श्री अलर्कजी Renu द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री अलर्कजी



महाराज अलर्क महाराज ऋतध्वज और महारानी मदालसाके चार पुत्रों में सबसे छोटे थे। इनके अन्य ज्येष्ठ भाइयों के नाम विक्रान्त, सुबाहु और शत्रुमर्दन थे। इनकी माता महारानी मदालसा अत्यन्त विदुषी और ब्रह्मज्ञानी थीं। उन्होंने अलर्क के ज्येष्ठ भाइयों को बचपन से ही ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी, जिससे वे लोग ब्रह्मज्ञानी होकर जीवन्मुक्त हो गये। राजा के कहने पर उन्होंने अलर्क को ब्रह्मज्ञान न देकर क्षत्रियोचित कर्तव्य का ज्ञान कराया। वे बचपन में ही अलर्क को लोरी के माध्यम से राजा का कर्तव्य बताते हुए कहतीं

राज्यं कुर्वन् सुहृदो नन्दयेथाः साधून् रक्षंस्तात यज्ञैर्यजेथाः । दुष्टान् निघ्नन् वैरिणश्चाजिमध्ये गोविप्रार्थे वत्स मृत्युं व्रजेथाः ॥

अर्थात् हे तात! राज्य करते हुए अपने सुहृदों को प्रसन्न रखना, साधु पुरुषों की रक्षा करते हुए यज्ञों द्वारा भगवान्‌ का यजन करना, संग्राम में दुष्ट शत्रुओं का संहार करते हुए गौ और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये अपने प्राण निछावर कर देना ।

अलर्क को राजनीति का उपदेश देते हुए वे कहती हैं कि बेटा! राज्याभिषेक होने पर राजा को उचित है कि वह अपने धर्म के अनुकूल चलता हुआ आरम्भ से ही प्रजा को प्रसन्न रखे। सातों व्यसनों (कटु वचन बोलना, कठोर दण्ड देना, धनका अपव्यय करना, मदिरा पीना, स्त्रियों में आसक्ति रखना, शिकार खेलने में व्यर्थ समय लगाना और जुआ खेलना) - का परित्याग कर दे; क्योंकि वे राजा का मूलोच्छेद करनेवाले हैं। अपनी गुप्त मन्त्रणाके बाहर फूटने से उसके द्वारा लाभ उठाकर शत्रु आक्रमण कर देते हैं; अतः ऐसा न होने देकर शत्रुओं से अपनी रक्षा करे। जैसे रथी रथ की गति वक्र होने पर आठों प्रकारसे नाश को प्राप्त होता है, उसके ऊपर आठों दिशाओं से प्रहार होने लगते हैं, उसी प्रकार गुप्त मन्त्रणाके बाहर फूटनेपर राजाके आठों वर्गों (खेती की उन्नति, व्यापार की वृद्धि, दुर्गनिर्माण, सेतुनिर्माण, जंगलसे हाथी पकड़कर मँगवाना, खानों पर अधिकार प्राप्त करना, अधीन राजाओंसे कर लेना और निर्जन प्रदेशको आबाद करना) का निश्चय ही नाश होता है। इसी प्रकारके अनेक राजोचित उपदेश माता मदालसा ने अलर्क को दिये। वर्णधर्म का ज्ञान कराते हुए वे कहती हैं— वत्स! दान, अध्ययन और यज्ञ —ये तीन क्षत्रिय के धर्म हैं। पृथ्वी की रक्षा तथा शस्त्रग्रहण करके जीवननिर्वाह करना—यह उसकी जीविका है। गृहस्थ पुरुष के करने योग्य कार्योंका उपदेश करती हुई वे कहती हैं—गृहस्थ पुरुष प्रतिदिन पितरों के उद्देश्य से अन्न और जलके द्वारा श्राद्ध करे और अनेक या एक ब्राह्मणको भोजन कराये। अन्नमें से अग्राशन निकालकर ब्राह्मणको दे। ब्रह्मचारी और संन्यासी जब भिक्षा माँगनेके लिये आयें तो उन्हें भिक्षा अवश्य दे। यथाशक्ति आदरपूर्वक अतिथिका पूजन करे। पुत्र! गृहस्थको सदा सदाचारका पालन करना चाहिये; क्योंकि वह इस लोक और परलोकमें भी कल्याणकारी है। वेदत्रयीका सदा स्वाध्याय करे, विद्वान् बने । धर्मानुसार धनका उपार्जन करे और उसे यत्नपूर्वक यज्ञमें लगाये। जिस कर्म को करते हुए अपने मनमें घृणा न हो और जिसे महापुरुषोंके समक्ष प्रकट करने में कोई संकोच न हो, ऐसा कर्म निःशंक होकर करना चाहिये। ऐसे आचरण वाले गृहस्थ पुरुषको धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति होती है और परलोकमें भी उसका कल्याण होता है।

