The brutal conspiracy of the civilized society to drive out the tribals from the forests - review books and stories free download online pdf in Hindi

नृशंस सभ्य समाज की जंगलों से आदिवासियों को खदेड़ने की साज़िश - समीक्षा

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

उस दिन मुम्बई के अपने घर में उपन्यास 'कालचिती को पढ़कर आदिवासियों की हालत जान कर दिल दहल रहा था। मैं किसी ज़रूरी काम से सड़क तक आ गई थी, ख़ामख़्याली में ये पुस्तक साथ में आ गई थी. अचानक मेरी नज़र में सड़क पार के बड़े'आर -सिटी मॉल' पर गई, अपने हाथ के शेखर मल्लिक के उपन्यास 'कालचिती ' की पुस्तक पर गई, सच मानिये मेरा हाथ में बुरी तरह झुरझुरी होने लगी थी ।--- पीछे की आलीशान बिल्डिंग, सामने भव्य मॉल, सामने सड़क पर दौड़ती उम्दा गाड़ियां और जंगल में रहने वाली उस दुनिया को अपने हाथ में ले आईं हूँ जिसके बाशिंदों का जीवन ज़हर से, भरकर भरकर उन्हें अपनी ज़मीन छोड़ने को मजबूर किया जाता है। जिन्हें बन्दूक उठाकर नक्स्लाइट्स बनने पर मजबूर किया जाता है। आदिवासियों की ज़मीनें, जमा पूंजी जबरन छीनीं जातीं हैं, पुलिस, फौज़ीयों की मिल्कियत हैं आदिवासी स्त्रियां --सब तो हम लोग जानते ही हैं.

किसी ने एक बार फ़ोन पर पूछा था कि आप आदिवासी समस्यायों पर क्यों नहीं लिखतीं ? मेरा उत्त्तर था, ''हम लोगों को प्रामाणिक जानकारी कहाँ होती है ? मैंने गुजरात में श्री हरिवल्ल्भ पारिख का आदिवासी आश्रम देखा है, जहाँ लोक अदालत का जन्म हुआ था या फिर यहां के रंगारंग आदिवासी मेले देखें हैं जैसे तर्णेतर का मेला या छोटा उदईपुर का नवरात्रि का मेला। इन्हीं पर लिखा है. हम निर्मला पुतुल जैसे प्रामाणिकता से कैसे लिख सकते हैं ? ''

' कालचिती 'उपन्यास से गुज़रना या उस पर कुछ लिखना उसी प्रामाणिकता को तलाशने की, एक बेहद तकलीफ़ भरी सुरंग से गुज़रने की कोशिश है। इस उपन्यास के पांच खंड हैं -'कालचिती ;एक अनैतिक समय में, 'कालचिती में महुआ -बॉस, बांस और बाशिंदे ;कालचिती कथा का मध्यांश, कालचिती में कहर---, कालचिती में उसी अनर्गल वक्त के दौरान --, उपसंहार। शेखर मल्लिक जिन्हें अपनी कहानी 'अस्वीकार 'के लिए सन 2010 मे हंस -प्रेमचंद कथा प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार मिला था। इनके विषय में राजेंद्र यादव जी ने लिखा था कि शेखर ने मुझे लिखा है कि प्रतियोगिता के लिए मैं कहानी हस्तलिखित भेज रहा हूँ क्योंकि मैं जहाँ रह रहा हूँ वहां टाइप की सुविधा नहीं है। ये उपन्यास उस लेखक का है जिसने इस कहानी में बलत्कृत नारी के माध्यम से बहुत बड़ा सन्देश दिया था, ''वे कामन्ध मेरा सम्मान मुझसे छीन नहीं सकते। मेरी ज़िंदगी उन बीस मिनटों के कारण बदल या ख़त्म नहीं हो सकती। ''

