द्रोणाचार्यको गुरुदक्षिणा देनेके लिये अर्जुनने द्रुपदको पराजित कर दिया। यद्यपि आचार्य द्रोणने द्रुपदको पाशमुक्त करके केवल आधा राज्य लेकर मित्र बना लिया, परंतु वे इस अपमानको भूल न सके। द्रुपदने द्रोणसे बदला लेनेके लिये यज्ञ करके संतान प्राप्तिका निश्चय किया। कल्माषी नगरीके तपस्वी, वेदज्ञ ब्राह्मण उपयाजकी उन्होंने अर्चना की। उनको प्रसन्न करके प्रार्थना की कि द्रोणको मारनेवाले पुत्रकी मुझे प्राप्ति हो, ऐसा यज्ञ करायें। उपयाजने प्रार्थना अस्वीकार कर दी। महाराजने पुनः एक वर्ष सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन विप्रदेवने कहा—'मैंने अपने अग्रजको भूमिमें पड़ा पका फल उठाकर ग्रहण करते एक बार देखा है। मैंने इससे समझा है कि वे द्रव्यकी शुद्धि-अशुद्धिका विचार नहीं करते। आप उनसे प्रार्थना करें।
महाराज द्रुपदने उनके अग्रज याजको सेवासे प्रसन्न किया। दस करोड़ गायोंकी दक्षिणाका प्रलोभन थोड़ा नहीं था। याजने महाराजके नगर में आकर सविधि यज्ञ कराया। यज्ञकी पूर्णाहुतिके समय उससे मुकुट, कुण्डल, कवच, त्रोण तथा धनुष धारण किये एक कुमार प्रकट हुआ। इस कुमारका नाम याजने धृष्टद्युम्न रखा। महाभारतके युद्धमें पाण्डवपक्षका पूरे युद्धमें यही कुमार सेनापति रहा। यज्ञकुण्डसे एक कुमारी भी प्रकट हुई। वह युवती थी। उसका वर्ण श्याम था। उसके समान रूपवती दूसरी स्त्री हो नहीं सकती। उसके शरीरसे प्रफुल्ल नील कमलकी गन्ध निकलकर कोसभरतक दिशाओंको सुरभित कर रही थी। वर्णके कारण याजने उसका नाम 'कृष्णा’ रखा। इस रूपमें ऋषिकुमारी गुणवती अग्निवेदीसे प्रकट हुई थीं और महाकालीने अंशरूपसे क्षत्रिय-विनाशके लिये उनमें प्रवेश किया था। महाराज द्रुपदकी महारानीने याजसे प्रार्थना की कि ये दोनों मुझे ही माता समझे और याजने—‘एवमस्तु’ कह दिया।
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एकचक्रा नगरीमें ही पाण्डवोंको अपने आश्रयदाता ब्राह्मणसे ज्ञात हो गया कि महाराज द्रुपद अपनी पुत्रीका स्वयंवर कर रहे हैं। भगवान् व्यासने आकर आदेश दिया और उसे स्वीकारकर पाण्डव ब्राह्मणवेषमें पांचाल पहुँचे। वहाँ वे एक कुम्हारके घर ठहरे। स्वयंवर-सभामें भी वे ब्राह्मणोंके साथ बैठे। उनके वेष ब्राह्मणोंके समान थे। महाराज द्रुपदने सभाभवनमें ऊपर एक यन्त्र बना रखा था। यन्त्र घूमता रहता था। उसके मध्यमें एक मत्स्य बना था। नीचे तैलपूर्ण कड़ाह था। तैलमें छाया देखते हुए घूमते चक्रके मध्यस्थ मत्स्यको पाँच बाणोंसे मारना था। जो ऐसा कर सके, उसीसे द्रौपदीके विवाहकी घोषणा थी। इस कार्यके लिये जो सुदीर्घ धनुष रखा था, वह इतना कठोर और भारी था कि बहुत-से राजा तो उसे उठानेमें ही असमर्थ हो गये। जरासन्ध, शिशुपाल, शल्य उसपर ज्या चढ़ानेके प्रयत्नमें दूर गिर पड़े। केवल कर्णने धनुष चढ़ाया। वह बाण मारने ही जा रहा था कि द्रौपदीने पुकारकर कहा—‘मैं सूतपुत्रका वरण नहीं करूंगी। अपमानसे तिलमिलाकर सूर्यकी ओर देखते हुए कर्णने धनुष रख दिया।
राजाओंके निराश होनेपर अर्जुन उठे। उन्हें ब्राह्मण जानकर विप्रवर्गने प्रसन्नता प्रकट की। धनुष चढ़ाकर अर्जुनने मत्स्यवेध किया। द्रौपदीने जयमाल डाली। राजाओंने एक ब्राह्मणसे द्रौपदीका विवाह होते देख द्रुपद और पाण्डवोंपर आक्रमण कर दिया। अर्जुनने धनुष चढ़ा लिया। एक वृक्ष लेकर भीमसेन टूट पड़े। अर्जुनसे युद्ध करके कर्णने शीघ्र समझ लिया कि वे अजेय हैं। उन्हें ब्राह्मण समझकर वह युद्धसे हट गया। उधर भीमने शल्यको दे पटका। इससे सभी नरेश युद्धसे पृथक् होने लगे। श्रीकृष्णने पाण्डवोंको पहचान लिया था। अतः उन्होंने समझा-बुझाकर राजाओंको शान्त कर दिया।
‘मा! हम एक भिक्षा लाये हैं।’ द्रौपदीको लेकर घर पहुँचनेपर अर्जुनने कहा।
‘पाँचों भाई उसे बाँट लो।’ बिना देखे ही घरमेंसे माता कुन्तीने कह दिया।
कुन्तीने बाहर आकर द्रौपदीको देखा तो बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे युधिष्ठिरसे अनुनय करने लगीं। ‘मैंने कभी मिथ्याभाषण नहीं किया है। मेरे इस वचनने मुझे धर्मसंकटमें डाल दिया। बेटा! मुझे अधर्मसे बचा।’
‘धर्मपूर्वक तुमने पांचालीको प्राप्त किया है, अतः तुम इससे विवाह करो।’ धर्मराजने अर्जुनसे कहा।
‘बड़े भाईके अविवाहित रहते छोटे भाईका विवाह करना अधर्म है। आप मुझे अधर्म में प्रेरित न करें। द्रौपदीके साथ आपका विवाह ही उचित है। अर्जुनने नम्रतापूर्वक प्रतिवाद किया। युधिष्ठिरने देखा कि सभी भाई द्रौपदीके अलौकिक सौन्दर्यपर मुग्ध हैं। सभी उसे प्राप्त करना चाहते हैं। उन्होंने कहा—‘माताके सत्यकी रक्षाके लिये हम पाँचों भाई इससे विवाह करेंगे। यह महाभागा हम सबकी समान रूपसे पत्नी होगी।'
श्रीकृष्णने आकर पाण्डवोंसे साक्षात् किया और उनसे सत्कृत होकर द्वारका गये। महाराज द्रुपदने पाण्डवोंके पीछे-पीछे धृष्टद्युम्नको भेजा था, उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये। धृष्टद्युम्नने गुप्तरूपसे निरीक्षण करके लौटकर पितासे बताया कि लक्षणोंसे वे पाँचों भाई शूरवीर क्षत्रिय जान पड़ते हैं। महाराजके आमन्त्रणपर माताके साथ पाँचों भाई राजसदन गये। महाराजने उनका विविध प्रकारसे सत्कार किया। वे परिचय पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनकी चिर अभिलाषा कि उनकी कन्या अर्जुनको प्राप्त हो, पूर्ण जो हुई थी। द्रौपदी पाँचों भाइयोंकी पत्नी हो, यह एक धर्म और समाजके विरुद्ध बात थी, जो किसी प्रकार द्रुपदको स्वीकार नहीं थी। भगवान् व्यासने आकर द्रौपदीके पूर्वजन्मका चरित बताकर समझाया। महाराज द्रुपदने स्वीकार किया। विधिपूर्वक क्रमशः एक-एक दिन पाँचों भाइयोंने पांचालीका पाणिग्रहण किया।
