संत श्री तुलसीदासजी Renu द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

संत श्री तुलसीदासजी

कराल कलिकाल के कपटी प्राणियों का उद्धार करने के लिये आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने गोस्वामी श्रीतुलसीदास के रूपमें अवतार लिया। आदिकवि ने त्रेतायुगमें श्रीरामायण नामक प्रबन्ध महाकाव्य लिखा। जिसकी (श्लोक अथवा रामायण) संख्या सौ करोड़ है। इसके एक-एक अक्षर के उच्चारणमात्रसे ब्रह्महत्या आदि महापापपरायण प्राणी भी मुक्त हो जाते हैं। अब इस कलियुगमें भी उन्हीं श्रीवाल्मीकिजी ने भगवद्भक्तों को सुख प्रदान करने के लिये पुनः शरीर धारण कर भगवान् श्रीरामजी की लीलाओं का विशेष विस्तार किया, श्रीरामचरितमानस आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। ये गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी श्रीसीताराम के पदपद्मके प्रेमपरागका पानकर सर्वदा उन्मत्त रहते थे और नियम-निष्ठाओंका पालन दृढ़तासे करते थे। दिन-रात श्रीरामनामको रटते थे। इस अपार संसार-सागरको पार करनेके लिये आपने श्रीरामचरितमानसरूप सुन्दर-सुगम नौका का निर्माण किया।
गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है—

(1.) श्रीतुलसीदासजी का बाल्यकाल और उनके द्वारा गृहस्थ का परित्याग:
प्रयागके पास चित्रकूट जिलेमें राजापुर नामक एक ग्राम है, वहाँ आत्माराम दूबे नामके एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नीका नाम हुलसी था। संवत् १५५४ की श्रावण शुक्ला सप्तमीके दिन अभुक्त मूल नक्षत्रमें इन्हीं भाग्यवान् दम्पतीके यहाँ बारह महीनेतक गर्भमें रहनेके पश्चात् गोस्वामी तुलसीदासजीका जन्म हुआ। जन्मके दूसरे दिन इनकी माता असार-संसारसे चल बसीं। दासी चुनियाँने बड़े प्रेमसे बालकका पालन-पोषण किया। जब तुलसीदास लगभग साढ़े पाँच वर्षके हुए, चुनियाँका भी देहान्त हो गया, अब तो बालक अनाथ हो गया। वह द्वार-द्वार भटकने लगा। इसपर जगज्जननी पार्वतीजीको उस होनहार बालकपर दया आयी। वे ब्राह्मणीका वेष धारणकर प्रतिदिन उसके पास जातीं और उसे अपने हाथों भोजन करा आतीं।

इधर भगवान् शंकरजीकी प्रेरणासे रामशैलपर रहनेवाले श्रीअनन्तानन्दजीके प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्दजीने इस बालकको ढूंढ़ निकाला और उसका नाम 'रामबोला' रखा। उसे वे अयोध्या ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवारको उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोलाने गायत्री मन्त्रका उच्चारण किया। इसके बाद नरहरि स्वामीने वैष्णवोंके पाँच संस्कार करके रामबोलाको राममन्त्रकी दीक्षा दी और अयोध्यामें ही रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। वहाँसे कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्रीनरहरिजीने तुलसीदासको श्रीरामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वे काशी चले आये। काशीमें शेषसनातनजीके पास रहकर तुलसीदासजीने पन्द्रह वर्षतक वेदवेदांगका अध्ययन किया। तत्पश्चात् अपने विद्यागुरुसे आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमिको लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदिका श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगोंको भगवान् रामकी कथा सुनाने लगे।

संवत् १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरुवारको भारद्वाजगोत्रकी एक सुन्दरी कन्याके साथ उनका विवाह हुआ और वे सुखपूर्वक अपनी नवविवाहिता वधूके साथ रहने लगे। एक बार उनकी स्त्री अपने भाईके साथ मायके चली गयी। पीछे-पीछे तुलसीदासजी भी वहाँ जा पहुँचे। उनकी पत्नीने इसपर उन्हें बहुत धिक्कारा और कहा कि “मेरे इस हाड़-मांसके शरीरमें जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान्में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता।”

तुलसीदासजीको ये शब्द लग गये। वे एक क्षण भी नहीं रुके, तुरंत वहाँसे चल दिये।

वहाँसे चलकर तुलसीदासजी प्रयाग आये। वहाँ उन्होंने गृहस्थवेशका परित्यागकर साधुवेश ग्रहण किया। फिर तीर्थाटन करते हुए काशी पहुँचे।

