श्री जनक जी Renu द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

श्री जनक जी

श्रीजनकजी निमिवंश में जितने भी राजा हुए सभी ‘जनक’ कहलाते थे, ब्रह्म ज्ञानी होने से इन सबों की विदेह संज्ञा भी थी। किंतु जनक के नाम से अधिक प्रसिद्ध सीताजी के पिता ही हुए हैं। उनका यथार्थ नाम सीरध्वज था। ‘सीरध्वज’ नाम का एक कारण है। ‘सीर’ कहते हैं हलकी नोकको। एक बार मिथिला देशमें बड़ा अकाल पड़ा, विद्वानोंने निर्णय किया कि महाराज जनक स्वयं हलसे जमीन जोतकर यज्ञ करें तो वर्षा हो। महाराज यज्ञके लिये जमीन जोत रहे थे कि हलकी नोक लगनेसे पृथ्वीमेंसे एक कन्या निकल आयी। वही जगज्जननी महारानी सीताजी हुईं। महाराज जनक उन्हें अपने घर ले आये और उन्हींको अपनी सगी पुत्री मानकर लालन-पालन करने लगे।

ये पूर्ण ब्रह्मज्ञानी थे, ‘मैं-मेरे’ के चक्रसे सर्वथा छूटे हुए थे। वे सदा ब्रह्मरूपमें स्थित रहते हुए ही प्रजापालनका कार्य समुचितरूपसे करते रहते थे। बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि इनके पास ज्ञान-चर्चा करने तथा ब्रह्मज्ञान सीखने आते थे, ये इतने लोकप्रिय थे कि सभी इन्हें चाहते थे।

ये शिवजीके बड़े भक्त थे। शिवजीने अपना माहेश्वर धनुष इन्हें धरोहरके रूपमें दे दिया था, वह इनके घरमें रखा था और उसकी पूजा होती थी। कहते हैं एक बार घरको लीपते समय श्रीजानकीजीने एक हाथसे उस प्रलयंकारी विशाल धनुषको उठा लिया और जमीनको लीपकर उसे फिर ज्यों-का-त्यों वहाँ रख दिया। उसी समय महाराजने प्रतिज्ञा की कि जो कोई हमारे इस माहेश्वर धनुषको उठा लेगा, उसीके साथ मैं सीताजीका विवाह करूंगा।

श्रीतुलसीकृत रामायणमें जनकजीका चरित्र बहुत ही संक्षिप्तरूपमें वर्णित हुआ है, किंतु जितना चरित्र उनका अंकित हुआ है, वह इतना सुन्दर है कि उसमें गाम्भीर्य, तेज, विद्वत्ता, ज्ञान, प्रेम आदि गुणोंका अद्भुत सम्मिश्रण हुआ है। उसमें परस्पर भिन्न गुणोंका ऐसा सामंजस्य है कि देखते ही बनता है।

महर्षि विश्वामित्रजीके साथ श्रीराम-लखन मिथिलापुरी पधारे हैं, सुनते ही महाराज जनक उनका सत्कार करने मन्त्री और पुरोहितोंके साथ आते हैं; आकर वे विधिवत् ऋषिकी पूजा करते हैं, कुशल-क्षेम पूछते हैं। ऋषिने राम-लखनको पुष्प लेने भेज दिया था, इसी अवसरपर वे अनूप भूपकिशोर आ जाते हैं। अहा, उन्हें देखकर ज्ञानशिरोमणि महाराज जनककी क्या दशा हो जाती है—

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥

मन प्रेममें मगन है, शरीरकी सुध-बुध नहीं, बहुत चेष्टा करके महाराज जनकने अपनेको सँभाला और अपने मनका भाव ऋषि विश्वामित्रके सम्मुख प्रकट करते हुए कहा—

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥ सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥ इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥

तब विश्वामित्रजीने इशारेसे राजाके अनुमानका समर्थन करके फिर श्रीरामका संकेत पाकर कहा—

रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥

जब किसी राजासे धनुष टस-से-मस नहीं हुआ, तब महाराज जनकने सब राजाओंको सम्बोधन करके कहा—

अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुरि कुआरि रहउ का करऊँ॥

यह बात लक्ष्मणजीको बुरी लगी। उन्होंने बड़े जोरोंसे महाराज जनककी इस बातका विरोध किया। वृद्ध ब्रह्मज्ञानी राजर्षिको बालक लक्ष्मणने डाँट दिया—

कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुलमनि जानी॥

लक्ष्मण बहुत कुछ कह गये। किंतु जनकजीकी गम्भीरता भंग नहीं हुई; उन्होंने न लक्ष्मणजीकी बातोंका बुरा ही माना, न खण्डन ही किया। श्रीरामजीने धनुष तोड़ दिया। इसे सुनकर परशुरामजी आये। वे बहुत उछल-कूदे, बड़ी-बड़ी बातें कहीं; किंतु जनकजी एकदम तटस्थ ही बने रहे। वे समझते थे कि जिन्होंने इतने बड़े शिवधनुषको तोड़ दिया है, वे स्वयं इनसे समझ-बूझ लेंगे, हमें बीचमें पड़नेकी क्या जरूरत है। जब श्रीरामजी वनको जाते हैं और भरतजी उन्हें मनानेके लिये चित्रकूट पहुँचते हैं तो वहाँ भी जनकजीके दर्शन होते हैं। उस समयकी उनकी गम्भीरता श्लाघनीय है। वे स्पष्ट यह भी नहीं कह सकते कि श्रीरामजी अयोध्या लौट जायँ; क्योंकि लोग कहेंगे जनकजीने जामाताका पक्ष लिया और भरतके प्रेमको देखकर वे यह भी नहीं कह सकते कि भरतजीकी बात न मानी जाय। अतः अपनी रानीसे भरतजीकी बहुत बड़ाई करते-करते अन्तमें उन्होंने यही कहा—

देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥

इससे उनके बीचमें न बोलना ही उचित है, वे जो कुछ करेंगे, वही ठीक होगा। अपनी पुत्री सीताको वनवासी वेषमें देखकर महाराज के हृदय की जो दशा हुई, वह अवर्णनीय है। इस स्थलपर उसका वर्णन असम्भव है। क्या उनका वह मोह था? कवि कहते हैं, नहीं, कदापि नहीं—

मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥

जहाँ ‘सिय-रघुबर’ का ‘सनेह’ है, वहाँ मोह रह ही कैसे सकता है! ब्रह्म ज्ञानी जनकजी के हृदय में यह प्रेम निरन्तर रहता था ! धन्य!