प्रेरक कविताएँ Er.Vishal Dhusiya द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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प्रेरक कविताएँ

1 पापा मेरे

पापा मेरे
सुबह सूरज निकलने से पहले घर छोड़ देते
मेरे खुशियों के खातिर
दिनभर हैं भटकते
शाम को सूरज ढलने के बाद
हैं घर लौटते
कितना ख्याल रखते हैं मेरा
पापा मेरे
खुद पहनकर फटे पुराने
मेरा हर ख्वाहिश पूरा करते हैं
आँसू नहीं देख सकते हमारे
वो दुनियाँ से लड़ जाते हैं
कितना चाहते हैं मुझे
पापा मेरे
कभी बनके एक दोस्त मेरे
मेरे साथ रहा करते हैं
हर ग़लतियों को टटोलकर
एक अच्छी सलाह भी देते हैं
कहीं चूक ना जाऊँ मैं कहीं
हर कदम पर साथ देते हैं
पापा मेरे


2 देख तेरी कुर्बानी को
आंख मेरे भर आते हैं

खुदको करके खून से लथपथ
जीत गये जी बाजी
खोकर अपना सबकुछ
हमें भेंट किए आजादी
औकात नहीं है मेरी पर
कोशिश तो करूँगा
तेरे दिए इस तोहफ़े का
मैं हर सम्मान करूँगा
सोचता हूं क्या गुजरी होगी
तेरे उस परिवार पर
कठकलेज किए होंगे
तेरे इस बलिदान पर
कितना मैं गुणगान करूँ
शब्द भी कम पड़ जाते हैं
देख तेरी कुर्बानी को
आँख मेरे भर आते हैं

3 गर्व है मुझे संघर्ष पर

गर्व है मुझे कि
संघर्ष करने का मौका मिला है
ये दुनियाँ क्या चाहती है
परखने का मौका तो मिला
मैं घबराता नहीं क्योंकि
इस राह से कितने हैं गुज़रे
जो भी गुज़रे हैं वो
अंबेडकर, कलाम और भगत सिंह
बनके हैं निकले
मौका तो उन्हें मिलता है
जो महान होते हैं
वरना बाप के पैसों पर उड़ने वाले
हज़ारों ऐयाश होते हैं
हंसने वाले को हंसने दो
क्योंकि हंसना उनका काम है
जिस जिसपर ये दुनियाँ हँसी है
वही इस दुनियाँ में
किया अपना काम है

4 माँ तेरी आंचल में

माँ तेरी आंचल में
खुशियाँ मिले हजार
तेरी चरणों में जन्नत है
सजदा करूँ बार बार
तन मन से पाली मुझको
अपने गोद में खिलाई हो
गिले में तू खुद सोकर
सूखे बिस्तर पर सुलाई हो
कैसे कर्ज भरेंगे तेरी
मैं तेरा कर्जदार हूँ
तेरी पावन चरणों का मैं
थोड़ा तो हकदार हूँ


5 संघर्ष भरे हैं कितने

छोटे से जीवन के सफर में
संघर्ष भरे हैं कितने
खुशियाँ पड़ी हैं कम
दुख भरे हैं इतने
समझ से परे हैं क्या करें
थोड़ी सी और जिले
या जल्दी से मरे
ग़र जी गया तो
दुनियाँ ठहाके मारेगी
ग़र मैं मर गया तो
फिर भी दुनियाँ कायर कहेगी
रोजी रोटी के चक्कर में
दौड़ रही है जिंदगी
अपनों से भी अपनी
टूट गई है दिल्लगी
मन विचलित होता है मगर
खुदको सम्भालना पड़ता है
चोट लगती है दिलपर
दिल को समझाना पड़ता है


6 अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा

अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा
अन्याय मेरे साथ कर
छल बेशुमार कर
क्या तेरी औकात है
बतलाता ही रहूँगा
अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा
दर-दर को भटकना पड़े
ठोकरे भी सहना पड़े
सच्चाई की राह पर चलता ही रहूँगा
अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा
चाहें हमसे जग छुटे
चाहें मेरा रब रूठे
तेरी कर्मों की कहानी
सारी दुनियाँ से कहूँगा
अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा
जीवन की राह में
चाहें कांटे हो अनेक
तेरे आगे नहीं झुकुंगा
ये कसम है मेरी देख
शोलों की राह पर
चलता ही रहूँगा
अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा
धाराएं मूड जाएंगी
मैं कभी ना मुडुंगा
संघर्ष ही सही है
पर हांथ ना जोडुंगा
अकेले हूँ अकेले रहूँगा
लेकिन ज़माने से लड़ता रहूँगा

ये कविताएँ ज़माने को मद्देनजर रखते हुए लिखी गई है आजकल लोग पैसों के पीछे इतना भाग रहें हैं कि उनके अपने भी कहीं भिंड में खो गए तो उन्हें कोई परवाह नहीं है। यह दुनियाँ अजीब होती चली जा रही है लोग अपना संस्कृति, मातृभाषा और अपनों को भूलती जा रही है। भोग विलास में इतने अंधे हो चुके हैं कि उन्हें कोई दिखाई ही नहीं देता। मानवता एकदम विलुप्त होती चली जा रही है। इससे अच्छा तो पहले वाला ज़माना अच्छा था कि लोगों के दिलों में भाईचारा था। एक-दूसरे के घर आना जाना, खाना पीना, हँसी मज़ाक करना। और आज के समय में कुछ घटना होने पर पास का पड़ोसी भी भीतर से दरवाजा बंद कर दे रहा है। गाँव में भी शहरों का माहौल दिखाई देने लगा है। एक-दूसरे से बात ना करो। दिन रात घर में ही रहो। बच्चों को दूसरे बच्चों से मिलने से रोको। लग रहा है गाँव का भी शहरीकरण हो रहा है। जहां जिंदगी एक कमरें में बंद हो जाये उसी को शहर कहते हैं। इस कविता से यह तात्पर्य है कि लोगों के दिलों से मानवता विलुप्त जो हो रहे हैं । उनको रोकना। इस कविता से यही सीख मिलती है कि जो भी करना है खुद ही करना। और संघर्ष के दम पर आगे बढ़ना है। बुरे वक़्त में दुनियाँ आपका हाल पूछने नहीं आएगी। इसलिए वक़्त रहते संघर्ष जारी रखें। without struggle you can't gain success यदि मेरे लेख में कोई त्रुटि हो तो मैं आपसे हाथ जोड़कर माफ़ी मांगता हूँ। मुझे उम्मीद है कि आप मुझे क्षमा जरूर करेंगे।

Thanks you


Er.Vishal Kumar Dhusiya