प्रफुल्ल कथा - 8 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 8


किसी ने सच ही लिखा है कि शब्दों में धार नहीं बल्कि आधार होना चाहिए | जिन शब्दों में धार होती है वो मन को काटते हैं और जिन शब्दों में आधार होता है वे मन को जीत लेते हैं | ”
इस आत्मकथात्मक यात्रा में, जिसके आप सभी सहयात्री हैं , पता नहीं मेरे शब्द आपको आधार प्रदान कर पा रहे हैं अथवा नहीं ! मेरी यह लगातार कोशिश है कि यह लेखन मेरी निजी जीवन की ताक झाँक के साथ उस काल और उन महत्वपूर्ण घटनाओं को भी समेटे हुए हो जो प्राय: आप सभी के जीवन में घटती रहती है और अगर आप उन अनुभव को पढ़ लें तो उनसे सीख लेकर उन जैसी परिस्थितियों में अपना रास्ता प्रशस्त कर सकते हैं |
लेकिन, जैसा कि विष्णु प्रभाकर कहते हैं ‘’ आदमी अपने को सम्पूर्ण रूप से कभी नहीं जानता | कुरेद- कुरेद कर न जाने कितनी परतें खोद लेता है |’’ उनकी यह बात सच हो सकती है लेकिन आदमी को अपने आपको जानने समझने की कोशिश तो ताउम्र करती ही रहनी होगी और आत्मकथा लेखन अपनी समीक्षा का सबसे सटीक उपाय है , कोशिश है- यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ |इसीलिए मेरी तो यह तमन्ना है कि मैं दिन भर यूं ही बार -बार किश्तों में लिखता रहूँ आप बार -बार यूं ही किश्तों में पढ़ते रहें ..ये बार -बार लिखना, ये बार -बार पढ़ना - यही बारम्बरता इन्सान को इन्सान से जोड़े रखती है ! फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ कहते हैं कि लेखक के सम्प्रेषण में ईमानदारी है तो रचना सशक्त होगी चाहे जिस विधा की हो !
मेरी उम्र थी चौबीस की ,वर्ष 1977,शनिवार ,अप्रैल महीने की वह तीसवीं तारीख थी | मैं आकाशवाणी इलाहाबाद के एक बड़े कमरे में बैठा दिया गया हूँ, यह सूचना देते हुए कि अभी कुछ देर में लोग आ रहे होंगे और आपको ज्वाइनिंग आदि के बारे में बतायेंगे | सचमुच एक के करके अपरिचित चेहरों की जुटान होने लगी |लोग मुझसे और मै लोगों से मुखातिब हो रहा हूँ | महान नाटककार विनोद रस्तोगी, उमेश दीक्षित,युक्तिभद्र दीक्षित,केशव चन्द्र वर्मा, नर्मदेश्वर उपाध्याय,हीरा चड्ढा , राम प्रकाश,जे.साहिल,फाखरी साहब,शान्ति मेहरोत्रा,निर्मला कुमारी, कैलाश गौतम आदि प्रसारण जगत की नामचीन हस्तियाँ जुटी हुईं | कुछ प्रसारण रिपोर्ट पढ़ कर अब अगले दिन की क्यू शीट पढ़ी जा रही है,उनमें कुछ जोड़-घटाव हुए और चाय के बाद मीटिंग समाप्त हो गई है |
