प्रफुल्ल कथा - 22 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 22


पाठकों ,आत्मकथा अधूरी रहेगी अगर मैं उस घटना का जिक्र नहीँ करूंगा जिसमें मुझे देश के प्रतिष्ठित औद्योगिक घराने टाटा ने सम्मानित किया था। अखिल भारतीय स्तर पर सम्पन्न प्रतियोगिता में मेरे साहित्यिक योगदान को पुरस्कृत और सम्मानित किया था।
आपको कुछ अटपटा या फिर कुछ चटपटा सा लग सकता है मेरा यह वृत्तान्त का ।लेकिन ,यह मेरी जिन्दगी का एक रोमांचक सच है जिससे मैं आपको रू -ब- रू करा देना चाहता हूँ ।इसलिए भी कि 'न जाने किस घड़ी में जिन्दगी की शाम हो जाए..!'
यह वाकया जिन दिनों का है उन दिनों मुझे आकाशवाणी की समूह 'ग' सेवा में प्रसारण अधिशासी पद पर आए लगभग डेढ़ दशक हो चुके थे ।शिफ्ट की नौकरी होने के कारण चाय मेरी जिन्दगी में धूम धड़ाके से शामिल हो चुकी थी ।जिस केंद्र पर कैन्टीन सुविधा होती वहाँ तो इस बाबत बल्ले बल्ले हुआ करती थी !
कुछ विभागीय तकनीकी कारणों से (प्रमुखत: आल इंडिया सीनियारिटी लिस्ट का न बन पाना और डी० पी० सी० न हो पाना ) लगभग 14 साल की सेवा के बाद मेरा चिर प्रतीक्षित समूह 'ख'संवर्ग में प्रमोशन कार्यक्रम अधिकारी पद पर वर्ष 1991में हुआ ।मैंने महानिदेशक को गोरखपुर में ही नया पदभार देने अथवा लखनऊ भेजने का निवेदन भेजा जिसका उत्तर नहीं आया और येन केन प्रकारेण गोरखपुर न छोड़ने वाले इस नाचीज़ को मुश्किल से मिले प्रमोशन को लेने के लिए आकाशवाणी रामपुर जाना ही पड़ा ।29 अक्टूबर 1991 को मैने वहाँ कार्यभार ग्रहण किया । रामपुर से दिल्ली नज़दीक होने के कारण मैंने अपने पूर्व के निवेदन के रेफरेंस में गोरखपुर वापसी पैरवी में जुट गया ।मेरे साथ लगभग लाइलाज शारीरिक दिक्कतें(एनकाइलाजिंग स्पांडिलाइटिस/ बोथ हिप ज्वाइंट रिप्लेसमेंट) भी विधाता ने दे रक्खी हैं इसलिए मुझे परिवार के साथ रहने की मजबूरी रहा करती थी ।बहरहाल, आकाशवाणी के मक्का मदीना (महानिदेशालय, नई दिल्ली) में एस-1 में डी० डी० ए०(पी०) बेहद सख़्त मिजाज वाले एक जनाब ईश्वर लाल भाटिया साहब हुआ करते थे ।
लेकिन मेरे लिए तो वे यथानाम तथागुण निकले ।मुझसे बोले कि उन्होंने मेरा revised order लखनऊ के लिए कर दिया है ।आर्डर नहीं मिला क्या ? असल में मुझे लखनऊ में RTI(P) के लिए एक पेक्स के नवसृजित जगह पर पोस्टिंग मिली थी।मेरे यह कहने पर कि आर्डर नहीं मिला और मैने तो रामपुर ज्वाइन भी कर लिया है ,वे बोले सेक्शन आफिसर को जाकर बोलो फाइल तुरंत लेकर आएं । आनन फानन में जनाब राजमोहन साहब फाईल सहित पहुँच कर हाथोंहाथ पुनः संशोधित आर्डर देने को विवश हुए ।मैने 13 दिसम्बर 1991 को आकाशवाणी लखनऊ रिपोर्ट किया ।वहाँ के 'आका 'के चहेते कुछ पेक्स अंडर ट्रांसफर थे और उसी में चूँकि मैं भी एक अनचाहे मेहमान की तरह आ टपका था सो मुझे पहले तो वेकेंसी न होने के नाम पर हफ्तों लटकाया गया, फिर न चाहकर एक्सट्रा प्लेयर की तरह पिछली तारीख से ही ज्वाईन कराया गया ।ऐसे में न कमरा मिला और.. न ही काम ।इससे मुझे थोड़ा मानसिक टेंशनज़रूर था (क्योंकि मैं अपने आपको बेहद कामकाजी मानता था) लेकिन ढेर सा आराम मिला !