प्रफुल्ल कथा - 20 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 20

आकाशवाणी की सेवा में अनेक निदेशकों और सहायक निदेशकों का साह चर्य मिला। उनसे सुख भी मिला और दुःख भी। कहां और किनसे शुरू करूँ?
इलाहाबाद के बी. एस. बहल से जो मेरे पहले निदेशक थे या डा. गुलाब चंद से जो मेरे अंतिम निदेशक /अपर महानिदेशक थे। काज़ी अनीस उल हक़, मैडम किश्वर सुल्तान, डा. उदय भान मिश्र, प्रेम नारायण, नित्यानंद मैथानी, सनीलाल सोनकर, बी. आर. शर्मा, डा. एम रहमान, मुक्ता शुक्ला, करुणा श्रीवास्तव, सोमनाथ सान्याल, मो. अली मौज, रामधनी राम.... ढेर सारे लोग जो या तो अब सामाजिक हाशिए पर चल रहे हैँ या स्वर्ग सिधार गए हैं।कुछ कुर्सी पाकर मदमस्त हाथी की तरह अपने कार्यकाल में समय बिताए तो कुछ सहज और विनम्र भाव से। सबसे विचित्र लगे थे आकाशवाणी इलाहाबाद के निदेशक डा.मधुकर गंगाधर।
आकाशवाणी के सेवानिवृत्त निदेशक और प्रख्यात साहित्यकार डा.मधुकर गंगाधर का अभी पिछले दिनों निधन हो गया है।

87 वर्षीय डा..मधुकर गंगाधर आकाशवाणी और साहित्यिक दुनियां की जानी - मानी शख़्सियत थे।उन्होंने रिटायरमेंट के बाद एक बार बिहार विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था।
डा. मधुकर गंगाधर का जन्‍म पूर्णिया जिले के झलारी गाँव में 1933 ई. में हुआ था। वे उनतीस वर्ष तक ऑल इंडिया रेडियो की सेवा से जुड़े रहे।उन्होंने अनेक विधाओं में लेखन किया। उनकी प्रकाशित कृतियों में दस कहानी-संग्रह, आठ उपन्‍यास, चार कविता-संग्रह, तीन संस्‍मरण पुस्‍तकें, तीन नाठक और चार अन्‍य विधाओं की रचनाऍं शामिल हैं। उपन्‍यासों के नाम हैं-मोतियों वाले हाथ, यही सच है, उत्‍तरकथा, फिर से कहो, सातवीं बेटी, गर्म पहलुओं वाला मकान, सुबह होने तक तथा जयगाथा।
उनके कहानी-संग्रह हैं- नागरिकता के छिलके (1956), तीन रंग:तेरह चित्र (1958), हिरना की ऑंखें (1959), गर्म गोश्‍त:बर्फीली तासीर (1965), शेरछाप कुर्सी (1976), गॉंव कसबा नगर (1982), उठे हुए हाथ (1983), मछलियों की चीख (1983), सौ का नोट (1986) तथा बरगद (1988)।

याद आते हैँ रामधनी राम जो जातिगत सहित अनेक पूर्वाग्रहों से जकडे हुए थे।जब मैं पहली बार आकाशवाणी में ट्रांसफर पर ज्वाइन करने पहुंचा तो श्रीमान निदेशक थे। तीन तीन लोग अंडर ट्रांसफर थे लेकिन अपने स्वार्थ में इन्होने उनको रोक रखा था।मुझे ज्वाइन कराने का उनका इरादा नहीं था। जब मैंने दिल्ली दरबार से डंडा चलवाया तब जाकर मुझे ज्वाइन कराया गया। ज्वाइन कराने के बाद इस पूर्वाग्रही ने मुझे कोई काम देना उचित नहीं समझा। मैंने भी लगभग एक साल बैठे बैठे वेतन लिया। चूँकि लखनऊ का यह टेंन्योर दुखदायी था इसलिए मैं फिर वापस गोरखपुर चला गया।

लखनऊ से ट्रांसफर होने पर जब मेरा फेयर्वेल हुआ तो उस short fairwell speech का एक वाक्य मुझे तब से अब तक याद है:मैंने कहा था -
" मुझे तो हाशिए पर ही रखा गया "
जिन्होंने मेरे लिए यह स्थिति पैदा की थी(रामधनी राम ) उनको मैंने अपने दूसरे टेन्योर में इसी केंद्र पर उस स्थिति में जब उनके रिटायरमेंट के बाद विभाग ने उनको लगभग भुला ही दिया था, चलने फिरने में भी उनको दिक्कत होने लगी थी, लेकिन फिर भी मैंने उन्हें संगीत के लोकल आडीशन कमेटी का सदस्य बनाया था। घर से उनको गाड़ी से बुलाया जाता था और परिश्रमिक देकर ससम्मान घर भिजवाता रहा। सचमुच जीवन में काम करने और कराने का अपना अपना नज़रिया है।