछेक और जूनियर कमरे में बैठ रहे थे और दिन भर की कमाई का अनुभवानुसार पारिश्रमिक भी पाते थे |मुझे भी प्राय: एक सौ रूपये प्रतिदिन मिलने लगे थे |
जैसा मैं पहले बता ही चुका हूँ कि ना चाहते हुए भी मुझे काला कोट पहनना पड़ गया और कचहरी भी जाना पड़ा |सच बात यह है कि मेरा शरीर कचहरी में रहता था लेकिन मन ....? मन तो हमेशा साहित्यिक और रचनात्मक दिशा की ओर लगा हुआ था | पत्र पत्रिकाओं में लेखन ,कुछ स्थानीय पत्रिकाओं( जैसे डा. ब्रम्हानंद की त्रैमासिक ‘युग विचार’ पत्रिका) से जुड़ाव बना रहा |उन्हीं दिनों गोरखपुर में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना होने का काम शुरू हो गया |भटहट में एक सौ किलोवाट क्षमता के हाई पावर ट्रांसमीटर से मीडियम वेव 330.03 मीटर यानी 909किलोहर्ज पर 1974 में ट्रायल प्रसारण और 6अक्टूबर 1974 से आंशिक प्रसारण शुरू हो गया |मेरा मन ललचाने लगा और संयोगवश उन्हीं दिनों उसके प्रथम निदेशक आई.के.गुर्टू और एक अन्य स्टाफ हरिराम द्विवेदी से पिताजी की निकटता हो गई | उन्होंने मुझे आकाशवाणी केंद्र आते रहने का निमन्त्रण दिया | 1975 की 12 फरवरी को सम्पन्न आकाशवाणी नाटकों के लिए हुए स्वर परीक्षण में मैं उत्तीर्ण हो गया | केंद्र के ‘युववाणी कार्यक्रम’ में नियमित अंतराल पर मेरे प्रसारण भी शुरू हो गए | मन की उमंगें अब और हिलोर लेने लगीं | लेकिन आकाशवाणी केन्द्रों की अंदरूनी राजनीति से मैं तब तक अनभिज्ञ था इसलिए एकाध बार कुछ सीखने जाने पर कुछ अन्य मुझ जैसे ‘चाहकों’ ने ऐसी चाल चली कि मन खिन्न हो उठा | अब मैंने कार्यक्रम प्रोडक्शन का काम सीखने के लिए स्टूडियो जाना छोड़ दिया |ये बातें थीं छोटी - छोटी लेकिन मेरे युवा मन पर इसका गहरा असर होता रहा | बाद में वही ‘चाहक’ जो मुझे सीखने में बाधा उत्पन्न कर रहे थे , प्रतिस्पर्धा करते शतरंज की गोटियाँ बिछाते जा रहे थे कुछ ही महीने बाद मेरे नियमित सेवा में आ जाने पर मित्र बन गए |.......इन प्रसंगों की भी रोचक कहानी है जिसे अगले अंक में आप पढ़ सकेंगे |
आगे बढूँ कि यह बताना ज़रूरी है कि आत्मकथा को इन पृष्ठों पर उतरते और मुद्रित होते देखकर कुछ रोचक प्रतिक्रियाओं से भी सामना कर रहा हूँ | जैसे एक ने “ तक़दीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला था “ पढ़कर कहा – “मैं तो आपको शरीफ़ समझता था,आप तो इश्क़बाज निकले !” मैंने उन्हें उत्तर दिया- “हुज़ूर शरीफ़ कोई नहीं होता,सबके अपने –अपने राज़ होते हैं , मेरे भी राज़ थे जिन्हें उजागर करते हुए मैं आप जैसे अपने पाठकों को हमराज़ बनाता चल रहा हूँ !” एक बार फिर शायर जनाब फिराक़ गोरखपुरी को उद्धृत करूंगा-
“क़लम की चंद ज़ुम्बिशों से और मैंने क्या किया ..