दैनिक कार्यक्रम मीटिंग से मुक्ति बोनस में !उन दिनों एक मैडम मिसेज बधवानीं हुआ करती थीं जो सहायक निदेशक थीं ।वे मुझको इस तरह 'आवारा 'घूमते ज्यादा दिन देख न सकीं और अंततः मेरी सहमति लेकर मुझे उस समय के 'आका'की इच्छा विरुद्ध पेक्स लाइब्रेरी बना ही दिया ।बस, नियति जो करती है अच्छा ही करती है ,मेरा ऐसा मानना है ।अब मैने स्वयं उनकी सहमति से लाइब्रेरी के ही एक उपेक्षित कमरे की साफ सफाई और रंगरोगन करवाया और उसी में बैठना शुरू कर दिया ।मेरे मित्र मुझे 'आवारा बादल 'कहकर बुलाते थे ।लेकिन आपको बताना लाजिमी होगा कि इस अवसर का लाभ भी मैनें खूब उठाया ।अपनी 36साल की नौकरी में मैने सबसे ज्यादा किताबें अगर पढ़ीं और अपने शौकिया लेखन को उड़ानें दीं तो इसी दौर में ।हां, जाने अनजाने कुछ "ईमानदार गुस्ताख़ियाँ"भी हुईं जिनका खामियाजा एक अन्य पदस्थ सहायक निदेशक बाबू मोशाय का कोपभाजन बन आगे चलकर मुझे दूसरे केन्द्र पर भुगतना पड़ा.. ...लेकिन वह प्रसंग फिर कभी ! इन बेजुबान किताबों ने मेरे हिस्से के अधूरेपन को ही नहीं दूर किया बल्कि मेरे लिए ज्ञान गंगा बहा दी ।उधर चाय की आदत भी शबाब पर थी ।इस पूरे 'टेन्योर 'को मैंने अपनी ज्ञान संपदाओं के विकास और उसकी समृद्धि में बिताया ।इसके बाद एक बार फिर मुझे मेरा मंजिल -ए -मकसूद मिल गया और 17जुलाई 1993 को मैने आकाशवाणी गोरखपुर ज्वाइन कर लिया ।
इसी कालखंड में देश की एक प्रतिष्ठित कम्पनी ने अपने चाय उत्पाद के लिए अखिल भारतीय स्तर पर खुली स्लोगन प्रतियोगिता अंग्रेज़ी में आयोजित की थी । उसके उत्पाद के खाली पैकेट के साथ अपनी प्रविष्टि उनके कोलकाता स्थित कार्यालय साधारण डाक से भेजनी थी ।मैने इसे अपनी चाय के प्रति समर्पित निष्ठा और पिछली पोस्टिंग में अर्जित ज्ञान गंगा के उपयोग के लिए सुअवसर समझा ।बी० ए० की पढ़ाई में हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी साहित्य में भी मैंने सफलता के झंडे गाड़े थे और अब उन सबकी असली परीक्षा थी ।इतना ही नहीं उन्हीं दिनों प्राइमरी चैनल पर विज्ञापन भी आने लगे थे और मुझे उनके सुचारू प्रसारण हेतु भी लगा दिया गया था ।इसलिए भी कि यह एकदम नया काम था और थोड़ी सी चूक में पैसा वसूली की सीधी लाइबिलिटी बननी थी और इसके लिए "बने रहो पगला ,काम करे अगला "की टेंडेंसी में केन्द्र के प्रभावी ग्रुप ने मुझे ही आगे कर दिया था ।भला हो श्री हरीश सनवाल साहब और श्री के० के० श्रीवास्तव का जो लखनऊ से फोन पर पर्याप्त गाइडेंस दिया करते रहे और मेरे प्रति हमदर्द बना रहा करते थे ।सो, विचलन से बचते हुए काम होता रहा और बैठे बैठे किसी भी प्राडक्ट के कैचिंग प्रेजेंटेशन से भी अवगत हुआ जा रहा था ।चायपत्ती के मेरे प्रस्तावित स्लोगन में यह सब खाद पानी की माफिक काम आया ।मैने यथानिर्दिष्ट तरीके से अपनी प्रविष्टि भेज दी थी और कामकाज के दबाव में लगभग भूल ही गया था ।एक और बात थी कि अक्सर अपना प्राडक्ट बेंचने के लिए प्रलोभन कारक इस तरह के फ्राड भी हुआ करते थे ।लेकिन यह क्या ?