श्रीनाभाजी का जन्म प्रशंसनीय हनुमान-वंश में हुआ था। आश्चर्यजनक एक नयी बात यह जानिये कि ये जन्म से ही नेत्रहीन थे। जब इनकी आयु पाँच वर्ष की हुई, उसी समय अकाल के दुःख से दुःखित माता इन्हें वन में छोड़ गयी। माता और पुत्र दोनों के लिये यह कितनी बड़ी विपत्ति थी । इसे आप लोग सोचिये। दैवयोग से श्रीकोल्हदेव जी और श्रीअग्रदेवजी — दोनों महापुरुष उसी मार्ग से दर्शन देते हुए निकले। बालक नाभाजी को अनाथ जानकर जो कुछ दोनों ने पूछा, उसका उन्होंने उत्तर दिया। वे बड़े भारी सिद्ध सन्त थे। उन्होंने अपने कमण्डलु से जल लेकर नाभाजी के नेत्रों पर छिड़क दिया। सन्तों की कृपा से नाभाजी के नेत्र खुल गये और सामने दोनों सन्तों को उपस्थित देखकर इन्हें परम आनन्द हुआ।
दोनों सिद्ध महापुरुषों के दर्शनकर नाभाजी उनके चरणों में पड़ गये। उनके नेत्रों में आँसू आ गये। दोनों सन्त कृपा करके बालक नाभाजी को अपने साथ लाये। श्रीकोल्हदेवजीकी आज्ञा पाकर श्रीअग्रदेवजी ने इन्हें राम मन्त्र का उपदेश दिया और ‘नारायणदास’ यह नाम रखा । गलता आश्रम (जयपुर) में साधुसेवा प्रकट प्रसिद्ध थी। वहाँ सर्वदा सन्त-समूह विराजमान रहता था। श्रीअग्रदेवजी ने सन्त सेवा के महत्त्व को जानकर और सन्त सेवा से ही यह समर्थ होकर जीवों का कल्याण करनेवाला बनेगा — यह अनुमानकर नाभाजी को सन्तों की सेवा में लगा दिया। सन्तों के चरणोदक तथा उनके सीथ-प्रसाद का सेवन करने से श्रीनाभाजी का सन्तों में अपार प्रेम हो गया। इन्होंने भक्तिरस की रीतियाँ जान लीं। इससे इनके हृदयमें अद्भुत प्रेमानन्द छा गया। हृदय में भक्त भगवान् के प्रेम की ऐसी अभिवृद्धि हुई कि जिसका ओर-छोर भला कौन पा सकता है। इस प्रकार जैसे श्रीनाभाजी मूर्तिमान् भक्ति के स्वरूप हुए, वैसे ही सुन्दर वाणी से इन्होंने भक्तमाल में भक्तों के चरित्रों को गाया है।
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श्रीनाभाजी का जन्म प्रशंसनीय हनुमान-वंश में हुआ था। आश्चर्यजनक एक नयी बात यह जानिये कि ये जन्म से ही नेत्रहीन थे। जब इनकी आयु पाँच वर्ष की हुई, उसी समय अकाल के दुःख से दुःखित माता इन्हें वन में छोड़ गयी। माता और पुत्र दोनों के लिये यह कितनी बड़ी विपत्ति थी । इसे आप लोग सोचिये। दैवयोग से श्रीकोल्हदेव जी और श्रीअग्रदेवजी — दोनों महापुरुष उसी मार्ग से दर्शन देते हुए निकले। बालक नाभाजी को अनाथ जानकर जो कुछ दोनों ने पूछा, उसका उन्होंने उत्तर दिया। वे बड़े भारी सिद्ध सन्त थे। उन्होंने अपने कमण्डलु से जल लेकर नाभाजी के नेत्रों पर छिड़क दिया। सन्तों की कृपा से नाभाजी के नेत्र खुल गये और सामने दोनों सन्तों को उपस्थित देखकर इन्हें परम आनन्द हुआ।
दोनों सिद्ध महापुरुषों के दर्शनकर नाभाजी उनके चरणों में पड़ गये। उनके नेत्रों में आँसू आ गये। दोनों सन्त कृपा करके बालक नाभाजी को अपने साथ लाये। श्रीकोल्हदेवजीकी आज्ञा पाकर श्रीअग्रदेवजी ने इन्हें राम मन्त्र का उपदेश दिया और ‘नारायणदास’ यह नाम रखा । गलता आश्रम (जयपुर) में साधुसेवा प्रकट प्रसिद्ध थी। वहाँ सर्वदा सन्त-समूह विराजमान रहता था। श्रीअग्रदेवजी ने सन्त सेवा के महत्त्व को जानकर और सन्त सेवा से ही यह समर्थ होकर जीवों का कल्याण करनेवाला बनेगा — यह अनुमानकर नाभाजी को सन्तों की सेवा में लगा दिया। सन्तों के चरणोदक तथा उनके सीथ-प्रसाद का सेवन करने से श्रीनाभाजी का सन्तों में अपार प्रेम हो गया। इन्होंने भक्तिरस की रीतियाँ जान लीं। इससे इनके हृदयमें अद्भुत प्रेमानन्द छा गया। हृदय में भक्त भगवान् के प्रेम की ऐसी अभिवृद्धि हुई कि जिसका ओर-छोर भला कौन पा सकता है। इस प्रकार जैसे श्रीनाभाजी मूर्तिमान् भक्ति के स्वरूप हुए, वैसे ही सुन्दर वाणी से इन्होंने भक्तमाल में भक्तों के चरित्रों को गाया है।