प्रफुल्ल कथा - 21 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 21

अपनी इस आत्मकथा में ढेर सारे नायक- नायिकाएं और खलनायक -खल नायिकाएं भी हैँ, विदूषक भी। उनका अगर उल्लेख करूंगा तो यह आत्मकथा विशाल रूप ले लेगी। लेकिन उन्हें छोड़ा भी तो नहीं जा सकता है!बहरहाल इस समय मैं एक बहुत ही उम्दा, गायकी का एक नायाब हीरा राहत अली की बात करना चाहूंगा।

जब स्व.नित्यानंद मैठाणी ने वर्ष 2009 में संगीत की दुनिया में मसीहा बनकर उभरे राहत अली साहब पर किताब लिखने की योजना बनाई तो मैं आकाशवाणी लखनऊ में ही कार्यरत था |बीसवीं सदी के आठवें और नौवें दशक में ‘ग़ज़लों के बादशाह’ के रूप में राहत अली को जाना जाता था | मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि चलो जीते जी ना सही मरने के बाद ही दुनिया राहत भाई के बारे में बहुत कुछ जान सकेगी |मैंने भी राहत भाई के साथ अनेक वर्ष गोरखपुर में गुजारे हैं ,उनका विभागीय अधिकारी भी रहा हूँ ..उनके देहांत के बाद उनकी शवयात्रा में शामिल रहा हूँ ..उनको सुपुर्दे ख़ाक किये जाते समय मैंने भी अपनी अंजली से उन पर मिट्टी डाली है ...इसलिए मैंने मैठाणी साहब का पुस्तक तैयार करने में भरपूर सहयोग किया जिसका जिक्र भी उन्होंने पुस्तक में बार- बार किया है | लेखक के सम्मुख लिखना उतना चुनौतियों भरा नहीं हुआ करता है जितना उस लिखे हुए का छपना ! वैसा ही कुछ मैठाणी साहब के साथ भी हुआ तो उन्होंने अपनी परिचित डा.पूर्णिमा पाण्डेय से मदद मांगी | फलस्वरूप उ.प्र.संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से पुस्तक छपी- “ याद – ए – राहत अली !” लेखक ने अपनी पूरी सामर्थ्य से राहत भाई के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में इस पुस्तक में सामग्री देने की कोशिश की है लेकिन कई बार पढ़ लेने के बाद भी मुझे ऐसा लगता है कि राहत भाई के बारे में बहुत कुछ अनकहा ही रह जा रहा है |
इसकी एक बड़ी वज़ह उनका कम पढा लिखा होना तो है ही , यह भी है कि उनकी एकमात्र गण्डाधारी शिष्या श्रीमती ऊषा टंडन (सेठ) ने इस बारे में किसी से कुछ भी शेयर करने या स्वयं व्यक्त करने में निरंतर अपनी अनिच्छा दिखाई है..दिखाती चली आ रही हैं | मैं विनम्रता से कहना चाहूँगा कि राहत भाई जैसी महान शख्शियत के साथ यह सरासर नाइंसाफी है जिसे समय माफ़ नहीं करेगा ..कत्तई नहीं |
मैंने आकाशवाणी की नौकरी 30 अप्रैल 1977को इलाहाबाद से शुरू की थी और मेरा रिटायरमेंट 31अगस्त 2013 को लखनऊ में हुआ | अपने36 साल 4 महीने की नौकरी में मैं सबसे अधिक आकाशवाणी गोरखपुर में रहा |इसकी वज़ह मेरी ‘ होम सिकनेस ‘ थी | राहत भाई ने आकाशवाणी गोरखपुर में संगीत संयोजक पद पर पहली जुलाई 1977 को ज्वाइन किया था | मैंने इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर आकाशवाणी गोरखपुर 17 अक्टूबर 1977 को ज्वाइन किया | शिफ्ट की होने के नाते , मेरी ड्यूटी की प्रकृति कुछ ऎसी थी कि अगर बहुत सुबह भी राहत भाई स्टूडियो आते तो मुलाक़ात होती रहती या बहुत देर से स्टूडियो छोड़ते तब भी | मुलाक़ात ही नहीं चाय-पान के साथ सुकून से बातें भी हुआ करती थीं |9 मार्च 1984 तक मैं गोरखपुर रहा और राहत अली की नजदीकियां मिलती रहीं |उसके बाद चार महीने फिर से मुझे इलाहाबाद केंद्र जाना पडा लेकिन फिर मैं 13 जुलाई 1984 से 21 अक्टूबर 1991 तक आकाशवाणी गोरखपुर रहा |राहत भाई उन दिनों संगीत की दुनिया का आसमान छूने लगे थे |उनका साथ, अंतरंगता से उनकी शिष्या श्रीमती ऊषा टंडन निभा रही थीं |राहत भाई की दिनचर्या स्टूडियो आकर हाजिरी लगाने के बाद (या प्राय:बिना स्टूडियो आये ) सीधे मेडिकल कालेज परिसर पहुँच जानाहोता था जहां वे ऊषा जी के साथ नियमित रियाज़ किया करते थे | यह सच है कि कलाकार फक्कड़ी और मस्त हुआ करते हैं ..