अर्जुन महाभारत के मुख्य पात्र थे। महाराज पांडु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र और सबसे अच्छे धर्नुधारी थे। वे द्रोणाचार्य के श्रेष्ठ शिष्य थे। जीवन में अनेक अवसरों पर अर्जुन ने इसका परिचय दिया था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाले भी अर्जुन ही थे। पांडु की ज्येष्ठ पत्नी वासुदेव कृष्ण की बुआ कुन्ती थीं, जिसने इन्द्र के संसर्ग से अर्जुन को जन्म दिया था। कुन्ती का एक नाम 'पृथा' भी था, इसलिए अर्जुन 'पार्थ' भी कहलाए। बाएं हाथ से भी धनुष चलाने के कारण 'सव्यसाची' और उत्तरी प्रदेशों को जीतकर अतुल संपत्ति प्राप्त करने के कारण 'धनंजय' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।
जब पांडु संतान उत्पन्न करने में असफल रहे तो कुन्ती ने उनको एक वरदान के बारे में याद दिलाया। कुन्ती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था, जिससे कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पांडु एवं कुन्ती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इन्द्र आदि देवताओं का आवाहन किया। इस प्रकार अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे।
अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। परशुराम से भी इन्होंने शास्त्रास्त्र विद्या सीखी थी। हिमालय में तपस्या करते समय किरात वेशधारी शिव से इनका युद्ध हुआ था। शिव से इन्हें 'पाशुपत अस्त्र' और अग्नि से 'आग्नेयास्त्र', 'गांडीव धनुष' तथा 'अक्षय तूणीर' प्राप्त हुआ। वरुण ने इनको नंदिघोष नामक विशाल रथ प्रदान किया था। द्रोणाचार्य एक बार शिष्यों के साथ गंगा नहाने गये। ज्यों ही वे जल में उतरे त्यों ही मगर ने उनकी टाँग पकड़ ली। द्रोणाचार्य ने अपने छात्रों की जाँच करने के लिए आवाज़ लगाई कि- "तुम लोग मुझे इस मगर से बचाओ।" अन्य छात्र तो घबराहट के मारे एक-दूसरे की ओर ताकते रह गये, किंतु अर्जुन ने पानी के भीतर डूबे हुए मगर को पाँच बाण मारकर मार डाला और आचार्य की टाँग पर आँच तक न आने दी। इससे प्रसन्न हुए आचार्य ने अर्जुन को प्रयोग और उपसंहार सहित ब्रह्मशिर अस्त्र सिखला दिया।
साक्षात् श्रीहरि भक्तों पर कृपा करने के लिये, जगत कल्याण के लिये और संसार में धर्म की स्थापना के लिये नाना अवतार धारण करते हैं। नर-नारायण इन दो रूपों में बदरिकाश्रम में तप करते हैं, लोकमंगल के लिये। श्रीकृष्णचन्द्र और अर्जुन के रूप में वे ही द्वापर के अन्त में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए। अर्जुन पांडवों में मझले भाई थे अर्थात् युधिष्ठिर तथा भीम से छोटे थे और नकुल तथा सहदेव से बड़े। श्रीकृष्ण के समान ही उनका वर्ण नवजलधर-श्याम था। वे कमलनेत्र एवं अजानुबाहु थे। भगवान व्यास ने तथा भीष्म पितामह ने अनेक बार महाभारत में कहा है कि- "वीरता, स्फूर्ति, ओज, तेज, शस्त्र-संचालन की कुशलता और अस्त्र ज्ञान में अर्जुन के समान दूसरा कोई नहीं है।" सभी पांडव धर्मात्मा, उदार, विनयी, ब्राह्मणों के भक्त तथा भगवान को परम प्रिय थे। किंतु अर्जुन तो श्रीकृष्णचन्द्र से अभिन्न, उन श्यामसुन्दर के समवयस्क सखा और उनके प्राण ही थे। दृढ़ प्रतिज्ञा के लिये अर्जुन की बड़ी ख्याति है।
