श्री जटायुजी Renu द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री जटायुजी

श्रीजटायुजी प्रजापति कश्यपजी की पत्नी विनता से दो पुत्र हुए-अरुण और गरुड़। इनमें से भगवान् सूर्य के सारथि अरुणजी के दो पुत्र हुए—सम्पाति और जटायु। बचपनमें सम्पाति और जटायु उड़ानकी होड़ लगाकर ऊँचे जाते हुए सूर्यमण्डल के पासतक चले गये। असह्य तेज न सह सकने के कारण जटायु तो लौट आये; किंतु सम्पाति ऊपर ही उड़ते गये। सूर्य के अधिक निकट जानेपर सम्पातिके पंख सूर्य-तापसे भस्म हो गये। वे समुद्रके पास पृथ्वी पर गिर पड़े। जटायु लौटकर पंचवटीमें आकर रहने लगे। महाराज दशरथ से आखेटके समय इनका परिचय हो गया और महाराजने इन्हें अपना मित्र बना लिया।

वनवासके समय जब श्रीरामजी पंचवटी पहुँचे, तब जटायुसे उनका परिचय हुआ। मर्यादापुरुषोत्तम अपने पिताके सखा गृध्रराजका पिताके समान ही सम्मान करते थे। जब छलसे स्वर्णमृग बने मारीचके पीछे श्रीराम वनमें चले गये और जब मारीचकी कपटपूर्ण पुकार सुनकर लक्ष्मणजी बड़े भाईको ढूँढ़ने चले गये, तब सूनी कुटियासे रावण सीतीजीको उठाकर बलपूर्वक रथमें उन्हें ले चला। श्रीविदेहराज-दुहिताका करुणक्रन्दन सुनकर जटायु क्रोधमें भर गये। वे ललकारते-धिक्कारते रावणपर टूट पड़े और एक बार तो राक्षसराजके केश पकड़कर उसे भूमिमें पटक ही दिया।

जटायु वृद्ध थे। वे जानते थे कि रावण से युद्ध में वे जीत नहीं सकते। परंतु नश्वर शरीर राम-काज में लग जाय, इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा? रावण से उनका भयंकर संग्राम हुआ। अन्तमें रावणने उनके पंख तलवार से काट दिये। वे भूमिपर गिर पड़े। जानकी जी को लेकर रावण भाग गया। श्रीराम विरह-व्याकुल होकर जानकी जी को ढूँढ़ते हुए वहाँ आये। जटायु मरणासन्न थे। उनका चित्त श्रीराम के चरणोंमें लगा था। उन्होंने कहा—‘राघव! राक्षसराज रावण ने मेरी यह दशा की है। वही दुष्ट सीताजी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चला गया है। मैंने तो तुम्हारे दर्शन के लिये ही अब तक प्राणों को रोक रखा था। अब वे बिदा होना चाहते हैं। तुम आज्ञा दो।’

श्रीराघव के नेत्र भर आये। उन्होंने कहा—‘आप प्राणों को रोकें। मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ बनाये देता हूँ।’ जटायु परम भागवत थे। शरीर का मोह उन्हें था नहीं। उन्होंने कहा—'श्रीराम ! जिनका नाम मृत्यु के समय मुख से निकल जाय तो अधम प्राणी भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है—ऐसी तुम्हारी महिमा श्रुतियों में वर्णित है, आज वही तुम प्रत्यक्ष मेरे सम्मुख हो; फिर मैं यह शरीर किस लाभ के लिये रखें?'

दयाधाम श्रीरामभद्र के नेत्रों में जल भर आया। वे कहने लगे—‘तात! मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ। तुमने तो अपने ही कर्म से परम गति प्राप्त कर ली। जिनका चित्त परोपकार में लगा रहता है, उन्हें संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। अब इस शरीर को छोड़कर आप मेरे धाम में पधारें।’

श्रीराम ने जटायु को गोद में रख लिया था। अपनी जटाओं से वे उन पक्षिराज की देह में लगी धूलि झाड़ रहे थे। जटायु ने श्रीराम के मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में ही शरीर छोड़ दिया—उन्हें भगवान् ‌का सारूप्य प्राप्त हुआ। वे तत्काल नवजलधर-सुन्दर, पीताम्बरधारी, चतुर्भुज, तेजोमय शरीर धारणकर वैकुण्ठ चले गये। जैसे सत्पुत्र श्रद्धापूर्वक पिता को अन्त्येष्टि करता है, वैसे ही श्रीराम ने जटायु के शरीर का सम्मानपूर्वक दाहकर्म किया और उन्हें जलांजलि देकर श्राद्ध किया। पक्षिराज के सौभाग्य की महिमा का कहाँ पार है। त्रिभुवनके स्वामी श्रीराम, जिन्होंने दशरथजी की अन्त्येष्टि नहीं की, उन्होंने अपने हाथों जटायु की अन्त्येष्टि विधिपूर्वक की। उस समय उन्हें श्रीजानकी जी का वियोग भी भूल गया था।