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देर आयद - दिलीप जैन

: दिलीप जैन का उपन्यास देर आयद पिछले दिनों पढ़ने को मिला इस उपन्यास को पढ़ते समय मैंने महसूस किया कि बरसों पहले जो सामाजिक उपन्यास लिखे जाते थे जिनमें से कुछ तो पाठ्यक्रम में भी रहे लगभग उस शैली का वैसे संवादों का और लगभग वैसे ही मुद्दों का यह उपन्यास लिखने का प्रयास दिलीप जैन साहब ने किया है हालांकि यह उपन्यास छठे और सातवें दशक के क्लासिक उपन्यास की उच्चता तक नहीं पहुंच पाया फिर भी दिलीप जैन ने जो लेखन का सिलसिला आरंभ किया है उसमें उनसे उम्मीद बनती हैं कि वे आगे भी अच्छे उपन्यास हमको पढ़ाएंगे उपन्यास की भूमिका डॉ बीएल आशा ने लिखी है मुझे लगता है कि वर्तमान में उपन्यास या कविता संग्रह अथवा कहानी संग्रह में भूमिका कहीं भी देखने को नहीं मिलती लेकिन अपने लेखन पर एक बड़े आलोचक का वकालतनामा लगवाने के लिए हादसे शायद दिलीप जी ने ऐसा किया है न्यास की भाषा सामान्य भाषा है जो पठनीय है यह उपन्यास थोड़े से विचलन से पॉकेट बुक्स का नावेल भी हो सकता था लेकिन दिलीप जैन ने इसे पॉकेट बुक्स का नावेल बनने से सब प्रयास रोक रखा है इस उपन्यास का मूल विषय है एक एक दंपति का वैचारिक विरोध अंतर्विरोध यह है कि विपुल भले ही मां-बाप की इच्छा से काहे करता है और उसकी पत्नी भी मां-बाप की इच्छा से ही उसके घर पर हूं बनकर आती है पर दोनों के अपने अलग-अलग मत हैं विधा की मां सुविधा उनके घर में अनावश्यक दखलअंदाजी करती है बेटी को सिखाती है पढ़ाती है और आश्चर्य तो यह एक विधा अपना पूरा वेतन ने पिता को भेज देती है यद्यपि इन बिंदुओं को बहस के बीच में लेखक में पात्रों से नहीं डलवाया पाठक को

कहानी का मूल स्रोत विधा के पिता है जो अपनी बेटी सुधा और विधा का ब्याह करके सामाजिक दायित्व से मुक्त हो चुके है पर उनकी पत्नी सुविधा को बेटी विधा की चिंता है । विधा अपने पति से विवाद की हर जानकारी माँ को देकर उनके परामर्श पर चलती है और उसके दाम्पत्य में दिनों दिन विष घुलने लगता है। विधा को सास ससुर नही सुहाते तो उसके पति को विधा के मां बाप। विधा को खबर लगती है कि सास ससुर रहे है तो नॉकरी के टूर का बहाना बना के मायके आ जाती है, जब लौटती है तो पता लगता है कि वे तो आये नही बाद में आएंगे , और जब आते है तो वह फिर भाग निकलती है, विपुल अब उसे घर मे नही घुसने देता। मां बाप को लेके आयी विधा भी निराश लौटती है। विपुल नही बुलाता तो वकील से सलाह ली जाती है, वकील कहता है कि जब पति ने हिंसा नही की, दहेज नही मांगता , पत्नी मर्जी से घर छोड़ के आयी तो न्यायालय से कोई भरण पोषण का आदेश मुमकिन नही,
दो साल इंतज़ार करना होगा। यह दो साल लम्बे हो जाते हैं। मां बाप नही रहते और अकेली रहती विधा को घर की नोकरानी कि बातों से अचानक अहसास होता है कि दाम्पत्य में पति पत्नी का परस्पर एडजस्ट करना शोषण नही, पत्नी को भी घर मे हक हकूक के साथ कर्तव्य निबाहने चाहिए, टकराहट से कोई हल नही निकलता ,घर और जिंदगी बर्बाद होती है, सुख औऱ सहजता छिनती है।

उपन्यास की कथा छोटी है औऱ व्यथा काफी बड़ी और पुरानी। पति पत्नी का वैचारिक मतभेद शिव और सती के युग से चलता आया है।
कई मुद्दे इस उपन्यास में सामाजिक नजरिये से बहुत मौजू है, जैसे पत्नी का यह सोचना कि घर खर्च पति की जवाबदारी है, दहेज एक्ट और घरेलू हिंसा के डर से घर की बहू को टोकने से कतराते सास ससुर की बेचारगी, किचन के घरेलू काम को भी शोषन मानती आधुनिक युवती की गलत सोच। निष्कर्ष यह भी निकलता है कि मां का सतत रूप से एक विवाहित बेटी की गृहस्थी में दखल देना सदा गलत परिणाम लाता हैं।
उपन्यास के चरित्र अत्रे जी, उनकी पत्नी सुविधा , बेटी विधा और उसके व्यवहार से चिढ़ता दामाद विपुल जीवंत चरित्र है ।
संवाद छोटे है और उनमें अनावश्यक विस्तार व दर्शन नही भरा गयाहै।
तकनीक के नजरिये से उपन्यास कुछ कमजोर है एक तो यह कि लेखक सर्व व्यापी की तरह हर पात्र के भीतर घुस कर हरेक का द्वंद्व कैसे जान सकता है भले ही पाठक के लिए यह जरूरी क्यों न हो, दूसरा यह कि किसी भी पात्र का बिजनेस, नौकरी, बस्ती या नगर का नाम पता ही नही चल पाता यधपि इसकी बहुत जरूरत न थी फिर भी आखिर किस देश की कब की कथा है , देश काल परिस्थिति क्या है यह तो पाठक को पता लगना चहिये जो नही लगता, पात्रों का गमनागमन बड़ी फुर्ती से होता है ओर पैसे जैसे मुद्दे पर दरकते दाम्पत्य में पति पत्नी के जिस्मानी रिश्तों का कतई उल्लेख न होना लेखक के पवित्रता वादी व मर्यादित विवरण के लेखन के प्रति संकल्प को प्रकट करता है।

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