श्रीकबीरदासने भक्तिहीन षड्दर्शन एवं वर्णाश्रम धर्मको मान्यता नहीं दी। वे भक्ति से विरुद्ध धर्मको अधर्म ही कहते थे। उन्होंने बिना भजनके योग, यज्ञ, व्रत और दान आदि को व्यर्थ सिद्ध किया। उन्होंने अपने बीजक—रमैनी, शबदी और साखियों में किसी मतविशेष का पक्षपात न करके सभीके कल्याणके लिये उपदेश दिया। हिन्दू-मुसलमान सभी के लिये उनके वाक्य प्रमाण हैं। वे ज्ञान एवं पराभक्तिकी आनन्दमयी अवस्थामें सर्वदा स्थित रहते थे। श्रीकबीरदासजी ने किसी के प्रभावमें आकर मुँहदेखी बात नहीं कही। वे जगत्के प्रपंचोंसे सर्वथा दूर रहे
सन्त श्रीकबीरदासजी का जीवन-चरित संक्षेपमें इस प्रकार है— उच्चश्रेणीके भक्तोंमें कबीरजी का नाम बहुत आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्धमें कई प्रकारको किंवदन्तियाँ हैं। कहते हैं, जगद्गुरु रामानन्द स्वामीके आशीर्वादसे ये काशी की एक विधवा ब्राह्मणीके गर्भसे उत्पन्न हुए। लज्जाके मारे वह नवजात शिशु को लहरताराके तालके पास फेंक आयी। नीरू नामका एक जुलाहा उस बालकको अपने घर उठा लाया, उसीने उस बालकको पाला-पोसा । यही बालक 'कबीर' कहलाया। कुछ कबीरपन्थी महानुभावोंकी मान्यता है कि कबीरका आविर्भाव काशीके लहरतारा तालाबमें कमलके एक अति मनोहर पुष्पके ऊपर बालकरूपमें हुआ था। एक प्राचीन ग्रन्थमें लिखा है कि किसी महान् योगीके औरस और प्रतीचि नामक देवांगनाके गर्भसे भक्तराज प्रह्लाद ही कबीरके रूपमें संवत् १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को प्रकट हुए थे। प्रतीचिने उन्हें कमलके पत्तेपर रखकर लहरतारा तालाबमें तैरा दिया था और नीरू-नीमा नामके जुलाहा–दम्पती जबतक आकर उस बालकको नहीं ले गये, तबतक प्रतीचि उनकी रक्षा करती रही। कुछ लोगोंका यह भी कथन है कि कबीर जन्मसे ही मुसलमान थे और सयाने होनेपर स्वामी रामानन्दके प्रभावमें आकर उन्होंने हिन्दूधर्मकी बातें जानीं। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगाघाटकी सीढ़ियोंपर जा पड़े। वहींसे रामानन्दजी स्नान करनेके लिये उतरा करते थे। रामानन्दजीका पैर कबीरके ऊपर पड़ गया। रामानन्दजी चट 'राम-राम' बोले उठे। कबीरने इसे ही श्रीगुरुमुखसे प्राप्त दीक्षामन्त्र मान लिया और स्वामी रामानन्दजीको अपना गुरु कहने लगे। स्वयं कबीरके शब्द हैं—
‘हम कासी में प्रगट भये हैं, रामानन्द चेताये।’
मुसलमान कबीरपन्थियोंकी मान्यता है कि कबीरने प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकीसे दीक्षा ली थी। परंतु कबीरने शेख तकीका नाम उतने आदरसे नहीं लिया है, जितना स्वामी रामानन्दका। इसके सिवा कबीरने पीर पीताम्बरका नाम भी विशेष आदरसे लिया है। इन बातोंसे यही सिद्ध होता है कि कबीरने हिन्दू-मुसलमान भेदभाव मिटाकर हिन्दू-भक्तों तथा मुसलिम फकीरोंका सत्संग किया और उनसे जो कुछ भी तत्त्व प्राप्त हुआ, उसे हृदयंगम किया।