(2.) काशी में श्रीहनुमान्जी से भेंट:
काशीमें तुलसीदासजी रामकथा कहने लगे। वहाँ उन्हें एक दिन एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान्जीका पता बतलाया। हनुमान्जीसे मिलकर तुलसीदासजीने उनसे श्रीरघुनाथजीका दर्शन करानेकी प्रार्थना की। हनुमान्जीने कहा, “तुम्हें चित्रकूटमें रघुनाथजीके दर्शन होंगे।' इसपर तुलसीदासजी चित्रकूटकीओर चल पड़े। चित्रकूट पहुँचकर रामघाटपर उन्होंने अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ोंपर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदासजी उन्हें देखकर मुग्ध हो गये, परंतु उन्हें पहचान न सके। पीछेसे हनुमान्जीने आकर उन्हें सारा भेद बताया तो वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे। हनुमान्जीने उन्हें सान्त्वना दी और कहा प्रात: काल फिर दर्शन होंगे।

(3.) चित्रकूटमें भगवान् श्रीराम के दर्शन और काशी में श्रीशंकरजी से वर-प्राप्ति:
संवत् १६०७ की मौनी अमावस्या बुधवारको उनके सामने भगवान् श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालकरूपमें तुलसीदासजीसे कहा-बाबा ! हमें चन्दन दो। हनुमान्जीने सोचा, वे इस बार भी धोखा न खा जायँ, इसलिये उन्होंने तोतेका रूप धारण करके यह दोहा कहा–
चित्रकूट के घाट पर भड़ संतन की भीर।
तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर॥


तुलसीदासजी उस अद्भुत छबिको निहारकर शरीरकी सुधि भूल गये। भगवान्ने अपने हाथसे चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदासजीके मस्तकपर लगाया और अन्तर्धान हो गये।

संवत् १६२८ में ये हनुमान्जीकी आज्ञासे अयोध्याकी ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयागमें माघमेला था। वहाँ कुछ दिन वे ठहर गये । पर्वके छः दिन बाद एक वटवृक्षके नीचे उन्हें भरद्वाज और याज्ञवल्क्यमुनिके दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने सूकरक्षेत्रमें अपने गुरुसे सुनी थी। वहाँसे ये काशी चले आये और वहाँ प्रह्लादघाटपर एक ब्राह्मणके घर निवास किया। वहाँ उनके अन्दर कवित्वशक्तिका स्फुरण हुआ और वे संस्कृतमें पद्य-रचना करने लगे, परंतु दिनमें वे जितने पद्य रचते, रात्रिमें वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदासजीको स्वप्न हुआ। भगवान् शंकरने उन्हें आदेश दिया कि 'तुम अयोध्यामें जाकर रहो और हिन्दीमें काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वादसे तुम्हारी कविता सामवेदके समान फलवती होगी। तुलसीदासजी उनकी आज्ञा शिरोधार्यकर काशीसे अयोध्या चले आये।

संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। उस साल रामनवमीके दिन प्रायः वैसा ही योग था, जैसा त्रेतायुगमें रामजन्मके दिन था । उस दिन प्रातः काल श्रीतुलसीदासजीने श्रीरामचरितमानसकी रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिनमें ग्रन्थकी समाप्ति हुई। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्षमें रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान्की आज्ञासे तुलसीदासजी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णाको श्रीरामचरितमानस सुनाया। रातको पुस्तक श्रीविश्वनाथजीके मन्दिरमें रख दी गयी। सबेरे जब पट खोला गया तो उसपर लिखा हुआ पाया गया— 'सत्यं शिवं सुन्दरम् ।' और नीचे भगवान् शंकरकी सही थी। उस समय उपस्थित लोगोंने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्' की आवाज भी कानोंसे सुनी ।

(4.) भगवन्नामनिष्ठा की एक घटना:
एक बार एक ब्राह्मण (विप्रचन्द) हत्या करके फिर उसके प्रायश्चित्तस्वरूप बहुतसे तीर्थोंमें घूमताफिरता काशी आया। वह मुखसे पुकारकर कहता था-'राम-राम ! मैं हत्यारा हूँ, मुझे भिक्षा दीजिये। ' गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने उसके मुखसे अति सुन्दर भगवन्नाम सुनकर उसे अपने निवास स्थानमें बुला लिया और उसे अपनी पंक्ति में बैठाकर भगवत्प्रसाद पवाया, उसे शुद्ध कर लिया। काशीके ब्राह्मणोंने जब यह बात सुनीतो उन्होंने एक सभा की और उसमें श्रीतुलसीदासजीको बुलवाया। सभी पण्डितोंने आपसे पूछा कि प्रायश्चित्त पूरा हुए बिना इस हत्यारेका पाप कैसे दूर हो गया? श्रीगोसाईंजीने कहा—'आपको कैसे विश्वास होगा, सो कहिये।' इसपर पण्डितोंने कहा- 'इसके हाथसे यदि श्रीशंकरजीका नाँदिया खा ले तो हमलोग इसे अपनी जाति-पंगतिमें ले लेंगे।' इस बातको आपने स्वीकार कर लिया और उसे एक थालमें सजाकर प्रसाद दिया। सब लोग काशीमें ज्ञानवापीके निकट नन्दीश्वरके पास पहुँचे, जहाँकी शर्त रखी थी। श्रीगोसाईंजीने कहाहे नन्दीश्वर! यदि यह ब्राह्मण राम-नामके प्रतापसे शुद्ध हो गया है तो आप इसके हाथसे प्रसाद स्वीकार करके नाम-महिमाको प्रमाणित कीजिये। ऐसी प्रार्थना सुनकर नन्दीश्वरने प्रसन्न होकर प्रसाद खा लिया। सभी लोगोंने रामचन्द्रजीकी एवं श्रीरामनामकी जय-जयकार की और तुलसीदासकी नामनिष्ठापर बलिहार हो गये।