यही कि खुल गये कुछ रमूज़ से हयात के !”
एक ने व्यंग्य के लहज़े में सवाल दागा –“ यह जानते हुए भी कि आप इतने महान नहीं हैं कि कोई आपकी आत्मकथा पढेगा , फिर आप क्यों लिखे जा रहे हैं ? ” सवाल उनका वाजिब था क्योंकि दुनिया की निगाह में मैं “बड़ा आदमी” तो हूँ नहीं , बड़े बड़े पुरस्कारों से लदी झोली भी नहीं लटक रही है मेरे कंधे पर !इसलिए मैंने उनसे कहा कि “ भाई मैं भी उसी फैक्ट्री का उत्पाद हूँ जहां से ये इनाम पा रहे लोग निकले हैं ,अब तक दर्जनों किताबें छपवा चुके हैं। लेकिन हाँ ,यह बात जरूर है कि उम्र की सांझ में अपनी तन्हाई दूर करने के लिए इससे बेहतर कोई और काम मुझे नहीं सूझा सो मैंने आत्मकथा ही लिखनी शुरू कर दी है |,,,आखिर तुलसीदास ने भी तो स्वान्तः सुखाय ही रामचरित मानस की रचना की थी ! ” वे निरुत्तरित हो गए |
इन दिनों में मेरा लेखन और सम्पादन कार्य भी लगातार चल रहा था | “हिन्दी दैनिक” का 2 अप्रैल 1974 का सम्पादकीय सिनेमा मनोरंजन या विनाश का साधन, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 10 अक्टूबर 1974 अंक में छपा-फिल्मों में प्रवेश:कितना सस्ता कितना मंहगा !, दैनिक “आज”के रविवारीय परिशिष्ट में छपे कुछ सचित्र बड़े बड़े लेख आज भी याद हैं- राजेश खन्ना की सबसे बड़ी भूमिका (8 अक्टूबर 1972) , लोकप्रिय गीतों और उपन्यासों के आधार पर बन रही घटिया फ़िल्में(18 अगस्त 1973) , मुसीबत के मारे- ये छोटे सितारे (6 जनवरी, 1974), फार्मूला फिल्मों का वर्ष-1974 (19 जनवरी,1975),आदि |
डा.हरिवंश राय ‘बच्चन’ लिखित आत्म चित्रण “क्या भूलूं क्या याद करूँ “ और “नीड़ का निर्माण फिर” को मैंने विश्वविद्यालय लाइबेरी में पढ़ा जिसने मुझ पर जादू सा असर डाल दिया | उनकी तिलस्मी और किस्सागो लेखन शैली मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी |उन्होंने ठीक ही लिखा है-‘जीवन की जिस सीढ़ी पर मैं हूँ,उस पर अतीत का स्मरण शायद स्वाभाविक होता है –मेरे पास औरों का मन जानने के लिए भी केवल अपने मन का पैमाना है |' उन्होंने भी मेरी ही तरह साफ़ शब्दों में स्वीकारा है कि ‘मेरा जीवन एक साधारण मनुष्य का जीवन है ..और इसे मैंने अपना सबसे बड़ा सौभाग्य और अपनी सबसे बड़ी प्रसन्नता का कारण माना है |’मेरे मन के तार उनकी इसी सोच के कारण कुछ ऐसे जुड़े कि आज तक नहीं टूट सके हैं |
