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श्री शतरूपा जी


शतरूपाजी मानव सर्गकी आदिमाता हैं। ये स्वायम्भुव मनुकी पत्नी थीं। मनु और शतरूपासे ही मानवसृष्टिका आरम्भ हुआ । श्रुति भी कहती है- 'ततो मनुष्या अजायन्त।' मनु और शतरूपा दोनों ही ब्रह्माजीके शरीरसे उत्पन्न हुए हैं। दक्षिण भागसे मनुका और वाम भागसे शतरूपाका प्रादुर्भाव हुआ है। बृहदारण्यक उपनिषद्मे बतलाया गया है केवल मनुष्य ही नहीं, सैकड़ों प्रकारके पशु भी इन्हीं दोनोंकी संतान हैं। शतरूपा इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली तथा संकोचशीला स्त्री थीं। अतः प्रथम समागमके अवसरपर इन्होंने सैकड़ों रूप धारण करके अपनेको मनुकी दृष्टिसे छिपानेका प्रयत्न किया; किंतु उन सभी रूपोंमें मनुने उन्हें पहचाना और वैसा ही रूप धारण करके उनसे भेंट की। इस प्रकार सैकड़ों रूप धारण करनेके कारण ही सम्भवतः उनका नाम शतरूपा हो गया। जिन-जिन पशुओंके रूप इन्होंने धारण किये, उन सभीके रूपमें एक-एक संतान छोड़ दी। मानवी सृष्टिका आदि स्रोत मनुसे ही आरम्भ हुआ। उन्हींके नामपर संसारके नर और नारी मानव कहलाते हैं।

स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्तके राजा थे। सब प्रकारको सम्पदाओं से युक्त बर्हिष्मती नगरी उनकी राजधानी थी, जहाँ पृथ्वीको रसातलसे ले आनेके पश्चात् शरीर कॅपाते समय श्रीवराहभगवान् के रोम झड़कर गिरे थे। वे रोम ही निरन्तर हरे- भरे रहनेवाले कुश और काश हुए, जिनके द्वारा मुनिजन यज्ञमें विघ्न डालनेवाले दैत्योंका तिरस्कार करके भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करते हैं। ‘बर्हिष्’ कहते हैं कुशोंको; उनकी अधिकता होनेके कारण ही मनुकी वह नगरी बर्हिष्मतीपुरीके नामसे प्रसिद्ध हुई। उसी पुरीमें महारानी शतरूपाके साथ मनुजी निवास करते थे। प्रतिदिन प्रेमपूर्ण हृदयसे भगवान्की कथाएँ सुनना, उनका नित्यका नियम था। वे दोनों दम्पती भलीभाँति धर्मका अनुष्ठान करते थे। आज भी वेद उनकी मर्यादाका गान करते हैं। मनु और शतरूपाके दो पुत्र और तीन कन्याएँ हुईं। पुत्रोंके नाम उत्तानपाद और प्रियव्रत थे और कन्याएँ आकूति, प्रसूति तथा देवहूतिके नामसे प्रसिद्ध हुई थीं। प्रसिद्ध भगवद्भक्त ध्रुव राजा उत्तानपादके ही पुत्र थे। राजा प्रियव्रतने इस पृथ्वीको सात भागोंमें विभक्त किया था। कन्याओंमेंसे आकूति रुचि प्रजापतिको ब्याही गयी थी, प्रसूति प्रजापति दक्षकी पत्नी थी और देवहूतिका विवाह महर्षि कर्दमसे हुआ था। देवहूतिके ही गर्भसे सांख्यशास्त्रके प्रणेता भगवत्स्वरूप महर्षि कपिलका अवतार हुआ था। महाराज मनुने बहुत समयतक राज्य किया और सब प्रकारसे प्रजापालन एवं शास्त्रमर्यादाकी रक्षारूप भगवान्की आज्ञाका पालन किया।

