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श्री सनकादि ऋषि

सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार और सनत्सुजात—ये पाँचों ही ब्रह्माके मानस पुत्र हैं। कहीं-कहीं सनत्कुमार और सनत्सुजातको एक मानकर चार ही कहा गया है। कहते हैं कि जब ब्रह्मासे पाँच पर्वोवाली अविद्या दूर हो गयी तब ब्रह्माने अपनी शक्तिके साथ निर्मल अन्त:करण होकर इनकी सृष्टि की। ब्राह्मीशक्तिने इन्हें सम्पूर्ण विद्या, उपासना-पद्धति और तत्त्वज्ञानका उपदेश किया। इन सबके अध्ययन, तपस्या, शीलस्वभाव एक-से ही है। इनमें शत्रु, मित्र तथा उदासीनोंके प्रति भेददृष्टि नहीं। सर्वदा पाँच वर्षकी अवस्थावाले बालकोंकी भाँति ही ये विचरते रहते हैं। संसारके द्वन्द्व इनका स्पर्श नहीं कर पाते । रातदिन भगवान् श्रीकृष्णके नामका जप किया करते हैं। ‘हरिः शरणम्’ मन्त्र तो इनके श्वासोच्छ्वासके साथ-साथ चलता रहता है, इसीसे ये सदा बालकरूप रहते हैं। इन्हें भगवान्‌की लीलासुधा पान करनेमें इतना आनन्द आता है कि प्रायः शेषनागके पास जाकर पूछ-पूछकर उसका रसास्वादन करते रहते हैं। इनका एक क्षण भी भगवान्‌के चिन्तन बिना नहीं बीतता। ये सर्वदा ब्रह्मानन्दमें मग्न रहते हैं। इनके उपदेशों से अनेकों व्यक्तियों का कल्याण-साधन हुआ है। इन्होंने शुकदेव और भीष्मको अध्यात्मविद्याका सदुपदेश प्रदान किया है। महाराज पृथुने जो कि भगवान्‌के एक अंशावतार हैं—इनसे ही भागवत-सदुपदेश ग्रहण किया। इन्होंने प्रलयके कारण पहले कल्पके भूले हुए ज्ञानका ऋषियों के प्रति उपदेश किया।

महाभारतमें सनत्सुजातमुनिने धृतराष्ट्रको बहुत सुन्दर उपदेश दिये हैं। उद्योगपर्वका एक महत्त्वपूर्ण अंश ही सनत्सुजातीयके नामसे प्रसिद्ध है। इस सनत्सुजातीयपर भगवान् श्रीशंकराचार्यकृत एक संस्कृत भाष्य भी है।

कभी-कभी ये लोग स्वयं परस्पर भगवच्चर्चा किया करते थे। किसी एकको वक्ता बना लेते और दूसरे सब श्रोता बनते । इस प्रकार बड़े मर्मकी बातें होतीं। श्रीभागवतकी वेदस्तुति एक ऐसे ही अवसरपर कही गयी थी। श्रीसनन्दनजीको प्रवचनकार बनाकर बाकी लोग श्रोता बन गये। इस प्रकार एक बड़े जटिल प्रश्नका उत्तर संसारको मिल गया कि वेदोंमें भगवान्‌का वर्णन किस प्रकार होता है। भगवान्‌से अतिरिक्त वस्तुका निषेध करते हुए वेद अन्तमें किस प्रकार भगवान्‌में परिसमाप्त होते हैं, इस उपदेशमें इस बातका अत्यन्त विशद वर्णन हुआ है।

भगवान्‌के भक्तों, जीवन्मुक्तों, सिद्ध सन्तोंमें संसारके कलुषित विकार काम-क्रोधादि होते ही नहीं, न हो सकते हैं। फिर भी कभी-कभी सन्तोंके जीवनमें भी भगवदिच्छासे लीलारूपमें यह बात देखी जाती है। देखनेवाले लोग अपने कलुषित हृदयके कारण भ्रमवश महात्माओंकी लीलाओंको न समझकर उनमें कामक्रोधकी कल्पना कर बैठते हैं। उनकी इन लीलाओंके द्वारा जगत्की हानि न होकर लाभ ही होता है। इनके सम्बन्धमें भी पुराणोंमें एक ऐसे ही प्रसंगका वर्णन आता है।

एक बार इन लोगोंने वैकुण्ठकी यात्रा की। इन्हें पाँच वर्षके नग्न बालकके रूपमें देखकर वहाँके द्वारपालों (जय-विजय) ने रोक दिया। इसपर इन्होंने डाँटते हुए कहा—

‘भगवान्‌के नित्यधाम—सत्त्वके साम्राज्यमें यह विषमता उचित नहीं है। तुम दोनोंके मनमें कुछ गर्व और कपट अवश्य आ गया है, नहीं तो भगवान्‌के सबके लिये खुले हुए समधाममें भला यह कैसे हो सकता है? तुम हमपर शंका कर रहे हो। इस एकरस धाममें तुम दोनोंने पेटके कारण होनेवाले सांसारिक भेदभावको स्थान दिया है। इसलिये शीघ्र ही यहाँसे गिर जाओ।’ ।

यद्यपि सन्तोंमें इस प्रकारका आवेश होना असम्भव है, फिर भी भगवान्‌की ऐसी ही इच्छा थी। वे इन्हीं मुनियोंको निमित्त बनाकर जगत्में आना चाहते थे। कहाँ तो उनका स्थान और दर्शन इन मुनियोंके लिये भी अगम्य था और कहाँ वे बन्दर-भालू आदि के लिये भी सुलभ हो गये। भगवान् गाँवके ग्वालोंके बीचतकमें आये। इन मुनियोंको निमित्त बनाकर अपनेको सुलभ कर दिया।

भगवान्‌ने स्वयं आकर इनकी स्तुति की, ब्राह्मणोंकी महिमा गायी, प्रसन्नता प्रकट की, तब इन्होंने मुक्तस्वरसे कहा, 'प्रभो! हमें तो उचित-अनुचित कुछ जान नहीं पड़ता। इस अपराधके बदले आपकी जो इच्छा हो वही दण्ड दे दो। हमें सहर्ष शिरोधार्य है। भगवान्‌ने मुसकराते हुए कहा, 'तुम्हारा कोई दोष नहीं। यह तो मेरी ही इच्छा थी। मैंने पहले ही सोच रखा था। भगवान्‌की प्रेमभरी गम्भीरवाणी सुनकर सब-के-सब भगवान्‌की प्रदक्षिणा, नमस्कार करके आज्ञा पाकर उनके गुण गाते हुए स्वच्छन्द विचरण करने लगे।।

यद्यपि ये सनकादिक सब-के-सब नित्यसिद्ध और निरन्तर परमार्थनिष्ठ हैं तथापि संसारमें गुरुशिष्यपरम्पराके स्थापनके लिये क्रमशः बड़े भाइयों को छोटोंने गुरुके रूपमें माना था। विधिवत् उनसे दीक्षा लेकर श्रवण-मननादि किया। आज भी वे कहीं गुप्तरूपसे विचरण करते होंगे। सम्भव है कहीं हमारे पास ही हों परंतु हमारा ऐसा सौभाग्य कहाँ है कि उनके दर्शनसे अपना जन्म सफल कर सकें। उनकी कृपा ही वाञ्छनीय है।

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