बात उन्हीं दिनों की है |मेरे फूफाजी वैद्य देवकीनन्दन पाण्डेय गोरखपुर आये और उनसे यह पता चला कि वे बच्चन जी के सहपाठी रहे हैं | उन्होंने तमाम किस्से और जोड़े जो बच्चन अपनी आत्मकथा में लिखना भूल गए थे | जैसे- जब वे कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद में हाई स्कूल में थे तो वे एक गीत बड़े दर्द भरे स्वर में गाते रहते थे जिसके बोल थे –‘अबके गए कब अइहो रे मोहन |’और यह भी कि किसी दिन स्कूल में एक जादूगर आया था और उसने उनको मिस्मेराईज़ कर दिया था |मैंने इन बातों को आधार बनाकर बच्चन जी को एक साधारण पत्र लिख डाला |आश्चर्य यह कि 13,विलिंग्टन क्रिसेंट नई दिल्ली से लिखा उनका हस्तलिखित लम्बा- चौड़ा उत्तर मुझे प्राप्त हुआ और उसमें उन्होंने उन बातों को स्वीकारते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि ये बातें मुझे किसने बताईं ? उसी पत्र में उन्होंने अपनी इस बात को भी शेयर की थी कि ‘अमिताभ बच्चन मेरे ही पुत्र हैं | ’सात हिन्दुस्तानी’ के बाद वे ‘आनन्द’ , ‘परवाना’,‘प्यार की कहानी’ में आये हैं | ..मैं पिता की हैसियत से यही चाहता हूँ कि उनकी प्रतिभा का विकास अच्छी दिशा में हो |’बच्चन जी से इसके बाद मेरे पत्राचार का सिलसिला वर्षों तक चलता रहा |उनके लिखे ढेर सारे पत्र मेरी अनमोल सम्पदा हैं | जीवन जो हम और आप इस समय जी रहे हैं वह अनिश्चित है | इस सत्य को ‘बच्चन’ जी इन शब्दों में स्वीकारते हैं-‘इस पार प्रिये मधु है ,तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा |’...और आगे यह भी कहते हैं- ‘ मेरा तो होता मन डगमग ,तट पर ही के हलकोरों से,जब मैं एकाकी पहुँचूँगा ,मंझधार न जानें क्या होगा !’

पाठकों को मैं पहले ही यह बता चुका हूँ कि ‘बच्चन’ जी मेरे प्रिय लेखक-कवि बन चुके थे|उनसे अपनी अंतरंगता बढ़ती चली गई थी | उनसे जुड़ने पर मुझे आनन्द आया और दुःख भी |आनन्द इसलिए कि उनसे पत्राचार करते हुए मानो मैंने साहित्य संसार का आसमान छू लिया हो और दुःख इसलिए कि उनके देहावसान के बाद उनके कुछ अन्तरंग लोगों ने मुझे छला, निराश भी किया |...... लेकिन उसकी चर्चा आगे करूंगा | अभी तो कुछ अपनी और बहुत कुछ अपने जीवन की राम कहानी !
वर्ष 1972 में जब मैं ग्रेजुएट में था उस समय मेरी बड़ी बहन विजया (जिन्होंने हिन्दी में पी.एच.डी.भी कर लिया था ) का विवाह गोंडा में श्री सुरेश चन्द्र उपाध्याय, प्रसिद्ध वकील, के लड़के डा.तारकेश्वर उपाध्याय जियालाजिस्ट से तय हो गया | वैसे इसके पहले और भी ढेर सारे कुलीन परिवार के लडकों की कुंडलियाँ खंगाली गईं लेकिन असीमित दान- दहेज के नाम पर बात बन नहीं रही थी |मेरे पितामह इस सम्बन्ध से थोड़ा नाराज़ भी हुए क्योंकि वे बस्ती या उसके आसपास के जिलों में अपने घर की कन्या नहीं देना चाहते थे और उपाध्याय परिवार में तो कतई नहीं | उनकी बस्ती जिले में ब्याही गई बेटियाँ बीमारी की हालत में ससुराल वालों की बदहाल परवरिश के चलते कम उम्र में चल बसी थीं |लेकिन ऐसे सम्बन्ध तो पहले से तय हुआ करते हैं और 22 मई 1972 को विजया-तारकेश्वर का विवाह गोरखपुर में धूमधाम से सम्पन्न