सरकार के साथ उद्द्योगपतियों, माफ़िया, बिचौलियों व दलालों के लूटतंत्र का शिकार हैं ये आदिवासी। वातानुकूलित ऑफ़िसों से निकले इनके लिए वक्तव्यों को मीडिया उछालता है। या कोई चित्रकार या फ़ोटोग्राफ़र आदिवासी स्त्री की सुंदरता को भुनाता है. इधर के वर्षों में पर्यटक स्थल इसी संस्कृति को एनकैश करने में लगें हैं। तो नया क्या बता पायेगा ये उपन्यास ? इसी सब कुछ की किर्च किर्च सीने को चीरती सच्चाई है ये उपन्यास। बहुत बड़ी तकलीफ़ है ये कि जंगलों को साफ़ कर उन पर की गई प्रगति डैम या उद्द्योग हमारे जैसे कितने ही इंसानों के आंसुओं व दर्द पर उन्हें निरीह जानवरों की रेवड़ की तरह जिन्हें उनकी ही ज़मीनों से खदेड़ कर होती है।

क्या है लोकतंत्र की पुलिस द्वारा किसी गरीब को नक्सली बताकर उसकी झोपड़ी में घुसकर उसे तहस नहस कर लूट ले जाना।जो हमें बरसों से पता है -- आदिवासी स्त्री की दुर्दशा को इस उपन्यास के कुछ दृश्यों में शब्दों के लहूलुहान चित्रों से देखना -- पूछताछ के बहाने उन्हें किस तरह उन्हें सबके सामने निर्वस्त्र कर अपमानित किया जाता है--- किस तरह उन पर अमानुषिक व सामूहिक बलात्कार होता है और बन्दूक कुण्डों से ---. क्या होता है एक गाँव का उजड़ जाना और क्यों बन जाते हैं कुछ लोग नक्ससलाइट्स।

ये उपन्यास पश्चिमी बंगाल व झारखंड की सीमा पर स्थित घाटशिला कस्बे के गाँव 'कालचिती 'के माध्यम से कटु सत्य उकेरता चलता है। उपन्यास का नायक आभीर एक स्कूल का मास्टर है, साहित्य को गंभीरता से पढ़ने वाला। कालचिती की एक विधवा जमुना मुंडा के बेटे बीरेन को पढ़ाता है.पता नहीं किस तरह ये मित्रता सघनता में बदल गई है। सरकारी डिस्पेंसरी के डॉक्टर सिद्धार्थ सहित इन तीनों की निकटता है। जमुना एक देवर व ससुर सहित आम आदिवासी परिवार की तरह अपनी बाँसवाड़ी के बांसों से टोकरी, डाला, सूप, चटाई, टूपा, मोड़ा, टाटर, टाला आदि बनाकर उसे हाट में या सड़क किनारे बैठकर बेचने का काम करता है। जमुना जिसका पति हरेन 'जय बिरसा मुंडा 'बोलता था। बन्दूक, तीर व झंडा किसी से नहीं डरता था लेकिन टाना भगत, सिद्धो-कान्हू, बिरसा मुंडा की तरह अपने लोगों के लिए लड़ने के लिए मार दिया गया। एक बन्दूक की गोली उसके सीन जा धँसी।

सारी आपदाओं को झेलते हुए गाँव के साथ प्रकृति की उपासना करते त्योहारों को बहुत उत्साह से मनाता है -जैसे कर्मा परब, माघे परब।कर्मा परब का बहुत मनोहर वर्णन है --'जंगल जाकर कर्म -गाछ की डाली को दो कुंवारे लड़कों को लाना था. इसके लिए दल जंगल जा रहा था बजते मादल का उन्माद, शोर --औरतें कर्मा गीत जाती जा रहीं थीं। पाहन आगे आगे सूप में सफ़ेद काठचम्पा, सिन्दूर, अरवा, चावल, पत्ते की खाला [दोने ] में दिया बत्ती, मिठाई, अंडा, कच्चा दूध ले जा रहा था। '

जंगलों के झुरमुट, पेड़ों, झरनों के बीच और ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियों के बीच अपनी दुनिया में हँसते खुशी मनाते ये लोकगीत कब चीखों में, रुदाली में बदल जाएँ, पता नहीं। जंगलों में जब जब पुलिस केम्प लगता है --लड़कियां गायब होनी शुरू हो जातीं हैं।

