संत श्रीपीपा Renu द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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संत श्रीपीपा


भक्तवर श्री पीपा जी पहले भवानी देवी के भक्त थे। मुक्ति माँगने के लिये आपने देवी का ध्यान किया, देवी ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर सत्य बात कही कि मुक्ति देने की शक्ति मुझमें नहीं है, वह शक्ति तो भगवान्में है। उनकी शरण में जाना ही सुदृढ़ साधन है। देवीजी के उपदेशानुसार आचार्य श्री रामानन्दजी के चरणकमलों का आश्रय पाकर श्री पीपा जी अतिभक्ति की अन्तिम सीमा हुए। गुरुकृपा एवं अतिभक्ति के प्रभाव से आपमें असंख्य-अमूल्य सद्गुण थे, उन्हें सन्तजन सदा गाते रहते हैं। भक्त, भक्ति, भगवन्त और गुरुदेव की आपने ऐसी आराधना की कि उसका स्पर्श करके अर्थात् देख-सुन और समझ करके सम्पूर्ण वैष्णवों की आराधना-प्रणाली अत्यन्त सरस हो गयी। आपने अपने प्रभाव से सम्पूर्ण संसार का कल्याण किया। इसका प्रमाण यह है कि आपने परम हिंसक सिंह को उपदेश देकर अहिंसक और विनीत बना दिया।
श्रीपीपाजीसे सम्बन्धित कुछ विवरण इस प्रकार है–

(1) श्रीरामानन्दाचार्य जी का शिष्य बनने की घटना–
गागरौनगढ़ नामक एक विशाल किला एवं नगर है, वहाँ पीपा नामक एक राजा हुए। वे देवी के बड़े भक्त थे। एक बार उस नगरमें साधुओं की जमात आयी। राजा ने जमात का स्वागत करके कहा– “देवीजी को चालीस मन अन्न का भोग लगता है, सभी लोग प्रसाद लेते हैं, आप लोग भी देवीजी का प्रसाद ग्रहण कीजिये।”
साधुओं ने कहा– “हमारे साथ श्रीठाकुरजी हैं, हम उन्हीं को भोग लगाकर प्रसाद लेते हैं, दूसरे देवी-देवताओं का नहीं।”
तब राजा ने उन्हें सीधा-सामान दिया। साधुओं ने रसोई करके भगवान् का भोग लगाया और मन-ही-मन प्रार्थना की हे प्रभो! इस राजा की बुद्धि को बदल दीजिये, इसे अपना भक्त बना लीजिये। रात को जब राजा महल में सोया तो उसने एक बड़ा भयानक स्वप्न देखा कि एक विकराल देहधारी प्रेतने उसे पटक दिया है। वह भयभीत होकर रोने लगा। जागते ही राजा ने स्वप्न की घटना पर विचार किया, तब उसे वैराग्य हो गया। अब राजा के सोचने विचारने की रीति दूसरी हो गयी। उसे भगवान् की भक्ति विशेष प्रिय लगने लगी।

राजा ने देवी से माया से मुक्ति एवं भगवत्प्राप्ति का मार्ग पूछा, तब देवीजी ने सही बात कही कि “काशी में विराजमान श्रीस्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु बनाओ और उनके बताये हुए मार्गपर चलकर भगवान् को प्राप्त करो।” देवी जी की आज्ञा पाकर राजा ने काशी को प्रस्थान किया। श्रीस्वामीजी के दर्शनों की इच्छा से राजा ने जब श्रीमठ में प्रवेश करना चाहा तो द्वारपालों ने कहा कि आचार्य श्री की आज्ञा के बिना कोई भी भीतर नहीं जा सकता है। आप अपना परिचय दें। इन्होंने कहा– “हम गागरौनगढ के राजा हैं।” जब स्वामीजी से जाकर यह बात कही गयी। तब द्वारपालों से श्रीस्वामी जी ने कहा कि हमलोग तो विरक्त हैं, राजाओं से हमें क्या प्रयोजन ? यह सुनकर पीपाजी ने राजशाही वेष का त्याग करके फिर शरणागति की प्रार्थना कहला भेजी। देहासक्ति का निराकरण करने के लिये श्रीस्वामीजी ने आदेश दिया “कुएँ में गिर पड़ो।” आज्ञा सुनते ही मन में अत्यन्त प्रसन्न होकर पीपा कुएँमें गिरने चले। परंतु श्रीस्वामीजी के सेवकों ने पकड़ लिया। इनकी दृढ़ निष्ठा देखकर श्रीस्वामीजी बड़े प्रसन्न हुए और इन्हें बुलाकर दर्शन दिया।