हुआ |तीन दिन की बरात रुकी थी |मेरे पितामह पंडित भानुप्रताप राम त्रिपाठी और दादी श्रीमती पार्वती देवी ने कन्यादान किया क्योंकि दहेज़ के लेन -देन वाली यह शादी पिताजी के उसूलों के खिलाफ थी |घर की पहली शादी थी और परिजनों का उत्साह देखते बन रहा था | पिताजी बहुत मुदित थे क्योंकि पढ़े लिखे परिवार में शादी हो रही थी |मुझे याद है कि पिताजी ने लगभग एक शोधपत्र की तरह बारातियों के लिए अभिनन्दन पत्र छपवाया था जिसमें दोनों परिवारों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी दी गई थीं | कुछ मोहक शब्द आज भी याद हैं – जैसे, हे आत्मीय समधी जी , अतिथि देवोभव की वैदिकी अनुगूँज से अनुप्राणित आज अपनी लघुता में सम्पूर्ण शहर के स्नेह के साथ आपके पावन निर्देशन में अपने प्राणों के सरगम आत्मजा को अशेष विश्वास के साथ समर्पित करते हुए हम आनन्द विह्वल हैं | आदरणीय अभ्यागत ! आपने पधार कर हमारे तंडूल को स्वीकार कर हमें गौरव दिया है ..अवश्य ही हमारी अभ्यर्थना में कुछ अभाव रहे होंगे पर पुजारी की श्रद्धा का प्रयास उसका विभावपूर्ण थाल नहीं अंतस की अमित पुजापा है...आदि |
इसी तरह जब मैं विधि स्नातक का कोर्स कर रहा था और आपातकाल के दौरान वर्ष 1975 में पिताजी की गिरफ्तारी सहित तमाम नाटकीय घटनाओं के बाद मेरे बड़े भाई डा.सतीश चन्द्र त्रिपाठी का विवाह 6 जुलाई 1975 को विन्ध्याचल मंदिर के मुख्य पुरोहित मिश्र परिवार के विजय शंकर मिश्र की कन्या वीना से विध्याचल में सम्पन्न हुआ था | इन दोनों विवाहों का दान- दहेज़ के लेन - देन के कारण पिताजी ने लगभग बायकाट किया था और पितामह और दादी जी की अगुआई में ये सम्पन्न हुए थे |भाई साहब के विवाह के कुछ महीने पहले ही पितामह और दादी ने हम दोनों भाइयों का जनेऊ संस्कार विन्ध्याचल में ही सम्पन्न कराया था,उसमें भी पिताजी ने हिस्सा नहीं लिया था |
वर्ष 1973 में जब मैं बी.ए.कर चुका था तब मुझे सेवा में जाने के दो-तीन अवसर मिले थे |एक “दैनिक जागरण” गोरखपुर के सम्पादकीय में काम करने का और दूसरा उ.प्र.सरकार के सूचना विभाग में अनुवादक कम सहायक सूचना अधिकारी बनने का और तीसरा भारतीय खाद्य निगम में जन सम्पर्क अधिकारी बनने का | उन दिनों के सर्वाधिक सर्कुलेशन वाले वाराणसी से छपकर आनेवाले अखबार “आज” के बाज़ार को गोरखपुर से “दैनिक जागरण” प्रकाशित करके हथियाने के लिए पूर्णचन्द्र गुप्त डेरा डाले हुए थे |गोरखपुर से छपने वाला “हिन्दी दैनिक” अच्छी सम्पादन टीम के अभाव में अपने अंतिम दिन गिन रहा था |उसकी सर्कुलेशन निल थी और सिर्फ सरकारी गजेट और विज्ञापन ही उसमें छपते थे |तदर्थ तौर पर ह्रदय विकास पाण्डेय ने “दैनिक जागरण” गोरखपुर के डमी अंकों के सम्पादन का काम शुरू कर दिया था और