आरम्भ में दिल दहलाने वाले वे दृश्य हैं जब बार बार जमुना से आभीर के गायब होने पर पूछताछ करने पुलिस आती है, एस पी साथ हैं । दरवाज़ा खोला नहीं जाता तो उसे तोड़कर अंदर घुस आती है। उसकी कमर, गर्दन और--को मसल मसलकर प्रश्न पूछे जाते हैं। साली --हरामज़ादी --छेद -- गुदा --भरभूर शब्द हैं। उसे घसीटकर झाड़ियों में ले जाकर तीन चार टॉर्च की रोशनियों में सामूहिक बलात्कार होता है। उसे घायल करके यहीं छोड़ दिया जाता है। हुआ ये है कि सुबह पटमदा के आमदा पाहडी कच्चे रास्ते पर कॉम्बिंग अभियान से लौटते हुए फ़ौज़ी टुकड़ी का एक एंटी लेंडमाइन वाहन लैंडमाइन के चपेट मी आ गया है। वाहन समेत छह;फाज़ियों के शरीर के परखच्चे जंगल में छितरा गए हैं..दृश्य देखिये --- 'गढ्ढे में गाड़ी के लौह, रबर, शीशे के टुकड़ों के जैसा मानव देहों का मलबा है। 'तो पूछताछ पहले जमुना से होनी है क्योंकिआभीर गायब है और पूछने पर कुछ न बता पाने पर इनके पास वही 'सज़ा ' है। चाहे जेल में डाले आभीर के स्कूल के आदिवासी चपरासी प्रवीण की पत्नी बाहमनी हो, वह भी तो स्त्री देह है जंगल में मंगल करने के लिए।

लेखक के शब्दों में --'कालचिती में गूंगा अन्धेरा कराहने लगा ---.'

डॉ. सिद्धार्थ जैसे समर्पित डॉक्टर क्या करें यहां की डिस्पेंसरी में सभी दवाईयां आतीं हीं नहीं हैं, यदि आती भी हैं तो अक्सर उनमें एक्सपायरी डेट होती है.स्कूल्स में कीड़े लगे अनाज का खाना खाकर बच्चे बीमार हो जाएँ तो उन्हें ठीक करने के लिए सही दवाइयां नहीं हैं। ये दोनों बातें मीडिया से छिपाकर भी रखनी है। नहीं तो उस क्षेत्र के नेताओं की इज़्ज़त का क्या होगा क्योंकि ये सरकारी स्कूल्स हैं ?लोग तपेदिक, मलेरिया या ड़ेंगू से मरते रहें तो क्या ?

लेखक के शब्दों में एक बड़ा सनातन सत्य है, 'यह पीढ़ियों से हस्तांतरित होती सतत विरासत है। किसानी, पहाड़ी, वनजीवी मुंडा जाति ही क्यों, हर आदिम जाति के पास अस्तित्व का आधार ही है ये ज़मीन ' इसलिए सिंगूर से टाटा को अपना मुंह लेकर लौटना ही पड़ा था लेकिन क्यों कोई ग्रामवासी या आदिवासी अपनी ही ज़मीन के लिए अपना ख़ून बहाये ?और वो भी ऐसे औद्योगीकरण के लिए जो ज़मीन का स्थान नहीं ले सकता। ज़मीन -जो पीढ़ी दर पीढ़ी पेट भरने में समर्थ है।बरसों पहले इस बात को बहुत सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया था 'हंस 'में प्रकाशित कहानी प्रहलाद दास की 'धोखा 'जिसमें गांव वाले लालच में अपनी ज़मीनें मुम्बई के उद्द्योगपतियों की फ़ैक्ट्रीज़ को बेच देते हैं व उसमें नौकरी करने लगतें हैं लेकिन वह अचनाक बंद हो जाती है। ग़नीमत ये है कि यहां के लोगों को कम से कम नौकरी तो मिली थी लेकिन दमन या कुछ और जगह फ़ैक्ट्री के लिए ज़मीन बेचने वाले अपना पैसा पानी में बहा देतें हैं। कोई व्यापार करने के स्थान पर उस पैसे से बाइक खरींदेंगे, दारू पीकर बाकी पैसा उड़ा देंगे। अगस्त सन २०१८ में झारखंड के ही बी जे पी सांसद रामटहल चौधरी के ताज़ातरीन बयान के अनुसार आदिवासी सरकार की स्कीम से मिले पैसे से रेडियो ख़रीदेगा फिर दारू के नशे में उसे तोड़ डालेगा यह बार बार करता है। इस बयान को लोग विवादास्पद बता रहे हैं लेकिन जगह जगह ये हो भी रहा है- नई रईसी को पचाना शायद नहीं आता आदिवासियों को।