जनश्रुतिके अनुसार कबीरके एक पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रका नाम था कमाल और पुत्रीका कमाली। इनकी स्त्रीको नाम 'लोई' बतलाया जाता है। इस छोटे-से परिवारके पालनके लिये कबीरको अपने करघेपर कठिन परिश्रम करना पड़ता था। घरमें साधु-सन्तोंका जमघट रहता ही था। इसलिये कभी-कभी इन्हें फाकेमस्तीका मजा भी मिला करता था। कबीर ‘पढ़े-लिखे नहीं थे। स्वयं उन्हींके शब्द हैं—
‘मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’
कबीरकी वाणीका संग्रह 'बीजक' के नामसे प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं—रमैनी, सबद और साखी। भाषा खिचड़ी है-पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई बोलियोंका पँचमेल है।
श्रीकबीरदासजी सिद्ध सन्त थे, इनके चमत्कारोंके अनेक प्रसंग आज भी जन-सामान्यमें प्रचलित हैं, परंतु इनका उद्देश्य सिद्धिका चमत्कार-प्रदर्शन नहीं, अपितु सन्त-भगवन्तकी महिमाका ख्यापन और भगवद्भक्तिका प्रचार-प्रसार था।
कहते हैं कि एक बार प्रयागमें कुम्भके अवसरपर श्रीकबीरदासजी भी वहाँ गये थे तथा तत्कालीन यवन सुलतान भी मुसलमान फकीर शेख तकीको लेकर गया हुआ था। एक दिन वह श्रीत्रिवेणीजीके किनारे खड़ा था, श्रीकबीरदासजी भी स्नान करनेके लिये वहाँ आये थे। उसी समय एक मृत बालकका शव बहता चला आ रहा था। शेख तकीने सुलतानको दिखाकर कहा- हुजूर ! देखिये, कैसा सुन्दर बालक है, दुनियाँसे चल बसा। सुलतानने श्रीकबीरदासजीकी ओर संकेत करते हुए शेख तकीसे कहा-ये साहबसे मिले हैं, चाहें तो जिन्दा कर सकते हैं। कबीरदासजीको लगा कि यह सुलतान अपनी सल्तनतके नशेमें मेरी भक्ति, प्रभुके प्रति श्रद्धा और विश्वासको चुनौती दे रहा है और एक मुसलमान फकीरके सम्मुख मेरी हँसी उड़ा रहा है, अतः उन्होंने उसको पुकारकर कहा-'ऐ बालक! तू कहाँ जा रहा है, आ मेरे पास।' इतना कहते ही वह बालक जीवित हो गया और लौटकर कबीरदासजीके पास आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। इस अद्भुत चमत्कारको देखकर बरबस ही सुलतानके मुखसे निकल पड़ा-कमाल है! इसपर श्रीकबीरदासजीने उस बालकका नाम ही कमाल रख दिया और उसे अपना पुत्र बना लिया। इसी प्रकारकी कथा कमालीके विषयमें भी प्रसिद्ध है, वह एक राजकन्या थी। छोटी अवस्थामें ही उसकी मृत्यु हो गयी थी। राजाने अपने कुलकी प्रथाके अनुसार उसे पृथ्वीमें समाधि दे दी। फिर उसे पता चला कि श्रीकबीरदासजी परम सिद्ध सन्त हैं और वे मरे हुएको भी जिन्दा कर देनेमें समर्थ हैं, तबतक कमालके जीवित हो जानेकी घटना