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श्री शबरी जी

'पवित्र जीवन के बिना पवित्रतम परमात्मा को कोई नहीं प्राप्त कर सकता।’ उष:काल में पम्पासर के तटपर महर्षि मतंग अपने शिष्यों से कह रहे थे। अतः मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्रता का पालन करो। शुचि भोजन, शुचि परिधान और अपना प्रत्येक व्यवहार पवित्र होने दो। जीव मात्र पर दया और भगवन्नाम में अनुरक्ति का सदा ध्यान रखो। तभी स्थावर-जंगम, लता-वृक्ष आदि विश्व की प्रत्येक वस्तु में उन्हें देख सकोगे। यही सच्चा धर्म है। जाति-कुल की बाधा से यह धर्म सदा मुक्त है।'

महर्षि और उनके शिष्यगण चले गये थे। शबरी उनके चरण-चिह्नोंपर लोट रही थी, जैसे उसे कोई अमूल्य निधि मिल गयी हो, वृक्षकी ओट से ऋषि के समस्त उपदेश-आदेश सुन लिये थे उसने। उसकी आँखें बरस रही थीं।

शबरी का मन उसके शैशव से ही अशान्त था। भोले-भाले पशु-पक्षियों की हत्या देखकर वह सिहर उठती थी। उनकी लहू-लूहान देह देखकर वह अपनी आँखें बन्द कर लेती थी। अकेले कोने में मुँह छिपाकर रोने लगती थी।

चिन्ता, शोक और क्लेश से उसके दिन बीतते रहे। वह नवयौवन-सम्पन्ना नारी बनी। विवाह की तैयारी हो गयी। पति वीर था उसका। एक बाण से दो-दो पक्षियों को मार लेता था। तेज-से-तेज दौड़ता हुआ हिरन उसकी आँखों के सामने से नहीं बच सकता था। प्रशंसा शबरी ने भी सुनी। पर वह छटपटा उठी। एकान्त में जाकर अशान्त मन से विश्व के प्राणाधार से प्रार्थना करने लगी,—‘देव! मुझे पापों से बचाइये। मैं अधम से भी अधम मूर्ख नारी हूँ। मुझे पथ का ज्ञान नहीं। आप मेरी रक्षा करें, नाथ! मैं आपकी शरण हूँ।’ प्रार्थना करते-करते रात अधिक हो गयी। शबरी ने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया।

अर्धरात्रि का समय था। सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य था। आकाश में तारे किंकर्तव्यविमूढ़ हो टुकुर-टुकुर ताक रहे थे। शबरी चुपके से दबे पाँव घर से निकल पड़ी और घने जंगलों में जाकर विलीन हो गयी।

कण्टकाकीर्ण पथ, नदी, वन और पर्वत का उसे ध्यान नहीं था। वह भागती चली जा रही थी । अनिश्चित स्थान की ओर। उस समय उसे केवल यही ध्यान था कि मैं अपने माँ-बाप के हाथ न आ जाऊँ। हिंसा से बचकर आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर प्रभु-भजन करूँ।

भागने में उसे अपने तन-मन की सुधि नहीं थी। न क्षुधा थी न तृषा। दो दिन बाद वह पम्पासर पर पहुँची थी। वह थक गयी थी। प्रातः हो चला था। पूर्व क्षितिज पर अरुणिमा बिखर गयी थी। उसी समय स्नानार्थी मतंग ऋषि की चर्चा उसने सुन ली थी। महर्षि के दर्शन से अद्भुत प्रभाव उसके मनपर पड़ा था। अपूर्व शान्ति का उसे आज अनुभव हुआ था। वहीं रहनेका उसने निश्चय कर लिया। पर उसके रहने से ऋषियों के तप में विघ्न पड़ेगा’ इस विचार से उसने अपने रहने के लिये ऋषियों के आश्रम से दूर एक छोटी-सी कुटिया बना ली।

