प्रफुल्ल कथा - 4 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 4


तह पर तह लगाकर जम चुकी हैं मेरी ज़िन्दगी की यादें ......यादें कुछ खट्टी , कुछ मीठीं | एक दिन ख़याल आया कि क्यों ना इन यादों से भरी संदूक की धूल हटाकर देखी जाय जिसमें बचपन की शरारतें हैं , युवावस्था के सपने हैं , गृहस्थ जीवन का ताना बाना है , नौकरी की धूप - छाँव और सम्बन्धों का बनता - बिगड़ता गणित , इतना ही नहीं कडवाहटें - टीस - चुभन भी है , ढेर सारे लोगों का मिलना- बिछड़ना है .. हाँ , वही सब कुछ जो आपकी ज़िंदगी में भी होता रहता है ...तो इन तरतीब से सजी ज़िल्द चढ़ी यादों को आप तक इन पन्नों से पहुंचा रहा हूँ | खुशनसीब हूँ कि लोकप्रिय ऑन लाइन मंच मातृभारती इसके लिए सेतु बना हुआ है |
मैंने यह महसूस किया है कि हम चाहे क्यों ना दार्शनिकता के अंदाज़ में यह कह लें कि हमें आज में जीना चाहिए,कल को भूल जाना चाहिए | लेकिन सच यह है कि बीते हुए कल पर ही तो आज की इमारत बनती है और सच यह भी है कि हम चाहकर भी अपने बीते कल से दामन छुड़ा नहीं पाते हैं | हिन्दी के वरिष्ठ कवि डा.शम्भूनाथ सिंह के एक अत्यंत लोकप्रिय गीत का मुखड़ा है –
“ समय की शिला पर मधुर चित्र कितने ,
किसी ने बनाये किसी ने मिटाए ! “
तो यह चित्र का बनना और मिटना जीवन की स्वाभाविक क्रिया है | हर व्यक्ति की नियति है | अपनी भी यही थी | मेरी जीवन यात्रा जो आमी नदी के किनारे से शुरू हुई थी अब राप्ती नदी या कहें इरावती नदी के किनारे आ चुकी थी | यह नदी नेपाल में फैली धौलागिरी पर्वत श्रेणी से निकलती है और उ. प्र. के विभिन्न शहरों से होती हुई देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर घाघरा नदी में मिलती हुई आगे चलकर गंगा की गोद में समा जाती है | प्राचीन राप्ती नदी बुद्धकालीन इतिहास की प्रमुख नदियों में से एक है जिसका बुद्ध चरित्र में वर्णन देखने को मिलता है | इसके आधार पर गौतम बुद्ध ने जिस हिरण्यवती नदी में स्नान किया था वह राप्ती नदी की ही एक धारा बताई जाती थी | महाभारत में भी वारवत्या नदी का ज़िक्र आता है जिसे आज की राप्ती ही कहते हैं |
मेरे पितामह पंडित भानुप्रताप राम त्रिपाठी सनातन परम्पराओं और संस्कारों में गहरा विश्वास रखते थे |वे दोनों समय नियमित रूप से संध्या गायत्री सहित अनेक पूजापाठ किया करते थे |पूरे सावन में पार्थिव पूजन किया करते थे |उनका एक सेवक उनकी इन दिनचर्या का सहायक हुआ करता था और यंत्रवत उनकी व्यवस्था करता रहता था |भोजन हमेशा जमीन पर पीढ़े पर बैठ कर करते थे |मेरे पिताजी इन सबसे सर्वथा विपरीत जाकर मूर्तिपूजा और सनातन संस्कारों में विश्वास नहीं रखते थे |उन दोनों में इस वज़ह से सम्बन्ध
थोड़ा असहज था | गाँव की ढेर सारी प्रापर्टी छोड़कर मेरे पितामह वर्ष 1971 में काशीवास करने चले गए |