'फाँस 'में संजीव जी ने बहुत गहन शोध के बाद महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या के कारणों को बहुत सशक्त ढंग से रेखांकित किया था।शेखर मल्लिक का 'कालचिती 'सफ़ेदपोशों या सभ्य समाज का जंगलों में से आदिवासियों को खदेड़ देने की भरपूर साज़िश की परत दर परत खोलकर खुलासा करता है।ये दोनों उपन्यास हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद किसानों या आदिवासियों के लिए सरकार कुछ ठोस क्यों नहीं कर पाई ? आज भी क्यों भूख से बेहाल होकर अपने हक़ के लिए लड़ता है कोई आदिवासी ? ''हंस 'में प्रकशित कमलेश की कहानी 'पत्थलगड़ी ' [आदिवासियों का सरकारी आदमियों, पुलिस वालों, फोजियों पर या उनकी गाड़ियों पर पत्थर फेंकना ] बरसों अपने पिता की पत्थलगड़ी से नफ़रत करता बेटा सरकारी आताताइयों से तंग आकर स्वयं उन पर पत्थर फेंकने लगता है। ऐसा क्यों होता है?इसी प्रश्न का दस्तावेज है ये उपन्यास।

एक कम्पनी की दृष्टि यहां के अयस्क पर है। उसके कुछ लोग यंत्र लेकर खेतों में नाप जोख करने लगते हैं। तीन चार महीने बाद वे फिर आते हैं और कैद कर लिए जातें हैं। डॉ.सिद्धार्थ बतातें हैं '', मास्टर !इस गाँव में पहली बार हो रहा है.इतने वर्षों से यहां शांति थी। क्यों कोई अपनी ज़मीन देगा ?--'

आभीर, प्रवीण व डॉ तीनों इस जगह आतें हैं जहां ये बंधक रक्खे गए हैं। इस मामले में पूरा गाँव एक है । आभीर के सुझाव पर एक प्रार्थना पत्र सरकार को देने की बात होती है। दूसरे दिन भी ये जाकर देखते हैं गाँव वाले यहां उन बंधकों को घेरे डंडा, कुल्हाड़ी, टांगी, फरसा, लाठी लिए खड़े हैं। प्रवीण भी पारम्परिक पोशाक में सबके साथ खड़ा है. लडकियां औरतें पाली बदलकर तीर कमान लिए खड़ीं रहतीं हैं। इस क्षेत्र में रांची के आस पास रहनेवाली छितामुनी का बहुत नाम है क्योंकि वे ज़मीन को बचाने के चक्कर में दो बार जेल जा चुकीं हैं। वे इस विरोध का नेतृत्व करने यहां आ चुकीं हैं।