मुझे कार्यक्रम - अधिकारी समन्वय श्री उमेश दीक्षित अपने कमरे में ले गए | मेरी लिखी ज्वाइनिंग रिपोर्ट देखे और मुझे लेकर निदेशक श्री बी.एस.बहल के कमरे में दाखिल हो गए |अधेड़ उम्र के मि.बी.एस.बहल ने मेरा परिचय आदि पूछकर मुझे प्रशासन अनुभाग जाने के लिए कह दिया | मुझसे ज्यादा मेरा परिचय दीक्षित जी ने ही उनको दे दिया क्योंकि दीक्षित जी यह जानकर मानो सब जान गए हों कि मैं जस्टिस त्रिपाठी और उनके सुयोग्य आई.ए.एस.पुत्र श्री सुशील चन्द्र त्रिपाठी (जो उन दिनों कुम्भ मेला अधिकारी की भूमिका में थे) के परिवार का हूँ | हाँ, उन्होंने मुझे यह भी बताया कि मेरी नौकरी शिफ्ट की होती है और कल से मुझे ड्यूटी रूम की व्यवस्था के अनुसार काम पर आना होगा | उन दिनों प्रशासनिक अधिकारी उस केंद्र पर नहीं हुआ करते थे और लगी हुई दूसरी बिल्डिंग में लेखाकार और प्रशासन का काम एक जगह ही होता था | मेरी ज्वाइनिंग श्री बी.एन.जायसवाल लेखाकार के मार्फ़त सकुशल हो गई |
अब मैं उसी बिल्डिंग के ड्यूटी रूम के विशालकाय हाल में था | दो बड़े-बड़े टेबल , उस पर रखे फोन और पदस्थ ड्यूटी आफिसर ,टेबल के दूसरी ओर चार- चार कुर्सियां साइड में बड़े बड़े कबर्ड | डा.एस.के.सिन्हा सीनियर ड्यूटी आफिसर ने मुझे समझाया कि मैं कल से दिन की शिफ्ट में आकर श्रीमती कुसुम जुत्शी से पहले तीन- चार दिन ट्रेनिंग ले लूँ और फिर इंडिपेंडेंट शिफ्ट की ड्यूटी करूँ |मैंने वैसा ही किया |कुसुम जी ने मुझे शिष्यता तो प्रदान की ही साथ में चाय- पान का शौक भी जगाया | वे मूलतः कश्मीरी थीं , बहुत बातूनी थीं और अपने साथ पान का डिब्बा रखती थीं |उन्होंने स्टूडियो ले जाकर एनाउन्सरों से मिलवाया,कार्यक्रम प्रसारण तकनीक और ड्यूटी ऑफिसर के रोल को समझाया |शाम चार बजे तक मैं वापस अपने ठिकाने आ गया |
अगले तीन चार दिन में मैनें मुख्य कार्य समझ लिए और बिना देर किये डा.सिन्हा ने मुझे शिफ्ट ड्यूटी में लगाना शुरू कर दिया |शिफ्ट एक सुबह पांच से दिन बारह बजे,दस बजे से पांच बजे और शाम चार बजे से रात ग्यारह बजे की |
सबसे कठिन शिफ्ट सुबह की हुआ करती थी क्योंकि साढ़े चार बजे घर के गेट पर गाड़ी का हार्न बजने लगता था और अगर गाड़ी मिस हो गई तो साइकिल का पैडल मारकर हांफते दांफते रेडियो पहुचना पड़ता था |इस बेतरतीब ड्यूटी में पारंगत होने में मुझे थोड़ा समय लगा |यह जानकर आप आश्चर्य कर सकते हैं कि ड्यूटी की यह दिनचर्या लगभग चौदह वर्ष (1977 से 1991) तक चलती रही जब तक मेरा कार्यक्रम अधिकारी पद से लिए प्रमोशन नहीं हो गया |हालांकि ऐसा कम हुआ लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता था कि सुबह जब बच्चे सो रहे होते तो मैं निकल जाया करता था और मजबूरी में तीनों शिफ्ट करते हुए रात में बारह बजे घर पहुंचता था, जब बच्चे सो रहे होते थे |शिफ्ट ड्यूटी के मजदूर की ऎसी ही मजबूरी हुआ करती है साहेब !