चरों द्वारा सभी राजाओं को पता लग चुका था कि लाक्षाभवनसे पाण्डव जीवित निकल गये हैं और द्रुपदराजतनयाका विवाह उन्हींसे हुआ है। कौरवोंने यह समाचार पाकर पहले तो कर्णकी सलाहसे आक्रमण करना चाहा, किंतु द्वारकासे ससैन्य श्रीकृष्ण सहायता कर सकते हैं और राज्य दिलाने आ सकते हैं—भीष्मपितामहके यह समझानेपर धृतराष्ट्रने विदुरको भेजकर सम्मानपूर्वक उन्हें बुला लिया। एक साथ रहनेसे संघर्ष होगा, इस भयसे आधा राज्य देकर युधिष्ठिरकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ बना दी गयी। माता कुन्तीके साथ पाण्डव वहाँ रहने लगे।
देवर्षि नारदने पाण्डवोंको सुन्द-उपसुन्दकी कथा सुनाकर समझाया कि पत्नीके कारण भाइयोंका प्रगाढ़ प्रेम भी शत्रुतामें परिवर्तित हो जाता है। पाण्डवोंने देवर्षिके उपदेशसे यह नियम किया कि प्रत्येक भाई एक पक्षतक द्रौपदीके साथ रहे। एक भाई द्रौपदीके साथ जब अन्त:पुरमें हो और उस समय दूसरा भाई अन्त:पुरमें प्रवेश करे तो वह प्रायश्चित्तस्वरूप बारह वर्ष तीर्थाटन करे। एक बार एक ब्राह्मणकी गौ दस्यु बलात् ले जा रहे थे। रक्षाके लिये ब्राह्मणने पुकार की। गाण्डीव अन्त:पुरमें था और वहाँ धर्मराज द्रौपदीके साथ थे। अर्जुनने गाण्डीव लाकर गौओंकी रक्षा की और नियमभंगके कारण स्वेच्छासे वे बारह वर्ष तीर्थाटन करते रहे।
श्रीप्रियादासजी देवी द्रौपदीका स्मरण करते हुए कहते हैं—
द्रौपदी सती की बात कहै कौन ऐसो पटु बँचत ही पट पट कोटि गुने भये हैं।
द्वारका के नाथ जब बोली तब साथ हुते द्वारका सों फेरि आये भक्त वाणी नये हैं।
गये दुर्वासा ऋषि वन में पठाये नीच धर्म पुत्र बोले विनय आवै पन लये हैं।
भोजन निवारि तिया आइ कही सोच पर्यो चाहै तनु त्याग्यौ कह्यो कृष्ण कहूँ गये हैं॥७१॥
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श्रीकृष्णचन्द्रकी कृपासे महाराज युधिष्ठिरने मयद्वारा निर्मित राजसभा प्राप्त की। दिग्विजय हुई और राजसूय यज्ञ करके वे चक्रवर्ती सम्राट् हो गये। यज्ञ समाप्त हो जानेपर एक दिन दुर्योधन राजसभामें आ रहा था। मयके अद्भुत शिल्पके कारण भ्रान्त होकर उसने स्थलको जल समझा और वस्त्र ऊपर उठा लिये। आगे जलकुण्डको स्थल समझकर बढ़ा जा रहा था कि उसमें गिर पड़ा। सभी वस्त्र भीग गये। भीम तथा द्रौपदीको हँसी आ गयी। दुर्योधनको अत्यन्त अपमानका अनुभव हुआ। वह उलटे पैर लौट गया। अपमानका बदला लेनेके लिये अपने मामा शकुनिसे मन्त्रणा करके उसने धर्मराजको जुआ खेलनेका निमन्त्रण दे दिया। धृतराष्ट्रने जुआ खेलनेकी आज्ञा दे दी। द्यूत प्रारम्भ हुआ। शकुनि पासे फेंक रहा था। कपटपूर्ण पासोंके जालमें धर्मराज हारते गये। धन, गौएँ, राज्य, कोष-सभी हारनेपर जुएके उन्मादमें, अगली बाजी जीतनेकी आशामें वे अपने एक-एक भाइयोंको लगाते गये दाँवपर; अन्तमें अपनेको हार गये। कर्ण, दुर्योधनादिने प्रोत्साहित किया और द्रौपदी दाँवपर लगीं। बाजी तो हारनी थी ही।
दुर्योधनने दूतको आदेश दिया—‘जा और द्रौपदीको यहाँ पकड़ ला। अब वह हमारी दासी है।’ द्रौपदी रजस्वला थीं, यह सुनकर तो उनके दुःखका पार नहीं रहा। दूत उन्हें न ला सका तो दुःशासन बड़े भाईके आदेशसे गया। भागकर गान्धारीके यहाँ जानेपर भी वह दुष्ट उनके राजसूययज्ञके अवभृथ-स्नानसे पवित्र केशोंको पकड़कर घसीटता हुआ राजसभामें ले आया। वे अत्यन्त करुण स्वरसे विलाप कर रही थीं। कर्णने उन्हें अनेक पतियोंकी पत्नी और पण्या कहकर अपमानित किया। पाण्डव मस्तक नीचे किये बैठे थे। द्रौपदीकी पुकार और धिक्कार उनके कान सुननेमें असमर्थ-से थे। 'धर्मराजने पहले अपनेको दाँवपर हारा या मुझे ?
पहले अपनेको दाँवपर हार जानेके पश्चात् मुझे दाँवपर लगानेका उन्हें क्या अधिकार रह गया था?’ बड़े करुणस्वरों में द्रौपदीने सबसे प्रार्थना की। भीष्म, द्रोण, कृप आदि सबने मस्तक झुका लिया था। दुर्योधनद्वारा अपमानित होनेके भयसे सब मौन हो रहे थे।
'दु:शासन ! देखते क्या हो ! इसका वस्त्र उतार लो और निर्वस्त्र करके यहाँ बैठा दो।’ दुर्योधनने अपनी वाम जंघा वस्त्रहीन करके दिखायी। कर्णने स्वयंवर-सभाके अपमानका स्मरण करते हुए व्यंग्य करके दुर्योधनका समर्थन किया। दुःशासनने साड़ीका अंचल पकड़ लिया। अब क्या हो? अबलाकी लज्जा क्या इस प्रकार नष्ट हो जायगी? द्रौपदीने कातर होकर चारों ओर देखा। सबके मस्तक नीचे झुके थे। कर्ण प्रोत्साहन दे रहा था। हाथोंसे वस्त्र दबानेका प्रयत्न व्यर्थ था। अबलाके हाथ कहाँतक उन्हें रोक सकते थे। दस सहस्र हाथियोंके बलवाला दुःशासन साड़ीको खींचने लगा। द्रौपदीने नेत्र बन्द कर लिये। उनसे अश्रुवृष्टि हो रही थी। दोनों हाथ ऊपर उठाकर
उन्होंने पुकारा—
‘हे कृष्ण! हे द्वारकानाथ ! हे करुणावरुणालय! दौड़ो ! कौरवोंके समुद्रमें मेरी लज्जा डूब रही है। रक्षा करो! रक्षा करो !'