पूर्वजन्म के कई शाप-वरदानों के कारण पांचाल राजकुमारी द्रौपदी का विवाह पांच पांडवों से हुआ था। संसार में कलह की मूल तीन ही वस्तुएं हैं- 'स्त्री', 'धन' और 'पृथ्वी'। इन तीनों में भी स्त्री के लिये जितना रक्तपात हुआ है, उतना और किसी के लिये नहीं हुआ। एक स्त्री के कारण भाईयों में परस्पर वैमनस्य न हो, इसलिये देवर्षि नारद की आज्ञा से पांडवों ने नियम बनाया कि ‘प्रत्येक भाई दो महिने बारह दिन के कर्म से द्रौपदी के पास रहे। यदि एक भाई एकान्त में द्रौपदी के पास हो और दूसरा वहाँ उसे देख ले तो वह बारह वर्ष का निर्वासन स्वीकार करे।" एक बार रात्रि के समय चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा लीं। वह पुकारता हुआ राजमहल के पास आया। वह कह रहा था- "जो राजा प्रजा से उसकी आय का छठा भाग लेकर भी रक्षा नहीं करता, वह पापी है।" अर्जुन ब्राह्मण को आश्वासन देकर शस्त्र लेने भीतर गये। जहाँ उनके धनुष आदि थे, वहाँ युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ एकानत में स्थित थे। एक ओर ब्राह्मण के गोधन की रक्षा का प्रश्न था और दूसरी और निर्वासन का भय। अर्जुन ने निश्चय किया- "चाहे कुछ हो, मैं शरणागत की रक्षा से पीछे नहीं हटूंगा।" भीतर जाकर वे शस्त्र ले आये और लुटेरों का पीछा करके उन्हें दण्ड दिया। गौएं छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दीं। अब वे धनंजय निर्वासन स्वीकार करने के लिये उद्यत हुए। युधिष्ठिर ने बहुत समझाया- "बड़े भाई के पास एकान्त में छोटे भाई का पहुँच जाना कोई बड़ा दोष नहीं है। द्रौपदी के साथ साधारण बातचीत ही हो रही थी। ब्राह्मण की गायें बचाना राजधर्म था, अतः वह तो राजा का ही कार्य हुआ।" परन्तु अर्जुन इस सब प्रयत्नों से विचलित नहीं हुए। उन्होंने कहा- "महाराज! मैंने आपसे ही सुना है कि धर्मपालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। मैं सत्य को नहीं छोड़ूंगा। नियम बनाकर उसका पालन न करना तो असत्य है।" इस प्रकार बड़े भाई के वचनों से अर्जुन विचलित नहीं हुए। उन्होंने से स्वेच्छा से निर्वासन स्वीकार किया।
अपने निर्वासित जीवन में व्यास की आज्ञा से अर्जुन तपस्या करके दिव्य शस्त्र प्राप्त करने गये। अपने तप तथा पराक्रम से उन्होंने भगवान शंकर को प्रसन्न करके 'पाशुपतास्त्र' प्राप्त किया। दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने दिव्यास्त्र उन्हें दिये। इसी समय देवराज इन्द्र का सारथि मातलि रथ लेकर उन्हें बुलाने आया। उस पर बैठकर वे स्वर्ग गये और देवताओं के द्रोही असुरों को उन्होंने पराजित किया। वहीं चित्रसेन गन्धर्व से उन्होंने नृत्य-गान-वाद्य की कला सीखी। एक दिन अर्जुन इन्द्र