वे और पूर्णचंद्र गुप्त,योगेश गुप्त,मुन्नालाल पत्रकार आदि मिलकर अपनी सम्पादकीय टीम बनाने के लिए प्रयासरत थे|याद नहीं है कि किसने मुझे भी प्रयास करने को कहा था और मैं बेतियाहाता स्थित उसके प्रेस में जाने लगा था | मुझे एक टेबिल कुर्सी दे दी गई थी और टेलीप्रिंटर से निकले समाचार को काट-छांट कर प्रेस लायक बनाने का काम मैंने शुरू भी कर दिया था |दो या तीन दिन बाद मुझे मालिकान ने बुलाया और नरेंद्र मोहन के नाम एक सीलबंद लिफाफा देते हुए कहा गया कि फाइनल एप्वाइन्टमेंट के लिए मुझे अपने खर्च पर उसके मुख्यालय कानपुर जाकर एक हफ्ते तक वहां ट्रेनिंग लेनी है |पत्रकार बनने का इतना उत्साह और उमंग था कि मैं कानपुर चला गया और वहां किसी परिचित के घर अतिथि बनकर पूरे हफ्ते सर्वोदय नगर जाता रहा |
सुबह नाश्ते के बाद मैं दफ्तर चला जाता था और शाम तक थका हारा लौटता था | वहां प्रेस की ओर से दो तीन चाय अवश्य मिल जाती थी |वहां पता चला कि जागरण संस्थान ट्रेनी जर्नलिस्ट के रूप में तीन सौ रूपये महीने पर आफर देती है और एक साल बाद नियमित वेतन स्केल में रख लेती है |चलते समय एडिटोरियल इंचार्ज किन्हीं सत्यदेव शर्मा जी ने मुझे पास कर दिया और मालिक नरेंद्र मोहन से मिलकर एक संस्तुति पत्र ले लेने को कहा | मैंने वैसा ही किया और वापस गोरखपुर आ गया | यहाँ एक बार फिर जब मैं पूर्ण चन्द्र गुप्त की टीम(उनके साथ मुन्ना लाल थे ) के सामने हाज़िर हुआ तो उन्होंने विशुद्ध बनिया के रूप में मुझे दो सौ पचास रूपये महीने पर काम करने का आफर दिया | मैंने उनसे तीन सौ रूपये की मांग की जिसे उन्होंने लगभग ठुकरा दिया | मुन्नालाल जी ने बीच बचाव की मुद्रा में मुझे ऑफर स्वीकार लेने को कहा तो मैं भड़क उठा |इस एक हफ्ते पन्द्रह दिन में “हिन्दी दैनिक” बंद हो गया था और उसके सम्पादकीय टीम के कुछ नाकारा लोग मात्र एक सौ रूपये महीने की नौकरी पर “दैनिक जागरण” में आ गए थे |पूर्णचन्द्र गुप्त उसी का फायदा उठा रहे थे |मुझे नौकरी की शौकिया आवश्यकता थी न कि मैं भूखा मर रहा था |मुझे इस बात का दुःख था कि जब मैंने हफ्तों कानपुर रहकर इनकी इच्छा पूरी करके नौकरी की मांग की है तो ये क्यों सौदेबाजी कर रहे हैं | कानपुर में ये लोग तीन सौ दे रहे हैं तो गोरखपुर में क्यों नही ? मैंने उनकी इस बनियागीरी पर फटकार भी लगाईं थी और कमरे से निकलते समय उनका यह व्यंग भी सुना था कि “लगता है कि तुम परिवार के बिगड़े लडके हो !” उन्हीं के पुत्र योगेन्द्र मोहन ने भी मुझे मेरी क्षमताओं से पहचान लिया था और वे चाहते थे कि मैं जागरण से जुड़ जाऊं | लेकिन उनकी चलती नहीं थी |