श्रीस्वामी रामानन्दाचार्यजी ने भक्त पीपा को मन्त्र-दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और इनके ऊपर विशेष कृपा की। गुरुदेवके अनुग्रह से श्रीपीपाजी ने भगवद्भक्ति को दृढ़तापूर्वक अपने हृदयमें धारण किया। श्रीस्वामीजीने इन्हें आज्ञा दी कि “अब तुम अपनी राजधानी गागरौनगढ को जाओ और वहीं घरमें रहकर साधु-सन्तों की सेवा करो। एक वर्ष बीतने पर जब हम तुम्हारी सेवा को सरस जानेंगे और यह देख लेंगे कि तुम सन्तों की सेवा में सुख मानते हो और तुम्हारी सेवा से सुखी होकर सन्त तुम्हारे यहाँ से विदा होते हैं, तब हम तुम्हारे घर आयेंगे, वहीं हमारा दर्शन करना।” श्रीस्वामीजी की ऐसी आज्ञा पाकर श्री पीपाजी घर को लौट आये और बड़ी सुन्दर रीति से सन्त-सेवा करने लगे। जब वर्ष पूरा होने लगा, तब आपने गुरुदेव भगवान् को एक पत्रमें लिखकर भेजा कि “दास पर आप कृपा कीजिये, अपने वचनों का पालन कीजिये।” पत्र पाकर श्रीस्वामी जी अपने प्रिय चालीस भक्तों को साथ लेकर गागरौनगढको चले।

आचार्य श्रीरामानन्दजी महाराज कबीरदास, रैदास आदि अपने चालीस शिष्य-सेवकों को साथ लेकर गागरौनगढ़ के निकट पहुँचे। श्रीगुरुदेव के शुभागमन का समाचार पाते ही पीपाजी पालकी लेकर आये। आपने स्तुति करके गुरुदेव को तथा सभी साधुओं को अलग-अलग दण्डवत् प्रणाम किया। उत्साहपूर्वक बहुत-सा धन 'मुहरें' न्यौछावर करके, लुटा करके समस्त समाज को अपने राजभवन में पधराया। श्रीस्वामीजी ने पीपाजी की भक्त-भगवन्त में दृढ़ भक्ति तथा सेवा की सुन्दर रीति देखकर उनसे कहा– “तुम्हारी इच्छा हो तो घर पर रहकर सेवा करो अथवा विरक्त होकर भजन करो, दोनों ही तुम्हारे लिये समान हैं।” श्रीगुरुदेवमें तथा उनकी आज्ञामें विश्वास करके उनके श्रीचरणों में पड़कर पीपाजी ने प्रार्थना की कि अपने चरणों में ही रखिये।

श्रीपीपाजी जब घर छोड़कर श्रीस्वामीजी के साथ चलने को तैयार हुए, तब उनकी सभी बीसों रानियाँ भी उनके साथ चलने के लिये तैयार हो गयीं। तब श्री पीपाजी ने कहा – "यदि तुम सबको मेरे साथ ही चलना है तो कमरी को फाड़कर उसकी अलफी पहन लो और मूल्यवान् वस्त्र तथा सभी गहने उतारकर फेंक दो। साधुवेष धारण करके चलो।" ऐसा त्याग वे नहीं कर सकीं, सभी रोने लगीं। परंतु उनमेंसे जो सबसे छोटी रानी सीता सहचरीजी थीं, वे इसके लिये तैयार हो गयीं। उन्होंने अलफी गले में डाल ली, सभी आभूषण उतार दिये, तब राजा ने दूसरी आज्ञा दी कि "अधोवस्त्र मात्र रखो, इस अलफी को भी उतारकर फेंक दो।" सुनते ही सीता सहचरी अलफी उतारकर फेंकने लगीं। यह देखकर श्रीस्वामीजी को दया आ गयी। उन्होंने श्रीपीपाजी को आज्ञा दी कि इनको साथ में ही रखो।

(2.) श्रीपीपाजी तथा उनकी रानी को श्रीकृष्णदर्शन होने की कथा–

श्रीस्वामीजी के अधिक आग्रह करने और शपथ दिलाने पर श्रीपीपाजी सीता सहचरी को अपने साथ ले चलने के लिये तैयार हो गये। राजा को रोकने के लिये रानियों ने एक ब्राह्मण को बहुत-सा धन देकर उसे प्रेरित किया, उसने कहा–
“मैं राजाको कदापि न जाने दूंगा।”
श्रीपीपाजी के समझानेपर भी उसने अपना हठ नहीं छोड़ा। ये भी रुकनेको नहीं तैयार हुए, तब उस ब्राह्मण ने विष खा लिया और मर गया। तब श्रीस्वामीजी ने उसे जीवित करके उसे और रानियों को लौटा दिया। कालान्तरमें श्रीपीपा जी और श्रीसीता सहचरी जी सन्तसमाज के साथ आनन्ददायिनी श्रीद्वारकापुरी पहुँचे। कुछ दिनों तक सभी लोग वहाँ रहे। जब श्रीस्वामी जी अपने शिष्य-सेवकों को लेकर वहाँ से काशीपुरी को चले, तब श्रीपीपाजी ने प्रार्थना करके कुछ दिन द्वारका में रहने की आज्ञा माँगी और आज्ञा पाकर वहीं रह गये। रहते-रहते इन्हें भगवान् के दिव्य द्वारकापुरी के दर्शनों की ऐसी उत्कट उत्कण्ठा हुई कि आप समुद्रमें कूद पड़े। उसी क्षण श्रीकृष्ण ने अपने कुछ सेवकों को इन्हें लिवा लाने के लिये भेजा, वे इन्हें सादर लिवा लाये। श्रीपीपाजी ने दिव्य द्वारका का दर्शन किया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े प्रेमसे मिले और फिर सीता सहचरीसमेत श्रीपीपाजी सानन्द सात दिनतक वहाँ रहे। सात दिन बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने इन लोगों को इस दिव्य द्वारका से उस द्वारका को जाने की आज्ञा दी। परंतु ये वहाँ से जाना नहीं चाहते थे। तब श्रीश्यामसुन्दर ने बड़े प्रेमसे कहा– “मेरे जिस रूप के दर्शन तुमने किये हैं, उसीमें मनको दिये हुए तथा उसी रूपमाधुरी का पान किये हुए, वहाँ जाकर भी उसे ही देखते रहोगे, अतः विरहव्यथा न व्यापेगी। यदि तुमलोग नहीं जाओगे तो संसारमें ‘ऐसे भक्त डूब गये’ यह जो कलंक लग गया है, कैसे मिटेगा?” इसके पश्चात् भगवान् के द्वारा दी गयी शंख-चक्र की छाप को तथा भगवान् की आज्ञा आपने स्वीकार की।