एक दिन मेरे लैंडलाइन फोन नम्बर (जो अब तक याद है 0551-2334871)पर कोलकाता से एक बाबू मोशाय ने मुझे बताया कि उस प्रतियोगिता में मेरे स्लोगन को one of the best entry पाया गया है और उसके ऐवज में एक कार इनाम में भेजी जा चुकी है जो शहर के शोरूम में पहुंच चुकी है और मैं यथाशीघ्र उनके बताए गए पते पर उनके प्रतिनिधि से अपनी आइडेंटिटी प्रूफ की ओरीजिनल कापी के साथ मिलूं ।मैं खुशी से उछल ऊछल पड़ा और जब मैं उनके प्रतिनिधि से मिलने अपने स्कूटर से पहुँचा तो वे बताने लगा कि कम्पनी महीनों से आपसे सम्पर्क करना चाह रही थी क्योंकि शहर में एक दर्जन पी० के० त्रिपाठी इनाम के दावेदार हो चुके थे ।सिर्फ आपके घर के पते और फोन नम्बर से कम्पनी आप तक पहुंच सकी है ।वैसे वह भी भौचक थे और बोले जनाब आपने क्या ऐसा लिख डाला जो आपको बैठे बिठाए गाड़ी मिल रही है ?मैने उन्हें सारे पेपर्स दिखाए तो उन्होंने शोरूम जाकर गाड़ी का दीदार करने को कहा ।मैं सपरिवार गाड़ी देखने पहुँचा तो हम समी के दिल गार्डन गार्डन हो गये ।मैनेजर ने बताया कि मुझे सिर्फ रजिस्ट्रेशन और रोड टैक्स(उस समय लगभग 15 हजार ) भरना है । फिर यह तय हुआ कि 9जून 2003 को एक समारोह में कार की चाभी सौंपने की औपचारिकता निभाई जाय ।कुल आई 20 हजार प्रविष्टियों में मेरी प्रविष्टि one of the best पाई गई ।आज मेरे यादगार लमहों में कम्पनी का वह पत्र अब भी मुस्कान बिखेर रहा है,जिसमें लिखा है-
" Dear Mr. Tripathi,
It gives us immense pleasure to inform you that you are one of the winners of the Tata Tea contest that was held in October-November 2001.Our judges spent a lot of time painstalingly going through each one of the 20,000 entries we received for the contest. And your entry - " If you dont think everyday is a good day ,just try Tata Tea " was adjudged one of the three best entries. And as promised ,we are sending you the Tata Indica .Here's wishing you happy yea times and happy driving ! "
आकाशवाणी गोरखपुर के तत्कालीन निदेशक श्री प्रेम नारायण की अध्यक्षता में 9 जून 2003 को प्रेस क्लब में एक शानदार आयोजन हुआ और गोरखपुर के विधायक डा० राधामोहन दास अग्रवाल ने मुझे कम्पनी की ओर से कार की चाभी सौंपी ।इस अवसर पर अति प्रसन्न चित्त मेरे दोनों बेटे ,पत्नी और माता पिता भी मौजूद थे ।अगले दिन मैं और मेरी इनामी कार सचित्र समाचार पत्रों की सुर्खियों में छा गए थे ।इनाम तो मुझे बहुत मिलते रहते थे (और हैं भी) लेकिन इतना बड़ा और कीमती इनाम पहली बार मिला था ।इस प्रकार की उपलब्धि (भौतिक ही सही ) मेरे जीवन की कुछ स्वर्णिम उपलब्धियों में से एक है ,जो आज भी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है ।अपने नये प्रसारणकर्मी साथियों से कहना चाहूँगा कि सेवाकाल में मिलने वाली धूप छांव को अगर सकारात्मक रूप दे दिया जाय तो वह भी निजी उपलब्धियों का हेतु बन सकता है ।
तो जीवन की ढलान पर चलते हुए एक बार फिर कहना चाहूँगा -थैंक्यू आकाशवाणी, थैंक्यू उन दिनों के मेरे 'आका'गण ....और हां, थैंक्यू मेरी प्यार भरी चाय की प्याली ,जिसने मुझे बेहतरीन कार इनाम में दिलवा दी जो आज भी मेरी मुस्कुराहट में साथ देती है ।