राहत भाई महा फक्कड़ी और महा मस्त कलाकार थे |अंग्रेज़ी शराब मिले ना मिले देसी से भी अपना शौक पूरा करने या अपना ‘फ्रस्टेशन’ मिटा लेने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे | सच है कि वे अपनी उस्तादी के प्रति आवश्यकता से ज्यादा समर्पित थे लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनको उन बनावटी माहौल में रास नहीं आता था | जिस फक्कड़ी स्वभाव के वे थे उसे ‘ आम ‘ लोग ही समझ पाते थे |जिस तरह से उनकी संगीत की हर विधाओं में पकड़ या पैठ को समझ पाना हर किसी के बूते की बात नहीं हुआ करती थी उसी तरह उनके दिल में उन दिनों ,कालखंड में चल रही उथल -पुथल का संज्ञान ले पाना भी हर किसी के लिए सम्भव नहीं था |वे देर रात जब अपने ऑफिसर्स फ़्लैट में पहुँचते तो मानो दूसरी ही दुनिया उनका इंतज़ार कर रही होती थी |दुनिया अभाव की , दुनिया जिम्मेदारियों की ..और उन सबसे मुंह मोड़ने के लिए शराब लेकर तथाकथित छुटभैये शागिर्द घर पर भी हाज़िर रहा करते थे |
आकाशवाणी गोरखपुर से पदोन्नति पाकर मैं कुछ वर्षों आकाशवाणी रामपुर और लखनऊ होते हुए फिर से गोरखपुर पहुँच गया |मैंने 17 जुलाई 1993 से 8 सितम्बर 2003 तक पुनः गोरखपुर को सेवाएं दीं| यह वही कालखंड था जब मैं संगीत विभाग का अधिकारी था और राहत अली की निज़ी ज़िंदगी के जद्दोजहद पराकाष्ठा पर थे जिसकी परिणति उनके असमय देहावसान से हुई | 2 फरवरी 1945 को लखनऊ के संगीत के पुराने अड्डे चौक मुहल्ले से शुरू हुई उनकी जीवन यात्रा ने 6 दिसम्बर 1994 को गोरखपुर
में अपना पूर्ण विराम ले लिया था | परिवार की आधी अधूरी जरूरतें ,समृद्धि और प्रसिद्धि की ओर निरंतर बढ़ रहा उनका संगीत , जीवन यापन के लिए नौकरी की औपचारिकताएं ....सभी कुछ तो बिखरा - बिखरा सा छोड़कर वे यकायक प्रस्थान कर गए थे |
मित्र और सहयोगी श्री नवनीत मिश्र ने अपने संस्मरण में ठीक ही लिखा है कि ‘मुहावरे में कहा जाय तो राहत अली लम्बी रेस के घोड़े थे | अभी कई कीर्तिमान कई उपाधियाँ और पुरस्कार और प्रसिद्धि के शिखर उनकी राह देख रहे थे |लेकिन अनियंत्रित शराब की ठोकरों ने उन्हें असमय चुटहिल कर दिया था ..और जैसा कि रेस का नियम है ,घोड़ा लंगडाने लगे तो वक्त को बड़े अवसादपूर्ण मन से मजबूरी में ऐसे चुटहिल घोड़े को दुनिया की रेस से हमेशा हमेशा के लिए बाहर कर देना पड़ा |...संगीत रसिक तो राहत अली को कब का पहचान चुके थे |लोग भी उन्हें प्यार करने लगे थे | लेकिन विडम्बना देखिये कि राहत अली ही न अपने आप को पहचान सके और न प्यार कर सके \”
मैठाणी जी ने अपनी पुस्तक में ठीक ही कहा है कि “ राहत संगीत नहीं बनाता था |संगीत तो उसके ह्रदय से प्रवाहित होता था |अब उसके ह्रदय ने धड़कना बंद कर दिया है | वह ‘ अलौकिक’ संगीत भी समाप्त हो गया है |” इस समय जब संगीत संयोजन की कलात्मकता और सौन्दर्य में रचनात्मकता का मशीनीकरण हो चला है राहत का संगीत संयोजन और उनकी बहु आयामी कला प्रतिभा और भी सामयिक होती जा रही है | क्या किसी के पास समय है उनकी बारीकियों को एक बार फिर से जानने - समझने के लिए ?