प्रफुल्ल कथा - 3 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 3


जीवन समय - समय पर रंग बदलता रहता है और आप उसी रंग में रंगते चले जाते हैं | मैं अब कैशौर्य से युवा हो रहा था | वर्ष 1969 में अब इंटरमीडिएट का छात्र था | हाई स्कूल ईसाई शैक्षणिक संस्थान से किया तो अब मैं आर्य समाज संगठन के एक विद्यालय में पढने लगा था | दोनों एक दूसरे के सर्वथा विपरीत | वहां मसीही प्रार्थना हुआ करती थी और यहाँ वैदिक | गोरखपुर उन दिनों जातिवाद के भरपूर प्रभाव में था और शैक्षणिक संस्थान भी इससे अछूते नहीं थे | तुलसीदास इंटर कालेज ब्राम्हण समुदाय का था तो जार्ज इस्लामिया मुस्लिम समुदाय का | महात्मा गांधी इंटर कालेज और इस विद्यालय में कायस्थ समुदाय का प्रभाव था और
इसके प्रबन्धक उमाशंकर बाबू का उन दिनों शिक्षा जगत में जलवा था |उन दिनों श्री एस.के.राम प्रधानाचार्य थे | यू.पी. बोर्ड से सम्बद्ध यह कालेज अनुशासन और हमेशा अच्छे रिजल्ट के लिए जाना जाता था | जैसा पहले बता चुका हूँ गोरखपुर उन दिनों जातिवाद के प्रभाव में था और लगभग 300 एकड़ में 1957 में बने गोरखपुर विश्वविद्यालय (और अब 1997 से दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के नाम से जाना जा रहा ) की स्थापना से ही जातिवाद की भी नींव पड़ गई थी हालांकि जिसका ध्येय “ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वत:” अर्थात हमें सब ओर से कल्याणकारी विचार प्राप्त हों का रखा गया था |इसकी स्थापना का श्रेय स्व. श्री एस.एन.एम.त्रिपाठी तत्कालीन आई.ए.एस.(ब्राम्हण गुट ) का था या महाराणा प्रताप इंटर कालेज के संस्थापक महंत दिग्विजय नाथ (ठाकुर गुट ) का इसी झगड़े की शुरुआत ही गई थी जो अभी तक सुलझ नहीं सकी है | एक मजेदार बात अभी की बताऊँ तो पाठक हैरान हो जायेंगे ! इस विश्वविद्यालय की स्वर्ण जयंती पर कार्यसमिति ने यह तय किया था कि दोनों महानुभावों की मूर्तियाँ परिसर में लगाई जायेंगी लेकिन दोनों गुट के आपसी झगड़े में आज तक उन मूर्तियों को लगाया नहीं जा सका है |
बहरहाल हमलोगों को उस उम्र में इनसे कुछ लेना देना
नहीं होता था लेकिन यह एहसास तो हो ही गया था कि किसी एक जाति की बहुलता से दूसरे जाति के लोग अपने को असुरक्षित और अल्पसंख्यक समझने लगते हैं | यह भी कि गोरखपुर में उन दिनों जातिवाद के गर्भ से पैदा वर्चस्व की यह लड़ाई आगे चलकर हिंसक हो गई और सैकड़ों की जान भी चली गई थी | बी.बी.सी.लन्दन ने इसका गुणगान किया था ! गुंडई और राजनीति के काकटेल से पैदा वीरेन्द्र शाही, हरिशंकर तिवारी,रविन्द्र सिंह और श्रीप्रकाश शुक्ला आज भी से कौन नहीं परिचित है ?
अरे , यह देखिए .. एक अजीब बात हुई है | आपके लिए जब मैं इन संस्मरण को कागज़ पर उतार रहा था तभी जाने किस मानसिक टेलीपैथी जैसे प्रभाव से मेरे पास रखा मोबाइल बज उठा है और एक ऐसे विस्मृत व्यक्ति का फोन आ गया जो उसी डी.ए.वी.इंटर कालेज के मेरे सहपाठी रहे हैं | उनका नाम है श्री गंगा प्रसाद शुक्ल और जो रिटायर्ड शिक्षक हैं |लगभग मुझे विस्मित करते हुए मुझे उन्होंने कालेज से जुड़े ढेर सारे रोचक प्रसंग सुना डाले ! आप भी सुनना चाहेंगे ? उन दिनों जैसे मेरे कुछ और सहपाठी थे वे स्वयं, अनिल श्रीवास्तव,देवेन्द्र सिंह ,आनन्द त्रिपाठी ‘शनिल’,भागवत प्रसाद उपाध्याय ...आदि | यह भी कि हमलोग ए-1 सेक्शन के छात्र
थे , अपने हिन्दी के अध्यापक श्री रामप्यारे शुक्ल को “चोखई प्रसाद” का सम्बोधन करके चिढाते थे.यह भी कि जूनियर एन.सी.सी.के इंचार्ज पलटन सर (पुकार नाम ) अपने आपको आज़ाद हिन्द फौज़ का सिपाही बताया करते थे तो श्री रमेश चन्द्र श्रीवास्तव (अंग्रेजी प्रवक्ता) ,जो चेन स्मोकर थे , सीनियर ग्रुप (हम लोगों के ) एन.सी.सी.कैडेट्स के कमांडर हुआ करते थे | हर इतवार को हमलोग सुबह नौ बजते - बजते झंकार टाकीज के सामने कालेज की खाली पड़ी जमीन पर परेड के लिए सुसज्जित होकर इकट्ठा हो जाया करते थे | हाँ, गर्मी में चाहे सूरज की तपन हो या सर्दी में ठिठुरने वाली ठंढ ! और हाँ , उनकी ही बात से याद आ गया हर साल दशहरे की छुट्टी में शहर से दूर किसी निर्जन स्थान पर लगाए गए एन.सी.सी.कैम्प में प्रवास के वे रोमांचक दिन..कठोर अनुशासन का वह पर्व,साधारण रायफल से गोलियां दागने का रोमांच !मैं अपने को बचपन से नाज़ुक ही समझता रहा हूँ और सच मानिए इन मित्र मंडली की वज़ह से ही मैं इतने कठिन कैम्प को दो बार कर पाया था | इस दौर के मित्र श्री भागवत प्रसाद उपाध्याय और श्री आनन्द वर्धन त्रिपाठी ‘शनिल’ तो अब भी सम्पर्क में बने हुए है |वर्ष 1971 में मैनें इंटरमीडिएट परीक्षा लगभग 58 प्रतिशत अंकों के साथ गुड सेकेण्ड क्लास से पास कर लिया |