के साथ उनके सिंहासन पर बैठे थे। देवराज ने देखा कि पार्थ की दृष्टि देवसभा में नाचती हुई उर्वशी अप्सरा पर लगी है। इन्द्र ने समझा कि अर्जुन उस अप्सरा पर आसक्त हैं। पराक्रमी धनंजय को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने एकान्त में चित्रसेन गन्धर्व के द्वारा उर्वशी को रात्रि में अर्जुन के पास जाने का संदेश दिया। उर्वशी अर्जुन के भव्य रूप एवं महान पराक्रम पर पहले से ही मोहित थी। इन्द्र का संदेश पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसी दिन चांदनी रात में वस्त्राभर से अपने को भलीभाँति सजाकर वह अर्जुन के पास आई। अर्जुन ने उसका आदर से स्वागत किया। जो उर्वशी बड़े-बड़े तपस्वी-ऋषियों को खूब सरलता से विचलित करने में समर्थ हुई थी, भगवान नारायण की दी हुई जो स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी थी, एकान्त में वह रात्रि के समय अर्जुन के पास गयी थी। उसने इन्द्र का संदेश कहकर अपनी वासना प्रकट की। अर्जुन के मन में इससे तनिक भी विकार नहीं आया। उन्होंने कहा- "माता! आप हमारे पूरूवंश के पूर्वज महाराज पुरूरवा की पत्नी रही हैं। आपसे हमारा वंश चला है। भरतकुल की जननी समझकर ही देवसभा में आपको देख रहा था और मैंने मन-ही-मन आपको प्रणाम किया था। देवराज को समझने में भूल हुई। मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। मुझे क्षमा करें।" उर्वशी काममोहिता थी। उसने बहुत समझाया कि स्वर्ग अप्सराएं किसी की पत्नी नहीं होतीं। उनका उपभोग करने का सभी स्वर्ग आये लोगों को अधिकार है। परन्तु अर्जुन का मन अविचल था। उन्होंने कहा- "देवि! मैं जो कहता हूं, उसे आप, सब दिशाएं और सब देवता सुन लें। जैसे मेरे लिये माता कुन्ती और माद्री पूज्य हैं, जैसे शची मेरी माता हैं, वैसे ही मेरे वंश की जननी आप भी मेरी माता हैं। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।" रुष्ट होकर उर्वशी ने एक वर्ष तक नपुंसक रहने का शाप दे दिया। अर्जुन के इस त्याग का कुछ ठिकाना है। सभाओं में दूसरों के सामने बड़ी ऊंची बातें करना तो सभी जानते हैं; किंतु एकान्त में युवती स्त्री प्रार्थना करे और उसे ‘मां’ कहकर वहाँ से अछूता निकल जाय, ऐसे तो विरले ही होते हैं। अर्जुन का यह इन्द्रिय संयम तो इससे भी महान है। उन्होंने उस उर्वशी को एकान्त में रोती, गिड़गिड़ाती लौटा दिया, जिसके कटाक्ष मात्र से बड़े-बडे़ तपस्वी क्षणभर में विचलित हो जाते थे।
श्रीकृष्णचन्द्र क्यों अर्जुन को इतना चाहते थे, क्यों उनके प्राण धनंजय में ही बसते थे-ये बात जो समझ जाय, उसे श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त करना सरल हो जाता है। प्रेमस्वरूप भक्तवत्सल श्यामसुन्दर को जो जैसा, जितना चाहता है, उसे वे भी उसी प्रकार चाहते हैं। उन पूर्वकाम को बल, ऐश्वर्य, धन या बुद्धि की चतुरता से कोई नहीं रिझा सकता. अर्जुन में लोकोत्तर शूरता थी, वे आडम्बरहीन इन्द्रिय विजयी थे