आगे चल कर “दैनिक जागरण” गोरखपुर प्रबन्धन को ऎसी ही परिस्थितियों के झंझावात से गुजरना पड़ा , महीनों तालाबंदी रही लेकिन वे अपने छल -बल से सर्वाइव कर गए और आज गोरखपुर ही क्या लगभग पूरे उ.प्र.में उनका डंका बज रहा है | आज न तो पूर्णचन्द्र हैं,न धीरेन्द्र मोहन लेकिन उनकी पत्रकारिता की बनियागीरी की परम्परा शाश्वत चली आ रही है |
अब इसी क्रम में अपनी दूसरी और तीसरी नौकरी के ऑफर के बारे में भी बताता चलूं | हुआ यह कि 1974-75 में ही उ.प्र.सूचना विभाग में सूचना अधिकारियों के लिए सीधी नियुक्ति का विज्ञापन निकला |उस समय गोरखपुर में जिला सूचना अधिकारी के रूप में त्रिपुरारी भास्कर नियुक्त थे और मेरी साहित्यिक और पत्रकारिता सम्बन्धी उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मुझे भी सुझाव दिया था कि मैं आवेदन करू | मैंने आवेदन कर दिया था |कुछ सोर्स भी लगा दिए | सूचना निदेशालय लखनऊ में साक्षात्कार तो अच्छा हुआ लेकिन मेरी नियुक्ति नहीं हो सकी |जिस सोर्स का सन्दर्भ मैं दे रहा हूँ वह इतना प्रभावकारी था कि कुछ ही महीनों में मेरे पास उ.प्र.सरकार के राजचिन्ह मछली बना हुआ नियुक्ति पत्र हाथ आया जिसमें मुझे बरेली के जिला सूचना अधिकारी कार्यालय में सहायक जिला सूचना अधिकारी/अनुवादक के पद पर कार्यभार ग्रहण करने का आदेश था |मन ललचा उठा लेकिन एक तो कम उम्र थी दूसरे वेतन बहुत कम था | इसलिए मैंने ज्वाइन नहीं किया |इन्हीं कालखंड में गोरखपुर में 1968 में इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित फर्टिलाइजर फैक्ट्री ने अपने लिए पी.आर.ओ.की वेकेंसी निकाली थी |मैंने भी अप्लाई कर दिया था |उन दिनों गोरखपुर की यह अकेली औद्योगिक विशाल भूखंड में स्थापित इकाई थी |सिर्फ इंटरव्यू पर चुनाव होना था और लगभग दो दर्जन मुझ जैसे नौजवान अपनी सुपात्रता का दावा लेकर इंटरव्यू में पहुंचे | बढ़िया आवभगत हुई और भव्य जलपान मिला |मेरा इंटरव्यू भी ठीक ही हुआ था लेकिन वहीं इस बात की अफवाह उड़ चुकी थी कि पेट्रोलियम मिनिस्ट्री से किसी के लिए सिफारिश आ चुकी है|फलस्वरूप सबके दावे सबके पास धरे रह गए | लेकिन जैसा ‘बच्चन’ जी कहते हैं-“ मन का हो तो अच्छा, ना हो तो और भी अच्छा क्योंकि वो रब की मर्जी है !” इसलिए जो हुआ अच्छा ही हुआ क्योंकि बाद में 10 जून वर्ष 1990 से इस फैक्ट्री पर काल मंडराने लगा,उस दिन अमोनिया गैस रिसाव के चलते एक इंजीनियर की मृत्यु हो गई और फैक्ट्री से उत्पादन बंद कर दिया गया |वर्ष 2002 में सभी को वी.आर.एस.दे दिया गया |