इन्हें सब प्यार से मारांग दाई [बड़ी दीदी ] कहते हैं। वे सबको एकजुट होने पर भाषण दे रहीं हैं। तभी पुलिस दल की दो जीपें, एक लारी, एक एंटी लैंडमाइन वाहन, कार, मोटर सायकल, अफ़सर व सरकार के पीछे दुमछल्ले से लगे दो चार पत्रकार आ धमकाते हैं। दोनों तरफ़ की बहुत कहा सुनी के बाद अनुमंडल पदाधिकारी आखिरी बार ज़ोर लगाकर कहते हैं कि धारा १४४ लगी हुई है। आप लोगों से अपील करते हैं कि क़ानून नहीं तोड़ें नहीं तो वे इन्हें गिरफ़्तार कर सकते हैं। बंधक अपने ऑफ़िसर्स को देखकर रो रहे हैं। छितामुनी चिल्ला रहीं है कि वे ज़बरदस्ती उनसे ज़मीन नहीं ले सकते। 'फ़ायर 'काआदेश सुने बिना कोई गोली चला देता है।भयंकर अफ़रा तफ़री मच जाती है बच्चे, बूढ़े, औरतें पुरुष जहां मुंह उठता है भाग लेते हैं। बंधक छुड़ा लिया जाते हैं। तीन लाशें वहां पड़ीं हैं, जहाँ बंधक थे. बांस, बागान, शाल, केंदु, जंगल वनस्पति पर पड़े हैं निर्दोष इंसानों के रक्त के छींटे। बाद में डॉ. प्रश्न करते हैं, ''द स्टेट मशीनरी इज़ कमीटिंग क्राइम अगेंस्ट इंडीजीनियस पीपुल। इज़ दिस टु बी कन्टीन्यूड ?'

प्रवीण एक आदमी को सम्भालता है जिसके पेट को छूती गोली निकल गई है, अपने गमछे को बाँधकर खून रोकने की कोशिश करता है व छितामुनी को बचाता एक जगह छिप जाता है लेकिन सर्च ऑपरेशन में दोनों पकड़ कर जेल डाल दिए जातें हैं। --कहने की ज़रुरत नहीं है फिर शुरू होता है अफ़सरों की लीपा पोती व दलों की राजनीति। बी.ए. पास स्कूल का चपरासी प्रवीण जिसने ये नौकरी पाने के लिए अपनी ज़मीन का हिंसा बेचकर आयो [माँ ]बाबा को नाराज़ किया था। जेल में रातों रात सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करने, हथियार रखने के इल्ज़ाम में नक्सलवादी प्रमाणित कर दिया जाता है। मार मार कर कागज़ पर हस्ताक्षर ले लिए जाते हैं।

आभीर को पता लगता है कि अकेला प्रवीण ही नहीं है --राज्य के हज़ारोंआदिवासी युवक जेलों में बंद हैं, नक्सलियों के मुखबिर, सहायक या खुद नक्सली होने के आरोप में । आरोप सिद्ध नहीं होते लेकिन फिर भी ये जेल में घर से दूर सालों सड़ते रहतें हैं। लेखक के अनुसार इस ज़मीन का सच जानना है तो आकर ये देखो कि भूमि अधिग्रहण और खून में नहाया अधिग्रहण विरोधी जनसंघर्ष, हरियाली में छिटके खून के छींटों के बीच मार्च करती फ़ौजें। मृतकों के फ़ाइल फ़ोटोज़, विलाप करते परिवारीजन--सत्ताधारी मनुष्य के लालच और क्रूरता की क्रूरतम अभिव्यक्ति।

और इस क्षेत्र का शिक्षा विकास ? आभीर का स्कूल बंद है। वह सशस्त्र सुरक्षा बलों के अस्थायी केम्प में बदल चुका है।

ऐसे कांडों के बाद मुसीबत आती है सारे गाँवों की, कहर टूट पड़ता है -- ' नक्सली पालते हो?' --'उन्हें खाना पहुंचाते हो ?'--'-साले नक्सलियों को छिपाकर रखते हो ?'---फौज़ियों के बूटों की आवाज़ें, हथियार लादे ट्रक, गोलियों या विस्फोटों की आवाज़ें -----अपना ख़ौफ़ ये सब आदिवासियों के दिमाग मे बिठा देना चाहतें हैं इनके शरीर पर बने गुदनों की तरह किसी के घर में तलाशी के नाम पर कोने में छिपाए संदूक में सूअर को बेचकर कमाए रूपये छीन लिए जातें हैं। प्रवीण की पत्नी बहामनी तो लुटेरों की जागीर ही बन गई है प्रवीण के लिए पूछताछ के बहाने जब तब झिंझोड़ने के लिए. जमुना कराहकर चीख उठती है, ''मास्टर जी !बिना मर्द वाला घर में क्या खोजने आता है सिपाही ?''