और सबसे अधिक यह कि सब होते हुए अत्यन्त विनयी थे। उनके प्राण श्रीकृष्ण में ही बसते थे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का पूरा भार श्रीकृष्णचन्द्र पर ही था। श्याम ने ही अपने परम भक्त धर्मराज के लिये समस्त राजाओं को जीतने के लिये पांडवों को भेजा। उन मधुसूदन की कृपा से ही भीम जरासंध को मार सके। इतने पर भी अपने मित्र अर्जुन को प्रसन्न करने के लिये युधिष्ठिर को चौदह सहस्र हाथी भगवान ने भेंट स्वरूप दिये। जिस समय महाभारत के युद्ध में अपनी ओर सम्मिलित होने का निमन्त्रण देने दुर्योधन श्रीद्वारकेश के भवन में गये, उस समय श्रीकृष्णचन्द्र सो रहे थे। दुर्योधन उनके सिरहाने एक आसन पर बैठ गये। अर्जुन भी कुछ पीछे पहुँचे और हाथ जोड़कर श्यामसुन्दर के श्रीचरणों के पास नम्रतापूर्वक बैठ गये। भगवान ने उठकर दोनों का स्वागत-सत्कार किया। दुर्योधन ने कहो- "मैं पहले आया हूं, अतः आपको मेरी ओर आना चाहिये।" श्रीकृष्ण ने बताया कि "मैंने पहले अर्जुन को देखा है।" लीलामय ने तनिक हंसकर कहा- "एक ओर तो मेरी ‘नारायणी सेना’ है और दूसरी ओर मैं रहूंगा; परन्तु मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा। आपमें से जिन्हें जो रूचे, ले लें; किंतु मैंने अर्जुन को पहले देखा है, अतः पहले मांग लेने का अधिकार अर्जुन का है।" एक ओर भगवान का बल, उनकी सेना और दूसरी ओर शस्त्रहीन भगवान। एक ओर भोग और दूसरी ओर श्यामसुन्दर। परन्तु अर्जुन-जैसे भक्त को कुछ सोचना नहीं पड़ा। उन्होंने कहा- "मुझे तो आपकी आवश्यकता है।
मैं आपको ही चाहता हूँ।" दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ। उसे अकेले शस्त्रहीन श्रीकृष्ण की आवश्यकता नहीं जान पड़ी। भोग की इच्छा करने वाले विषयी लोग इसी प्रकार विषम ही चाहते हैं। विषम भोग का त्याग कर श्रीकृष्ण को पाने की इच्छा उनके मन में नही जगती। श्रीकृष्णचन्द्र ने दुर्योधन के जाने पर अर्जुन से कहा- "भला, तुमने शस्त्रहीन अकेले मुझे क्यों लिया? तुम चाहो तो तुम्हें दुर्योधन से भी बड़ी सेना दे दूं।" अर्जुन ने कहा- "प्रभो! आप मुझे मोह में क्यों डालते हैं। आपको छोड़कर मुझे तीनों लोकों का राज्य भी नहीं चाहिये। आप शस्त्र लें या न लें, पांडवों के एकमात्र आश्रय आप ही हैं।" अर्जुन की भक्ति, यही निर्भरता थी, जिसके कारण श्रीकृष्णचन्द्र उनके सारथि बने। अनेक तत्त्ववेत्ता ऋषि-मुनियों को छोड़कर जनार्दन ने युद्ध के आरम्भ में उन्हें ही अपने श्रीमुख से 'गीता' के दुलर्भ और महान ज्ञान का उपदेश किया। युद्ध में इस प्रकार उनकी रक्षा में वे दयामय लगे रहे, जैसे माता अबोध पुत्र को सारे संकटों से बचाने के लिये सदा सावधान रहती है।