द्रौपदीको शरीरका भान भूल गया। दीनबन्धुका वस्त्रावतार हो चुका था। दुःशासन पसीने-पसीने हो रहा था। रंग-बिरंगे वस्त्रोंका पर्वत लग गया था। उस दस हाथकी साड़ीका ओर-छोर नहीं था। सब एकटक आश्चर्यसे देख रहे थे।
‘महाराज! बहुत हो गया ! शीघ्र द्रौपदीको सन्तुष्ट कीजिये। नहीं तो श्रीकृष्णके चक्रके प्रकट होकर आपके पुत्रों को काट डालने में अधिक विलम्ब नहीं जान पड़ता।’ विदुरने अन्धे राजा धृतराष्ट्रको पूरा वर्णन सुनाया। धृतराष्ट्र भयसे काँप गये। उन्होंने प्रेमसे द्रौपदीको समीप बुलाया। पुत्रों के अपराधके लिये क्षमायाचना की। पाण्डवोंको द्रौपदीके साथ दासत्वसे मुक्त करके हारा हुआ राज्य तथा धन लौटा दिया।
‘जो हार जाय, वह भाइयों तथा स्त्रीके साथ बारह वर्ष वनमें रहे। वनवासके अन्तिम वर्षमें वह गुप्त रहे। यदि उसका पता लग जाय तो पुनः बारह वर्ष वनमें रहे।’ दुर्योधनने पिताकी उदारतासे दुखी होकर किसी प्रकार केवल एक बाजी और खेलनेकी आज्ञा प्राप्त की। युधिष्ठिर इस नियमपर पुनः द्यूतमें हार गये। माता कुन्तीको विदुरके घर छोड़कर वे द्रौपदीके साथ वनमें चले गये। दुखी, उदास पाण्डवोंके साथ प्रजाके बहुत-से लोग साथ चले। वे तो किसी प्रकार लौटा दिये गये, किंतु कुछ ब्राह्मण ग्यारह वर्षतक उनके साथ वनमें रहे। गुप्तवास प्रारम्भ होनेपर वे विदा हुए।
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राजसूय यज्ञकी समाप्तिपर ही श्रीकृष्णचन्द्र द्वारका चले गये थे। शाल्वने अपने कामचारी विमान सौभके द्वारा उत्पात मचा रखा था। पहुँचते ही केशवने शाल्वपर आक्रमण किया। सौभको गदाघातसे चूर्ण करके, शाल्व तथा उसके सैनिकोंको यमराजके घर भेजकर जब वे द्वारकामें लौटे तो उन्हें पाण्डवोंके जुएमें हारनेका समाचार मिला। वे सीधे हस्तिनापुर आये और वहाँसे जहाँ वनमें पाण्डव अपनी स्त्रियों, बालकों तथा प्रजावर्ग एवं विप्रोंके साथ थे, पहुँचे। पाण्डवोंसे मिलकर उन्होंने कौरवोंके प्रति रोष प्रकट किया।
द्रौपदीने श्रीकृष्णसे वहाँ कहा—‘मधुसूदन ! मैंने महर्षि असित और देवलसे सुना है कि आप ही सृष्टिकर्ता हैं। परशुरामजीने बताया था कि आप साक्षात् अपराजित विष्णु हैं। आप ही यज्ञ, ऋषि, देवता तथा पंचभूतस्वरूप हैं। जगत् आपके एक अंशमें स्थित है। त्रिलोकीमें आप व्याप्त हैं। निर्मलहृदय महर्षियोंके हृदयमें आप ही स्फुरित होते हैं। आप ही ज्ञानियों तथा योगियोंकी परम गति हैं। आप विभु हैं, सर्वात्मा हैं, आपकी शक्तिसे ही सबको शक्ति प्राप्त होती है। आप ही मृत्यु, जीवन एवं कर्मके अधिष्ठाता हैं। आप ही परमेश्वर हैं। मैं अपना दु:ख आपसे न कहूँ तो किससे कहूँ?'
द्रौपदीके नेत्रोंसे अश्रु गिरने लगे। वे कह रही थीं—‘मैं महापराक्रमी पाण्डवोंकी पत्नी, धृष्टद्युम्नकी बहन और आपकी सखी हूँ। कौरवोंकी भरी सभामें मेरे केश पकड़कर मुझे घसीटा गया। मैं एकवस्त्रा रजस्वला थी, मुझे नग्न करनेका प्रयत्न किया गया। ये अर्जुन और भीम मेरी रक्षा न कर सके। इसी नीच दुर्योधनने भीमको विष देकर जलमें बाँधकर फेंक दिया था। इसी दुष्टने पाण्डवोंको लाक्षाभवनमें भस्म करनेका प्रयत्न किया। इसी पिशाचने मेरे केश पकड़कर घसिटवाया और आज भी वह जीवित है।'
पांचाली फूट-फूटकर रोने लगीं। उनकी वाणी अस्पष्ट हो गयी। वे श्रीकृष्णको उलाहना दे रही थीं‘तुम मेरे सम्बन्धी हो, मैं अग्निसे उत्पन्न गौरवमयी स्त्री हूँ, तुमपर मेरा पवित्र अनुराग है, तुमपर मेरा अधिकार है और रक्षा करनेमें तुम समर्थ हो। तुम्हारे रहते मेरी यह दशा हो रही है।'
भक्तवत्सल और न सुन सके। उन्होंने कहा—‘कल्याणी ! जिनपर तुम रुष्ट हुई हो, उनका जीवन समाप्त हुआ समझो। उनकी स्त्रियाँ भी इसी प्रकार रोयेंगी और उनके अश्रु सूखनेका मार्ग नष्ट हो चुका रहेगा। थोड़े दिनोंमें अर्जुनके बाणोंसे गिरकर वे शृगाल और कुत्तोंके आहार बनेंगे। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम सम्राज्ञी बनकर रहोगी। आकाश फट जाय, समुद्र सूख जायँ, हिमालय चूर हो जाय, पर मेरी बात असत्य न होगी।'
द्रौपदीने अर्जुनकी ओर देखा। अर्जुनने अपने सखाकी बातका समर्थन किया। श्रीकृष्ण अपने साथ सुभद्रा और अभिमन्युको लेकर द्वारका गये। धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंको पांचाल ले गये। सभी आगत राजा अपनेअपने देशोंको लौट गये। विनयपूर्वक धर्मराजने प्रजावर्गको लौटा दिया।
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वनमें भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंसे मिलने सत्यभामाजीके साथ आये थे। एकान्तमें सत्यभामाने कृष्णासे पूछा—‘बहन! तुम्हारे पति लोकपालोंके समान शूर हैं। तुम ऐसा क्या व्यवहार करती हो कि वे तुमपर कभी रुष्ट नहीं होते? वे तुमसे सदा प्रसन्न ही रहते हैं। वे सदा तुम्हारे वशमें क्यों रहते हैं? मुझे भी तुम कोई ऐसा व्रत, तप, तीर्थ, मन्त्र, ओषधि, विद्या, जप, हवन या उपचार बताओ, जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे वशमें रहें।'
द्रौपदीने कुछ स्नेह-रोषपूर्वक कहा—‘सत्ये! तुम तो मुझसे दुराचारिणी स्त्रियों की बात पूछ रही हो। मैं ऐसी स्त्रियोंकी बात क्या जानूं। मुझपर ऐसी शंका करना तुम्हारे लिये उचित नहीं। जब पति जान लेता है कि पत्नी उसे वशमें करनेके लिये मन्त्र-तन्त्र कर रही है तो वह उससे डरकर दूर रहने लगता है। इस प्रकार चित्तमें उद्वेग होता है और तब शान्ति कैसे रह सकती है? तन्त्र-मन्त्रादिसे कभी पति वशमें नहीं किया जा सकता ! इससे तो अनर्थ ही होते हैं। धूर्तलोग स्त्रियों द्वारा पतिको ऐसी वस्तुएँ खिला देते हैं, जिससे भयंकर रोग हो जाते हैं। पतिके शत्रु इसी बहाने विष दिला देते हैं। ऐसी स्त्रियाँ मूर्खतावश पतिको जलोदर, कुष्ठ, अकालवार्धक्य, नपुंसकता, उन्माद या बधिरता-जैसे रोगोंका रोगी बना देती हैं। पापियोंकी बातें माननेवाली पापी नारियाँ इस प्रकार पतिको अनेक कष्ट देती हैं। साध्वी स्त्रीको भूलकर भी ऐसा प्रयत्न नहीं करना चाहिये।