अब उस नौकरी की बात जो मेरे संग - साथ 36 वर्षों तक बनी रही | वर्ष 1977 के अप्रैल महीने की 29 वीं तारीख .....मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उस दिन लगभग 11 बजे अपने गाँव से गोरखपुर आ रहा था | घर की गली में ही मेरी मुच्छड़ पोस्टमैन राय साहब से मुलाक़ात हो गई और उसने बड़े तपाक से कहा –‘अरे साहब आपकी एक रजिस्ट्री आई है |’मैं हतप्रभ ! मैंने उत्सुकता से डाक ली ,लिफ़ाफ़े पर एक नज़र डाला तो पाया कि ख़ाकी रंग के मीडियम साइज़ के उस लिफ़ाफ़े पर भारत सरकार की मुहर On India Govt. Service लगी है और भेजने वाले स्टेशन डाईरेक्टर,आल इंडिया रेडियो, इलाहाबाद थे |मन खुशी से बल्लियों उछलने लगा लेकिन इसे जाहिर नहीं होने दिया |घर पहुंचा तो पिताजी कचहरी जा चुके थे |अम्मा को इस खुशखबरी को बताया और नहा- धोकर लगभग एक तीस बजे कचहरी पहुँच गया | मैंने पिताजी से कहा कि बस अब मुझे मेरी मनचाही नौकरी मिल गई है |आप मेरा मेडिकल आदि करवा दीजिए,किसी राजपत्रित अधिकारी से चरित्र प्रमाणपत्र दिलवा दीजिए और मुझे रवाना होने की आज्ञा दीजिए |संयोग देखिए , पिताजी के चेंबर में उसी समय उन दिनों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के युवा नेता (और अब माननीय राज्यपाल,हिमांचल प्रदेश)श्री शिव प्रताप शुक्ला का आगमन होता है और पिताजी उन्हें सी.एम.ओ. के यहाँ जाने और मेरा मेडिकल सर्टिफिकेट बनवाने का परामर्श देते हैं| उन दिनों छात्र नेताओं का बड़ा दबदबा था | हम दोनों रिक्शे से जिला अस्पताल पहुँचते हैं और सी. एम. ओ.साहब चायपान कराने के साथ मेरे मेडिकल की औपचारिकता आनन फानन में पूरी कर देते हैं | ....अब वापस कचहरी | इस बीच मुंशी श्रीनिवास सिंह को भेजकर पिताजी ने इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के लिए त्रिवेणी एक्सप्रेस में मेरा थ्री टायर में रिजर्वेशन भी करा दिया था | अब पिताजी एक सत्र न्यायाधीश श्री उमेश चन्द्र मिश्र के चेंबर में मुझे लेकर जाते हैं और मुझे उनका दिया चरित्र प्रमाण पत्र मिल जाता है |औपचारिकताएं पूरी.... अब अपनी ज़िंदगी के एक नए अध्याय की शुरुआत तीर्थराज प्रयाग से होनी है |रात की ट्रेन है और इलाहाबाद अकेले जाना है | मन में धुकधुकी ..गोरखपुर छोड़ने की पीड़ा अलग से ...|
परिवार में सभी इस समाचार से प्रसन्न थे |छोटे भाई दिनेश चन्द्र त्रिपाठी उन दिनों सेंटएंड्रयूज कालेज से बी.एस.सी.कर रहे थे | गोरखपुर विश्वविद्यालय में बाटनी में रिसर्च कर रहे बड़े भाई साहब प्रोफ़ेसर एस. सी. त्रिपाठी ने रिक्शे से रेलवे स्टेशन ले जाकर तमाम हिदायतों के साथ मुझे ट्रेन में बिठाया | पिताजी ने मेरे रहने और खाने- पीने के लिए अपने श्वसुर (मेरे नाना जी ) जस्टिस हरिश्चन्द्र पति त्रिपाठी,गंगा आश्रम ,15 कमला नेहरू मार्ग,इलाहाबाद के लिए पत्र दे दिया था |रात ट्रेन में लगभग बेचैनी में बीती ....और , अब मैं रामबाग रेलवे स्टेशन पर उतरकर रिक्शेवाले को हाथी पार्क / हिन्दू हास्टल चलने को बोला|अब मै उनके सम्मुख उपस्थित था |...हाथ में पिताजी का पत्र , एक अटैची और एक छोटा होल्डाल |