श्रीकृष्ण के सारथ्य के विषय में एक घटना का उल्लेख इस प्रकार है- "अर्जुन और कर्ण का घमासान युद्ध हो रहा था। वे दोनों एक-दूसरे के अस्त्रों को काट-काटकर अपने अस्त्रज्ञान का प्रदर्शन कर रहे थे। अंत में जब कर्ण की एक भी न चली, तब उसने वह बाण निकाला जो सर्प के विष से सुझाया गया था और चन्दन के बुरादे में रखा रहता था। इसे उसने सुवर्ण के तरकस में अलग रख छोड़ा था। अर्जुन का सिर काटने के लिए इसी को उसने धनुष पर चढ़ाकर ठीक निशाने पर मार दिया और चिल्लाकर कहा कि अर्जुन मारा गया। उस प्रदीप्त बाण को आते देख श्रीकृष्ण ने चटपट लगाम खींचकर घोड़ों को बिठा दिया, जिससे रथ के कुछ नीचे हो जाने से बाण निशाने पर न लगकर अर्जुन के मुकुट को गिराकर निकल गया। अब, अर्जुन ने अपने सफ़ेद दुपट्टे से अलकों को बाँध लिया और श्रीकृष्ण ने लगाम के इशारे से घोड़ों को खड़ा करके झुके हुए रथ को अपनी भुजाओं से उठाकर पहले का जैसा कर लिया। यदि श्रीकृष्ण ने फुर्ती से यह काम न किया होता तो अर्जुन का जीवित बचना कठिन था।
युद्ध में जब द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह में फंसकर कुमार अभिमन्यु ने वीरगति प्राप्त कर ली, तब अर्जुन ने अभिमन्यु की मृत्यु का मुख्य कारण जयद्रथ को जानकर प्रतिज्ञा की- "यदि जयद्रथ मेरी, धर्मराज युधिष्ठिर की या श्रीकृष्णचन्द्र की शरण न आ गया तो कल सूर्यास्त से पूर्व उसे मार डालूंगा। यदि ऐसा न करूं तो मुझे वीर तथा पुण्य आत्माओं को प्राप्त होने वाला लोक न मिले। पिता-माता का वध करने वाले, गुरुस्त्रीगामी, चुगलखोर, साधु-निन्दा और परनिन्दा करने वाले धरोहर हड़प जाने वाले, विश्वघाती, भुक्तपूर्वा स्त्री को स्वीकार करने वाले, ब्रह्महत्यारे, गोघाती आदि की जो गति होती है, वह मुझे मिले, यदि मैं कल जयद्रथ को न मार मार दूं। वेदाध्ययन करने वाले तथा पवित्र पुरुषों का अपमान करने वाले, ब्राह्मण, गौ तथा अग्नि को पैर से छूने वाले, जल में थूकने तथा मल-मूत्र त्यागने वाले, नंगे नहाने वाले, स्त्री-पुत्र एवं आश्रित को न देकर अकेले ही मिठाई खाने वाले, अपने हितकारी, आश्रित तथा साधु का पालन न करने वाले, उपकारी की निन्दा करने वाले, निर्दयी, शराबी, मर्यादा तोड़ने वाले, कृतघ्न, अपने भरण-पोषणकर्ता के निन्दक, गोद में भोजन रखकर बायें हाथ से खाने वाले, धर्मत्यागी, उषाकाल में सोने वाले, जाड़े के भय से स्नान न करने वाले, युद्ध छोड़कर भागने वाले क्षत्रिय, वेदपाठ सहित तथा एक कुएं वाले ग्राम में छः मास से अधिक रहने वाले, शास्त्रनिन्दक, दिन में स्त्रीसंग करने वाले, दिन में सोने वाले, घर में आग लगाने वाले, विष देने वाले, अग्नि तथा अतिथि को सेवा से विमुख, गौ को जल पीने से रोकने वाले, रजस्वला से रति करने वाले, कन्या बेचने वाले तथा दान देने की प्रतिज्ञा करके लोभवश न देने वाले जिन नरकों में जाते हैं, वे ही मुझे मिले, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूं। यदि कल सूर्यास्त तक मैं जयद्रथ को न मार सका तो चिता बनाकर उसमें जल जाऊंगा।"