द्रौपदीने इसके पश्चात् अपनी चर्या बतायी—‘मैं अहंकार और क्रोध छोड़कर पाण्डवोंकी तथा उनकी दूसरी स्त्रियोंकी सावधानीसे सेवा करती हूँ। कभी ईर्ष्या नहीं करती। केवल सेवाके लिये मनको वशमें करके पतियोंके अनुकूल रहती हूँ। न तो अभिमान करती हूँ और न कभी कटुभाषण। असभ्यतासे खड़ी नहीं होती, बुरे स्थानपर बैठती नहीं, बुरी बातों पर दृष्टि नहीं देती और पतियोंका दोष न देखकर उनके संकेतोंके अनुसार व्यवहार करती हूँ। कितना भी सुन्दर पुरुष हो, मेरा मन पतियोंके अतिरिक्त उधर नहीं जाता। पतियोंके स्नानभोजन किये बिना मैं स्नान या भोजन नहीं करती। उनके बैठ जानेपर ही बैठती हूँ और उनके घरमें आनेपर उठकर आदरपूर्वक उनको आसन तथा जल देती हूँ। घरके बर्तनोंको स्वच्छ रखती हूँ, सावधानीसे रसोई बनाती हूँ, समयपर भोजन कराती हूँ। घरको स्वच्छ रखती हूँ तथा गुप्तरूपसे अन्नका संचय रखती हूँ। कभी किसीका तिरस्कार नहीं करती, दुष्टा स्त्रियोंके पासतक नहीं जाती। द्वारपर बार-बार नहीं खड़ी होती, कूड़ा फेंकनेके स्थानपर अधिक नहीं ठहरती। पतिसे पृथक् रहना मुझे पसंद नहीं। पतियोंके घरसे कार्यवश बाहर जानेपर पुष्प, चन्दनका उपयोग छोड़कर व्रत करती हूँ। मेरे पति जिन वस्तुओंको खाते, पीते या सेवन नहीं करते, उनसे दूर रहती हूँ। स्त्रियोंके शास्त्रविहित सब व्रत करती हूँ। अपनेको सदा वस्त्रालंकारसे सजाये रहती हूँ।
द्रौपदीने और भी बताया—‘मेरी पूज्या सासने जो भी कौटुम्बिक धर्म बताये हैं, सबका पालन करती हूँ। भिक्षा देना, अतिथि-सत्कार, श्राद्ध तथा त्योहारोंपर पक्वान्न बनाना, माननीयोंका सत्कार आदि सब धर्म सावधानीसे पालन करती हूँ। पतियोंसे अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र मैं कभी ग्रहण नहीं करती। उनसे ऊँचे आसनपर नहीं बैठती। सासजीसे विवाद नहीं करती। सदा अपनी वीरमाता सासकी भोजन-वस्त्रसे सेवा करती हूँ। उनकी कभी वस्त्र, भूषण या जलमें उपेक्षा नहीं करती। सबसे पीछे सोती हूँ, सबसे पहले शय्या छोड़ देती हूँ। धर्मराजके भवनमें प्रतिदिन आठ सहस्र ब्राह्मण स्वर्णपात्रमें भोजन करते थे। महाराज अट्ठासी सहस्त्र स्नातकोंका भरण-पोषण करते थे। दस सहस्र दासियाँ उनके थीं। मुझे सबके नाम, रूप, भोजन-वस्त्रका पता रहता था। मैं दासियोंके सम्बन्धमें पता रखती थी कि किसने क्या काम कर लिया है और क्या नहीं। महाराजके पास एक लक्ष घोड़े और इतने ही हाथी थे। उनका भी मैं ही प्रबन्ध करती थी। उनकी गणना करती, आवश्यकताएँ सुनती और अन्त:पुरके ग्वालों, गड़रियों तथा सेवकोंकी देख-भाल करती।'
महारानी द्रौपदीके कार्य यहीं नहीं समाप्त हो जाते, वे और बताती हैं—‘महाराजके आय-व्ययका हिसाब रखती थी। मेरे पति कुटुम्बका सारा भार छोड़कर पूजा-पाठ या आगतोंका सत्कार करते थे। पूरे परिवारकी देख-भाल मैं ही करती थी। वरुणके समान महाराजके अटूट खजानेका पता भी मुझे ही रहता था। भूख-प्यास सहकर रात-दिन एक करके मैं सदा पाण्डवोंके हितमें लगी रहती थी। मुझे तो पतियों को वशमें करनेका भी यही उपाय ज्ञात है।'
महारानी कृष्णा सचमुच गृहस्वामिनी थीं। सत्यभामाने उनसे क्षमा माँगी। विदा होते समय पांचालीने उन्हें पतिको वश करनेका निर्दोष मार्ग बतलाते हुए कहा—‘तुम सुहृदता, प्रेम, परिचर्या, कार्यकुशलता तथा विविध प्रकारके पुष्प-चन्दनादिसे श्रीकृष्णकी सेवा करो। वही काम करो, जिससे वे समझे कि तुम एकमात्र उन्हींको प्रिय मानती हो। उनके आनेकी आहट पाते ही आँगनमें खड़ी होकर स्वागतको उद्यत रहो। आते ही आसन और पैर धोनेको जल दो। वे दासीको कोई आज्ञा दें तो वह काम स्वयं कर डालो। तुमसे यदि कोई गुप्त रखनेयोग्य बात पतिदेव कहें तो उसे किसीसे मत कहो। पतिके मित्रों तथा हितैषियोंको भोजनादिसे सन्तुष्ट करो तथा पतिके शत्रु, द्वेषी, तटस्थ लोगों से दूर रहो। सपत्नियोंके पुत्रोंके साथ भी एकान्तमें मत बैठो। कुलीन, दोषरहित सती स्त्रियोंका ही साथ करो। क्रूर, झगड़ालू, पेटू, चोर, दुष्टा तथा चंचल स्वभावकी स्त्रियों से दूर रहो। इस प्रकारसे सब प्रकार पतिकी सेवा करनेसे तुम्हारे यश और सौभाग्यकी वृद्धि होगी तथा अन्तमें स्वर्ग प्राप्त होगा। तुम्हारे विरोधी शमित हो जायँगे।
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'कृष्णे! मैं बहुत दूरसे आया हूँ। थक गया हूँ। बड़ी भूख लगी है। अपना गृहप्रबन्ध पीछे करना, पहले मुझे कुछ खानेको दो!’ सहसा श्यामसुन्दरने प्रवेश करके कहा। पाण्डवोंने आश्चर्यसे देखा था कि अकस्मात् दारुकके रथ रोकते ही श्रीकृष्ण कूदकर पर्णकुटीमें चले गये। उन्होंने धर्मराजको अभिवादनतक नहीं किया।
‘तुम तो जानते ही हो कि साथके विप्रोंको भोजन देनेके लिये महाराजने तपस्या करके सूर्यनारायणसे एक पात्र प्राप्त किया है। उसी पात्रसे विविध पक्वान्न निकलता है और उसीसे हम सबका काम चलता है। मेरे भोजनके पश्चात् वह पात्र रिक्त हो जाता है। मैंने भोजन कर लिया है। पात्र धोकर रख दिया है। अब क्या हो ?’ द्रौपदीने बड़ी खिन्नतासे कहा।
'मैं तो भूखसे व्याकुल हो रहा हूँ और तुम्हें हँसी सूझती है। मैं कुछ नहीं जानता; लाओ, कुछ खिलाओ !’ नकली रोषसे लीलामयने कहा।
द्रौपदीका भय दूर हो गया था। उसने प्रार्थना की।—‘मेरे पतियोंके समीप दस सहस्र शिष्योंके साथ महर्षि दुर्वासा आये हैं। धर्मराजने उन्हें आतिथ्यको आमन्त्रित कर दिया है। स्नान-सन्ध्या करने वे सरोवर गये हैं। लौटनेपर उन्हें अन्न न मिला तो शाप देकर पाण्डवोंको भस्म कर देंगे। इसी संकटमें पड़कर मनही-मन तुम्हारा स्मरण करते हुए मैं रो रही थी। तुमने मुझ दुखियाकी पुकार सुन ली। अब अपने पाण्डवोंकी रक्षा करो!’
