ग्वारिया बाबा Renu द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

ग्वारिया बाबा

वृन्दावन में एक संत रहते थे। गौर वर्ण, लंबा शरीर, पैर तक लटकता ढीला-ढाला कुर्ता; शरीर का एक-एक रोम तक सफ़ेद हो गया था। उनके शरीर की थोड़ी झुर्रियां, रोम एवं केशों की श्वेतता ही कहती थी कि उनकी अवस्था पर्याप्त अधिक है। परंतु उनके कुर्ते या चोगे का वजन सात-आठ सेर से अधिक ही रहता होगा। उसे पहने वे बच्चों की भाँति दौड़ते थे। उनका स्वास्थ्य एवं शारीरिक बल अच्छे स्वस्थ सबल युवक के लिये भी स्पृहणीय ही था। श्रीब्रजराजकुमार में उनकी सख्यनिष्ठा थी, अतः वे अपने को ग्वारिया (चरवाहा) कहते थे। संसार को भी उनके परिचय के रूप में उनका यह ‘ग्वारिया बाबा’ नाम ही प्राप्त है।

शास्त्र की आज्ञा है कि गृहत्यागी साधु अपने पूर्वाश्रम का स्मरण न करे, पूछने पर भी घर तथा घर का नाम न बताये। श्रीग्वारिया बाबा ने इस आज्ञा का इतनी दृढ़ता से पालन किया कि उनके घनिष्ठ परिचय में रहने वाले भी नहीं जानते थे कि बाबा की जन्म भूमि कहां थी, उनका घर का नाम क्या था या उनका पूर्व परिचय क्या है। किसी ने पूछा- "बाबा ! आपने किस सम्प्रदाय में दीक्षा ली है?" तो उत्तर मिला- "सभी सम्प्रदाय मेरे ही हैं।" वृन्दावन आने से पूर्व ग्वारिया बाबा का महाराज जयपुर, महाराज ग्वालियर तथा दतिया एवं चरखारी के राजकुल से घनिष्ठ सम्पर्क रहा। ये नरेश बाबा को अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखते थे और प्रयत्न करते थे कि वे उनके यहाँ अधिक-से-अधिक रहें।

ग्वारिया बाबा संगीत के कुशल मर्मज्ञ थे। राजमहलों में उनके भीतर जाने पर कभी प्रतिबन्ध नहीं रहा। उनसे राजकुल की महिलाएं अनेक बार संगीत एवं वाद्य की शिक्षा प्राप्त करती थीं।

महापुरुषों की प्रवृृत्ति को समझना सांसारिक लोगों के लिये कभी सरल नहीं रहा। उसमें भी चपलचूड़ामणि श्रीश्यामसुन्दर के सखाओं की वृत्ति का तो पूछना ही क्या। ग्वारिया बाबा की प्रकृति में यह अद्भुत भाव बहुत पर्याप्त था। जब वे किसी राजमहल में रहते, तब स्वयं महल में झाडू लगाया करते। उनके कार्य में बाधा देने का तो कभी कोई साहस करता ही न था। एक बार आपने जयपुर महाराज से आग्रह किया- "मैं जेल में रहूंगा। तू मुझे जेल में रख।" महाराज ने एक लोहे के सीखचों का पिंजड़े-जैसा कमरा बनवाया। वह कमरा महल में रहे और उसमें ग्वारिया बाबा रहकर सन्तुष्ट हो जायं, ऐसा महाराज चाहते थे; किंतु ग्वारिया बाबा को तो जेल में रहना था। अन्त में महाराज को संत का हठ स्वीकार करना पड़ा। वह पिंजड़ा जेल में रखा गया। बंदियों के वस्त्र पहनकर ग्वारिया बाबा जेल में उस पिंजड़े में रहे। उन दिनों वे जेल का सामान्य भोजन ही करते थे और सामान्य बंदियों के समान ही व्यवहार करते थे। वृन्दावन आने पर वह पिंजड़ा भी बाबा अपने साथ लिवा आये थे।

जयपुर रहते हुए ग्वारिया बाबा एक बार कई दिनों तक पूरे दिनभर राजमहल से बाहर रहते थे। किसी को कुछ विशेष पता नहीं था। उन दिनों जयपुर में कोई महल बन रहा था। प्रातःकाल मजदूर के वेश में ढाठा बांधकर आप वहाँ मजदूरी करने पहुँच जाते थे। दिनभर परिश्रम करते थे। सायंकाल ठेकेदार से कहते- "मालिक ! कल से मैं नहीं आऊंगा। मुझे छुट्टी दे दी जाय। मेरे पैसे दे दीजिये।" ठेकेदार इतने परिश्रमी मजदूर को छोड़ना नहीं चाहता था। उसने कहा- "तुझे छुट्टी नहीं मिलेगी। पैसे तो सबको साथ ही बंटेंगे।" सप्ताह के अन्त में मजदूरी बांटने का दिन आया। उस दिन ग्वारिया बाबा मजदूर के वेश में न जाकर अपना लंबा लबादा पहनकर गये। ठेकेदार और मजदूर चकित रह गये। जो संत महाराज जयपुर के साथ बग्गी पर घूमने निकलते हैं, वे सात दिन उनके यहाँ सबसे कठोर श्रम करते रहे, यह समझना ही उनके लिये अद्भुत था। बाबा ने अपनी मजदूरी के पैसे ठेकेदार से लिये और उनके चने खरीदे। छोटे बालकों को, मयूरों को और बंदरों को वे चने बड़ी उमंग से उन्होंने खिलाये।