सर्वविदित हो चुकी थी। अतः राजाने श्रीकबीरदासजीको बुलवाया। राजाकी प्रार्थनापर श्रीकबीरदासजीने यह कहकर पुकारा कि बेटी ! तुम्हारे पिता बुला रहे हैं, जीवित होकर चली आ। परंतु वह नहीं जीवित हुई। तब श्रीकबीरजीने पुनः कहा कि अच्छा बेटी ! तुम्हारे पिता कबीर बुला रहे हैं, जीवित होकर चली आ। इतना कहते ही वह समाधिमेंसे जीवित निकलकर बाहर आ गयी। राजा-रानी बहुत प्रसन्न हुए वे प्रेमपूर्वक उसे गोदमें लेकर घर ले जाने लगे। तब उस राजकन्याने कहा कि मैं जिस पिताके नामपर जीवित हुई हूँ, उन्हींके साथ जाऊँगी। राजा-रानीने भी उसे श्रीकबीरदासजीके ही चरणों में डाल दिया।
इनके सम्बन्धमें इसी प्रकारकी एक और कथा प्रसिद्ध है। एक बार बलख बुखाराके बादशाहका पुत्र मर गया। उसे किसीसे ज्ञात हुआ कि भारतमें अनेक बड़े-बड़े सिद्ध फकीर हैं, जो मृत व्यक्तिको भी जिन्दा कर देते हैं। अतः उसने अपने पुत्रको जीवित करानेके लिये अपने वजीरको किसी सन्तको लानेके लिये भारत भेजा। वह समय भक्तिकाल था, ऐसे अनेक सिद्ध सन्त थे, जो मुर्देको भी जिन्दा करनेमें सक्षम थे, परंतु मुसलिम राष्ट्रमें जानेको कोई तैयार नहीं हुआ। अन्तमें वजीर श्रीकबीरदासजीके पास आया और उनसे प्रार्थना की। कबीरदासजी तैयार हो गये। वजीर इन्हें बड़े आदरके साथ बलख बुखारा ले गया। वहाँ भी इनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ और इन्हें उस स्थानपर ले जाया गया, जहाँ शहजादेका शव रखा हुआ था। बादशाह, वजीर और दरबारके दूसरे बड़े ओहदेदार भी वहाँ हाजिर थे। कबीरदासजीने शहजादेके शवको सम्बोधित करते हुए कहा-उठ, बादशाहके हुक्मसे; परंतु वह शव वैसे-का-वैसा ही पड़ा रहा। कबीरदासजीने फिर कहा-उठ, खुदाके हुक्मसे। फिर भी शव नहीं उठा तो कबीरने कहा-उठ, मेरे हुक्मसे। उनके इतना कहते ही वह बालक तुरंत जीवित होकर उठ बैठा। इस प्रकार श्रीकबीरदासजीने अनेक अद्भुत कर्म किये, जो उनके जैसे सिद्ध सन्तद्वारा ही सम्भव थे।
बुढ़ापेमें कबीरके लिये काशीमें रहना लोगोंने दूभर कर दिया था। यश और कीर्तिकी उनपर वृष्टि-सी होने लगी। कबीर इससे तंग आकर मगहर चले आये। ११९ वर्षकी अवस्थामें मगहरमें ही उन्होंने शरीर छोड़ा।
सन्त-शिरोमणि कबीरका नाम उनकी सरलता और साधुताके लिये संसारमें सदा अमर रहेगा। उनकी कुछ साखियोंकी बानगी लीजिये—
ऐसा कोई ना मिला, सत्त नाम का मीत।
तन मन सौंपै मिरग ज्यौं, सुन बधिक का गीत॥
सुखके माथे सिल परै, जो नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुःख की, (जो ) पल पल नाम रटाय॥
तन थिर, मन थिर, बचन थिर, सुरत निरत थिर होय।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय॥
माली आवत देखि कै, कलियाँ करैं पुकारि।