(5.) श्रीराम-लक्ष्मण द्वारा तुलसीदासजी की कुटियापर पहरा देना:
काशीके पण्डितोंको गोस्वामीजीसे ईर्ष्या हो गयी थी। वे दल बाँधकर तुलसीदासजीकी निन्दा करने लगे और उनके द्वारा रचित श्रीरामचरितमानसको भी नष्ट कर देनेका प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुरानेके लिये दो चोर भेजे। चोरोंने जाकर देखा कि तुलसीदासजीकी कुटीके आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्णके थे। उनके दर्शनसे चोरोंकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समयसे चोरी करना छोड़ दिया और भजनमें लग गये।

इधर पण्डितोंने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वतीजीको उस पुस्तकको देखनेकी प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वतीजीने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर यह सम्मति लिख दी:
आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

“इस काशीरूपी आनन्दवनमें तुलसीदास चलता-फिरता तुलसीका पौधा है। उसकी कवितारूपी मंजरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्रीरामरूपी भंवरा सदा मँडराया करता है।”

पण्डितोंको इसपर भी सन्तोष नहीं हुआ। तब पुस्तककी परीक्षाका एक उपाय और सोचा गया। भगवान् विश्वनाथके सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रोंके नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। मन्दिर बन्द कर दिया गया। प्रात:काल जब मन्दिर खोला गया तो लोगोंने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदोंके ऊपर रखा हुआ है। अब तो पण्डित लोग बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदासजीसे क्षमा माँगी और भक्तिसे उनका चरणोदक लिया।

(6.) रामभक्तिके प्रभावसे एक स्त्रीके पतिको जीवनदान देनेकी घटना:
एक बार एक ब्राह्मणका देहान्त हो गया था। उसकी पत्नी उसके साथ सती होनेके लिये जा रही थी। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी अपनी कुटीके द्वारपर बैठे हुए भजन कर रहे थे। उस स्त्रीने इन्हें दूरसे ही देखा तो फिर समीप आकर उसने इनके श्रीचरणों में सप्रेम प्रणाम किया। आपने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि 'सौभाग्यवती होओ।' उसने कहा- 'महाराजजी ! मेरे पतिका स्वर्गवास हो गया है और मैं सती होनेके लिये श्मशानघाटपर जा रही हूँ। तब इस आशीर्वादका क्या अर्थ होगा?' गोसाईंजीने कहा- 'अब तो मेरे मुखसे आशीर्वाद निकल चुका है, तुम और तुम्हारे घरके सभी लोग यदि भगवान् श्रीरामका भजन करें तो मैं तुम्हारे मृत पतिको जीवित कर दें। उस स्त्रीने अपने सभी कुटुम्बियोंको बुलाकर कहा कि यदि आपलोग सभी सच्चे हृदयसे श्रीराम-भक्ति करनेकी दृढ़ प्रतिज्ञा करें तो यह मेरा मृत पति जीवित हो जायगा। सभीने सादर स्वीकार कर लिया और श्रीरामनामका संकीर्तन करने लगे। तब गोसाईंजीने उसके मृत पतिको सुन्दर भक्तिमय जीवनदान दिया। इससे प्रभावित होकर उसके परिवार के लोग भगवद्भक्त हो गये।