भक्त के प्रण की चिंता भगवान को ही होती है। अर्जुन ने तो श्रीकृष्णचन्द्र से कह दिया- "आपकी कृपा से मुझे किसी की चिंता नहीं। मैं सबको जीत लूंगा।" बात सच है; अर्जुन ने अपने रथ की, अपने जीवन की बागडोर जब मधुसूदन के हाथों में दे दी, तब वह क्यों चिंता करे। दूसरे दिन घोर संग्राम हुआ। श्रीकृष्णचन्द्र को अर्जुन की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये सारी व्यवस्था करनी पड़ी। सांयकाल श्रीहरि ने सूर्य को ढककर अन्धकार कर दिया। सूर्यास्त हुआ समझकर अर्जुन चिता में प्रवेश करने को उद्यत हुए। सभी कौरव पक्ष के महारथी उन्हें इस दशा में देखने आ गये। उन्हीं में जयद्रथ भी आ गया। भगवान ने कहा- "अर्जुन! शीघ्रता करो। जयद्रथ का मस्तक काट लो, पर वह भूमि पर न गिरे। सावधान।" भगवान ने अन्धकार दूर कर दिया। सूर्य अस्ताचल जाते दिखायी पड़े। जयद्रथ के रक्षक चकरा गये। अर्जुन ने उसका सिर काट लिया। श्रीकृष्ण ने बताया- "जयद्रथ के पिता ने तप करके शंकर जी से वरदान पाया है कि जो जयद्रथ का सिर भूमि पर गिरायेगा, उसके सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे।" केशव के आदेश से अर्जुन ने जयद्रथ का सिर बाण से ऊपर-ही-ऊपर उड़ाकर जहाँ उसके पिता संध्या के समय सूर्योपस्थान कर रहे थे, वहाँ पहुँचाकर उनकी अंजलि में गिरा दिया। झिझक उठने से पिता के द्वारा ही सिर भूमि पर गिरा। फलतः उसके सिर के सौ टुकड़े हो गये।
इन्द्र ने कर्ण को एक अमोघ शक्ति दी थी। एक ही बार उस शक्ति का कर्ण उपयोग कर सकते थे। नित्य रात्रि को वे संकल्प करते थे दूसरे दिन अर्जुन का उस पर प्रयोग करने के लिये, किंतु श्रीकष्णचन्द्र उन्हें सम्मोहित कर देते थे। वह शक्ति का प्रयोग करना भूल जाते थे। भगवान ने भीम के पुत्र घटोत्कच को रात्रि युद्ध के लिये भेजा। उसने राक्षसी माया से कौरव सेना में ‘त्राहि-त्राहि’ मचा दी। दुर्योधन आदि ने कर्ण को विवश किया- "यह राक्षस अभी सबको मार देगा। यह जब दीखता ही नहीं, तब इसके साथ युद्ध कैसे हो, इसे चाहे जैसे भी हो मारो।" अन्त में कर्ण ने वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़ी। वह राक्षस मर गया। घटोत्कच की मृत्यु से जब पांडव दुःखी हो रहे थे, तब श्रीकृष्ण को प्रसन्न होते देख अर्जुन ने कारण पूछा। भगवान ने बताया- "कर्ण ने तुम्हारे लिये ही शक्ति रख छोड़ी थी। शक्ति न रहने पर अब वह मृत सा ही है। घटोत्कच ब्राह्मणों का द्वेषी, यज्ञद्रोही, पापी और धर्म का लोप कराने वाला था; उसे तो मैं स्वयं मार डालता; किंतु तुम लोगों को बुरा लगेगा, इसलिये अब तक छोड़ दिया था।" कर्ण से युद्ध में अर्जुन ने अपने सखा से पूछा- "यदि कर्ण मुझे मार डाले तो आप क्या करेंगे?" भगवान ने कहा- "चाहे सूर्य भूमि पर गिर पड़े, समुद्र सूख जाय, अग्नि शीतल बन जाय, पर ऐसा कभी नहीं होगा। यदि किसी प्रकार कर्ण तुम्हें मार दे तो संसार में प्रलय हो जायगी। मैं अपने हाथों से ही कर्ण और शल्य को मसल डालूंगा।" भगवान ने तो बहुत पहले घोषणा की थी- "जो पांडवों के मित्र हैं, वे मेरे मित्र हैं और जो पांडवों के शत्रु हैं, वे मेरे शत्रु हैं।" उन भक्तवत्सल के लिये भक्त