फूली फूली चुनि लिये, काल्हि हमारी बारि॥
सोऔं तो सुपिने मिलै, जागौं तो मन माहिं।
लोचन राता, सुधि हरी, बिछुरत कबहूँ नाहिं॥
हँस हँस कंत न पाइया, जिन पाया तिन रोय।
हाँसी खेले पिउ मिलैं तो कौन दुहागिनि होय॥
चूड़ी पटकौ पलँग से, चोली लावौं आगि।
जा कारन यह तन धरा, ना सूती गल लागि॥
सब रग ताँत, रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुनि सकै, कै साईं, के चित्त॥
कबीर प्याला प्रेमका, अन्तर लिया लगाय।
रोम-रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय॥कबीरदासजीसे सम्बन्धित कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं—
(1) श्रीरामानन्दजीका शिष्य बननेकी घटना :श्रीकबीरदासजीकी बुद्धि अत्यन्त गम्भीर थी और उनका हृदय प्रेमाभक्तिसे सर्वथा परिपूर्ण एवं अति सरस था। उन्होंने भक्तिभावको अपनाकर जाति-पाँतिमें विवाद समझकर उसे बिलकुल त्याग दिया था। इसी समय एक दिन आकाशवाणी हुई कि अपने शरीरमें तिलक रमाओ, आचार्य श्रीरामानन्दको अपना गुरु बनाओ, गलेमें तुलसीमाला धारण करो।' यह सुनकर कबीरदासने कहा कि मैं उनसे मन्त्र-दीक्षा कैसे लूँगा, वे मुझे म्लेच्छ मानकर मेरा मुख भी नहीं देखना चाहेंगे, पुनः आकाशवाणीने कहा—वे गंगा-स्नान करने जाते हैं, उस समय मार्गमें अपनेको उनके चरणोंमें डाल देना। नित्य प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्तमें ध्यानमग्न-प्रेमावेशसे आप गंगा-स्नान करने जाते थे। श्रीकबीरदासजी गंगाघाटकी सीढ़ीपर लेट गये। यथासमय श्रीस्वामीजी पधारे। उनका श्रीचरण कबीरजीके सिरपर पड़ गया। सहसा उनके मुखसे निकला-राम! राम! कहो। श्रीकबीरदासजीने राम-नामको मन्त्र-दीक्षाके रूपमें ग्रहण कर लिया। इस प्रकार आप श्रीस्वामीजीके शिष्य बनकर घरको चले आये। श्रीकबीरदासजीने वही किया जैसा कि आकाशवाणीने कहा था अर्थात् अपने शरीरपर रामानन्दीय (द्वादश) तिलक लगाया और गलेमें तुलसी-कण्ठी पहन ली। अपने लड़केका साधुवेष देखकर एवं उसे रात-दिन राम-नाम जपते देखकर माताने इसे बड़ा उत्पात माना और बड़ा हल्ला मचाने लगी कि मेरे लड़केको किसीने हिन्दू-बाबाजी बना दिया। धीरे-धीरे यह बात श्रीरामानन्दजीके पासतक पहुँच गयी, फिर किसीने आकर यह भी बताया कि जब कोई उससे पूछता है कि तुम किसके शिष्य बन गये हो ? तब वह आपका ही नाम लेता है। यह सुनकर श्रीस्वामीजीने आज्ञा दी कि उसे पकड़कर मेरे पास ले आओ।' आज्ञानुसार लोग कबीरदासजीको बुला लाये। परदेके पीछे बैठकर श्रीस्वामीजीने पूछा—हमने तुमको कब शिष्य बनाया ? तब श्रीकबीरदासजीने गंगाघाटकी सब घटना स्मरण करायी और बोले-श्रीरामनाम ही महामन्त्र है। यह बात सभी शास्त्रों में लिखी है। वही प्रदानकर आपने मुझे शिष्य बनाया। यह सुनकर श्रीस्वामीजी अति प्रसन्न हुए और परदा खोलकर बाहर आये तथा कबीरदासजीको छातीसे लगाकर बोले-वत्स! तुम्हारा सिद्धान्त सत्य है। श्रीरामनामको ही हृदयमें धारण करो।