भगवान् स्वयं भक्तवर श्रीपीपा और सीता सहचरी को पहुँचाने के लिये चले। समुद्र के बाहर तक पहुँचाकर आप लौट आये। सपत्नीक श्रीपीपाजी जब समुद्र से निकलकर तट पर आये तो लोगोंने एक विचित्र बात देखी कि आप दोनों के वस्त्र सूखे हैं, परंतु हृदय प्रेमसे सराबोर है। जिन लोगों ने समुद्र में कूदते हुए इन्हें देखा था, उन्होंने पहचान लिया और सभी लोग आकर आप दोनों के पैरों में लिपट गये। श्रीपीपाजी ने भगवान् की दी हुई शंख-चक्र की छाप लोगों के शरीर पर लगायी। द्वारका में आपके दर्शनों के लिये नित्य भारी भीड़ होने लगी, तब सीता सहचरीजी ने श्रीपीपाजी को समझाकर कहा कि “अब यहाँ से कहीं अन्यत्र चलो, यहाँ भजन में बाधा हो रही है।” दोनों द्वारका से चल दिये। छठे मुकाम पर पहुँचते ही इन्हें पठान मुसलमान मिल गये। उन्होंने सीता सहचरी को छीन लिया। उसी समय भगवान् दौड़कर आ गये और दुष्टों को मारकर सीता सहचरी को ले आये। इस प्रकार इनकी रक्षा करके और दर्शन देकर प्रभु ने इन्हें आनन्दित किया।


(3.) पीपाजी द्वारा हिंसक सिंह को अहिंसक वैष्णव बनाना–

श्रीपीपा ने श्रीसीता सहचरीसे कहा– “देखो, यहाँ कैसे-कैसे संकट आते हैं, अतः अच्छा होगा कि अब भी तुम घर को चली जाओ ।” श्रीसीता सहचरी ने उत्तर दिया– “भगवन्! हरि ही भय को हरने वाले हैं, रक्षक हैं, वे ही रक्षा करेंगे।” इसके उपरान्त दोनों उसी मार्गसे चले, जिसमें एक सिंह रहता था। जो बहुतों को मारकर खा चुका था, परंतु इनके दर्शन से उसका अन्तःकरण पवित्र हो गया। वह विनीत भाव से इनके निकट बैठ गया। तब इन्होंने उसे शिष्य करके समझाया कि “अब तुम वैष्णव हो गये, अतः किसी की हिंसा न करना।” इसके बाद वे दूसरे गाँव में पहुँचे। वहाँ आपने शेषशायी भगवान् के दर्शन किये और दुकानदार के न देने पर सूखे बाँसों को हरा करके एक हरा बाँस भगवान् को अर्पण किया। वहाँ से चलकर आप परम प्रेमी भक्त श्रीचीधरजी के यहाँ पहुँचे।

(4.) श्री चीधरदम्पती की सन्तनिष्ठा–
भक्त चीधरजी और उनकी धर्मपत्नी ने देखा कि परम भागवत श्रीपीपाजी अपनी स्त्री समेत पधारे हैं तो वे परम प्रसन्न हुए, परंतु घर में खाने-पीने का कुछ भी सामान नहीं था; क्योंकि इनकी वृत्ति अत्यन्त अपरिग्रही थी। श्रीचीधर जी की स्त्री ने अपना एक मात्र वस्त्र दे दिया। श्रीचीधर जी उसे बेचकर सीधा-सामान ले आये और श्रीपीपाजी के सामने रखकर बोले– “महाराज ! रसोई कीजिये और भगवान् का भोग लगाइये।” वस्त्र बिक जाने के कारण भगतिन का शरीर नग्न हो गया था, अतः श्रीचीधर ने उन्हें कोठरी में छिपा दिया। श्रीसीता सहचरीजी ने रसोई तैयार कर दी, भगवान् का भोग लग गया। श्रीपीपाजी ने श्रीचीधर भक्त से कहा “भगतिन को बुला लाइये, आप और हम सब एक साथ ही बैठकर प्रसाद पायेंगे।” श्रीचीधर जी ने कहा– “आप लोग प्रसाद पायें, उसे सीथ-प्रसाद प्रिय है। वह बाद में पा लेगी।” तब श्रीपीपाजी ने सीता सहचरी से कहा “तुम भीतर जाकर उन्हें बुला लाओ और उन्हें भी साथ ही प्रसाद पवाओ।” तब वे भीतर गयीं तो उन्होंने जाकर देखा कि वह नग्न बैठी हैं।

