श्री मदालसाजी Renu द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री मदालसाजी


भारतवर्ष में ऐसे योग्य पुत्र तो बहुत हुए हैं, जिन्होंने अपने सत्कर्मों से मातापिता का उद्धार करके पुत्र नाम को सार्थक किया हो; परंतु ऐसी माता, जो परम उत्तम ज्ञान का उपदेश देकर पुत्रों का भी संसार-सागर से उद्धार कर दे, केवल मदालसा ही थी। उसने पुत्रों का ही नहीं, अपना और पति का भी उद्धार किया था। मदालसा आदर्श विदुषी, आदर्श सती और आदर्श माता थी। उसका जन्म दिव्य कुल में हुआ। पहले तो वह गन्धर्वराज विश्वावसु की पुत्री थी। फिर नागराज अश्वतर की कन्यारूपमें प्रकट हुई। उसके जीवन का संक्षिप्त वृत्तान्त इस प्रकार है

प्राचीन काल में शत्रुजित् नाम के एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनकी राजधानी गोमती के तटपर थी। उनके एक बड़ा बुद्धिमान्, पराक्रमी और सुन्दर पुत्र भी था, उसका नाम था ऋतध्वज । एक दिन नैमिषारण्य से गालवमुनि राजा शत्रुजित् के दरबारमें पधारे। उनके साथ एक बहुत ही सुन्दर दिव्य अश्व था। उन्होंने राजा से कहा- 'महाराज ! हम आपके राज्य में रहकर तपस्या, यज्ञ तथा भगवान्का भजन करते हैं; किंतु एक दैत्य कुछ कालसे हमारे इस पवित्र कार्यमें बड़ी बाधा डाल रहा है। यद्यपि हम उसे अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर सकते हैं तथापि ऐसा करना नहीं चाहते; क्योंकि प्रजा की रक्षा करना और दुष्टोंको दण्ड देना- यह राजाका कार्य है। एक दिन उसके उपद्रव से पीड़ित होकर हम उसे रोकने के उपाय पर विचार कर रहे थे, इतनेमें ही यह दिव्य अश्व आकाशसे नीचे उतरा। उसी समय यह आकाशवाणी हुई-मुने ! यह अश्व बिना किसी समस्त पृथ्वीकी परिक्रमा कर सकता है; आकाश, पाताल, पर्वत, सब जगह आसानीसे जा सकता है। इसलिये इसका नाम 'कुवलय' । भगवान् सूर्यने यह अश्व आपको समर्पित किया है। आप इसे ले जाकर शत्रुजित्के पुत्र राजकुमार ऋतध्वज को दे दें। वे ही इसपर आरूढ़ होकर दैत्यका वध करेंगे, जो सदा आपको कष्ट दिया करता है। इस अश्वरत्नको इसीके नामपर राजकुमारकी प्रसिद्धि होगी, वे कुवलयाश्व कहलायेंगे। इस सुनकर हम आपके पास आये हैं। आप इस अश्व को लीजिये राजकुमार को इसपर सवार करके हमारे साथ भेजिये, जिससे धर्मका लोप न पाये।

गालवमुनि के यों कहनेपर धर्मात्मा राजाने बड़ी प्रसन्नता के साथ मुनियोंकी रक्षाके लिये भेजा। महर्षिके आश्रमपर पहुँचकर वे सब उसकी रक्षा करने लगे। एक दिन वह मदोन्मत्त दानव शूकरका रूप धारण वहाँ आया। राजकुमार शीघ्र ही घोड़ेपर सवार हो उसके पीछे दौड़े। बाणसे उसपर प्रहार किया। बाणसे आहत होकर वह शूकराकार प्राण बचानेके लिये भागा और वृक्षों तथा पर्वतसे घिरी हुई घनी झाड़ीमें गया। राजकुमारके अश्वने उसका पीछा न छोड़ा। दैत्य भागता हुआ सहस्रों दूर निकल गया और एक स्थानपर बिलके आकारमें दिखायी देनेवाली गुफामें कूद पड़ा। अश्वारोही राजकुमार भी उसके पीछे उसी गड्डेमें कूद । भीतर जानेपर वहाँ सूअर नहीं दिखायी पड़ा; बल्कि दिव्य प्रकाशसे परिपूर्ण दर्शन हुआ। सामने ही इन्द्रपुरीके समान एक सुन्दर नगर था, सैकड़ों सोनेके महल शोभा पा रहे थे। राजकुमारने उसमें प्रवेश किया; वहाँ उन्हें कोई मनुष्य नहीं दिखायी दिया। वे नगरमें घूमने लगे। घूमतेही-घूमते उन्होंने एक स्त्री देखी, जो बड़ी उतावलीके साथ कहीं चली जा रही । राजकुमारने उससे कुछ पूछना चाहा; किंतु वह आगे बढ़कर चुपचाप एक महलकी सीढ़ियोंपर चढ़ गयी। ऋतध्वजने भी घोड़ेको एक जगह बाँध दिया और -उसी स्त्रीके पीछे-पीछे महलमें प्रवेश किया। भीतर जाकर देखा, सोनेका बना एक विशाल पलँग है। उसपर एक सुन्दरी कन्या बैठी है, जो अपने सौन्दर्यसे रतिको भी लजा रही है। दोनोंने एक-दूसरेको देखा और दोनोंका मन परस्पर आकर्षित हो गया। कन्या मूर्च्छित हो गयी। तब पहली स्त्री ताड़का पंखा लेकर उसे हवा करने लगी। जब वह कुछ होशमें आयी तो राजकुमारने उसकी मूच्र्छाका पूछा। वह लजा गयी। उसने सब कुछ अपनी सखीको बता दिया।