‘यह सब पचड़ा पीछे; पहले लाओ, अपना वह पात्र दो!’ श्रीकृष्ण झुंझलाये।
‘लो ! तुम्हीं देख लो !’ द्रौपदीने पात्र लाकर दे दिया। भगवान्की लीला, भली प्रकार सावधानीसे स्वच्छ किये उस पात्रमें भी शाकका एक पत्ता चिपका निकल आया।
'यज्ञभोक्ता सर्वात्मा इससे तृप्त हों!’ माधवने वह पत्ता उठाकर मुखमें डाल लिया। अब यह पुनः भोजनक्रम प्रारम्भ हो गया था, अतः पात्र भर गया। उसे तो अब द्रौपदीके भोजन न करनेतक अन्न देते रहना था।
‘जाओ! ऋषियोंको बुला लाओ!’ श्रीकृष्णने सहदेवको बाहर आकर आज्ञा दी। वहाँ जलमें खड़े ऋषियोंका उदर विश्वात्मा श्रीकृष्णके मुखमें शाक डालते ही भर गया था। खट्टी डकारें आ रही थीं। दुर्वासाजीने सोचा कि युधिष्ठिर अन्न प्रस्तुत करेंगे, अब हम भोजन तो कर नहीं सकते। कहीं अन्न व्यर्थ नष्ट होता देख धर्मराज रुष्ट हो गये तो लेनेके देने पड़ जायँगे। धर्मराज भगवान्के सच्चे भक्त हैं। महर्षिको अभी अम्बरीषपर रुष्ट होकर कष्ट पानेकी घटना भूली नहीं थी। उन्होंने भागनेमें ही कल्याण समझा। सहदेवने लौटकर बताया कि वहाँ कोई नहीं है।
'महर्षि कहीं अर्धरात्रिको आकर अन्न न माँगें ।’ पाण्डव चिन्तित हो गये।
'दुर्वासा अब नहीं आयेंगे। दुष्ट दुर्योधनने अपनी सेवासे प्रसन्न करके उनसे वरदान ले लिया था कि शिष्योंके साथ वे तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने तब पधारें, जब पांचाली भोजन कर चुकी हों। इस कष्टको मैंने निवारित कर दिया।’ श्रीकृष्णने सबको समझाकर आश्वस्त किया।
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सिन्धुनरेश जयद्रथ सब प्रकार सज-धजकर विहारके लिये शाल्व देशकी ओर जा रहा था। उसने एकाकिनी द्रौपदीको वनमें देखा। पाण्डव आखेटके लिये गये थे। जयद्रथ द्रौपदीको देखते ही मुग्ध हो गया। उसने अपने साथी राजा कोटिकास्यको परिचय जाननेके लिये भेजा। कोटिकास्यने समीप जाकर मधुर शब्दोंमें परिचय पूछा और अपना परिचय दिया।
द्रौपदीने बड़े संकोचसे कहा—‘मर्यादानुसार मुझे तुमसे नहीं बोलना चाहिये, परंतु समीपमें दूसरे किसी पुरुष या स्त्रीके न होनेसे मुझे विवश होकर बोलना पड़ा। मैं तुम्हें और सिन्धुनरेशको भी जानती हूँ। मेरे पति वनमें आखेटको गये हैं। उन विश्वविख्यात पाण्डवोंको तुम जानते हो। मैं उनकी पत्नी कृष्णा हूँ। अपने वाहन खोल दो! पाण्डवोंका आतिथ्य स्वीकार करके जहाँ जाना हो, चले जाना। उनके लौटनेका समय हो गया है।'
द्रौपदी कुटीमें आतिथ्यकी व्यवस्था करने चली गयी। उसने इन लोगों पर विश्वास कर लिया। कोटिकास्यसे परिचय पाकर स्वयं जयद्रथ आया। उसने पहले तो कुशल पूछी और पाण्डवोंको राज्यहीन, निर्धन कहकर द्रौपदीसे कहने लगा कि वह उनको छोड़कर सिन्धुकी महारानी बने । द्रौपदीने उसे फटकारा‘मेरे पति युद्धमें देवता और राक्षसोंका भी वध कर सकते हैं। मूर्खतावश अपने नाशके लिये तूने मेरे प्रति कुदृष्टि की है।’
जयद्रथने पुनः धमकाया। कृष्णाने कहा 'तू एकाकिनी समझकर मुझपर बल दिखा रहा है, पर मैं तेरे सम्मुख दीन वचन नहीं बोल सकती। जब एक रथपर बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन मेरी खोजमें निकलेंगे तो इन्द्र भी तुझे छिपा नहीं सकते। अभी मेरे पति आकर तेरी सेनाका नाश कर देंगे। यदि मैं पतिव्रता हूँ तो इस सत्यके प्रभावसे आज मैं देखेंगी कि पाण्डव तुझे घसीट रहे हैं।'
जयद्रथने द्रौपदीको पकड़ना चाहा, उसे धक्का देकर पांचालीने धौम्यमुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और इसलिये स्वयं रथमें बैठ गयीं कि जयद्रथ उनका स्पर्श न करे। उनको लेकर जयद्रथ ससैन्य चला। पाण्डवोंने वनमें शृगालको रोते हुए पाससे जाते देख अमंगलकी आशंका की। वे शीघ्रतापूर्वक लौटे। आश्रममें धात्रिकाको रोते देख उससे पूछकर उन्होंने समाचार ज्ञात किया। आगे बढ़नेपर धौम्यमुनि पैदल सेनामें भीमको पुकारते हुए जाते दिखायी पड़े। भयभीत होकर पैदल सेनाने तो शरण माँग ली। शेषपर पाण्डवोंने बाणवर्षा प्रारम्भ की। अनेक राजा मारे गये। भयातुर जयद्रथ द्रौपदीको रथसे उतारकर भागा। द्रौपदी धौम्यमुनिके साथ धर्मराजके पास लौट आयीं।
‘बहन दुःशला (दुर्योधनकी बहन)-का ध्यान करके जयद्रथको मारना मत ! बहनको विधवा मत करना।’ भीमको सिन्धुराजके पीछे जाते देख युधिष्ठिरने आदेश दिया। भीमने दौड़कर जयद्रथको ललकारा और पराजित करके पकड़ लिया। उसको पटककर मरम्मत कर दी। सिरके केश मँड़कर पाँच चोटियाँ रखकर तथा दासत्व स्वीकार करवाके उसे बाँधकर वे ले आये। इस दशामें उसे देखकर द्रौपदीको दया आ गयी। उन्होंने भीमसेनसे कहा—‘महाराजके इस दासको अब छोड़ दो।'
धर्मराजने बन्धनमुक्त करके जयद्रथको दासत्वसे भी मुक्त कर दिया और विदा करते समय समझाया कि—‘अब कभी परस्त्रीपर कुदृष्टि डालने-जैसा नीच कार्य मत करना।
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‘महारानी ! मैं सैरन्ध्री हूँ और अपने योग्य कार्य चाहती हूँ। मुझे बालोंको सुन्दर बनाना, गुँथना, पुष्पहार बनाना, चन्दन या अंगराग बनाना बहुत अच्छा आता है। मैं इससे पूर्व द्रौपदीके अन्तःपुरमें रह चुकी हूँ। मुझे केवल भोजन-वस्त्र चहिये।’ पांचालीने विराटकी महारानी सुदेष्णाको बताया। उसे नगरमें भटकते देख महारानीने बुलाया था
‘तुम तो देवताओंके समान सुन्दर हो। यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं। तुम्हें अन्त:पुरमें रखनेपर भय है। कि महाराज तुमपर आसक्त हो जायँगे।’ सुदेष्णाने उत्तर दिया!