--------और यहां से लडकियां भी गायब होने लगीं है। चौदह पंद्रह बरस की बेला व बाहा दबी सहमी सी मेमने की तरह थाने में पड़ी सामूहिक रूप से लुटती रहतीं हैं। इनसे प्रश्न पूछा जाता है, ''किस नक्सली नेता के बगलगीर रहती है ?''

इनकी आयो व बाबा यहां पूछताछ के लिए आते हैं तो उन्हें झूठ बताया जाता है कि इनके पास हथियार, पोस्टर्स और काग़ज़ बरामद हुए हैं। इन्हें जेल भेज दिया है। 'कालचिती 'में वह दृश्य देखने लायक है जब इन दो कबूतरी सी सहमी लड़कियों को कोर्ट लाया जाता है तो किस तरह अचानक ये दोनों एक लड़के के साथ तेज़ी से भागकर दीवार फलाँगकर नक्सलियों से जा मिलतीं हैं।

आभीर भी जब बेला के बुलाने पर कुछ नक्सलियों से छिपकर मिलने जाता है तो इस 'मोस्ट वांटेड 'विद्रोही बेला का आत्ममविश्वासी रूप देखकर गश खा जाता है। ये दल झूठे आरोप में फंसाये यहां के लोगों को बचाना चाहता है, अपनी ज़मीन बचना चाहता है ।इनके घर लौटकर जाने के रास्ते बंद हो चुके हैं क्योंकि बन्दूक वालों को एनकाउंटर करने का बहाना मिल जाएगा। इनका क्या ठिकाना. एक केन्दु चुनते बच्चे पर ही फायरिंग कर डाली थी। बदले की आग में लैंडमाइन द्वारा सात फ़ौजी जवानों के परखच्चे उड़ गए -ऐसा समाचार अख़बार में सुर्खी पा जाता है.

चार समाज सेविकाएं कालचिती में सर्वे करने आईं हैं ---लोग डरकर भाग गए हैं। लोकतंत्र पर विश्वास  करने वाला, साहित्य प्रेमी एक साधारण शिक्षक आभीर बंदूक न उठाकर भी इनकी लड़ाई से जुड़कर इनके हक़ के हल की खोज करने गायब हो जाता है। सारा गाँव उजाड़ पड़ा है। वे खोजती रह जातीं हैं मनुष्यों को --वैसे तो सब कुछ है --उदास पेड़, घास, पौधे, जंगल के झुरमुट। यहां बचे है टीका मांझी, एक बूढ़ी, चाईबासा व घाटशिला से भागकर आये जमुना के परिवारजन। बीरेन, ससुर सुगेन के साथ है दो बंजर, बलत्कृत निर्जीव औरतें जमुना व बहामानी।–

--इन सबके बीच एक फौजी जीप गुज़र रही है.एक नंग धड़ंग बच्चा उसके सामने आकर, अपनी जान जोखिम में डालकर उसे रोकने की कोशिश करता है व मूलवासी ड्राइवर को संथाली में बताता है आगे की पुलिया के नीचे बम लगाया हुआ है। जब उसे सब धन्यवाद देतें है तो वह मासूमियत से इन्हें इंसानियत का पाठ पढ़ाता है, ''सबका जान बराबर है तो धन्यवाद क्यों ?''

जी, मुझसे बिल्कुल नहीं होगा, मेरे पास शब्द ही नहीं हैं, कलम अपराध बोध से थरथरा रही है, थाने में जमुना को बुलाकर लम्बी निर्लज्ज, निर्वस्त्र पूछताछ का वर्णन करुं। ये तो आपको खुद पढ़कर जानना होगा कि औरत को देवी माने जाने वाले इस देश में एक आदिवासी स्त्री के साथ पूछताछ के बहाने क्या क्या हो सकता है ? गाँव के गांव खाली करवाने के लिए क्या कुकृत्य किया जाता है, ये आप ही पढ़िए इस उपन्यास के अंत में।

इन तमाम बारूदों के विस्फ़ोटो के बीच आदिवासियों की उत्सव प्रियता, स्त्रियों के लोकगीत सुमधुर रुन झुन से बजते रहतें हैं.गाँव के लोग बंधकों को घेरे बैठे हैं और पास की झोंपड़ी की स्त्रियाँ मूँज की झाड़ू बनाती अपनी भाषा में गीत गा रहीं हैं जैसे तूफ़ान में कोई चिड़िया गाती हो. संक्रांति व टुसू त्योहारों की महक है जिसमें औरतें गाती जातीं हैं, नृत्य करतीं है ;

''तोके के दिल हो साड़ी ऐमोन, के दिल हो साड़ी एमोन ---'.