(2) श्रीकबीरदासजीकी दिनचर्या और उनका भगवद्भाव :श्रीकबीरदासजी जीवन-निर्वाहके लिये ताने-बानेसे कपड़ा बुनते थे, किंतु उनके हृदयमें श्रीरामजीका नामरूप मँडराया करता था। वे कपड़ा उतना ही बुनते थे, जितनेसे परिवारका खर्च चल जाय। एक बार बाजारमें कपड़ा बेचनेके लिये आप खड़े थे कि एक साधु आपके पास आकर बोला कि मुझे कपड़ा दीजिये, मेरे पास पहननेके लिये कुछ नहीं है। तब आप उसे आधा थान फाड़कर देने लगे। तो उसने कहा-इस आधे थानसे मेरा काम नहीं चलेगा। श्रीकबीरदासजीने कहा-यदि पूरा थान लेनेका निश्चय आपने अपने मनमें किया है तो लीजिये, यह पूरा थान ही लीजिये।
श्रीकबीरदासके घरपर उनकी स्त्री लोई, माता नीमा, पुत्र कमाल और पुत्री कमाली-ये सभी रास्ता देख रहे थे। घरमें भोजन-सामग्रीको अभाव था, अतः सभी भूखे थे। कपड़ा बेचकर मूल धनसे सूत और मुनाफेसे सामान खरीदकर आता था। उसीसे निर्वाह होता था। दूसरे दिनके लिये कुछ बचता ही न था। श्रीकबीरदासजीने विचार किया कि घरमें सभी भूखे होंगे। खाली हाथ चलकर क्या करूं। वे बाजारमें ही इधर-उधर कहीं छिप गये। घरको क्या लेकर आते ? पूरा थान-का-थान तो दान कर चुके थे। भगवान् घट-घट वासी हैं, श्रीकबीरदासके सच्चे भक्तिभावको जानकर और घरके लोगोंको दुखी देखकर वे व्यापारी केशव बनजारेका रूप धारणकर बैलोंके ऊपर बहुत-सा आवश्यक सामान लादकर लाये। सब सामान उन्होंने कबीरदासजीके घरमें रख दिया और कहा-यह सामान सुविधाके लिये है। इससे आरामसे निर्वाह करो।
तीन दिन बाद भी जब श्रीकबीरदासजी लौटकर घर नहीं आये, तब दो-चार आदमी गये और ढूँढ़कर उन्हें लिवा लाये। घर आकर कबीरदासजीने सब बात सुनी कि एक व्यापारी बहुत-सा सामान लाकर डाल गया, तो उन्होंने जान लिया कि मेरे कष्टको देखकर स्वयं भगवान्को कष्ट हुआ, तभी उन्होंने सामान पहुँचानेका कष्ट उठाया। विचारकर कि श्रीराम रघुवीरने मुझपर अत्यन्त कृपा की, आप परमानन्दमें मग्न हो गये। उसी समय भक्तोंकी भीड़को बुलाकर श्रीकबीरदासजीने सारा सामान लुटा दिया। ताना-बाना, कपड़ा बुनना सब आपने छोड़ दिया। हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी। यह सुनकर ब्राह्मणोंका धैर्य छूट गया, वे क्रोधित होकर दौड़ते हुए कबीरदासजीके यहाँ आये और बोले- क्यों रे जुलाहे ! तूने इतना धन पाया और हमलोगोंको नहीं बुलाया। शूद्रोंको बुलाकर सब धन उन्हें दे दिया। या तो हमें भी धन दो, नहीं तो यहाँसे बाहर भाग जाओ।