‘पाँच परम पराक्रमी गन्धर्व मेरे पति हैं। जो मुझपर कुदृष्टि करता है, उसे वे उसी रात्रि मार डालते हैं। जो मुझसे पैर नहीं धुलवाता तथा जूठेका स्पर्श नहीं कराता, उसका वे मंगल करते हैं। कृष्णाने आश्वासन दिया’
‘तुम्हें पैर नहीं धोने होंगे और उच्छिष्ट भी स्पर्श नहीं करना पड़ेगा। तुम मेरे समीप आदरपूर्वक निवास करो।’ सुदेष्णाने स्वीकृति दे दी।
'तुम इतनी सुन्दर कौन हो? यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं। मुझे स्वीकार करो।’ एक दिन विराटके सेनापति कीचकने अन्त:पुरमें सैरन्ध्रीको देखकर कहा। वह उसके सौन्दर्यपर मुग्ध हो गया था। द्रौपदीने परस्त्रीके प्रति आकर्षित न होनेके लिये उसे समझाया; किंतु वह दुष्ट बराबर हठ ही करता रहा। गन्धर्वोके भयका भी उसपर कोई प्रभाव न हुआ। उसने द्रौपदीसे कोरा उत्तर पाकर अपनी बहन सुदेष्णासे प्रार्थना की। सुदेष्णाने द्रौपदीके अस्वीकार करनेपर भी बलपूर्वक रस लानेके बहाने उन्हें कीचकके भवनमें भेजा। उन्मत्त कीचकने उन्हें पकड़नेका प्रयत्न किया। किसी प्रकार उसे धक्का देकर भागकर वे राजसभामें आयीं। पीछे दौड़ता हुआ कीचक वहाँ भी पहुँचा और उसने द्रौपदीको केश पकड़कर पटक दिया तथा पाद-प्रहार किया। सूर्यद्वारा द्रौपदीकी रक्षामें नियुक्त राक्षसने आँधीके समान कीचकको दूर फेंक दिया। वह गिरकर मूच्छित हो गया।
भीमसेन और अर्जुन दोनों क्रोधित हो गये, पर धर्मराजने संकेतसे उन्हें रोक दिया। द्रौपदीने सभाभवनके द्वारपर खड़े होकर कहा, 'मेरे महापराक्रमी पति सूतद्वारा मेरा अपमान कायरोंकी भाँति देख रहे हैं। वे धर्मपाशमें बँधे हैं। यहाँका राजा विराट एक निरपराध स्त्रीको इस प्रकार मारे जाते देखकर चुप है। यह राजा होकर भी न्याय नहीं करता। यह लुटेरोंका-सा धर्म राजाको शोभा नहीं देता। सभासद् भी इस अन्यायको चुपचाप सह रहे हैं।'
सभासदोंने द्रौपदीकी प्रशंसा की। महाराज विराट कीचकके बलसे दबे थे। उसने अनेक देश जीते थे। यद्यपि वह लम्पट था, प्रजासे धन लूट लेता था और प्रजाकी स्त्रियोंके साथ अत्याचार करता था, परंतु महाराज उसका विरोध नहीं कर सकते थे, अतः वे चुप रहे। धर्मराजने संकेत से कहा—‘तेरे पति तेरे कष्टदाताको अवश्य नष्ट कर डालेंगे। वे अभी अवसर नहीं देखते। तू अन्त:पुरमें जा !'
द्रौपदी अन्तःपुरमें गयी। सुदेष्णाने उसे आश्वासन देनेका प्रयत्न किया। रात्रिमें द्रौपदीने भोजनालयमें भीमसेनके पास जाकर रोते हुए कहा—‘तुम लोगोंको इस वेषमें देखकर मेरा हृदय फटता है। मुझे भी सुदेष्णाकी दासी बनकर रहना पड़ रहा है। अब तो यह अपमान मैं सह नहीं सकती। कीचक नित्य घृणित संकेत करता है और गन्दी बातें कहता है। आज उसने भरी सभामें तुम सबके देखते मुझे मारा है। अब वह मुझे नित्य मारेगा और बलप्रयोग करेगा। यदि तुम मुझे अवधि पूर्ण होनेतक चुप रहनेको कहोगे तो मैं प्राण दे दूंगी।'
भीमसेनने द्रौपदीको आश्वासन दिया। उनकी सम्मतिसे जब कीचकने दूसरे दिन वही राग छेड़ा तो कृष्णाने उसे रात्रिको एकान्तमें विराटकी नवीन नृत्यशालामें बुलाया। भीमसेन सूचना पाकर पहलेसे ही वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने युद्धमें कीचकको पछाड़कर मार डाला। उसके हाथ-पैर धड़में दबाकर घुसा दिये। इसी दशामें द्रौपदीको दिखाया। द्रौपदीने लोगोंसे कहा—मेरा अपमान करनेवाले नीच कीचककी मेरे गन्धर्व पतियोंने क्या दशा की, सो जाकर देखो !'