उसने समझ लिया था भगवान् ‌के प्राणाधार उनके भक्त होते हैं। भक्तों की कृपा हो जाने पर भगवद्दर्शन निश्चय ही हो जायँगे। वह एक पहर रात्रि रहते ही ऋषियों की कुटियों के आस-पास की भूमि तथा पंपासर की ओर जाने वाले मार्ग पर झाड़ लगा देती। एक कंकड़ी भी किसी महर्षि या उनके सौभाग्यशाली भक्त के चरणों में चुभ न जाय, इसलिये वह बार-बार झाड़ लगाती और वहाँ जल छिड़ककर सुगन्धित पुष्प डाल देती। कुटियों के द्वार पर सूखी लकड़ियों का ढेर रख आती, जिससे समिधा लाने के लिये मुनिजनों को किसी प्रकार का कष्ट न उठाना पड़े।

शबरी का यह नित्य का काम था। पर मुनि लोग चकित थे। गुप्त रीति से यह सेवा कार्य कौन कर जाता है—ऋषिगण कुछ तै नहीं कर पाये। शिष्यों ने पहरा दिया। शबरी पकड़ ली गयी। मतंग ऋषि के सामने उपस्थित कर दिया शिष्यों ने उसे।।

शबरी काँप रही थी। उसमें बोलनेका साहस नहीं था। ऋषिकी अपराधिनी थी वह। मतंग ऋषिने उसे देखा। उनके मुँहसे निकल गया- भगवद्भक्तिमें जाति बाधा नहीं डाल सकती। शबरी परम भगवद्भक्त है। शिष्यगण एक-दूसरेका मुँह ताकने लगे। महर्षि मतंगने शबरीसे कहा, ‘तुम मेरी कुटियाके पास ही रह जाओ। मैं कुटियाकी व्यवस्था कर देता हूँ।

शबरी दण्डकी भाँति पृथ्वीपर लेट गयी। नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। आज उसका भाग्योदय हुआ है। अब वह तपोधन महर्षिकी सेवा खुलकर कर सकेगी।

मतंग ऋषिपर अन्य ऋषिगण कुपित हो गये।’ अनधिकार चेष्टा की है महर्षिने ! वे मर्यादाका उल्लंघन कर रहे हैं।’ नैष्ठिक तपोव्रतधारी ऋषि भगवद्भक्तकी महिमा नहीं समझ पा रहे थे।

'अधम कहींकी, स्पर्श कर दिया मुझे। पुनः स्नान करना पड़ेगा!’ क्रोधसे उन्मत्त एक ऋषि शबरीको डाँटकर पुनः पम्पासरकी ओर चले।

शबरी ध्यानमग्न जा रही थी, उसे ऋषिका ध्यान नहीं था। ऋषिके बिगड़नेका भी उसे कोई ध्यान नहीं हुआ। वह अपने प्राणधनके रूप और नाममें छकी हुई सरोवरसे लौट रही थी!

ऋषिने स्नान नहीं किया। सरोवरमें कीड़े पड़ गये थे। जल रक्तमें परिणत हो गया था। खिन्न होकर वे स्नान किये बिना ही लौट आये।

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‘आपके बिना मैं नहीं रह सकेंगी, मुनिनाथ! फूट-फूटकर रोती हुई शबरी महर्षि मतंगसे कह रही थी। 'मेरे आधार आप ही हैं। आपके ही द्वारा मुझे ऋषियोंकी थोड़ी-बहुत सेवाका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आपके ही चरणारविन्दों में रहकर मैं भगवान्‌को पानेके लिये विकल हो रही हूँ। आपके बिना मैं कहींकी नहीं रहूँगी। परमार्थ-सिद्धि भी नहीं कर सकेंगी। देव ! आपके साथ मैं भी अपना प्राण छोड़ देंगी प्रभो !’