माता से इस प्रकार उपदेश ग्रहण करके अलर्क ने युवावस्थामें विधिपूर्वक अपना विवाह किया। उससे अनेक पुत्र उत्पन्न हुए। उसने यज्ञों द्वारा भगवान्का यजन किया। तदनन्तर बहुत समय बाद वृद्धावस्था को प्राप्त होनेपर धर्मपरायण महाराज ऋतध्वज ने महारानी मदालसा के साथ तपस्याहेतु वन जाने का विचार किया और पुत्र अलर्क का राज्याभिषेक कर दिया। उस समय मदालसा ने अलर्क की विषयभोग-विषयक आसक्ति को हटाने के लिये उससे यह अन्तिम वचन कहा – बेटा! गृहस्थ धर्म का अवलम्बन करके राज्य करते समय यदि तुम्हारे ऊपर कोई विपत्ति आ पड़े तो मेरी दी हुई इस अँगूठी से यह उपदेशपत्र निकालकर, जो रेशमी वस्त्र पर बहुत सूक्ष्म अक्षरोंमें लिखा गया है, तुम अवश्य पढ़ना; क्योंकि ममतामें बँधा रहने वाला गृहस्थ दुःखों का केन्द्र होता है। यों कहकर मदालसा ने अलर्क को सोनेकी अँगूठी दी और गृहस्थ पुरुष के योग्य अनेक उपदेश और आशीर्वाद भी दिये। तत्पश्चात् पुत्र को राज्य सौंपकर महाराज ऋतध्वज और महारानी मदालसा तपस्या करने के लिये वनमें चले गये।

अलर्क यद्यपि धर्मात्मा राजा थे और वे अपनी प्रजाका न्यायपूर्वक पुत्रकी ही भाँति पालन करते थे, परंतु मनको प्रिय लगनेवाले विषयोंका भोग करते हुए उन्हें कभी भी उनकी ओरसे वैराग्य नहीं हुआ। उनकी ओरसे उन्हें अतृप्ति बनी ही रही। उनके इस प्रकार भोगमें आसक्त, प्रमादी और अजितेन्द्रिय होनेका समाचार उनके भाई सुबाहुने भी सुना, जो वनमें निवास करते थे। अलर्कको किसी तरह ज्ञान प्राप्त हो, इस अभिलाषासे उन्होंने काशिराजकी सहायतासे अलर्कपर आक्रमण करनेकी तैयारी की और दूत भेजकर कहलाया कि अपने बड़े भाई सुबाहुको राज्य दे दो। अलर्कने उत्तर दिया- 'मेरे बड़े भाई मेरे ही पास आकर मुझसे प्रेमपूर्वक राज्य माँग लें। मैं किसीके आक्रमणके भयसे थोड़ी-सी भी भूमि नहीं दूंगा।’ अलर्कका इस प्रकार उत्तर सुनकर काशिराजने अपनी समस्त सेनाके साथ अलर्क के राज्य पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने अलर्क के सीमावर्ती नरेशों को अपने अधीन कर लिया। इतना ही नहीं अलर्क के दुर्गरक्षकों को भी साम, दान, दण्ड, भेद से अपने वशवर्ती बना लिया। इस प्रकार शत्रुसेना से घिरे अलर्क का सैन्यबल और कोश क्रमशः क्षीण होता जा रहा था, इससे उनका चित्त व्याकुल हो उठा। जब वे अत्यन्त वेदना से व्यथित हो उठे, तब सहसा उन्हें उस अँगूठी का स्मरण हो आया, जिसे ऐसे ही अवसरों पर उपयोग करने के लिये उनकी माता मदालसाने दिया था। उन्होंने वह उपदेशपत्र निकालकर पढ़ा। उसमें लिखा था