'कीचककी मृत्यु सैरन्ध्रीके कारण ही हुई है। अतः इसे भी साथमें जला दो। इससे कीचककी आत्माको सन्तोष होगा।’ कीचकको मरा देखकर रोषके मारे उपकीचकोंने यह निश्चय किया। उनके भयसे डरे विराटने भी ऐसा करनेकी आज्ञा दे दी। उन्होंने द्रौपदीको बाँध लिया और श्मशान ले चले। आर्तनाद करती जाती द्रौपदीकी रक्षा-पुकार भीमसेनने सुन ली। नगर-परकोटा लाँघकर वे पहले ही श्मशान पहुँच गये। एक महान् वृक्ष उखाड़कर दौड़े। उन्हें देखकर उपकीचक भागे। भीमसे उन सबको मार डाला और द्रौपदीको बन्धनमुक्त कर दिया। भीम अपना काम करके पुनः उसी मार्गसे भोजनालय पहुँच गये।
'भद्रे ! महाराज गन्धर्वोसे बहुत डरे हैं। तुम अत्यन्त सुन्दरी हो और पुरुष स्वाभाविक कामी होते हैं। तुम्हारे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं। उन्होंने एक सौ पाँच उपकीचकोंको मार डाला है। अतः महाराजने कहा है। कि तुम अब यहाँसे जहाँ इच्छा हो, चली जाओ! अन्तःपुरमें पहुँचते ही सुदेष्णाने कहा।
‘महाराज मुझे तेरह दिन और क्षमा करें। मेरे गन्धर्व पति इसके पश्चात् स्वयं मुझे ले जायँगे और वे महाराजका भी मंगल करेंगे।’ सैरन्ध्रीकी इस बातका प्रतिवाद करनेका साहस अब रानी सुदेष्णामें नहीं था। तेरह दिन पश्चात् गुप्तवासकी अवधि समाप्त होनेपर पाण्डव प्रकट हो गये।
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पाण्डवोंके वनवासकी अवधि समाप्त हुई। विराटनगरमें उनके पक्षके नरेश एकत्र होने लगे। अनेक ऋषियोंने, विदुरने तथा औरोंने भी दुर्योधनको समझाया; किंतु वह बिना युद्धके पाँच ग्राम भी पाण्डवोंको देनेको प्रस्तुत नहीं था। अन्तिम प्रयत्नके रूपमें शान्तिदूत बनकर स्वयं श्रीकृष्णचन्द्रने विराटनगरसे हस्तिनापुर जाना निश्चित किया। उनको जानेको उद्यत देखकर द्रौपदीने उनसे कहा—‘जनार्दन ! अवध्यका वध करनेमें जो पाप होता है, वही पाप वध्यका वध न करनेमें भी होता है। मैं अपने अपमानको भूल नहीं सकी हूँ। शान्ति और दुर्योधनकी दी हुई भिक्षा मेरी अन्तज्ज्वलाको शान्त नहीं करेगी। यादव, पाण्डव और पांचालके शूरोंके रहते मेरी यह दशा है! यदि आपका मुझपर तनिक भी स्नेह है तो कौरवोंपर कोप कीजिये।
जाहु भले कुरुराज पर, धारि दूतवर-वेश।
भूलि न जैयो पे वहाँ, केशव द्रौपदि-केश।।
अपने काले-काले सुदीर्घ केशोंको हाथमें लेकर श्रीकृष्णको दिखाते हुए रोकर पांचालीने कहा—‘आज बारह वर्षसे इन केशोमें कंघी नहीं पड़ी है। ये बाँधे नहीं गये हैं। जिसने इनको भरी सभामें खींचा है, उस दुष्ट दु:शासनकी उसी भुजाके रक्तसे धोकर तब मैं इन्हें बाँधूंगी, यह मैंने प्रतिज्ञा की है। मधुसूदन ! क्या ये आजीवन खुले ही रहेंगे? यदि पाण्डव कायर हो गये हैं, यदि वे युद्ध नहीं करते तो मैं अपने पाँचों पुत्रोंको आदेश देंगी। बेटा अभिमन्यु उनका नेतृत्व करेगा। मेरे पिता और भाई भी यदि मेरी उपेक्षा कर दें तो मैं तुम्हारे पैर पकड़ेंगी। क्या मेरी प्रार्थनापर भी तुम द्रवित न होओगे ? क्या तुम्हारा चक्र शान्त ही रहेगा? मैं कौरवोंकी लाशोंको धूलिमें तड़पते देखना चाहती हैं। इसके बिना कोई साम्राज्य मुझे सुखी नहीं कर सकता।'
श्रीकृष्णने गम्भीरतासे कहा—‘कृष्णे! आँसुओंको रोको ! इस नाटकको हो जाने दो! मैंने प्रतिज्ञा की है और प्रकृतिके सारे नियमोंके पलट जानेपर भी वह मिथ्या नहीं होगी। जिनपर तुम्हारा कोप है, उनकी विधवा पत्नियोंको तुम शीघ्र ही रोते देखोगी। ये ही धर्मराज युद्धका आदेश देंगे और तुम्हारे शत्रु युद्धभूमिमें मारे जायँगे।'
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महाभारतका युद्ध प्रारम्भ हो गया था। सहसा एक रात्रिको धर्मराजके चरोंने समाचार दिया कि दुर्योधनके द्वारा उत्तेजित किये जानेपर भीष्मपितामहने प्रतिज्ञा की है कि कल वे समस्त सैन्यके साथ पाँचों पाण्डवोंको मार देंगे। पाण्डवोंमें अत्यन्त व्याकुलता फैल गयी। धर्मराजने श्रीकृष्णके पास अर्जुनको भेजा, किंतु रूखा उत्तर मिला। अन्तमें द्रौपदीने माधवके शिविरमें जाकर उनसे प्रार्थना की कि वे पाण्डवोंकी रक्षा करें।
यदि पितामहने प्रतिज्ञा की है, तो वह सत्य होकर रहेगी। मैं असमर्थ हूँ।’ रूखे मुख उत्तर दे दिया गया।
‘तो क्या तुमने लम्बी-लम्बी शपथे खाकर मुझको झूठा ही आश्वासन दिया था। श्रीकृष्णके जीवित रहते उनकी सखी कृष्णाके पति परलोक सिधार जायँ, इससे बढ़कर कलंक और क्या होगा?’ द्रौपदीने खीझकर कहा।।
'एक उपाय है—तुम चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चलो और भीष्मके शिविरमें जाकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करो।’ श्रीकृष्णने मुसकराते हुए कहा।
'मैं तो सदा ही तुम्हारे वचनोंका अनुसरण करनेको प्रस्तुत हूँ, चलो शीघ्र।'
रातका तीसरा प्रहर था। भगवान् द्रौपदीको लेकर चले। 'अरे तुम्हारी पंचनदीय जूतियों को देखकर तो कोई भी पहचान लेगा। उतारो जूतियाँ जल्दी।’ श्रीकृष्णने द्रौपदीको कुछ कहनेका अवसर ही नहीं दिया और जूतियोंको लेकर अपने पीत उत्तरीयमें लपेटा और धीरेसे बगलमें दबा लिया और कहा—‘बस, पीछेपीछे चली चलो। द्रौपदीने आज्ञाका पालन किया।
‘यह पितामहका शिविर है। चुपचाप अन्दर जाकर पितामहको प्रणाम करो। वे मेरा ध्यान कर रहे होंगे बैठे-बैठे। प्रणाम करना तो आभूषणोंको भली प्रकार बजाकर। मैं यहीं हूँ। मेरा पता मत बताना।’ लीलामयने आदेश दे दिया।
पितामहके शिविरमें सौभाग्यवती स्त्री, ब्राह्मण, साधु तथा श्रीकृष्णके निर्बाध प्रवेशकी आज्ञा थी। पितामह ध्यानस्थ बैठे थे। द्रौपदीने जाकर पैरों पर मस्तक रखा। पितामहने समझा दुर्योधन अभी-अभी गया है, रानी प्रणाम करने आयी होगी। झटसे कह दिया—‘सौभाग्यवती हो, बेटी !'