‘अधीर मत हो, बेटी!’ मतंग ऋषिने शबरीको समझाया। 'मेरा अन्तिम समय निकट आ गया है। मुझे जाना ही चाहिये। पर तू अभी ठहर जा। दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम यहाँ शीघ्र आनेवाले हैं। तू उनके दर्शन करेगी और तेरी सारी साधना पूरी हो जायगी।’ ऋषिने नश्वर कायाको त्याग दिया। शबरी चिल्ला पड़ी।

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‘महर्षिकी बात सत्य होगी ही। भगवान् दण्डकारण्यमें पधारेंगे। मुझे दर्शन मिलेगा।’ शबरी आनन्दमें छकी रहने लगी। पत्तेकी खड़खड़ाहटसे भी वह चौंक जाती थी, कहीं भगवान् आ तो नहीं गये। वह प्रतिदिन मार्ग साफ करके मीलोंतक भगवान्‌को जोह आया करती थी। भगवान् पहले मेरे यहाँ पधारेंगे’ ऋषियोंका निश्चय था।

भगवान् आये और आते ही शबरीकी कुटियाका पता पूछने लगे। ऋषि चकित थे। प्रेमरूप भगवान् शबरीकी कुटियामें पधारे। आह! शबरीका क्या कहना?

सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥ सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥ प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥ –(रा०च०मा० ३।३४।६-९)

वह प्रेममें आत्मविभोर हो गयी थी। वाणी उसकी अवरुद्ध हो गयी थी। चरणोंको पकड़कर अनन्त सौन्दर्यमय भगवान्‌की ओर टकटकी लगाकर देखने और आँसू बहानेके अतिरिक्त वह और कुछ नहीं कर पा रही थी। उसके वशकी कोई बात नहीं थी।

'प्रभो! आपके लिये एकत्र किये हुए फल-मूलादि रखे हैं’ बड़ी कठिनतासे अर्थ्य-पाद्य देनेके बाद शबरीने कहा। वह चुने हुए मीठे-मीठे बेरोको प्रतिदिन भगवान्‌के लिये रखती थी। उन बेरोंको ले आयी। बड़े प्रेमसे देने लगी। भगवान् आनन्दपूर्वक खाने लगे। भगवान्‌को उन बेरों में इतना अधिक स्वाद और आनन्दका अनुभव हो रहा था, जैसे प्रेममयी जन्मदायिनी जननी कौसल्याजी उन्हें भोजन करा रही हों।

अपनी अभीप्सा-पूर्ति देखकर अत्यन्त प्रसन्नतासे हाथ जोड़कर वह अत्यन्त प्रेमसे प्रार्थना करने लगी—

केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥

अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥


शुद्ध प्रेम और दीनता देखकर भगवान्‌ने उत्तर दिया—

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥


फिर भगवान्‌ने उसके सामने नवधा भक्तिका निरूपण किया। इसी बीचमें ऋषियोंका समुदाय (शबरीके आश्रममें) भगवान्‌के दर्शन-निमित्त आ गया। उस समय ऋषियोंका ज्ञानाभिमान लुप्त हो गया था। वे मतंग ऋषिके तिरस्कारके लिये मन-ही-मन पश्चात्ताप करने लगे थे। उनके मुँहसे निकल गया—‘शबरी! तू धन्य है।

पम्पासरमें कीड़े पड़ने और जल रक्तके रूपमें परिणत होनेके सम्बन्धमें श्रीलक्ष्मणजीने ऋषियोंको बताया,—‘मतंगमुनिसे द्वेष एवं बालब्रह्मचारिणी, संन्यासिनी, परम भगवद्भक्त और साध्वी शबरीके अपमान करनेसे तथा आपलोगोंके अभिमानसे सरोवरकी यह दुर्दशा हुई है। शबरीके पुनः स्पर्श करते ही वह शुद्ध हो जायगा।'

भगवान्‌के आदेशानुसार शबरीने सरोवरको स्पर्श किया, उसका जल पूर्ववत् निर्मल हो गया।

भगवान् उसकी कुटियासे चलने लगे। शबरी अधीर हो गयी। चरणोंकी दृढ़ भक्ति भगवान्‌ने उसे दे ही दी थी। अब उसे कुछ पाना शेष नहीं था। उसकी सारी आकांक्षा प्रभुने पूरी कर दी थी, अब वह भगवान्‌से विलग होकर किसलिये जीवन-धारण करती। ऋषिजनोंके सामने ही उसने अपनी पार्थिव देह त्याग दी। ऋषिगण शबरीका जय-जयकार करने लगे। धन्य थी शबरी और धन्य थी शबरीकी प्रेममयी अद्वितीय भक्ति!

भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज शबरीके भक्तिमय दिव्य चरित्रको रूपायित करते हुए निम्न कवित्तोंमें लिखते हैं उन कवित्तोंका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है—

शबरी वनमें निवास करने लगीं, इनके मनमें साधु-सन्तोंकी टहल करनेकी बड़ी इच्छा थी, पर साधुसन्त सेवा स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिये थोड़ी रात रहनेपर ही वे ऋषियोंके आश्रममें छिपकर जातीं और लकड़ियोंके बोझ रख आतीं। प्रात:काल शीघ्र ही उठकर सरोवरपर जाने-आनेके मार्गको झाड़-बुहारकर उसकी कंकड़ियोंको बीनकर अलग डाल देती थीं। यह सेवा करते हुए इनको कोई भी नहीं देख पाता था। सबेरे उठकर ऋषिलोग आपसमें कहते कि मार्गको नित्य कौन झाड़ जाता है और लकड़ियोंके बोझ कौन रख जाता है?

वनवासी ऋषियोंमें एक मतंग नामक ऋषि थे। वे परम विरक्त और भक्तिरसके आनन्दसे परिपूर्ण थे। लकड़ियोंके बोझ रखे देखकर वे अपने शिष्योंसे कहने लगे कि इस तपोवनमें ऐसा कौन आ गया? जो नित्य चोरीसे सेवा करता है। उसे एक दिन पकड़ो, उस सन्त-सेवा-प्रेमीभक्तके प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिये। आज्ञा पाकर मतंगजीके शिष्य सावधानीसे पहरा देने लगे। जैसे ही शबरीजीने लकड़ियोंका बोझ रखा, वैसे ही शिष्योंने उसे पकड़ लिया। वह बेचारी भय और संकोचवश काँपने लगी और उनके पैरों पर गिर गयी। उस भक्तिमयी भीलनीको देखते ही मतंगजीके आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी।

मतंगजी भगवद्भक्तिके प्रभावको बहुत अच्छी तरह जानते थे। वे सोच-विचारकर शिष्योंसे बोले कि भक्तिके प्रतापसे यह इतनी पवित्र है कि इसके ऊपर कई कोटि ब्राह्मणता न्यौछावर कर देनी चाहिये। मतंगजीने शबरीको आश्रमकी एक पर्णकुटीमें रहनेका स्थान दिया और उसके कानमें श्रीसीताराम मन्त्र दिया और कहा, 'मैं प्रभुकी आज्ञासे उनके धामको जा रहा हूँ, तुम इसी आश्रममें रहकर भजन करो। यहीं श्रीरामजीका दर्शन प्राप्त करोगी।'

गुरुदेव श्रीमतंगजीके वियोगने शबरीजीके हृदयको बड़ा कठोर कष्ट दिया, उनसे जीवित नहीं रहा जाता था, पर श्रीरामजीके दर्शनोंकी आशा लगी थी, इसीलिये जीवित रहीं। मुनियोंके स्नानमार्गको थोड़ी रात रहे झाड़-बुहार आती थीं। एक दिन विलम्ब हो गया। स्नानके लिये ऋषि आने-जाने लगे, मार्ग सँकरा था, कोई ऋषि शबरीजीसे किंचित् छू गये। तब वे अनेक प्रकारसे शबरीजीको डाँटने-फटकारने लगे। शबरीजी भागकर अपनी कुटीमें चली आयीं। वे ऋषि सोच-विचार करके पुनः स्नान करनेके लिये गये। सरोवरमें प्रवेश करते ही उसका जल अनेक कीड़ों से भरे हुए रुधिरके समान हो गया। इससे ऋषिको एक नया दु:ख उत्पन्न हो गया। भक्तस्पर्शसे अपनेको अपवित्र समझनेवाले मुनिके अपराधसे ही सरोवरका जल अपवित्र हुआ था, पर उस अभागेने यह रहस्य नहीं जाना। उलटे ऐसा समझा कि शबरीके स्पर्शजन्य दोषसे ही जल दूषित हो गया है।