सीता सहचरीजी ने जब भगतिन को नग्न देखा तो पूछा– “कहिये, क्या बात है, आपका शरीर उघारा क्यों है?” तब श्रीचीधर जी की स्त्री ने कहा– “हम लोगों को सन्त-सेवा हृदय से अत्यन्त प्रिय लगती है। अतः हमारा समय इसी प्रकार बीतता है। जब सन्त भगवान् पधारते हैं, तब उनका दर्शन-सत्संग एवं स्वागत करके हमें अपार सुख होता है। उस परमानन्द के सामने यह नश्वर शरीर ढका है अथवा उघारा है, इसकी क्या चर्चा की जाय?” सीता सहचरीजी ने जब ये बातें सुनीं, तो सब रहस्य उनकी समझमें आ गया। इसके उपरान्त सीता सहचरीजी ने अपनी धोती में से आधी फाड़कर उन्हें दिया। उसे उन्होंने पहन लिया, तब उनका हाथ पकड़कर उन्हें घर से वहाँ लिवा लायीं। सबों ने एक साथ बैठकर प्रसाद पाया। सन्त-सेवा के प्रति निष्ठा की इस अनोखी घटना को सीता सहचरी ने बाद में शयन करते समय पीपाजी को सुनाया।*

(5.) श्रीसीता सहचरीजी की सन्त-सेवा का दृष्टान्त
सपत्नीक भक्त श्रीचीधर जी की सन्त-सेवा-निष्ठा से प्रभावित होकर सीता सहचरी जी ने अपने पतिदेव से कहा- “अब तो हमारा धर्म यह है कि हम अपना तन बेचकर भी सन्त-सेवा करें।” ऐसा निश्चयकर वे दोनों वहाँ जाकर बैठे, जहाँ अनाज की बड़ी मण्डी थी। श्रीसीता सहचरी की अपार सुन्दरता से आकृष्ट हो करके वे लोग एकत्र हो गये जो रूप निरखने के लोभी थे। समीप आकर जब उन लोगों ने उनको देखा तो उनके नेत्रों का रोग अर्थात् उनकी विषय-दृष्टि नष्ट हो गयी। लोगों ने श्रीसीता सहचरी जी से पूछा कि “आप कौन हैं? आपके साथ ये सज्जन आपके कौन हैं?” इन्होंने उत्तर दिया- “हम सन्त सेवा के लिये बिकने को प्रस्तुत हैं, हमारे घर-द्वार कुछ भी नहीं है और हमारे साथ में यह हमारा सेवक है।” यह सुनकर वे सब स्तब्ध खड़े-के-खड़े ही रह गये। फिर जिन लोगों ने उन्हें द्वारका में देखा था, उन्होंने पहचानकर बताया- “अरे! ये परमभक्त श्रीपीपाजी और ये उनकी धर्मपत्नी सीता सहचरीजी हैं।” तब तो लोगों ने उनके आगे अन्न-वस्त्र और मुहरों के ढेर लगा दिये। श्रीपीपाजी ने वह सब सामान भक्त चीधर के यहाँ भेज दिया।


(6.) श्रीपीपाजी को स्वर्णमुहरों की प्राप्ति और उनका त्याग–
श्रीचीधर भक्त से आज्ञा माँगकर उनसे विदा लेकर सीता सहचरी समेत श्रीपीपाजी टोंड़े ग्राम आये और गाँव से बाहर कुटी बनाकर रहने लगे। एक दिन आप स्नान करने के लिये गये थे तो वहाँ एकाएक आपको मुहरों से भरे हुए कई मटके दिखायी पड़े। उस मिले हुए धन को त्यागकर आप चले आये। रात में सीता सहचरीजी से आपने बताया कि उस सरोवरपर स्वर्णमुद्राओं से भरे मटके मैं छोड़ आया हूँ। सुनकर उन्होंने कहा- “अब आप उस तालाब पर स्नान करने मत जाइयेगा।” संयोगवश चोरी करने की इच्छा से वहीं कहीं कुटी के पास छिपे हुए चोरों ने यह बात सुन ली। वे तुरंत उसी सरोवरपर गये और जाकर देखा तो उन पात्रोंमें साँप भरे हुए हैं। चोरों ने समझा कि वे हमें साँपों से कटवाकर मरवा डालने के लिये ही ऐसी बातचीत आपसमें कर रहे थे। बदला लेने की भावना से उन चोरों ने मुहरभरे सभी मटके उखाड़े और श्रीपीपाजी की कुटीमें पटककर भाग गये। जब श्रीपीपाजी ने गिना, तब मालूम पड़ा कि सात सौ बीस सोने की मुहरें हैं और एक-एक मुहर तौलमें पाँच-पाँच तोले की है।