जज साहब (नाना जी )उन दिनों हाईकोर्ट इलाहाबाद के न्यायाधीश पद से तुरंत तुरंत रिटायर हुए थे |इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के भवन के सामने ,हिन्दू हास्टल से लगा लगभग दस एकड़ में फैला उनका भव्य मकान , बहुत बड़ा लान और कई नौकर चाकर |वर्ष 1977 का कुम्भ मेला सकुशल सम्पन्न कराने की ज़िम्मेदारी कुम्भ मेला अधिकारी के रूप में निभा रहे मेरे आई.ए.एस. मामा जी श्री सुशील चन्द्र त्रिपाठी भी उन दिनों वहीं थे |सबसे छोटे मामा सुधीर चन्द्र त्रिपाठी आई.ए.एस.की तैयारी कर रहे थे और एक और मामा श्री प्रकाश चन्द्र त्रिपाठी उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे थे |जज साहब बाहर ही बरामदे में बैठे सुबह की चाय पी रहे थे |प्रणाम - आशीर्वाद के बाद उन्होंने आने का कारण पूछा | मैंने पिताजी का पत्र झट से आगे बढा दिया |इस बीच मेरे लिए भी चाय आ चुकी थी |
“अच्छा ! तो तुमको नौकरी मिल गई है ! ”...थोड़ी देर के मौन के बाद वे आगे बोले –“देखें तो तुम्हारा एपाइन्टमेन्ट लेटर ! ” मैंने झट से अटैची खोली और पेपर्स आगे बढ़ा दिए |वे उसे पढ़ने लगे ...इसके बाद फिर मौन |“क्लास थ्री ..नान गजेटेड ?....अच्छा ?” वे हलके स्वर में बोल रहे थे | मैंने समझ लिया कि मेरी इस नौकरी से वे बहुत प्रसन्न नहीं हुए जबकि मेरे लिए कचहरी के नरक में डूबने उतराने से लाख गुना अच्छा यह आफर था |नौकरी चाहे वह क्लास थ्री की हो या नान गजेटेड !कम से कम मनचाही है , सरकारी तो है ? थोड़ी देर में नौकरी सम्बन्धी पेपर मेरे हाथ में वापस आ गए |मुझे उन्होंने अपने ऑफिस कम लाइब्रेरी में डेरा डालने का आदेश सुना दिया था | नौकर ने उसी में एक चारपाई डाल दी ,एक स्टूल रख दिया |सुबह के लगभग दस बज चुके थे और मैंने नहा धोकर नाश्ता करके नाना-नानी आदि का पैर छूकर प्रस्थान कर दिया | मुझे नहीं पता था कि वहां का आकाशवाणी केंद्र किधर है और उनसे पूछने में डर लग रहा था |किसी ने बता रखा था कि हाथी पार्क से यू.पी.एस.सी.वाली सड़क पर नाक की सीधाई में चलते जाना,चलते ही जाना | मैंने रिक्शा लेना मुनासिब समझा और अब मैं दयानन्द मार्ग के आखिरी छोर पर स्थित आकाशवाणी इलाहाबाद के गेट पर हाज़िर था |दो हिस्सों में बंटी हुई यह बहुत पुरानी बिल्डिंग थी | गार्ड को अपने आने का कारण बताया तो उसने अन्दर जाने दिया |मैं अब अपने जीवन के एक नये अध्याय में प्रवेश कर रहा था जिसके साथ मेरे ढेर सारे आत्मगन्धी संस्मरण जुड़ने वाले थे | ढेर सारे लोग जीवन में प्रवेश करने वाले थे |परिवार और घर- द्वार से निकल कर मैं अब एक अनजानी, अचीन्हीं दुनिया में प्रवेश कर रहा था यह उत्कंठा लिए कि उस पार ना जाने क्या होगा?