एक बार पतंग उड़ाते समय एक लड़़का मकान की छत से गिर पड़ा। पतंग के पीछे देश में ऐसी दुर्घटनाएं प्रायः होती हैं; किंतु सत्पुरुष तो घटनाओं को यों घटना ही नहीं रहने देते। वे तो उनसे गम्भीर शिक्षा जगत को देते हैं। ग्वारिया बाबा ने लड़के के छत से गिरने की बात सुनी तो अपने पूरे मुख में कालिख पोत ली और एक पतंग छोटे धागे में बांधे कई दिन वे नगर में घूमते रहे। किसी ने ऐसा करने का कारण पूछा तो बोले- "देखो, पतंग उड़ाते हुए वह लड़का मर गया और मेरा मुख काला हुआ। ऊपर की ओर देखना और नीचे का ध्यान न रखना ऐसा ही सर्वनाश कराता है।"

दिन में ग्वारिया बाबा कहीं भी रहें, रात्रि में वृन्दावन के समीप के जंगलों में घूमा करते थे। एक बार घूमते समय चोरों के एक दल ने उन्हें देखा। बाबा को तो वे पहचानते ही थे, सबने कहा- "ग्वारिया ! चोरी करिबे चलैगो?" बाबा को लगा कि श्यामसुन्दर के सखा कहीं दही चोरी करने जा रहे हैं, सो प्रसन्नता से साथ हो गये। एक घर में चोर घुसे। चोर तो अपने काम में लग गये और ग्वारिया बाबा कोई खाने-पीने की सामग्री ढूंढ़ने लगे। उन्हें केवल गुड़ मिला और कहीं एक ढोलक लटकता मिल गया। आप ढोलक बजाने लगे। चोरों ने भागते-भागते भी इन्हें पीटा और घर के लोगों ने भी जगकर अन्धकार में पीटा। जब प्रकाश में पहचाने गये, तब सबको बड़ा दुःख हुआ। घर के लोगों ने देखा कि बाबा हाथ में जरा-सा गुड़ लिये हैं और कह रहे हैं- "यारों के साथ चोरी करने आया था, सो मार तो खूब पड़ी।"

शरीर छोड़ने से पंद्रह-बीस दिन पहले ही ग्वारिया बाबा ने अपने इस धाम को छोड़ने की बात लोगों से कह दी और आग्रह किया- "मेरी शोक-सभा मेरे सामने ही मना लो।" बड़ी कठिनाई से बाबा को लोग समझा पाये कि उनके रहते ऐसी अमंगलपूर्ण योजना करने का साहस कोई कर नहीं पाता। "मेरा कोई स्मारक न रखा जाय, कोई चरित न लिखा जाय।" यह बाबा का आदेश था। नश्वर शरीर की स्मृति रखी जाय, यह उन्हें बिलकुल स्वीकार नहीं था। उन्होंने शरीर छोड़ते समय भगवान के मन्दिर से आया हुआ भगवान का चरणामृत तथा संतों का चरणामृत लेने के लिये ही मुख खोला। उस समय उनके शरीर को शिथिल देखकर कुछ लोगों ने औषध देना चाहा, पर औषध के लिये बाबा ने मुख खोला ही नहीं। जैसी ग्वारिया बाबा की इच्छा थी, उनका शरीर वृन्दावन के प्रमुख मन्दिरों के सामने से होकर निकाला गया। मन्दिरों से उस नित्य-सखा की देह के सत्कार के लिये माला, चन्दन आदि प्रसाद आया। इस प्रकार सभी प्रमुख मन्दिरों का प्रसाद लेकर वह देह वंशीवट के समीप श्रीयमुनाजी की गोद में विसर्जित कर दिया गया।

सबसे आश्चर्य की बात यह रही कि वृन्दावन के एक बंगाली डॉक्टर कहीं बाहर गये थे। वे बाबा के शरीर छोड़ने के दो-तीन दिन बाद आये और एक संत से कहने लगे- "मैंने सुना था कि ग्वारिया बाबा केवल ब्रजवासियों के घर ही प्रसाद लेते हैं; पर आज प्रातः वे मेरे यहाँ आये और मांगकर दूध पी गये हैं।" जब डॉक्टर को बताया गया कि बाबा का शरीर तीन दिन पूर्व ही छूट चुका है, तब वे इस पर बड़ी कठिनाई से विश्वास कर सके। इसी प्रकार अपने एक श्रद्धालु को बाबा ने स्वप्न में दर्शन दिया और बताया- "मैं तुम्हें भगवान के पास ले आने आऊंगा।" वह व्यक्ति बीमार था, पर स्वप्न देखकर स्वस्थ हो गया। निश्चित तिथि को उसका शरीर सहसा ही छूट गया। श्रीग्वारिया बाबा वृन्दावन के इस पिछले समय के सबसे प्रसिद्ध संतों में हुए हैं। उन्होंने अपनी मस्ती से केवल एक शिक्षा दी है कि ‘श्रीब्रजराजकुमार केवल भाव के वश हैं। जो जिस भाव से उन्हें अपना मान ले, भाव दृढ़ हो तो वे उसके उसी सम्बन्ध को सर्वथा सत्य स्वीकार कर लेते हैं।’