Shri Prachinbarhiji books and stories free download online pdf in Hindi

श्री प्राचीनबर्हिजी


आदिराज महाराज पृथु के विमल वंश में श्रीहविर्धान की पत्नी हविर्धानी से बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नामके छः पुत्र पैदा हुए। इनमें महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगादि में कुशल थे। अपने परम-प्रभाव के कारण उन्होंने प्रजापतिका पद प्राप्त किया। राजा बर्हिषने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी । इसी से आगे चलकर ये प्राचीनबर्हि के नाम से विख्यात हुए। राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्माजी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। जिससे प्रचेता नामके दस पुत्र हुए थे। जिनका वर्णन पूर्व आ चुका है।

राजा प्राचीन बर्हि का चित्त कर्मकाण्ड में बहुत रम गया था। इनकी अगाध कर्मनिष्ठाको देखकर देवर्षि नारदजी ने विचार किया कि यदि यह निष्ठा भगवान्में लग जाती तो राजा का कल्याण हो जाता। दूसरी बात यह भी थी कि विविध धर्मानुष्ठानों से इनका हृदय शुद्ध भी हो गया था, अतः ये अब उपदेश के परम अधिकारी भी हो गये हैं, यह विचार कर एक बार अध्यात्म-विद्या-विशारद, परम-कृपालु श्रीनारदजी ने आकर उन्हें तत्त्वोपदेश दिया।

श्रीनारदजी ने कहा– राजन् ! इन कर्मों के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण चाहते हो? दुःख के आत्यन्तिक नाश और परमानन्द की प्राप्ति का नाम कल्याण है, वह तो कर्मों से मिलने का नहीं। यथा नास्त्यकृतः कृतेन।' (मुण्डकोपनिषद्) अर्थात् किये जाने वाले कर्मों से अकृत अर्थात् स्वत:सिद्ध नित्य परमेश्वर निश्चय ही नहीं मिल सकते। राजा ने कहा– महाभाग नारदजी ! मेरी बुद्धि कर्म में फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याण का कोई पता नहीं है। आप ही मुझे विशुद्ध ज्ञान का उपदेश दीजिये, जिससे मैं इस कर्मबन्धन से छूट जाऊँ; क्योंकि जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रम में ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धन को ही परम पुरुषार्थं मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्य में ही भटकता रहता है। उसे परम कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्राचीनबर्हि ने स्वर्ग की कामना से बहुत ही हिंसा प्रधान यज्ञ भी किये थे। श्रीनारद जी ने कृपा करके राजा को दिव्य दृष्टि देकर कहा – राजन् ! देखो, देखो, तुमने यज्ञ में निर्दयता पूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है उन्हें आकाश में देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा दी गयी पीड़ा को याद करते हुए बदला लेने के लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोक में जाओगे। तब ये अत्यन्त क्रोध में भरकर तुम्हें अपनी लोहे की सींगों से छेदेंगे। अरे! यज्ञ में पशुओंकी बलि देने वाले की तो बात ही क्या, पशुबलि का समर्थन करने वाला पतित हो जाता है।

इस प्रकार उपदेश देकर नारद जी सिद्ध लोक को चले गये, तब राजर्षि प्राचीनबर्हि भी प्रजापालन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर तपस्या करने के लिये कपिलाश्रम को चले गये। वहाँ उन्होंने समस्त विषयों की आसक्ति छोड़ एकाग्र मन से भक्तिपूर्वक श्री हरि के चरण कमलों का चिन्तन करते हुए सारूप्य पद प्राप्त किया।

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आदिराज महाराज पृथु के विमल वंश में श्रीहविर्धान की पत्नी हविर्धानी से बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नामके छः पुत्र पैदा हुए। इनमें महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगादि में कुशल थे। अपने परम-प्रभाव के कारण उन्होंने प्रजापतिका पद प्राप्त किया। राजा बर्हिषने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी । इसी से आगे चलकर ये प्राचीनबर्हि के नाम से विख्यात हुए। राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्माजी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। जिससे प्रचेता नामके दस पुत्र हुए थे। जिनका वर्णन पूर्व आ चुका है।

राजा प्राचीन बर्हि का चित्त कर्मकाण्ड में बहुत रम गया था। इनकी अगाध कर्मनिष्ठाको देखकर देवर्षि नारदजी ने विचार किया कि यदि यह निष्ठा भगवान्में लग जाती तो राजा का कल्याण हो जाता। दूसरी बात यह भी थी कि विविध धर्मानुष्ठानों से इनका हृदय शुद्ध भी हो गया था, अतः ये अब उपदेश के परम अधिकारी भी हो गये हैं, यह विचार कर एक बार अध्यात्म-विद्या-विशारद, परम-कृपालु श्रीनारदजी ने आकर उन्हें तत्त्वोपदेश दिया।

श्रीनारदजी ने कहा– राजन् ! इन कर्मों के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण चाहते हो? दुःख के आत्यन्तिक नाश और परमानन्द की प्राप्ति का नाम कल्याण है, वह तो कर्मों से मिलने का नहीं। यथा नास्त्यकृतः कृतेन।' (मुण्डकोपनिषद्) अर्थात् किये जाने वाले कर्मों से अकृत अर्थात् स्वत:सिद्ध नित्य परमेश्वर निश्चय ही नहीं मिल सकते। राजा ने कहा– महाभाग नारदजी ! मेरी बुद्धि कर्म में फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याण का कोई पता नहीं है। आप ही मुझे विशुद्ध ज्ञान का उपदेश दीजिये, जिससे मैं इस कर्मबन्धन से छूट जाऊँ; क्योंकि जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रम में ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धन को ही परम पुरुषार्थं मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्य में ही भटकता रहता है। उसे परम कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्राचीनबर्हि ने स्वर्ग की कामना से बहुत ही हिंसा प्रधान यज्ञ भी किये थे। श्रीनारद जी ने कृपा करके राजा को दिव्य दृष्टि देकर कहा – राजन् ! देखो, देखो, तुमने यज्ञ में निर्दयता पूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है उन्हें आकाश में देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा दी गयी पीड़ा को याद करते हुए बदला लेने के लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोक में जाओगे। तब ये अत्यन्त क्रोध में भरकर तुम्हें अपनी लोहे की सींगों से छेदेंगे। अरे! यज्ञ में पशुओंकी बलि देने वाले की तो बात ही क्या, पशुबलि का समर्थन करने वाला पतित हो जाता है।

इस प्रकार उपदेश देकर नारद जी सिद्ध लोक को चले गये, तब राजर्षि प्राचीनबर्हि भी प्रजापालन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर तपस्या करने के लिये कपिलाश्रम को चले गये। वहाँ उन्होंने समस्त विषयों की आसक्ति छोड़ एकाग्र मन से भक्तिपूर्वक श्री हरि के चरण कमलों का चिन्तन करते हुए सारूप्य पद प्राप्त किया।

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