घरमें रहकर राज्य भोगते-भोगते चौथापन आ गया, परंतु विषयोंसे वैराग्य नहीं हुआ। इस बातका विचार करके राजाके मनमें बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगे; हाय! हमारा सारा जन्म भगवान्का भजन किये बिना ही व्यर्थं बीत गया। तब मनुजीने अपने पुत्रको जबर्दस्ती राज्यपर बिठाया और स्वयं रानी शतरूपाको साथ ले वनको प्रस्थान किया। दोनोंने सहस्रों वर्षोंतक घोर तपस्या करके भगवान्को प्रसन्न किया। तब करुणानिधान भक्तवत्सल प्रभु श्रीराम उनके सामने प्रकट हो गये। भगवान् के श्रीअंगोंकी शोभा नीलकमल, नीलमणि तथा नीलमेघके समान श्याम थी, उसे देखकर कोटि-कोटि कामदेव लज्जित हो रहे थे। मुखपर शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाकी शोभा विहँस रही थी। मनोहर कपोल, सुन्दर ठोडी और शंखके सदृश ग्रीवा थी। लाल-लाल ओठ, स्वच्छ दन्त- पंक्ति, सुन्दर नासिका तथा चन्द्ररश्मियोंको तिरस्कृत करनेवाली हँसी सुशोभित थी। नेत्रोंकी छवि नवविकसित कमलके समान सुन्दर थी। मनोहारिणी चितवन जीको बहुत प्यारी लगती थी । सुन्दर भौंहें, ललाटपर प्रकाशमय तिलक, कानोंमें मकराकृत कुण्डल, मस्तकपर किरीट, कारी - कारी घुघराली अलकें, वक्षःस्थलमें श्रीवत्स और वनमाला, गलेमें पदक और हार तथा अन्य अंगों में भी मणिमय आभूषण शोभा पा रहे थे। सिंहकीसी गर्दन, सुन्दर यज्ञोपवीत, हाथीकी सँड़के समान मनोहर भुजदण्ड, कमरमें तरकस और हाथोंमें बाण एवं धनुष सुशोभित थे। पीताम्बरकी छवि बिजलीको लजा रही थी । उदरपर त्रिवलीकी रेखा देखने ही योग्य थी। नाभि ऐसी लगती थी, मानो यमुनाजीमें भंवर उठी हो । चरण- कमलोंकी शोभा अवर्णनीय थी। श्रीरघुनाथजीके वामभागमें उन्हींके समान शोभाकी निधि आदिशक्ति सीताजी शोभा पा रही थीं।

युगल सरकारकी यह मनोहर झाँकी देखकर मनु और शतरूपाकी पलकें स्थिर हो गयीं। वे एकटक दृष्टिसे उनकी रूप-माधुरीका पान कर रहे थे। देखते- देखते मन अघाता नहीं था। दोनों दम्पती आनन्दनिमग्न हो गये। शरीरकी सुध भूल गयी। भगवान् के चरणोंका स्पर्श करके वे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़ गये। करुणामय भगवान्ने अपने हाथों से उनके मस्तकका स्पर्श किया और उन्हें तुरंत उठाकर खड़ा कर दिया; फिर वर माँगनेको कहा। राजाने कहा 'नाथ! आपके दर्शनसे ही सब अभिलाषा पूरी हो गयी, अब एक ही लालसा मनमें रह गयी है, वह यह कि आपके समान एक पुत्र हो जाय। भगवान्ने कहा- 'अपने जैसा पुत्र कहाँ खोजता फिरूंगा, मैं ही तुम्हारा पुत्र बनूंगा।' इतना कहकर भगवान्ने शतरूपाकी ओर दृष्टिपात किया और कहा, 'देवि! तुम भी अपनी रुचिके अनुसार वर माँगो।' शतरूपाने कहा- 'प्रभो ! महाराजने जो वर माँगा है, वही मुझे भी प्रिय है; फिर भी आपकी आज्ञासे मैं एक वर माँगती हूँ; वह यह है—

जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥

सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ।

सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥

यह कोमल, गूढ़ और मनोहर वाक्य-रचना सुनकर प्रभु प्रसन्न हो गये और बोले 'तुम्हारे मनमें जो कुछ अभिलाषा है, वह सब तुमको दे दी।' इतना कहकर भगवान्ने उसी दिन उन्हें माता कहकर पुकारा और विवेकका वरदान दिया–

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥

इस प्रकार शतरूपाने अपनी अलौकिक भक्ति और तपस्यासे भगवान् को पुत्ररूपमें प्राप्त किया। वे दोनों दम्पती भगवान्की आज्ञाके अनुसार कुछ कालतक इन्द्रलोकमें रहे। उसके बाद मनु अयोध्याके चक्रवर्ती नरेश दशरथ हुए और शतरूपा उनकी पत्नी कौसल्या हुईं। श्रीरघुनाथजीने इनके पुत्ररूपमें प्रकट होकर इनको तो अनुगृहीत किया ही; साथ-ही-साथ अपनी पवित्र लीलाओंकी स्मृति छोड़ दी, जिसका गायन, स्मरण और कीर्तन करके जगत्के असंख्य मनुष्य परमपदकी प्राप्ति करते रहेंगे।

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