श्रीकबीरदासजीने कहा— अब मेरे घरमें तो कुछ भी नहीं है, आपलोग घरमें घुसकर देख लीजिये। यदि आप नहीं मानते हैं तो यहीं बैठें, मैं मण्डीमें जाता हूँ, कुछ मिलेगा तो लाकर दे दूंगा। यह कहकर श्रीकबीरदासजीने बड़ी कठिनाईसे अपना पीछा छुड़ाया और मण्डीमें जाकर छिप गये। इस प्रकार उन्होंने संकटको टाला। इसी समय भगवान् श्रीकबीरदासजीका रूप धारण करके आये और बहुत-सा धन लाये। उन्होंने आदरपूर्वक ब्राह्मणोंको धन देकर उनका समाधान किया। वे लोग धन लेकर बड़े सुखी हुए। इस प्रकार भगवान्ने अपने भक्तकी उज्ज्वल कीर्तिको सम्पूर्ण जगत्में प्रकाशित किया।
(3) कबीरदासजीके जीवनके कुछ चमत्कार :ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करके भगवान्ने ब्राह्मणका रूप धारण किया और वहाँ पहुँचे, जहाँ श्रीकबीरदासजी छिपकर बैठे थे। भगवान्ने श्रीकबीरदासजीसे कहा-तू यहाँपर पड़ा हुआ, भूखों क्यों मरता है? श्रीकबीरदासजीके घरपर जा। जो भी कोई वहाँ जाता है, उसे वे ढाई सेर अन्न देते हैं, इसलिये अब तू देर मत कर, वहीं चला जा, जल्दीसे जा। श्रीकबीरदासजी घरको आये और सब समाचार देख-सुनकर प्रेमानन्दमें पूर्णरूपसे मग्न हो गये। भगवान्के द्वारा किये गये नये-नये कौतुकोंसे तथा वैभवकी वृद्धिसे परम अकिंचन भक्त श्रीकबीरदासजीका धैर्य कैसे रहे। बढ़ती हुई प्रतिष्ठाको घटानेके लिये श्रीकबीरदासने भी नयेनये कौतुकोंकी रचना प्रारम्भ कर दी। एक दिन आपने एक वेश्याको अपने साथमें ले लिया। उस समय ऐसा मालूम होता था कि भजन-भावको छोड़कर ये उसीके रंगमें रँग गये हैं। परंतु सच्ची बात तो यह थी कि मुझे कुमार्गी समझकर लोग मेरे पास न आयें, मेरे भजनमें बाधा न हो।
श्रीकबीरदासजीको एक वेश्याके साथ देखकर सन्तजन डर गये कि श्रीकबीरदासजी यदि मायासे मोहित हो सकते हैं तो हम-सरीखे साधारण लोग कैसे बचेंगे और दुष्टोंके मनमें बड़ा भारी सुख हुआ। वे कहने लगे, हम तो कहते ही थे कि यह ढोंगी है, हमारी बात सच निकली। श्रीकबीरदासजीने जब सन्त और असन्तोंके ऐसे भाव जाने, तब वे वेश्याको साथ लिये हुए वहाँ पहुँचे, जहाँ काशीके राजाकी सभा लगी हुई थी। राजाने शिष्य होते हुए भी इनका कुछ भी सम्मान नहीं किया। फिर भी ये वहाँ बैठ गये और मानसी भावसे श्रीजगन्नाथभगवान्का ध्यान करने लगे। थोड़ी देर बाद इन्होंने उठकर वहीं अपने पात्रसे जल गिरा दिया। यह देखकर राजाके मनमें कुछ चिन्ता हुई और उसने पूछा-आपने यह क्या किया, जल क्यों गिराया? श्रीकबीरदासजी ने कहाश्रीजगन्नाथपुरीमें श्रीजगन्नाथजीका रसोइया भोगका थाल मन्दिरमें लिये जा रहा था, उसका पैर जलनेवाला था, इसलिये आगको बुझाकर मैंने उसकी रक्षा की है। यह सुनकर सभीको बड़ा आश्चर्य हुआ। राजाने इसकी जाँचके लिये आदमी भेजे। उन्होंने लौटकर समाचार दिया कि श्रीकबीरदासजीकी बात सत्य है-बिलकुल सत्य है।