उन दिनों इलाहाबाद पूरब का केम्ब्रिज कहलाता था| उसे शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए उपयुक्त शहर तो माना ही जाता था ‘आफ्टर लाइफ ओएसिस’ के लिए अर्थात सेवानिवृत्त लोगों के रहने की भी मुफीद जगह मानी जाती थी |अंग्रजी शान शौकत के ठाटबाट अभी दिखाई देते थे | रेडियो में मेरे हमउम्र सहकर्मी कम थे | उम्रदराज ज्यादे |उत्तर भारत में पहली फरवरी 1949 को स्थापित यह एक किलोवाट क्षमता वाला बहुत पुराना और समृद्ध स्टेशन था जहां वर्ष 1965 से विविध भारती का प्रसारण भी शुरू हो गया था |केंद्र पर बड़े बड़े लोगों का आना- जाना हुआ करता था |उस्ताद बिस्मिल्ला खान,गिरिजा देवी ,सुमित्रा नन्दन पन्त,रामकुमार वर्मा,इलाचंद जोशी,विद्यानिवास मिश्र,शैलेश मटियानी,उपेन्द्र नाथ अश्क,अमृत राय...अनेक लोग |बनारस से भी कलाकार यहीं रिकार्डिंग कराने आते थे क्योंकि वहां उन दिनों रिकार्डिंग की सुविधा नहीं थी |
एक ख़ास बात यह कि मैं जहां रहता था उसके ठीक बगल में हिन्दू हास्टल था जिसमें मेरे पिताजी आचार्य प्रतापादित्य अपने विद्यार्थी जीवन में लगभग पांच साल रह चुके थे |मेरे फूफाजी पं. देवकी नन्दन पाण्डेय वैद्य भी जानसेनगंज में रहते थे |
मैंने अब आकाशवाणी को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दी थीं | हालांकि अपनी असुविधाएं पर्याप्त थीं क्योंकि मेरी नानी सौतेली थीं |मेरे साथ उनका व्यवहार रूखा रहता था | मैं जब रात साढ़े- ग्यारह, बारह बजे घर आता तो मेरे कमरे में थाली में ठंढा खाना रखा रहता था |हाँ ,जब दिन में घर रहता था तो डाइनिंग रूम में खाना नाना जी के साथ खाने को अवश्य मिलता था | नानी जी जब उनके लिए गरम रोटियाँ सिंकवा कर लाने जाती थीं तो मुझे याद है कि नाना जी धीरे से मुझसे पूछते थे ‘बेटा,दाल में घी पड़ा है या नहीं ?’ मैं उनकी विवशता समझता था और यह भी सच है कि ऐसे परिवेश में मैं अपनी औकात को भी समझता था |
इलाहाबाद के छह महीने के प्रवास में मैनें अपने भरसक शायद ही किसी को कोई मौक़ा दिया कि मेरे आचरण से कोई शिकायत हो |वह युवावस्था की उम्र थी,सुबह ब्रेड और चाय के नाश्ते के बाद भूख अगर लगती थी तो अक्सर चुपचाप मैं पास के कटरा बाज़ार चला जाता था जहाँ पर्याप्त नाश्ता करके आ जाता था |अम्मा-पिताजी भी जानते थे कि वहां के सख्त अनुशासन और सौतेलेपन के व्यवहार में मैं बहुत सहज नहीं रहूँगा लेकिन कुछ ही दिनों की तो बात थी इसलिए मुझे सांत्वना देते रहते थे |नाना जी ने अपने साथ रख लिया मेरे लिए यही बड़े सुकून की बात थी |
श्रीमती लता दीक्षित,ऊषा मरवाहा और उनके पति जितेन्द्र मरवाहा,आशा ब्राउन,हरि मालवीय, राधेश्याम श्रीवास्तव उर्फ़ लाला जी , अरिदमन शर्मा और उनके पति विपिन शर्मा राजा जुत्शी और उनकी पत्नी कुसुम जुत्शी,नरेंद्र शुक्ल,निखिल जोशी, पी.डी.गुप्ता, शिवमंगल,तारा सिंह ग्रोवर,मधुर श्रीवास्तव आदि सहकर्मियों से मेरी घनिष्ठता बढ़ गई थी | अपने सीनियर डा.