अब मैं अठारह साल का हो चुका था | स्कूली सहपाठियों से कुछ गंदी आदतें भी सीख चुका था | सभी की तरह मेरा भी “ किसपेप्टिन हार्मोन” मुझे विपरीत लिंग के प्रति अब आकर्षित करने लगा था | हस्तमैथुन जैसी गन्दी आदत भी लग गई थी जो आगे चलकर समझ आने पर छूट तो गई लेकिन सेक्स के और भी अध्याय जुड़ते चले गये |अब ये बातें स्वीकार करने से मुझे कोई गुरेज नहीं है क्योंकि जीवन अब समापन पर है और कुछ लेकर ऊपर जाना नहीं चाहूँगा !
बड़ा होने पर मुझे गाँव की खेती बारी की ज़िम्मेदारी भी आंशिक रूप से निभाने का दायित्व मिला | असल में मेरे पितामह गाँव का सारा दायित्व छोड़कर दादी के साथ काशीवास करने (काशी) चले गए थे और मेरे पिताजी को गाँव सम्भालना पड़ता था |गाँव जाना , वहां रहना और मजदूर मजदूरनियों के साथ काम कराना कुछ दिन तो मुझे बड़ा अटपटा लगा | लेकिन धीरे धीरे गाँव की छोरियों ने मुझे अपने आकर्षण में खींचना शुरू कर दिया था |उनकी उन्मुक्त हँसी , उनकी सेक्स के प्रति उदारता ,अपनी आतुरता ..सब कुछ तो कारण बनता गया था !महानगरों में उन दिनों सेक्स के प्रति जो “टैबू” बनाकर समाज रखा करता था गाँव उससे एकदम अलग मिला और मेरे युवा मन पर एक फिल्मी गीत मचलने लगा था –
“गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा ,मैं तो गया मारा, आके यहाँ
रे ... | ”

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