शबरीजीको श्रीरामजीकी बड़ी भारी चिन्ता रहती, वे आगमनकी प्रतीक्षामें अति व्याकुल रहतीं। वनसे बेर बीन-बीनकर लातीं, चखकर देखतीं (जिस वृक्षके) जो फल मीठे होते, उन्हें श्रीरामके योग्य समझकर उनके लिये रखती थीं। उत्कण्ठावश अपने प्रभुके आगमनके मार्गमें जाकर उसे स्वच्छ एवं कोमल बनाती एवं सोचा करतीं कि राघवेन्द्रसरकार कब आयेंगे? कब मेरे नेत्र उसके दर्शनरूपी अमृतका आस्वादन करेंगे? इसी प्रकार प्रभुके आगमनकी बाट देखते-देखते जब बहुत दिन बीत गये, तब एक दिन अचानक ही श्रीरामजी आ गये। उसके सभी शोक मिट गये। परंतु उसे अपने शरीरके नीचकुलमें उत्पन्न होनेकी बात याद आ गयी, इसलिये वह संकोचवश भागकर कहीं छिप गयी।

भगवान् श्रीराम वनवासी लोगोंसे और ऋषियोंसे पूछते-पूछते वहाँ आये, जहाँ शबरीजीका स्थान था। वहाँ शबरीको न देखकर भगवान् कहने लगे कि भाग्यशालिनी हरिभक्ता कहाँ है? मेरे नेत्र उसके दर्शनरूपी सुधाके प्यासे हैं। स्वयं सरकार मेरे आश्रममें पधारे—यह जानकर शबरीजी भी आश्रमकी ओर दौड़ीं। दूरसे ही जहाँसे प्रभुको देखा वहींसे सप्रेम साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया। शबरीके नेत्र प्रफुल्लित हो गये। भगवान्‌ने समीप जाकर शीघ्रतासे ललककर उसे उठा लिया। कोमल करकमलके स्पर्शसे तन-मनकी सब व्यथा दूर हो गयी। नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी झड़ी लग गयी। भगवान् श्रीराम परम सुखी होकर आसनपर विराजे । शबरीजीने अर्घ्यपाद्यपूर्वक बेर आदि फल अर्पण किये। श्रीरामजीने उन्हें प्रेमसे खाकर उनके अद्भुत सुन्दर स्वादको बार-बार प्रशंसा की।

उधर सभी ऋषि आश्रममें बैठकर सोच-विचार कर रहे थे कि सरोवरका जल बिगड़ गया है, उसे शुद्ध करनेके लिये यज्ञ-याग, सर्वतीर्थजलनिक्षेप आदि सब उपाय हमने कर लिये, पर वह शुद्ध नहीं हुआ, अब बताओ वह कैसे सुधरे? सबोंने परस्पर विचारकर निश्चय किया कि वनके मार्गसे श्रीरघुनाथजी आ रहे हैं, यह सुना है, जब वे आयें, तब हमलोग उनसे कहें कि आप इसका भेद बताइये। इतनेमें ही उन ऋषियोंने सुना कि श्रीरामजी तो शबरीके आश्रम में आकर विराजे हैं। तब सबका ब्राह्मणत्व का अहंकार दूर हो गया और वे कहने लगे कि चलो, वहीं चलकर उनके चरणों में प्रणाम करें। वे ऋषिगण शबरीके आश्रममें आकर बोले—प्रभो श्रीराम ! आप सरोवरके जलको शुद्ध करनेका उपाय बताइये। भगवान् ‌ने उत्तर दिया कि शबरी के चरणोंका स्पर्श करो, उसके बाद सरोवरके जलसे इसके चरणस्पर्श कराओ। जल तुरंत पवित्र हो जायगा? भगवान्‌ की आज्ञा से ऋषियों ने ऐसा ही किया। सरोवर का जल अति निर्मल हो गया। भक्ति की ऐसी महिमा देखकर ऋषियों के हृदय प्रेमभाव से द्रवित हो गये।

महर्षि मतंग की वाणी आज सत्य हो गयी थी। भगवान्‌ ने उसे नवधा भक्ति का उपदेश दिया। शबरी ने सीता जी की खोज के लिये प्रभु को सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयंको योगाग्नि में भस्म कर सदा के लिये श्रीराम के पाद-पद्मों में लीन हो गयी।

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