(7.) राजा सूर्य सेनमल का पीपाजी का शिष्य बनना–
श्रीपीपाजी उस धन से साधु-महात्माओं को निमन्त्रण देकर बड़े-बड़े विशाल भण्डारे करने लगे। असंख्य सन्त प्रसाद पाने लगे। इस प्रकार खिला-पिलाकर सम्पूर्ण धन को श्रीपीपाजी ने तीन दिनमें समाप्त कर दिया। आपकी इस विशाल कीर्ति को टोंडे के राजा सूर्यसेनमल ने सुना तो वह दर्शन करने के लिये आया और दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुआ। फिर बड़ी नम्रता से राजा ने प्रार्थना की और कहा “आप मुझे शिष्य बना लीजिये। जैसी आज्ञा मुझे देंगे, मैं वही करूंगा।” तब आपने आज्ञा दी कि यदि ऐसा है तो आप अपनी सब सम्पत्ति और रानियों को यहाँ लाकर मुझको अर्पण कर दो। राजा ने राज्य और रानियाँ उन्हें अर्पण कर दीं।

इस प्रकार श्रीपीपाजी ने राजा की परीक्षा लेकर उसको मन्त्र दीक्षा दी। फिर सम्पत्ति और रानियों को लौटाकर कहा कि “सम्पूर्ण राज्य तथा ये रानियाँ आज से अब हमारी हैं, इनमें अब ममता न रखना। मेरी आज्ञा से इनका पालनपोषण करना।” रानियों को आज्ञा दी कि “सन्तों की सेवा करना।” इसके बाद राजा ने बहुत अनुनय-विनय करके गुरुदेव को एक घोड़ा और सन्त-सेवार्थ बहुत-सा धन भेंट किया। आपने उसमें से कुछ धन रख लिया। शेष लौटा दिया। गुरुदेव के उपदेशानुसार राजा ने अहंकार को त्याग दिया और सभी जीव-जन्तुओं को अपने से बड़ा मानने लगा। यह समाचार सुनकर राजा के भाई-बन्धु जल-भुन गये, परंतु महान् प्रतापी सीतापति श्रीपीपाजी से वे कुछ भी कह न सके। इसी बीच एक व्यापारी बैलों को खरीदनेके लिये टोंड़े गाँव को आया। राजा के भाइयों ने उसे बहकाया कि पीपा भगत बैलों के बहुत बड़े व्यापारी हैं, उनके पास बहुत अच्छे-अच्छे बैल हैं, वहीं चले जाओ।

(8.) पीपाजी के जीवन की विलक्षण घटनाएँ
लोगों के बहकाने में आकर वह व्यापारी श्रीपीपाजी के पास आया और थैली खोलकर रुपये इनके सामने रखते हुए बोला– मैं बैल लेने आया हूँ, मुझे बैल दीजिये। श्रीपीपाजी ने कहा– “आपको जितने बैल चाहिये, उतने मिल जायँगे, परंतु आज अभी यहाँ नहीं हैं। गाँव में चरने के लिये भेज दिये गये हैं। कल दोपहर को आकर आप ले लीजियेगा। ” इसके बाद वह व्यापारी तो रुपये देकर चला गया। आपने सन्तों को बुलवाकर भण्डारा महोत्सव कर दिया। उसी में सब रुपये खर्च कर दिये। वह बनजारा निर्धारित समयपर आ गया और बोला- “मुझे बैल दीजिये। बैल कहाँ हैं?” उस समय पंगत हो रही थी, सैकड़ों सन्त बैठे प्रसाद पा रहे थे। श्रीपीपाजी ने पंगत की ओर हाथ से संकेत करके कहा “यही सब मेरे बैल (धर्मस्वरूप सन्त) हैं, मैं इन्हीं का व्यापार करता हूँ। इनमें से जितने आपको चाहिये, आप उतने ले जाइये।” उस व्यापारी ने सन्तों के दर्शन किये, उसके हृदयमें भक्ति का भाव भर गया। वह उसी समय बाजार गया और वस्त्र लाकर उसने सभी साधुओं को पहनाया।

एक दिन श्रीपीपाजी घोड़ेपर चढ़कर स्नान करनेके लिये सरोवरपर गये । घोड़े को वहीं छोड़कर आप स्नान करने लगे। इतने में ही दुष्ट चोरोंने आकर घोड़ा पकड़ लिया और उसे छिपाकर बाँध दिया। आप जब स्नान करके आये तो घोड़ा ज्यों-का-त्यों वहीं पर खड़ा मिला। मानो उसी को ले आये हों । घोड़े पर चढ़कर आप अपने आश्रम में आ गये। जब चोरों ने यह चमत्कार देखा तो वे डर गये और घोड़े को ले आये। तब वह घोड़ा नहीं दिखायी पड़ा। उन्होंने चोरी छोड़कर शिष्यता स्वीकार की।