इसके पूर्व पितामह ने हम दो भाइयों का जनेऊ संस्कार विन्ध्याचल जाकर करवा दिया था जिसमें न तो पिताजी सम्मिलित हुए थे और ना ही मेरी माता जी | बड़ी बहन विजया की शादी में भी वे काशी से आये और 22 मई 1972 को उन्होंने ही कन्यादान किया था | अब बड़े भाई की शादी में उन्हें जून 1975 में बुलाया गया था | लेकिन उसी बीच 24 जून को लगी इमरजेंसी ने मेरे परिवार को भी मुसीबत में डाल दिया था | असल में मेरे पिताजी तब तक “ आनन्द मार्ग “ के आचार्य होकर उस धार्मिक संगठन के गोरखपुर में मुख्य कार्यकर्ता के रूप में ख्याति पा चुके थे और इंदिरा गांधी ने उस संगठन को भी प्रतिबंधित कर दिया था |24 जून 1975 को इमरजेंसी लगी , 3 जुलाई को मेरे पिताजी की डी.आई.आर.(शान्ति भंग की आशंका ) में गिरफ्तारी हुई |वे अपने दो अन्य साथियों के साथ कोतवाली ले जाए गए |उन सभी पर अब मीसा लगाने की तैय्यारी में प्रशासन था |आश्चर्य की बात यह थी कि वे उन दिनों सरकारी वकील भी थे | पितामह के लिए पौत्र के विवाह की शुभ घड़ी में उनकी यह गिरफ्तारी अप्रत्याशित थी | उन्होंने उस समय के प्रभावशाली व्यक्ति और रिश्तेदार पंडित सुरति नारायण मणि त्रिपाठी के यहाँ जाकर डेरा डाल दिया था और किसी तरह दबाब बनवा कर 4 जुलाई को पिताजी की जमानत मंजूर करवा ली थी | देर रात जिलाधिकारी के विशेष आदेश पर उनको जेल से छोड़ा गया | उनकी जमानत का आधार बेटे सतीश का 6 जुलाई को सम्पन्न होने वाला विवाह था लेकिन विवाह में दहेज़ लिए जाने के कारण पिताजी को बरात में तो जाना ही नहीं था क्योंकि दहेज़ के लेन देन वाली शादी में जाना उनके उसूल के खिलाफ था | पितामह की उदारता देखिए कि उन्होंने उनके सिद्धांतो का भरपूर सम्मान किया और जनेऊ संस्कार की तरह अपने पौत्र का विवाह संस्कार भी हिन्दू विधि विधान से सम्पन्न कराया | आश्चर्य की बात यह कि यह विवाह सम्बन्ध भी विन्ध्याचल धाम के ही एक मिश्र परिवार में विन्ध्याचल में सम्पन्न हुआ था |
ज़िंदगी क्या - क्या रंग दिखाती है ! मेरे पितामह भारत नेपाल सीमा के एक गाँव मेऊड़िहवा की खेती बारी और सिंगरा –विश्वनाथपुर गोरखपुर गाँव की करोड़ों की भू सम्पत्ति छोड़कर काशी में मोहल्ला अस्सी के एक रिश्तेदार के मकान में दो कमरे बनवा कर दादी और एक अनुचर सहित शिफ्ट हो चुके थे | तय हुआ था कि एक निश्चित धनराशि और राशन पानी पिताजी भेजा करेंगे |शुरुआत में तो पिताजी ने जोश दिखाया |हम भाइयों को भी गाँव गिरांव को देखने भेजते रहे लेकिन सच यह था कि गाँव में हमारा पैर उखड़ चुका था |खेती गृहस्थी कराना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा था |उधर काशी में पितामह को आर्थिक चुनौतियों का अप्रत्याशित रूप से सामना करना पड रहा था |अभाव उनकी ज़िंदगी का स्वभाव बनने लगा था |
पितामह सब कुछ छोड़कर काशीलाभ करने चले गये थे लेकिन जब तक यह निष्ठुर शरीर है उसका निर्वहन तो करना ही होता है ! जब उन्हें रूपये पैसे मिलने में देर हो जाया करती थी तो वे दुखी हो जाते थे | 25 अप्रैल 1985 को उन्होंने मुझे सम्बोधित करते हुए एक पत्र में लिखा- “ मैं बहुत दिनों से सोचता था कि एक पत्र लिखू जिसमें अपने ह्रदय का उदगार प्रकट करूं | इस संसार में जिसके पास धन है वही पुरुषार्थी है ,वह बुद्धिमान है तथा वही लोकप्रिय है –द्रव्याभाव के कारण मुझे जो जो दुःख उठाने पड रहे हैं और जिस जिस मार्ग से संसार यात्रा करनी पड रही है उसे स्मरण कर यही ध्रुव एवं सत्य है कि द्रव्योपार्जन किया जाय ....जिसके पास द्रव्य नहीं है उनकी - उनकी दुर्दशा देख रहा हूँ |” यह पत्र पाकर मैं स्तब्ध रह गया था और मैंने अलग से उन्हें कुछ धन राशि मनीआर्डर से भेजना शुरू कर दिया था | इस प्रकरण से वह लोकोक्ति सच सिद्ध हो गई थी कि 'भूखे भजन न होय गोपाला !'