'पतियों को मारनेकी प्रतिज्ञा करके पत्नीको सौभाग्यवती होनेका आशीर्वाद ? पितामह ! आप तो कभी असत्य नहीं बोलते। यह कैसी विडम्बना !’ द्रौपदीने पूछा।
'ओह, पांचाली! तू यहाँ कैसे, पुत्री ! मैंने पाण्डवोंको मारनेकी प्रतिज्ञा तो की है; परंतु साथ ही यह भी कहा है कि यदि श्रीकृष्णने शस्त्र न उठाया तो ऐसा होगा! तू यहाँ किसके साथ आयी? बिना श्यामसुन्दरके यह सब कौन कर सकता है? बता, वे मेरे प्रभु कहाँ है?’ बुद्धिमान् भीष्मने सब समझ लिया।
‘मुझे धिक्कार है, जिसके यहाँ आनेमें संकोच करके श्रीकृष्णको द्वारपर रुकना पड़ता है। द्रौपदीके न बतानेपर भी भीष्मने स्वयं मधुसूदनको ढूँढ़ लिया। जगत्पति जूतियोंको बगलमें दबाये द्वारपर निस्तब्ध खड़े मुसकरा रहे थे। भीष्म चरणोंपर गिरकर रोने लगे।
‘यदि आप इसी प्रकार दस सहस्र महारथी नित्य मारते रहे तो द्रौपदी सौभाग्यवती हो चुकी ।’ शिविरमें आकर आसन तथा सत्कार ग्रहण करके केशवने कहा।
‘आप जो चाहते हैं, वह तो होगा ही। मेरे मुखसे ही मेरी मृत्युका उपाय आपको सुनना है तो मैं वह भी बता दूंगा; किंतु कलके युद्धमें मेरी प्रतिज्ञाकी रक्षा करनी होगी।’ पितामहने गद्गद स्वरमें प्रार्थना की। वहाँसे पितामहके रथमें बैठकर द्रौपदीको लेकर श्रीकृष्ण धर्मराजके शिविरमें लौट आये। पूरा समाचार जानकर पाण्डवोंका समस्त शोक दूर हो गया।
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महाभारत समाप्त हुआ। पाण्डव-सेना शान्तिसे शयन कर रही थी। श्रीकृष्ण पाँचों पाण्डवों तथा द्रौपदीको लेकर उपप्लव्य नगर चले गये थे। प्रातः दूतने समाचार दिया कि रात्रिमें शिविरमें अग्नि लगाकर अश्वत्थामाने सबको निर्दयतापूर्वक मार डाला। यह सुनते ही सब रथमें बैठकर शिविरमें पहुँचे। अपने मृत पुत्रोंको देखकर द्रौपदीने बड़े करुण स्वरमें क्रन्दन करते हुए कहा—‘मेरे पराक्रमी पुत्र यदि युद्धमें लड़ते हुए मारे गये होते तो मैं सन्तोष कर लेती। क्रूर ब्राह्मणने निर्दयतापूर्वक उन्हें सोते समय मार डाला है।
द्रौपदीको धर्मराजने समझानेका प्रयत्न किया, परंतु पुत्रके शवके पास रोती माताको क्या समझायेगा कोई। भीमने क्रोधित होकर अश्वत्थामाका पीछा किया। श्रीकृष्णने बताया कि नीच अश्वत्थामा भीमपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर सकता है। अर्जुनको लेकर वे भी पीछे रथमें बैठकर गये। अश्वत्थामाने ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। उसे शान्त करनेको अर्जुनने भी उसी अस्त्रसे उसे शान्त करना चाहा। दोनों ब्रह्मास्त्रोंने प्रलयका दृश्य उपस्थित कर दिया। भगवान् व्यास तथा देवर्षि नारदने प्रकट होकर ब्रह्मास्त्रोंको लौटा लेनेका आदेश दिया। अर्जुनने ब्रह्मास्त्र लौटा लिया। पकड़कर द्रोण-पुत्रको उन्होंने बाँध लिया और अपने शिविरमें ले आये।
अश्वत्थामा पशुकी भाँति बँधा हुआ था। निन्दित कर्म करनेसे उसकी श्री नष्ट हो गयी थी। उसने सिर झुका रखा था। अर्जुनने उसे लाकर द्रौपदीके सम्मुख खड़ा कर दिया। गुरुपुत्रको इस दशामें देखकर द्रौपदीको दया आ गयी। उन्होंने कहा—‘इन्हें जल्दी छोड़ दो। जिनसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी आपलोगोंने शिक्षा पायी है, वे भगवान् द्रोणाचार्य पुत्ररूपमें स्वयं उपस्थित हैं। जैसे पुत्रों के शोकमें मुझे दुःख हो रहा है, मैं रो रही हूँ, ऐसा ही प्रत्येक स्त्रीको होता होगा। देवी कृपीको यह शोक न हो! वे पुत्रशोकमें मेरी तरह न रोयें। ब्राह्मण सब प्रकार पूज्य होता है। इन्हें शीघ्र छोड दो ! ब्राह्मणोंका हमारे द्वारा अनादर नहीं होना चाहिये।
भीमसेन अश्वत्थामाके वधके पक्षमें थे। अन्तमें श्रीकृष्णकी सम्मतिसे द्रोणपुत्रके मस्तकपर रहनेवाली मणि छीनकर अर्जुनने उसे शिविरसे बाहर निकाल दिया।
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महाभारतकी समाप्तिपर युधिष्ठिरने बन्धुत्वकी भावना करके विरक्त होकर वनमें जानेका विचार प्रकट किया। जब सब भाई उन्हें समझा चुके तो पांचालराजकुमारीने कहा—‘महाराज! आपने द्वैतवनमें बार-बार कहा है कि शत्रुओंको जीतकर आप हम सबको सुखी करेंगे, अब अपनी बातको क्यों मिथ्या कर रहे हैं? मेरी सास कुन्तीजी कभी झूठ नहीं बोलतीं। उन्हींने भी कहा था कि आप शत्रुओं पर विजय करके साम्राज्यका उपभोग करेंगे। अपनी माताके वचनोंको आप क्यों मिथ्या कर रहे हैं? दुष्टोंको दण्ड देकर, निर्बलोंकी रक्षा करके, अनाथोंकी सहायता करके, विप्रोंको दान देकर प्रजापालन करनेवाला राजा निःश्रेयसको प्राप्त करता है। आप अपने धर्मको छोड़कर किस विधर्मके प्रलोभनमें वन जाना चाहते हैं? आपने दानमें, शास्त्र सुनाकर, युद्धमें धोखा देकर या अन्यायसे यह राज्य नहीं पाया है। धर्मयुद्धमें शत्रुओंका दमन करके आपने इसे प्राप्त किया है। आपने सम्पूर्ण पृथ्वीपर शासन प्राप्त किया है, अब आप इस दायित्वसे क्यों विमुख होते हैं ? मैं पुत्रोंके मरनेपर भी केवल आपकी ओर देखकर ही जीवित हूँ। आपके ये पराक्रमी भाई भी आपके लिये ही जीवन धारण किये हैं। आपके लिये उदासीनता उचित नहीं। शासन कीजिये, यज्ञ कीजिये और ब्राह्मणोंको दान दीजिये।।
महाराज युधिष्ठिरने दीर्घकालतक शासन किया। उन्होंने द्रौपदीके साथ तीन अश्वमेधयज्ञ किये। द्वारकासे लौटकर अर्जुनने जब यदुवंशके क्षयका समाचार दिया तो परीक्षित्का राज्याभिषेक करके धर्मराजने अपने राजोचित वस्त्रोंका त्याग कर दिया। मौनव्रत लेकर वे निकल पड़े। भाइयोंने भी उन्हींका अनुकरण किया। द्रौपदीने भी वल्कल पहना और पतियोंके पीछे चल पड़ीं। धर्मराज सीधे उत्तर दिशामें चलते गये। बदरिकाश्रमसे ऊपर वे हिमप्रदेशमें जा रहे थे। द्रौपदी सबके पीछे चल रही थीं। सब मौन थे। कोई किसीकी ओर देखता नहीं था। द्रौपदीने अपना चित्त सब ओरसे एकाग्र करके परात्पर भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया था। उन्हें शरीरका पता नहीं था। हिमपर फिसलकर वे गिर पड़ीं। शरीर उसी श्वेत हिमराशिमें विलीन हो गया। महारानी द्रौपदी तो परम तत्त्वसे एक हो चुकी थीं।