राजाने मनमें अपना अपराध मानकर रानीसे कहा-श्रीकबीरदासजीकी वह बात तो सत्य निकली। राजसभामें कृपा करके पधारे, मैंने उनका अपमान किया, इसलिये मेरे मनमें बड़ा भारी दुःख है। इस अपराधसे बचनेके लिये मैं कौन-सा उपाय करूं? रानीने कहा कि उन्हींकी शरणमें जानेसे काम बनेगा। तब राजाने घासका एक बड़ा भारी बोझ सिरपर रख लिया और गले में कुल्हाड़ी बाँध ली। इस प्रकार भावमें भीगा हुआ राजा रानीको साथमें लेकर श्रीकबीरदासजीकी शरणमें चला। राजा-रानीने लोक-लज्जाका सर्वथा परित्याग कर दिया था। दोनों बाजारसे होकर निकले। हमने बड़ा अनुचित कार्य किया है ऐसा सोच-सोचकर उनके शरीर क्षण-प्रतिक्षण क्षीण हो रहे थे। श्रीकबीरदासजीने दूरसे राजाको आते देखा तो अत्यन्त व्याकुल हो गये। वे उठकर राजाके पास आये और उन्होंने घासका बोझ उतरवा दिया, गलेसे कुल्हाड़ी खुलवा दी। राजा-रानीके भावसे श्रीकबीरदासजी अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये। मैं तुम्हारे ऊपर रुष्ट नहीं हूँ, ऐसा कहते हुए उन्होंने उपदेश देकर उन्हें आनन्दित किया।
(4) कबीरदासजी और बादशाह सिकन्दर लोदी :श्रीकबीरदासजीकी बढ़ती हुई महिमाको देखकर ब्राह्मणोंके हृदयमें ईर्ष्या पैदा हो गयी। उस समय भारतका तत्कालीन बादशाह सिकन्दर लोदी काशी आया हुआ था। भक्तिविमुख ब्राह्मणोंने श्रीकबीरदासजीकी माताको भी अपने पक्षमें कर लिया और इकड़े होकर सिकन्दर लोदीके दरबार में गये। सबोंने पुकार की कि इस कबीरदासने सारे गाँवको दुखी कर रखा है। मुसलमान होकर हिन्दू बाबाजी बन गया है, किसी धर्मको न मानकर ढोंग फैलाता रहता है। बादशाहने तुरंत आज्ञा दे दी कि उसे अभी पकड़कर मेरे पास ले आओ, मैं उसे देखूगा कि वह कैसा मक्कार है। बादशाहकी आज्ञा पाकर सिपाहीलोग श्रीकबीरदासजीको ले आये और बादशाहके सामने खड़ा कर दिया। तब किसी काजीने श्रीकबीरदासजीसे कहा-ये बादशाह सलामत हैं, इन्हें सलाम करो। इन्होंने उत्तर दिया कि हम श्रीरामके अतिरिक्त दूसरे किसीको सलाम करना जानते ही नहीं हैं।
श्रीकबीरदासजीकी बातें सुनकर बादशाहने इन्हें लोहेकी जंजीरोंसे बँधवाकर गंगाजीकी धारामें डुबा दिया। परंतु ये जीवित ही रहे, लोहेकी जंजीरें न जाने कहाँ गयीं ! ये गंगाजीकी धारसे निकलकर तटपर खड़े हो गये। पश्चात् बादशाहकी आज्ञासे बहुत-सी लकड़ियों में इन्हें दबाकर आग लगा दी गयी। उस समय नया आश्चर्य हुआ, सभी लकड़ियाँ जलकर भस्म हो गयीं और इनका शरीर इस प्रकार चमकने लगा, जिसे देखकर तपे हुए सोनेकी चमक भी लज्जित हो जाय। जब यह उपाय भी व्यर्थ हो गया तो एक मतवाला हाथी लाकर उसे उनके ऊपर झपटाया गया। परंतु लाख प्रयत्न करनेपर भी हाथी श्रीकबीरदासजीके पास नहीं आया। बड़ी जोरसे चिंघाड़कर वह दूर भाग जाता था। इनके समीपमें हाथीके न आनेका कारण यह था कि स्वयं श्रीरामजी सिंहका रूप धारणकर श्रीकबीरदासजीके आगे बैठे थे।