(9.) श्रीपीपादम्पती के सन्तनिष्ठा की अद्भुत कथा–
एक बार श्रीपीपाजी राजा सूर्यसेनमल के यहाँ एक झगड़ेका फैसला करने के लिये गये थे। आपके चले जानेके बाद कुटीपर कुछ सन्तजन पधारे। संयोगवश उस दिन कुटी में अन्न-धन कुछ भी नहीं था। सन्त-सेवा के लिये कहीं जाकर कुछ ले आऊँ, ऐसा विचारकर श्रीसीता सहचरीजी बाजारको गयीं। वहाँ इन्हें देखकर एक दुराचारी बनिये ने बुलाकर पूछा आपने सामानकी आवश्यकता बतायी। तब उसने सब सीधा-सामान देकर कहा- “आप रात को मेरे पास अवश्य आइये।” सन्त-सेवा की अपरिहार्य आवश्यकता के कारण सीता सहचरी जी मौन ही रहीं और आवश्यक सामग्री लेकर कुटीपर आ गयीं। रसोई हुई और भोग लगाकर जब महात्मालोग भोजन कर रहे थे, उसी समय श्रीपीपाजी पधारे। उन्होंने पूछा कि सामान कहाँ से आया तो श्रीसीता सहचरीजी ने सब बात बतला दी। उसे सुनकर श्रीपीपाजी ने उसकी सन्त-सेवा-निष्ठा की बड़ी प्रशंसा की। सायंकाल सीतासहचरी जी को साथ लेकर वे स्वयं उस बनिये के यहाँ पहुँचे।

इनके दर्शन-चिन्तन से एवं अन्न के सन्तभगवन्त की सेवामें लगने से उसकी बुद्धि शुद्ध हो चुकी थी, अतः मुखपर दृष्टि न पड़कर उस बनिये की दृष्टि इनके चरणों पर पड़ी। इनके सूखे श्रीचरणों को देखकर उसने पूछा- “माताजी! आप यहाँ तक कैसे आयी हैं?” इन्होंने उत्तर दिया- “स्वयं श्रीस्वामीजी अपने कन्धेपर बिठाकर लाये हैं।” फिर उसने पूछा- “वे कहाँ हैं?” आपने कहा- “तुम जाकर देखो, वे बाहर ही होंगे।” यह सुनकर वह सीता सहचरीजी के चरणों में गिर पड़ा और रोने लगा। फिर बाहर आकर श्रीपीपाजी के चरणों को पकड़कर बोला- “आप कृपा करके हमारी रक्षा करो, आप तो जीवमात्र को सुख देनेवाले सन्त हैं।” श्रीपीपाजी ने कहा- “आप अपने मन में किसी प्रकार की शंका एवं भय न करें। निःसंकोच एवं निडर होकर अपना काम करें। आपने हम लोगों के साथ बड़ा भारी उपकार किया है। जिस धन के वास्ते सहोदर भाई भी परस्पर लड़ते और मरते-मारते हैं। वह धन आपने बिना रुक्का लिखाये ही सन्तों की सेवा के लिये दे दिया।” वह बनिया लज्जा और ग्लानि के मारे दबा मरा जा रहा था। वह चाहता था कि धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ तो अच्छा है। श्रीपीपाजी ने उसे इस प्रकार दुखी देखा तो उन्हें बड़ी दया आयी। उसे दीक्षा दी, वह भगवद्भक्ति पाकर कृतार्थ हुआ।

(10) राजा सूर्यसेनमल को ज्ञान प्रदान करना
श्रीपीपा जी के सीता सहचरी को कन्धेपर चढ़ाकर बनियेके यहाँ पहुँचाने की बात चलते-चलते राजा सूर्यसेनमलके कानोंमें पड़ी। राजाकी भरी सभामें भक्तिविमुख ब्राह्मणोंने श्रीपीपाजीकी निन्दा करते हुए कहा “उनका यह आचरण धर्मशास्त्र के बिलकुल विरुद्ध है।” राजा के मनमें भी यही आया, इसलिये गुरुदेवके श्रीचरणों में भी उसकी प्रीति घट गयी। यह जानकर समर्थ श्रीपीपाजी उसे समझाने एवं उसके हृदयमें भक्ति सुस्थिर करने चले। राजद्वार पर पहुँचकर द्वारपालों के द्वारा अपने आगमन की सूचना भेजी। भीतर से राजा ने कहला भेजा कि “इस समय पूजा कर रहे हैं। कुछ देर बाद आयेंगे।” यह सुनकर श्रीपीपाजी ने कहा- “राजा बड़ा मूर्ख है, मोची के घरपर बैठकर जूते गाँठ रहा है और कहता है कि मैं सेवा-पूजा कर रहा हूँ।” राजा ने द्वारपालों के मुखसे जब यह बात सुनी तो दौड़कर आया और चरणों में गिर पड़ा। वह आश्चर्यचकित था, वस्तुतः मनसे मोची के घरपर पहुँच गया था।