उपन्यास के आरम्भ में अल्बेयर कामू के एक कथन को देकर -'रिबेलियन केन नॉट एग्ज़िस्ट विदाउट अ स्ट्रेंज फॉर्म ऑफ़ अ लव 'यानि प्रेम की अद्भुत उपस्थिति के बिना क्रांति सम्भव नहीं है। 'बहुत सुंदरता से आभीर व जमुना के बीच के सुरीले रिश्ते का संकेत दिया है। इसमें जगह जगह स्थानीय भाषा का प्रयोग करके इसे बहुत प्रामणिक बना दिया है.शेखर की कटीली भाषा, उनके कोंचते प्रश्न, सच में आदिवासियों की मर्मान्तक स्थित पर सोचने पर मजबूर कर देती है । बस इस उपन्यास से शिकायत है कि संजीव जी के 'फांस 'की तरह लेखक आदिवासियों के धार्मिक अंधविश्वास के कारण उनके शोषण के वर्णन से क्यों चूक गए ?

रोज़ रोज़ अत्याचारों में पिसने से तो अच्छा है ठौरहीन शहर में पनाह लेना, किसी बनती इमारत का ईंट गारा ढोना। और रात में अलाव तापते किताबों के घड़ियाली आंसुओं में अंकित हो जाना कि बिचारे बेघर लोगों ने शानदार इमारत बनाने में योगदान दिया। यही नियति है घाटशिला के ‘कालचिती’ की. इन विषम परिस्थिति मे जीते आदिवासियों के इस जीवन वर्णन से सरकारी हाकिमों की ऑंखें क्या खुल पाएंगी या आदिवासी संथाल, मुंडा -हो-बिरहोर -भूमिज -सब --बचे रहने की शाश्वत लड़ाई लड़ते आएं हैं -- लड़ते ही रहेंगे ? –

अगस्त सन २०१८ में झारखंड के ही बी जे पी सांसद रामटहल चौधरी के ताज़ातरीन बयान के अनुसार आदिवासी सरकार की स्कीम से मिले पैसे से रेडियो ख़रीदेगा फिर दारू के नशे में उसे तोड़ डालेगा यह बार बार करता है। इस बयान को लोग विवादास्पद बता रहे हैं लेकिन जगह जगह ये हो भी रहा है- नई रईसी को पचाना शायद नहीं आता आदिवासियों को।

क्या कभी बहुमंजली इमारतों व जंगलों में रहने वालों के लोकतांत्रिक अधिकार कभी एक होंगे। क्या कभी शहरियों की, मीडिया की चिंताएं मध्यम वर्गीय हितों जैसे पे कमीशन, मंहगाई, घोटाले, सेवानिवृत्ति की उम्र, सार्वजनकि स्थानों पर सुविधाओं की चिंता के साथ इन जनजातियों के संघर्ष का भी पक्ष लेंगी ? ये बहुत बड़ा प्रश्न उपन्यास आभीर के माध्यम से उठाता है, ''ये झूठा लोकतंत्र है। सामंती राज और औपनिवेशिक राज के चरित्र से ये तंत्र और व्यवस्था मुक्त कहाँ है ? इसे ना गांधी का 'स्वराज मॉडल 'कह सकते, ना भगत सिंह के सपनों का आज़ाद भारत। ''

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पुस्तक-'कालचिती 'उपन्यास

लेखक --शेखर मल्लिक

प्रकाशक -किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली।

मूल्य --३५० रु।

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail---kneeli@reddiffmail.com

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