सदा सदा से अपने हैं। जो भक्तों से द्रोह करते हैं, श्रीकृष्ण सदा ही उनके विपक्षी हैं। कर्ण ने अनेक प्रयत्न किये। उसने सर्पमुख बाण छोड़ा, दिशाओं में अग्नि लग गयी। दिन में ही तारे टूटने लगे। खाण्डवदाह के समय बचकर निकला हुआ अर्जुन का शत्रु अश्वसेन नामक नाग भी अपना बंदला लेने के लिये बाण की नोक पर चढ़ बैठा। बाण अर्जुन तक आये, इससे पहले ही भगवान ने रथ को अपने चरणों से दबाकर पृथ्वी में धंसा दिया। बाण केवल अर्जुन के मुकुट से लगा, जिससे मुकुट भूमि पर जलता हुआ गिर पड़ा। महाभारत के युद्ध में इस प्रकार अनेक अवसर आये, अनेक बार अर्जुन की बुद्धि तथा शक्ति कुण्ठित हुई। किंतु धर्मात्मा, धैर्यशाली अर्जुन ने कभी धर्म नहीं छोड़ा। उसके पास एक ही बाण से प्रलय कर देने वाला 'पाशुपतास्त्र' था; परन्तु प्राण संकट में होने पर भी उसको काम में लेने की इच्छा नहीं की। इसी प्रकार श्रीकृष्ण के चरणों में उसका विश्वास एक पल को भी शिथिल नहीं हुआ। इसी प्रेम और विश्वास ने भगवान को बांध दिया। भगवान उनका रथ हांकते, घोड़े धोते और उनके प्रताप से ही पांडव महाभारत युद्ध में विजयी हुए। विजय हो जाने पर अंतिम दिन छावनी पर आकर भगवान ने अर्जुन को रथ से पहले उतरने को कहा। आज यह नयी बात थी, पर अर्जुन ने आज्ञापालन किया। अर्जुन के उतरने पर जैसे ही भगवान उतरे कि रथ की ध्वजा पर बैठा दिव्य वानर भी अदृश्य हो गया और वह रथ घोड़ों के साथ तत्काल भस्म हो गया। भगवान ने बताया- "दिव्यास्त्रों के प्रभाव से यह रथ भस्म तो कभी का हो चुका था। अपनी शक्ति से मैं इसे अब तक बचाये हुए था। आज तुम पहले न उतर जाते तो रथ के साथ ही भस्म हो जाते।" अश्वत्थामा ने जब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब भगवान ने ही पांडवों की रक्षा की। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेज से उत्तरा का गर्भस्थ बालक मरा हुआ उत्पन्न हुआ, उसे श्रीकृष्णचन्द्र ने जीवित कर दिया। सुधन्वा को मारने की अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली, तब भी मधुसूदन ने ही उनकी रक्षा की।
द्वारका में एक ब्राह्मण का पुत्र उत्पन्न होते ही मर जाया करता था। दुःखी ब्राह्मण मृत शिशु का शव राजद्वार पर रखकर बार-बार पुकारता- "पापी, ब्राह्मणद्रोही, शठ, लोभी राजा के पाप से ही मेरे पुत्र की मृत्यु हुई है। जो राजा हिंसारत, दुश्चरित्र, अजितेन्द्रिय होता है, उसकी प्रजा कष्ट पाती है और दरिद्र रहती है।" ब्राह्मण के आठ बालक इसी प्रकार मर गये। किसी के किये कुछ होता नहीं था। जब नवें बालक का मृत शव लेकर ब्राह्मण आया, तब अर्जुन, राजभवन में ही थे। वे श्रीकृष्ण के साथ द्वारका आये हुए थे। उन्होंने ब्राह्मण की करुण पुकार सुनी तो पास आकर कारण पूछा और आश्वासन दिया। उन्होंने कहा कि- "मैं आपकी रक्षा करूंगा।" ब्राह्मण ने अविश्वास प्रकट किया तो अर्जुन ने प्रतिज्ञा की- "यदि आपके बालक को न बचा सकूं तो मैं अग्नि में प्रवेश करके