उस राजा के महलमें एक अत्यन्त रूपवती, परंतु बन्ध्या रानी थी। उसमें राजा की विशेष आसक्ति जानकर श्रीपीपाजी ने कहा- “तुम शीघ्र उस रानी को मेरे पास ले आओ।” राजा महलकी ओर चला, परंतु उसे बड़ा शोक और संकोच हो रहा था कि मैं रानीको कैसे लाऊँ। चलते समय उसके पैर डगमगा रहे थे। रनिवासमें घुसते ही उसे भयंकर सिंह दिखायी पड़ा। उसे देखकर राजा डर गया और वहीं खड़ा हो गया। पीछे लौटने में बुराई और आगे जाने का साहस नहीं रहा। फिर वह सिंह गायब हो गया। राजा किसी प्रकार रानी के पास पहुँचा तो उसके पास अभीका जन्मा हुआ एक बालक दिखायी पड़ा। अब राजा की समझमें आया कि गुरुदेव भगवान्में कितनी सामर्थ्य है। वहीं पृथ्वी पर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके राजा ने स्तुति की- “हे प्रभो ! हम आपकी माया को नहीं जान सकते हैं। आपके सिंह एवं शिशु दोनों ही रूप वन्दनीय हैं।” राजा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर निज स्वरूप से श्रीपीपा जी वहीं प्रकट हो गये और फटकारते हुए बोले कहो, “वह पहले वाला रंग कहाँ गया, जब तुमने लोक लज्जा और मोह का त्याग करके सारा राज्य और रानियाँ मुझे अर्पण की थीं और मेरे शिष्य हुए थे।”


(11) दुराचारी भगवद्विमुखों को सन्तभाव प्रदान करना
अब जब राजा का अन्तःकरण पवित्र हो गया, तब श्रीपीपाजी ने उसे अनन्य भक्ति का उपदेश दिया। एक दिन एक साधु रूपधारी दुराचारी श्रीपीपाजी के पास आकर बोला- “आप अपनी स्त्री को मुझे एक रात के लिये दे दें।” आपने कहा- “ले जाओ।” उसने सीता सहचरीजी से कहा- “आप मेरे संग दौड़कर चलो।” आज्ञाके अनुसार ये उसके साथ दौड़ती हुई चलने लगीं। परंतु दौड़ते-दौड़ते सारी रात बीत गयी फिर भी उसका घर नहीं आया। प्रातः काल हो गया। ये बैठ गयीं और बोलीं कि अब मैं आपके साथ एक पग भी नहीं चल सकती हूँ; क्योंकि मेरे स्वामीजी की यह आज्ञा थी कि इनके साथ एक रात रहना। सो वह रात बीत गयी। उसने सोचा कि थक गयी हैं, अत: पालकी या गाड़ी ले आऊँ, उसमें बिठाकर ले चलूं। वह गाँवमें गया तो घर-घरमें श्रीसीता सहचरी के दर्शन हुए। तब उसकी आँखें खुलीं। वहीं आकर बोला- “माताजी ! चलो, आपको स्वामी जी के पास पहुँचा आयें।” आश्रम में आकर वह श्रीपीपाजी के और श्रीसीता सहचरी जी के पैरों में गिर पड़ा, उसके मनसे कामवासना दूर हो गयी और सन्त-भगवन्त की भक्ति में दृढ़भाव हो गया।

एक बार चार कामी-कुटिल दुष्टों ने सुन्दर माला-तिलक आदि धारण कर लिया और श्रीपीपाजी के निकट आकर बड़ी नम्रतासे बोले- “आप सच्चे सन्तसेवी हैं, आप अपनी स्त्री हमें दे दीजिये।” श्रीपीपाजी ने उन्हें कामभाव से व्याकुल होकर प्रतीक्षा करते देखा तो कहा- “आप लोग कोठे में जाइये।” जैसे ही ये लोग कोठे के द्वार पर गये, वैसे ही एक सिंहनी इन सबके ऊपर इन्हें फाड़ डालने के लिये झपटी। परंतु उसने साधुवेष जानकर फाड़ा नहीं। वे चारों भयभीत होकर भागे और श्रीपीपाजी से नाराज होकर बोले- “तुमने तो वहाँ हम लोगों को मरवानेके लिये सिंहनी बैठा रखी है, तुम साधु नहीं दुष्ट मालूम पड़ते हो।” हँसकर आपने कहा— “आपलोग अपने हृदय की कुत्सित भावनाओं को देखिये। अनधिकार भोगभावना ही सिंहनी है। सद्भाव से पुनः जाकर देखिये।” उन लोगों ने फिर जाकर देखा तो सीता सहचरी जी विराजमान हैं। वे सब चरणों में पड़कर रोने एवं अपराध क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे। श्रीपीपाजी की बात को सत्य मानकर वे सब उनके शिष्य बन गये।


(12.) ग्वालिन को शिष्य बनाना
श्रीपीपाजी के यहाँ विराजमान साधु-सन्तों ने एक दिन दही पानेकी इच्छा प्रकट की कि आज तो श्रीरघुनाथजी का दहीभोग आरोगने का मन है। उसी समय एक ग्वालिन दही बेचती हुई उधर आयी। इससे यह जाना गया कि भगवान् अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते हैं। श्रीपीपाजी ने दही का मूल्य पूछा तो उस ग्वालिन ने तीन आना बताया। परंतु उस समय श्रीपीपा जी के पास एक भी पैसा नहीं था। उन्होंने उससे कहा- “तू दही दे दे, पैसे अभी नहीं हैं, आज जो भी कुछ भेट में आ जायगा, वही तुझको मिल जायगा। यदि कुछ न आया तो तुम्हारा दही ही भेंट समझा जायगा।” ग्वालिन ने स्वीकार कर लिया। दही का भोग लगा, साधुओं ने शक्कर मिलाकर भोग लगाया और बड़े प्रेमसे दही पिया। उसी समय श्रीपीपाजी का एक शिष्य आया और उसने एक मोती माला के समेत बहुत-सा धन भेंट किया। इन्होंने मोतीमाला और सम्पूर्ण धन ग्वालिन को दे दिया। वह उस धन को घर लायी, उसमें से कुछ थोड़ा अपने पास रखा, शेष को भक्त-भगवन्तसेवामें खर्च करके श्रीपीपाजी की शिष्या बन गयी। ऐसे ही अनेकविध चरित्र थे पीपाजी के।