सङ्गः सर्वात्मना त्याज्य: स चेत् त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम् ॥ कामः सर्वात्मना हेयो हातुं चेच्छक्यते न सः । मुमुक्षां प्रति तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम् ॥

अर्थात् संग (आसक्ति)- का सब प्रकार से त्याग करना चाहिये; किंतु यदि उसका त्याग न किया जा सके तो सत्पुरुषों का संग करना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषों का संग ही उसकी औषधि है। कामना को सर्वथा छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि वह छोड़ी न जा सके तो मुमुक्षा (मुक्ति के प्रति इच्छा) की कामना करनी चाहिये; क्योंकि मुमुक्षा ही उस कामना को मिटाने की दवा है।

इस उपदेश को अनेक बार पढ़कर अलर्क ने सोचा, – 'मनुष्यों का कल्याण कैसे होगा? मुक्ति की इच्छा जाग्रत् करने पर। और मुक्ति की इच्छा जाग्रत् होगी सत्संगसे।' ऐसा निश्चय करके सत्संग के लिये वे महात्मा दत्तात्रेयजी की शरण में गये। उनके चरणों में प्रणाम करके राजा ने उनका पूजन किया और कहा –‘ब्रह्मन् ! आप शरणार्थियों को शरण देने वाले हैं। मुझपर कृपा कीजिये। मैं भोगों में अत्यन्त आसक्त और दुःख से आतुर हूँ, आप मेरा दुःख दूर कीजिये।

दत्तात्रेय जी बोले–राजन् ! मैं अभी तुम्हारा दुःख दूर करता हूँ। सच-सच बताओ, तुम्हें किसलिये दुःख हुआ है?

अलर्क ने कहा–'भगवन् ! इस शरीर के बड़े भाई यदि राज्य लेने की इच्छा रखते हैं तो यह शरीर तो पाँच भूतों का समुदायमात्र है। गुणकी ही गुणोंमें प्रवृत्ति हो रही है; अतः मेरा उसमें क्या है, शरीर में रहकर भी वे और मैं दोनों ही शरीर से भिन्न हैं। यह हाथ आदि कोई भी अंग जिसका नहीं है; मांस, हड्डी और नाड़ियों के विभाग से भी जिसका कोई सम्पर्क नहीं है, उस पुरुष का इस राज्य, हाथी, घोड़े, रथ और कोश आदि से किचिंत् भी क्या सम्बन्ध है! इसलिए न तो मेरा कोई शत्रु है, न मुझे दुःख या सुख होता है और न नगर तथा कोश से ही मेरा कोई सम्बन्ध है। यह हाथी-घोड़े आदि की सेना न सुबाहुकी है, न दूसरे किसी की है और न मेरी ही है। जैसे कलसी, घट और कमण्डलुमें एक ही आकाश है तो भी पात्रभेद से अनेकसा दिखायी देता है; उसी प्रकार सुबाहु, काशिराज और मैं भिन्नभिन्न शरीरों में रहकर भी एक ही हैं। शरीरों के भेद से ही भेदकी प्रतीति होती है। पुरुषकी बुद्धि जिस-जिस वस्तुमें आसक्त होती है, वहाँ-वहाँ से वह दुःख ही लाकर देती है। मैं तो प्रकृतिसे परे हूँ; अतः न दुखी हूँ, न सुखी। प्राणियों का भूतों के द्वारा जो पराभव होता है, वही दुःखमय है। तात्पर्य यह कि जो भौतिक भोगोंमें ममताके कारण आसक्त है, वही सुख-दुःख का अनुभव करता है।

अलर्क की बात सुनकर दत्तात्रेयजी ने कहा– नरश्रेष्ठ! वास्तव में ऐसी ही बात है। तुमने जो कुछ कहा है, ठीक है; ममता ही दुःख का और ममता का अभाव ही सुख का कारण है। मेरे प्रश्न करनेमात्र से तुम्हें यह उत्तम ज्ञान प्राप्त हो गया, जिसने ममता की प्रतीति को सेमर की रूई की भाँति उड़ा दिया।

इसके बाद अत्रिनन्दन भगवान् दत्तात्रेय ने अलर्क को योगचर्या, योग के विघ्न तथा उनसे बचने के उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य, योगी की मुक्ति, प्रणव की महिमा, योगसाधनामें आने वाले अरिष्ट तथा उनसे सावधानी आदि विविध विषयों का उपदेश किया।