शरीर त्याग दूंगा।" दसवें बालक के उत्पन्न होने के समय ब्राह्मण ने समाचार दिया। उसके घर आकर अर्जुन ने सूतिकागार को ऊपर-नीचे चारों ओर बाणों से इस प्रकार ढक दिया कि उसमें से चींटी भी न जा सके। परन्तु इस बार बड़ी विचित्र बात हुई। बालक उत्पन्न हुआ, रोया और फिर सशरीर अदृश्य हो गया। ब्राह्मण अर्जुन को धिक्कारने लगा। वे महारथी कुछ बोले नहीं। उनमें अब भी अहंकार था। भगवान से भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। योगविद्या का आश्रय लेकर वे यमपुरी गये। वहाँ ब्राह्मणपुत्र न मिला तो इन्द्र, अग्नि, निर्ऋति, चन्द्र, वायु, वरुण आदि लोकपालों के धाम, अतल, वितल आदि नीचे के लोक भी ढूंढे; परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मण का पुत्र नहीं मिला। अन्त में द्वारका आकर वे चित्ता बनाकर जलने को तैयार हो गये। भगवान ने अब उन्हें रोका और कहा- "मैं तुम्हें द्विजपुत्र दिखलाता हूं, मेरे साथ चलो।" भगवान को तो अर्जुन में जो अपनी शक्ति का गर्व था, उसे दूर करना था। वह दूर हो चुका। अपने दिव्य रथ में अर्जुन को बिठाकर भगवान ने सातों द्वीप, सभी पर्वत और सातों समुद्र पार किये। लोकालोक पर्वत को पार करके अन्धकारमय प्रदेश में अपने चक्र के तेज से मार्ग बनाकर अनन्त जल के समुद्र में पहुँचे। अर्जुन ने वहाँ की दिव्य ज्योति देखने में असमर्थ होकर नेत्र बंद कर लिये। इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र अर्जुन को लेकर भगवान शेषशायी के समीप पहुँचे। अर्जुन ने वहाँ भगवान अनन्त शेषजी की शय्या पर सोये नारायण के दर्शन किये। उन भूमा पुरुष ने दोनों का सत्कार करके उन्हें ब्राह्मण के बालक देते हुए कहा- "तुम लोगों को देखने के लिये ही मैंने ये बालक यहाँ मंगाये थे। तुम नारायण और नर हो। मेरे ही स्वरूप हो। पृथ्वी पर तुम्हारा कार्य पूरा हो गया है। अब शीध्र यहाँ आ जाओ।" वहाँ से आज्ञा लेकर दोनों लौट आये। अर्जुन ने ब्राह्मण को बालक देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।
महाभारत के तो मुख्य नायक ही श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं। अर्जुन की शूरता, धर्मनिष्ठा, उदारता, भगवद्भक्ति तथा उन पर भगवान मधुसूदन की कृपा का महाभारत में विस्तार से वर्णन है। दूसरे पुराणों में भी अर्जुन का चरित्र है। उन गन्थों को अवश्य ही पढ़ना चाहिये। अर्जुन भगवान के नित्य पार्षद हैं। नारायण के नित्य संगी नर हैं। धर्मराज युधिष्ठिर जब परम धाम गये, तब वहाँ अर्जुन को उन्होंने भगवान के पार्षदों में देखा। दुर्योधन तक ने कहा- "अर्जुन श्रीकृष्ण की आत्मा है और श्रीकृष्ण अर्जुन की आत्मा हैं। श्रीकृष्ण के बिना अर्जुन जीवित नहीं रहना चाहते और अर्जुन के लिये श्रीकृष्ण अपना दिव्यलोक भी त्याग सकते हैं। भगवान स्वयं अर्जुन को अपना प्रिय सखा और परम इष्ट तक कहते रहे और उन्होंने अपना-अर्जुन का प्रेम बने रहने तथा बढ़ने के लिये अग्नि से वरदान तक चाहा था।"