(13.) श्रीरंगदास को भक्ति का मर्म समझाना
एक बार श्रीपीपाजी श्रीअनन्तानन्दस्वामी के शिष्य श्रीरंगजी के यहाँ पहुँचे, उस समय वे भगवान्का मानसी पूजन कर रहे थे । श्रीपीपाजी उनकी पौर पर बैठे रहे। श्रीरंगजी मानसी - पूजामें भगवान् का श्रृंगार कर रहे थे। पहले मुकुट धारण कराकर तब फूलों की माला पहना रहे थे। वह किंचित् छोटी होने से मुकुटमें अटक रही थी। उनकी समझमें नहीं आ रहा था कि कैसे पहनाऊँ ? श्रीपीपाजी का मानसी-सेवामें प्रवेश था, अतः बाहर से ही कहा कि गाँठ खोलकर धारण करा दीजिये। श्रीरंगजी ने ऐसा ही किया। फिर तुरंत ही विस्मित होकर आँख खोलकर इधर-उधर देखने लगे कि किसने इतनी गुप्त भावना को प्रत्यक्ष देखकर मुझे उपाय बताया है। जब वहाँ कोई नहीं दिखायी पड़ा तो उत्सुकतावश बाहर आये। परम तेजोमय दिव्य भव्य, प्रसन्न मुख श्रीपीपाजी को देखकर श्रीरंगनाथ जी ने पूछा- “आप कौन हैं, कृपा करके अपना नाम बताइये?” श्रीपीपा जी ने मुसकराकर कहा- “सन्तों से इस प्रकार कुछ पूछने की विधि नहीं है।” यह सुनकर श्रीरंग जी बड़े लज्जित हुए और समझ गये कि यह कोई परम ज्ञानवान् सिद्ध पुरुष हैं। अतः गीतोक्त विधि से पुनः परिचय पूछा। जब श्रीपीपाजी ने अपना नाम, ग्राम बताया तो सुनते ही वह इनके श्रीचरण-कमलोंमें लोट-पोट हो गये। इसके बाद वे हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रतापूर्वक बोले- “प्रभो ! मेरा मन तो यह था कि जब आप आयेंगे तो मैं गाजे-बाजेके साथ चलकर आपकी अगवानी करूंगा। परंतु आप तो बिना किसी पूर्व सूचनाके एकदम द्वारपर ही आ गये। आप कृपा करके बाग में पधारें, मैं आपकी अगवानी करने चलूंगा।” श्रीपीपा जी ने कहा- “अरे भाई! अब तो हम घर पर आ ही गये, अब अगवानी की क्या जरूरत रह गयी?” उन्होंने कहा- “फिर तो महाराज, मेरी अभिलाषा अपूर्ण ही रह जायगी।” अन्त में उनके प्रेम से हारकर श्रीपीपाजी घर से एक कोस दूर बाग में जाकर विराजे। श्रीरंगजी खूब बाजे बजवाते हुए, मुहरें लुटाते हुए, प्रेमोन्मत्त होकर नृत्यगान करते हुए पालकी लेकर इनको लिवाने चले। श्रीपीपाजी ने कहा कि पालकी पर तो हमारे श्रीसद्गुरुदेव श्रीस्वामी रामानन्दाचार्य जी चलते हैं, भला मैं पालकी पर कैसे चल सकता हूँ। यदि आपका ऐसा ही भाव है तो श्रीस्वामीजी की छवि को पालकीपर पधराकर ले चलें, मैं पैदल चलूंगा। ऐसा ही हुआ। श्रीपीपाजी उनके प्रेमको देखकर एक महीनेतक उनके घर रहे। श्रीपीपाजी के सत्संग से सम्पूर्ण गाँव श्रीरामरंग में रँग गया। इसी प्रकार आपने दो स्त्रियों को भक्ति का चेत कराया, ब्राह्मणकन्या का विवाह कराया, इत्यादि विविध चरित्रों को प्रदर्शितकर पीपाजी ने भक्ति का विस्तार किया। उनके उदात्त चरित्र का महान् विस्तार है।


*(भक्तिभावका अतिरेक होने के कारण भक्तमालमें कुछ ऐसी चमत्कारिक घटनाएँ मिलती हैं, जिन पर सामान्यजनों को विश्वास करना कठिन है तथा आज के युग में वे अनुकरणीय भी प्रतीत नहीं होती हैं। –सम्पादक)