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श्रीजाम्बवान् जी

ऋक्षराज जाम्बवान् ब्रह्मा के अंशावतार हैं। एक रूप से सृष्टि करते-करते ही दूसरे रूपसे भगवान्‌की आराधना, सेवा एवं सहायता की जा सके, इसी भाव से वे जाम्बवान्के रूपमें अवतीर्ण हुए थे। ऋक्ष के रूपमें अवतीर्ण होनेका कारण यह था कि उन्होंने रावणको वर दे दिया था कि उसकी मृत्यु नर-वानर आदिके अतिरिक्त किसी देव आदिसे न हो। अब इसी रूपमें रहकर रामजीकी सहायता पहुँचायी जा सकती थी। जब भगवान् विष्णुने वामनका अवतार धारणकर बलिकी यज्ञशालामें गमन किया और संकल्प लेनेके बाद अपना विराट् रूप प्रकट किया तब इन्होंने उनके त्रिलोकीको नापते-नापते इनकी सात प्रदक्षिणा कर लीं। इनकी इस अपूर्व शक्ति और साहसको देखकर बड़े-बड़े मुनि और देवता इनकी प्रशंसा करने लगे। रामावतारमें तो मानो ये भगवान्‌के प्रधान मन्त्री ही थे। सीताके अन्वेषणमें ये हनुमान्जीके साथ थे और जब समुद्रपार जानेकी किसीको हिम्मत न पड़ी, तब इन्होंने हनुमान्जीको इनकी शक्तिका स्मरण कराया और लंकामें जाकर क्या करना चाहिये, इस विषयमें सम्मति दी। समय-समयपर सलाह देनेके अलावा ये लड़ते भी थे और लंकाके युद्धमें इन्होंने बड़े-बड़े राक्षसोंका संहार किया।

भगवान् रामके चरणोंमें इनका इतना प्रेम था कि उनके अयोध्या पहुँचनेपर इन्होंने वहाँसे अपने घर जाना अस्वीकार कर दिया और हठ किया कि मैं आपके चरणोंको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। जबतक भगवान् रामने द्वापरमें आकर दर्शन देनेकी प्रतिज्ञा नहीं की तबतक ये अपने हठपर अड़े ही रहे। अन्ततः उनकी आज्ञा मानकर अपने घर आये और नित्य भगवान्‌की प्रतीक्षामें उन्हींका चिन्तन-स्मरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

द्वापरयुगमें श्रीकृष्णावतार हुआ। उस समय द्वारकाके एक यदुवंशी सत्राजित्ने सूर्यको उपासनाकर स्यमन्तकमणि प्राप्त की। एक दिन स्यमन्तकमणिको पहनकर उसका छोटा भाई प्रसेन जंगलमें गया हुआ था, वहाँ एक सिंहने उसे मार डाला और मणिको छीन लिया। तत्पश्चात् ऋक्षराज जाम्बवान्ने सिंहको मारकर वह मणि ले ली। इधर द्वारकामें कानोकान यह बात फैलने लगी कि श्रीकृष्ण उस मणिको चाहते थे, उन्होंने ही प्रसेनको मारकर मणिको ले लिया होगा। यह बात भगवान्‌ने भी सुनी। यद्यपि लोकदृष्टिसे तो भगवान्‌ने कलंकके परिमार्जन और मणिके अन्वेषणके लिये ही यात्रा की, परंतु वास्तवमें बात यह थी कि उन्हें अपने पुराने भक्त जाम्बवान्को दर्शन देकर कृतार्थ करना था, जिनका एक-एक क्षण बड़ी व्याकुलताके साथ भगवान्‌की प्रतीक्षामें ही बीत रहा था।

हाँ, तो भगवान् कृष्ण जाम्बवान्के घर पहुँच गये। उस समय उनका पुत्र मणिके साथ खेलता हुआ पालनेमें झूल रहा था। अपरिचित मनुष्यको देखकर वह रोने लगा और मणिकी ओर भगवान्‌की दृष्टि देखकर उसकी धाई भी चिल्ला उठी। जाम्बवान् आये, भगवान्‌को इस रूपमें वे नहीं पहचान सके। भगवान्‌की कुछ ऐसी ही लीला थी। दोनोंमें बड़ा घमासान युद्ध हुआ। सत्ताईस दिनतक लगातार द्वन्द्व युद्ध करते-करते जब एकने भी हार नहीं मानी तब भगवान्‌ ने एक घूसा लगाया, जिससे तुरंत जाम्बवान्का शरीर शिथिल पड़ गया और उनके मन में यह बात आयी कि मेरे प्रभु के अतिरिक्त और किसी में ऐसी शक्ति नहीं है कि मुझे इस प्रकार पराजित कर सके। यह भावना उठते ही देखते हैं तो उनके सामने धनुष-बाणधारी भगवान् रामचन्द्र खड़े हैं। उन्होंने अपने इष्टदेव को साष्टांग नमस्कार करके स्तुति की, षोडशोपचार-पूजा की और उपहारस्वरूप उस मणि के साथ अपनी कन्या जाम्बवती का समर्पण कर दिया और इस प्रकार अपने जीवन और अपने सर्वस्व को भगवान्‌ के चरणों में चढ़ाकर जीवनका सच्चा लाभ लिया। वास्तव में प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाना ही इस जीवन का परम और चरम लक्ष्य है।

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