सिन्हा से मैंने अपने अनुकूल व्यवस्था यह करा ली कि मैं साप्ताहिक अवकाश एक साथ क्लब करके लेने लगा जिससे इकट्ठे चार-पांच दिन की छुट्टी मिल जाती और मैं गोरखपुर चला जाता था| गोरखपुर जब आता था तो रेडियो जाकर वहां अपने ट्रांसफर की सम्भावनाओं को तलाश करता था |मेरी यह तलाश एक दो बार की यात्रा के बाद सफल होती नज़र आई | अंततः मैं अपना ट्रांसफर गोरखपुर करवाने में सफल हो गया लेकिन उसके पहले कुछ और रोमांचक प्रसंगों को बताना चाहूँगा जो उन्हीं काल अवधि में घटित हुए थे | जानना चाहेंगे आप ? ऎसी ही छुट्टियों में मैं गोरखपुर आया हुआ था कि पता चला कि लखनऊ में मेरे गुरुदेव श्री आनन्दमूर्ति आ रहे हैं |मेरा पूरा परिवार “आनन्द मार्ग” की साधना करता था और लगभग सभी उसके गुरुदेव का दर्शन कर चुके थे सिर्फ़ मैं बचा था |मैंने पिताजी से अनुरोध किया और उन्होंने किसी मार्गी (सम्भवतः हरीश्चन्द्र श्रीवास्तव) के साथ मुझे लखनऊ जाने की व्यवस्था करवा दी |रात की ट्रेन से चलकर जब सुबह लखनऊ उतरता हूँ तो पाता हूँ कि मेरा जूता किसी ने गायब कर दिया है |स्टेशन के पास ही चप्पल खरीदी गई और हमलोग गुरुदेव के कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गए |दोपहर और रात में गुरुदेव के दर्शन –प्रवचन का लाभ मिला और रात में हमें लौटना प्रस्तावित था लेकिन अगले दिन गुरुदेव से पर्सनल कान्टेक्ट हो सकने के प्रलोभन ने मुझे रुकने को विवश कर दिया |सुबह नहा धोकर मैं उस पंक्ति में खड़ा था जिसमें बारी -बारी से सन्यासी, साधकों से साधना सम्बन्धी कुछ नियम निर्देश पूछने की औपचारिकता करके गुरुदेव के कमरे में भेज रहे थे |मन में धुकधुकी लगी थी लेकिन मेरे पिताजी का नाम सुनते ही उन सन्यासी जी ने मुझे बिना कुछ पूछे कुछ निर्देश देते हुए गुरुदेव के कमरे में भेज दिया |असल में उस समय तक संगठन बहुत बड़ा आकार नहीं ले पाया था और आचार्य के रूप में पिताजी की छवि अच्छी थी |
कमरे में घुसने पर मैनें गुरुदेव (जिन्हें हम बाबा कहते थे ) को साष्टांग प्रणाम किया और बैठ गया |गुरुदेव ने प्रति-प्रणाम करते हुए कहा –
“आओ,आओ |हाँ,क्या नाम है तुम्हारा और तुम्हारे आचार्य कौन हैं ?“
मैंने अपना नाम बताया और आगे आचार्य का नाम बताने वाला ही था कि “बाबा” बोल पड़े –
“आछा , आछा ...तुम आचार्य प्रतापादित्य के बेटे हो ना ?”(गुरुदेव बंगाली थे इसलिए उनका उच्चारण ऐसा ही होता था )| उन्होंने आगे निर्देश दिया ...”तो तुम और आगे आ जाओ और यहाँ मेरे सामने खड़े हो जाओ |”
मैंने उनका अनुपालन किया |मुझे बताया गया था कि गुरुदेव पर्सनल कान्टेक्ट में साधक के जीवन की गलतियों को बताकर उस गलती के अनुसार हल्का या कठोर दंड देते थे और आगे के लिए निर्देश देते थे |हाँ,सचमुच वे जिस तख्त पर बैठे थे उनके बगल में एक स्टिक भी रखी हुई थी |मैनें भी तब तक के जीवन में ढेर सारे पाप का संचय कर ही लिया था इसलिए मुझे भी अब डर लगने लगा था |
“हाँ तो तुमने क्या क्या गलतियां की हैं ?” बाबा बोल उठे|
मेरी हालत खराब |मेरे मुंह से कातर स्वर में सिर्फ़ “बाबा” निकला | “नहीं,नहीं ..याद करो तुमने क्या- क्या कुकर्म किया ?”