बादशाह सिकन्दर लोदीने श्रीकबीरदासजीका ऐसा अद्भुत प्रभाव देखा तो वह सिंहासनसे कूदकर इनके चरणों में गिर पड़ा और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि 'अब आप कृपा करके ईश्वरके कोपसे मुझे बचा लीजिये।' श्रीकबीरदासजीने कहा-'अब कभी भी किसी साधु-सन्तके ऊपर ऐसा गजब न करना।' बादशाहने कहा-'प्रभो ! गाँव, देश तथा अनेक सुख-सुविधाके सभी सामान जो-जो आप चाहें, वह सब मैं आपको दूंगा।' तब आपने उत्तर दिया-हम तो केवल श्रीरामजीको चाहते हैं और उन्हींको अष्ट-प्रहर जपते हैं। दूसरे किसी धनसे हमें कुछ भी प्रयोजन नहीं है, इस प्रकार बादशाहसे सम्मानित होकर आप अपने घर आये।
श्रीकबीरदासजीकी विजयसे वे विरोधी ब्राह्मणलोग अत्यन्त लज्जित हुए। साधुओंसे शाप दिलाकर इन्हें परास्त करनेके विचारसे उन्होंने अपनेमेंसे चार ब्राह्मणोंके सुन्दर वैरागी साधुओंके-से वेष बनाये। उन चारोंको चारों दिशाओंमें भेज दिया। वे लोग दूर-दूरतक गाँवोंमें साधुओंके स्थानों और नामोंको पूछ-पूछकर सब जगह सबको न्यौता दे आये कि अमुक दिन श्रीकबीरदासजीके यहाँ भण्डारा है, वस्त्र और दक्षिणाका भी प्रबन्ध है, आप पधारें । भण्डारा सुनकर अगणित साधु-सन्त श्रीकबीरदासजीके यहाँ आये। तब आप घरसे अलग कहीं दूर जाकर छिप गये। अपने भक्तकी प्रतिष्ठा रखनेके लिये भगवान् स्वयं श्रीकबीरदासजीका रूप धारण करके आ गये और भण्डारेका प्रबन्ध करने लगे। बड़ी-बड़ी पंगतें बैठ गयीं। अब कबीरदासजी भी आकर इन्हींमें मिल गये। भगवान्ने खिला-पिलाकर और दान-सम्मानसे सभी साधु-सन्तोंको तथा श्रीकबीरदासजीको भी अच्छी प्रकारसे प्रसन्न किया।
(5) भगवान्का कबीरदासजीको दर्शन देना: श्रीकबीरदासजीको मोहित करनेके लिये स्वर्गलोकसे एक अप्सरा सुन्दर वेश-भूषा बनाकर आयी। लेकिन इनके हृदयमें दृढ़ भक्तिभावको देखकर वह वापस चली गयी; क्योंकि उसकी लाग नहीं लगी। श्रीकबीरदासजीके सम्मुख आकर भगवान्ने अपना चतुर्भुज रूप प्रकट कर दिया। उसका दर्शन करके इनके नेत्र सफल हो गये। ऐसे परम सौभाग्यशाली सन्त श्रीकबीरदासजी थे। भगवान्ने अपना करकमल इनके मस्तकपर रखकर कहा-तुम धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि मेरे नाम-रूपादिमें पग गयी है। अपनी इच्छानुसार जबतक चाहो, इस मर्त्यलोकमें रहो और मेरे गुणोंका गान करो। उसके बाद अपने इस शरीरके सहित मेरे परमधाम वैकुण्ठमें चले आना। मगहरमें जाकर आपने भगवद्भक्तिका प्रताप दिखाया। भक्तिका प्रचार किया। अन्त समयमें आपने बहुत-से पुष्प मँगाये, उन्हें बिछाकर लेट गये और भगवान्से जा मिले।