(7.) दिल्लीके बादशाह के साथ घटी घटना तथा श्रीनाभाजी से भेंट:
गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीकी महिमा सुनकर दिल्लीके बादशाहने अपने सेनापतियोंको काशी भेजा। उन्होंने आकर काशीके सूबेदारसे कहा कि गोस्वामीजीने मरे हुए ब्राह्मणको जीवित कर दिया है, यह सुनकर बादशाह उनके दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें आदर और सुख-सुविधापूर्वक ले जाया जायगा। तब सूबेदारने आकर गोस्वामीजीसे बहुत अनुनय-विनय की, आपने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और काशीसे दिल्लीकी ओर चल दिये। वहाँ पहुँचकर बादशाहके पास गये। उसने आपका बड़ा भारी स्वागतसत्कार किया। ऊँचे सिंहासनपर बैठाकर बड़ी मधुरवाणीसे बादशाहने कहा — 'आपकी करामातका सुयश सारे संसारमें फैला हुआ है, मुझे भी कुछ चमत्कार दिखलाइये।' गोस्वामीजीने कहा – ये सब बातें झूठी हैं, चमत्कार दिखाना हमें नहीं आता है। हम तो केवल श्रीरामजीको जानते-मानते हैं, उन्हींका भजन करते हैं। श्रीतुलसीदासजीके उत्तरको सुनकर बादशाहने कहा- " -'तो अपने रामको ही दिखलाओ। मैं देखें कि तुम्हारे राम कैसे हैं?' यह कहकर उसने इन्हें कारागारमें बन्द कर दिया। तब आपने अपने हृदयमें हनुमान्जीका ध्यान करते हुए उनसे प्रार्थना की- 'प्रभो! आप दयासागर हैं, मुझ दासपर कृपा कीजिये।' प्रार्थना करते ही उसी समय करोड़ों नये-नये आकार-प्रकारके, रंगरूपवाले वानर प्रकट हो गये। नगरभरमें सर्वत्र लोगोंके शरीरोंको नोचनेखरोचने लगे, बेगमोंके वस्त्रों को भी चीरने-फाड़ने लगे। यह उपद्रव देखकर बादशाहकी आँखें खुलीं, वहश्रीतुलसीदासजीके पास आया और पैरोंमें गिरकर बोला—'अब तो आप हमें प्राण-दान दीजिये, आपके बचानेसे ही हमलोग बचेंगे। नहीं तो नहीं।' श्रीगोसाईंजीने कहा- " - 'पहले आप थोड़ी-सी करामात और देख लीजिये। आपकी बात सुनकर बादशाह अति ही लज्जित हुआ। पछताते हुए अपराधको क्षमा करनेकी प्रार्थना करने लगा। तब वानरोंका उपद्रव शान्त हुआ। आपने रक्षा की और कहा कि 'अब तुम्हारा यह किला भगवान् श्रीरामका हो गया। तुम इसे बिलकुल छोड़ दो।' यह सुनकर बादशाहने उस किलेको छोड़ दिया। दूसरा नया किला (नयी दिल्ली) बनाकर उसमें रहने लगा । गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने दिल्लीसे प्रस्थान किया। पुनः वृन्दावनमें आकर आप श्रीनाभाजीसे मिले और बहुत प्रसन्न हुए।

(8.) इष्टदेव श्रीराम के प्रति अनन्य निष्ठा:
गोस्वामीजी ने श्रीवृन्दावनमें श्रीमदनगोपाल श्रीकृष्णका दर्शन करके प्रार्थना की—'प्रभो! आपकी यह छबि अवर्णनीय है, परंतु सच्ची बात तो यह है कि भगवान् श्रीराम मेरे सच्चे इष्टदेव हैं। उस समय आपकी दृष्टि प्रेममें पगी हुई थी। भक्तकी भावना-प्रार्थनाको स्वीकारकर श्रीकृष्णजीने श्रीरामरूप धारण करके दर्शन दिया। अपने मनके अनुरूप अपने इष्टदेवकी शोभा-सुन्दरता जब आपने देखी तो आपको अत्यन्त ही प्रिय लगी। किसी दिन श्रीकृष्णके अनन्य उपासकोंने कहा—' भगवान् श्रीकृष्ण सोलह कलाओंसे पूर्ण प्रशंसनीय हैं और श्रीरामचन्द्रजी अंशावतार हैं', यह सुनकर आपने उत्तर दिया कि अबतक तो मैं उन्हें श्रीदशरथजीका पुत्र, परम सुन्दर, उपमारहित जानकर उनसे प्रेम करता था, परंतु आज आपके द्वारा मालूम हुआ कि उनमें ईश्वरता भी है। अब उनमें मेरी प्रीति करोड़ों गुनी अधिक हो गयी है।

तुलसीदासजी अब असीघाटपर रहने लगे। रातको एक दिन कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आयाऔर उन्हें त्रास देने लगा। गोस्वामीजीने हनुमान्जीका ध्यान किया। हनुमान्जीने उन्हें विनयके पद रचनेको कहा; इसपर गोस्वामीजीने विनय-पत्रिका लिखी और भगवान्के चरणों में समर्पित कर दी । श्रीरामने उसपर अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदासजीको निर्भय कर दिया।

संवत् १६८० श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवारको असीघाटपर गोस्वामीजीने राम-राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।