मेरी हालत और खराब होने लगी |मेरे मुंह से एक बार फिर कातर स्वर में दोनों हाथ जोड़ते हुए सिर्फ़ “बाबा” निकला |मैनें जो जो कुकर्म किये थे सच मानें एक- एक करके मेरे मानसपटल पर वे सभी उभरने लगे और मैं प्रायश्चित के दावानल में अपने को घिरा पाने लगा|
“आछा... आछा...तो तुम स्वीकारते हो कि तुमने पाप किये ?”
‘हाँ..हाँ, बाबा !” मैं बोल उठा |
“तो तुमको दंड तो देना पड़ेगा,अवश्य देना पड़ेगा | ......लेकिन प्रतापादित्य तो मेरा सबसे प्यारा बेटा है और तुम उसके बेटे हो तो तुम भी मुझे प्यारे हुए | तो ..तुमको प्रतापादित्य दण्ड दें कि मैं दण्ड दूँ ?”
“नहीं बाबा आप ही मुझे दण्ड दे दें |” मैंने उनसे याचना की |उन्होंने अपनी स्टिक से मुझको दो तीन बार कुछ मन्त्र उच्चारित करते हुए छुआ तो मैं भरभरा कर रो उठा |उन्होंने मुझे अपने बगल में आसन पर बैठा लिया और स्नेह और सांत्वना का अवर्णनीय आशीष देना शुरू कर दिया |
“आछा,देखो तो ये तुम्हारे हार्ट में एक छोटा सा छेद मैं देख रहा हूँ |उसे मैनें हील कर दिया है नहीं तो आगे जाकर तुमको दिक्कत होगी |तुम प्रामिस करो कि नियमित साधना करोगे , मानव समाज की सेवा करोगे और यम नियम का सख्ती से पालन करोगे |..प्रामिस करते हो ना?”
“हाँ ,बाबा !” लगभग सामान्य होते हुए मैंने उन्हें आश्वासन दिया |
“आछा जाओ, प्रतापादित्य को मेरा आशीर्वाद कहना |” बाबा ने मुझे बाहर जाने की अनुमति दे दी थी | आज इतने वर्षों बाद, इसी लखनऊ शहर में रहते हुए जब मैं यह संस्मरण लिपिबद्ध कर रहा हूँ मेरे रोंगटे खड़े हो गए हैं |मेरे गुरुदेव ”बाबा” और उनके प्रिय शिष्य मेरे पिताजी अब मनुष्य शरीर में यद्यपि नहीं हैं लेकिन सूक्ष्म रूप में उनकी हर समय उपस्थिति प्रतीत हुआ करती है |हर उस अवसर पर जब मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाया करता हूँ मानो वे मेरा मार्गदर्शन करते रहते हैं |तेईस अप्रैल 2007 को मनपक्कम,चेन्नई के मिओट हास्पिटल में जब डाक्टर पी.वी.ए.मोहनदास ने मेरे इन्फेक्टेड हिप ज्वाइंट के इन्फेक्शन पूरे शरीर में फ़ैल जाने के अनुमान के चलते मुझे कुछ घंटों का मेहमान बताकर वार्ड से हटाकर आइसोलेशन रूम में भेज दिया था तो उन मृत्यु आसन्न संकट के क्षणों में भी “बाबा” मेरे साथ थे ! डाक्टर ने सिर्फ़ एक रात का समय दिया था ,वह रात कितनी भयावह थी,मैं ही जानता हूँ |लेकिन डाक्टर का अनुमान ग़लत सिद्ध हुआ और मैं अपने शेष जीवन की अगली बैटिंग के लिए मैदान पर आ गया था | ऐसे संकट के बादल आगे भी घिरे लेकिन फिलहाल ज़िन्दगी नदी की धारा के समान कलकल निनाद करती आगे बढ़ती जा रही है |
हेमंत देवलेकर के शब्दों में ‘ हमारी उम्र का कपास धीरे- धीरे लोहे में बदल रहा है !’ ......आज बस यहीं तक लेकिन इस कड़ी को विराम दूँ उससे पहले कहना चाहूँगा कि
“ज़िन्दगी उसी को आजमाती है,
जो हर मोड़ पर चलना जानता है |
ज़िन्दगी उसी की है,
जो सब कुछ खो कर भी मुस्कुराना जानता है ! “
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