तदनन्तर राजा अलर्क ने अत्रिनन्दन दत्तात्रेयजी के चरणों में प्रणाम करके अत्यन्त प्रसन्नता के साथ विनीत भाव से कहा –ब्रह्मन् ! सौभाग्यवश आपके संग से मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ और सौभाग्य से ही आपने मुझ पर कृपा की। भगवन् ! भाई सुबाहु तथा काशिराज दोनों ही मेरे उपकारी हैं, जिनके कारण मुझे आपके समीप आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपके प्रसादरूपी अग्निसे मेरा अज्ञान और पाप जल गया। अब मैं ऐसा यत्न करूंगा, जिससे फिर इस प्रकार के दुःख का भागी न बनें। आप मेरे ज्ञानदाता महात्मा हैं; अतः आप से आज्ञा लेकर मैं गार्हस्थ्य-आश्रम का परित्याग करूंगा, जो विपत्ति रूपी वृक्षों का वन है।।

इसके बाद राजा अलर्क उन्हें प्रणाम करके उस स्थानपर आये, जहाँ काशिराज और सुबाहु बैठे थे। उन लोगों के निकट पहुँचकर अलर्क ने हँसते हुए कहा - 'राज्य की इच्छा रखनेवाले काशिराज ! अब आप इस राज्य को भोगें अथवा आपकी इच्छा हो तो भाई सुबाहु को दे दें ।' अलर्क की यह बात सुनकर काशिराज ने कहा—‘अलर्क ! तुम क्षत्रिय धर्मके ज्ञाता हो, फिर बिना युद्ध किये राज्य क्यों छोड़ रहे हो?'

अलर्कने कहा – नरेश्वर ! तुम्हारे भय से अत्यन्त दुःख पाकर मैंने योगीश्वर दत्तात्रेयजी की शरण ली और उनकी कृपा से अब मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। समस्त इन्द्रियों को जीतकर तथा सब ओर से आसक्ति हटाकर मनको ब्रह्ममें लगाना और इस प्रकार मनको जीतना ही सबसे बड़ी विजय है; अतः अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूँ, तुम भी मेरे शत्रु नहीं हो तथा ये सुबाहु भी मेरे अपकारी नहीं है। मैंने इन सब बातों को अच्छी तरह समझ लिया है।

अलर्क के यों कहने पर राजा सुबाहु अत्यन्त प्रसन्न होकर उठे और 'धन्य! धन्य!’ कहकर अपने भाई का अभिनन्दन करने के पश्चात् वे काशिराज से इस प्रकार बोले–‘नृपश्रेष्ठ! मैं जिस कार्य के लिये तुम्हारी शरणमें आया था, वह सब पूरा हो गया। अब मैं जाता हूँ।

काशिराज ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा— सुबाहो! तुम किसलिये आये थे? तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध हो गया? मुझे तुम्हारी बातों से बड़ा कौतूहल हो रहा है।

सुबाहु ने कहा – 'काशिराज ! मेरा यह छोटा भाई तत्त्वज्ञ होकर भी सांसारिक भोगों में फँसा हुआ था। मेरे दो बड़े भाई परम ज्ञानी हैं। उन दोनों को तथा मुझे हमारी माता ने बचपनमें ही तत्त्वज्ञान दिया था, किंतु यह अलर्क उस ज्ञान से वंचित रह गया। इस अलर्क को गृहस्थ आश्रम के मोहमें फँसकर कष्ट उठाते हुए देखकर हम तीनों भाइयोंको कष्ट होता था। तब मैंने सोचा, दुःख पड़ने पर ही इसके मनमें वैराग्य की भावना जाग्रत् होगी; अतः युद्धोद्योग के लिये आपका आश्रय लिया। राजन्! आपके संग से मैंने यह बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर लिया। तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जाऊँगा।'

काशीनरेश से यों कहकर परम बुद्धिमान् सुबाहु चले गये। काशिराजने भी अलर्क का सत्कार करके अपने नगर की राह ली। अलर्कने अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं सब प्रकारकी आसक्तियों का त्याग करके आत्मसिद्धिके लिये वनमें चले गये। वहाँ बहुत समय तक वे निर्द्वन्द्व एवं परिग्रहशून्य होकर रहे और अनुपम योगसम्पत्ति को पाकर परम निर्वाणपद को प्राप्त हुए।