उसकी सखीने कहा- 'प्रभो! देवलोकमें गन्धर्वराज विश्वावसु सर्वत्र विख्यात हैं। यह सुन्दरी उन्हींकी कन्या मदालसा है। एक दिन जब यह अपने पिताके उद्यानमें घूम रही थी, पातालकेतु नामक दानवने अपनी माया फैलाकर इसे हर लिया। उसका निवासस्थान यहीं है। सुनने में आया है, आगामी वह इसके साथ विवाह करेगा, इससे मेरी सखीको अपार कष्ट है। कलकी बात है, यह बेचारी आत्महत्या करनेको तैयार हो गयी थी। उसी कामधेनुने प्रकट होकर कहा- 'बेटी! वह नीच दानव तुम्हें नहीं पा सकता। जानेपर उसे जो अपने बाणोंसे बींध डालेगा, वही तुम्हारा पति ।' यों कहकर माता सुरभि अन्तर्धान हो गयीं। मेरा नाम कुण्डला है। मैं इस सखी, विन्ध्यवान्की पुत्री और वीर पुष्करमालीकी पत्नी हूँ। मेरे पति संग्राममें शुम्भके हाथों मारे गये। तबसे मैं तपस्याका जीवन व्यतीत कर हूँ। सखीके स्नेहसे यहाँ इसे धीरज बँधाने आ गयी हूँ। सुना है, मर्त्यलोकके वीरने पातालकेतुको अपने बाणोंका निशाना बनाया है। मैं उसीका पता गयी थी। बात सही निकली। आपको देखकर मेरी सखीके हृदयमें प्रेमका हो गया है, किंतु माता सुरभिके कथनानुसार इसका विवाह उस वीरके साथ , जिसने पातालकेतुको घायल किया है। यही सोचकर दुःखके मारे यह हो गयी है। जिससे प्रेम हो, उसीके साथ विवाह होनेपर जीवन सुखमय बीतता है। इसका प्रेम तो आपसे हुआ और विवाह दूसरेसे होगा, यही इसकी चिन्ताका कारण है। अब आप अपना परिचय दीजिये। कौन हैं और कहाँसे आये

राजकुमारने अपना यथावत् परिचय दिया तथा उस दानवको बाण मारने पातालमें पहुँचनेकी सारी कथा विस्तारपूर्वक कह सुनायी। सब बातें मदालसाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने लज्जित होकर सखीकी ओर देखा, किंतु कुछ बोल न सकी। कुण्डलाने उसका मनोभाव जानकर कहावीरवर! आपकी बात सत्य है। मेरी सखीका हृदय किसी अयोग्य पुरुषकी ओर आसक्त नहीं हो सकता। कमनीय कान्ति चन्द्रमामें और प्रचण्ड प्रभा ही मिलती है। आपके ही लिये गोमाता सुरभिने संकेत किया था। ही दानव पातालकेतुको घायल किया है। मेरी सखी आपको पतिरूपमें प्राप्त करके अपनेको धन्य मानेगी। कुण्डलाकी बात सुनकर राजकुमारने कहा – ‘मैं पिताकी आज्ञा लिये बिना विवाह कैसे कर सकता हूँ? कुण्डला बोली 'नहीं, नहीं, ऐसा न कहिये। यह देवकन्या है। आपके पिताजी इस विवाहसे होंगे। अब उनसे पूछने और आज्ञा लेनेका समय नहीं रह गया है। आप प्रेरणासे ही यहाँ आ पहुँचे हैं; अत: यह सम्बन्ध स्वीकार कीजिये।' 'तथास्तु' कहकर उसकी बात मान ली। कुण्डलाने अपने कुलगुरु स्मरण किया। वे समिधा और कुशा लिये तत्काल वहाँ आ पहुँचे। अग्नि प्रज्वलित करके विधिपूर्वक ऋतध्वज और मदालसाका विवाहसम्पन्न किया। कुण्डलाने अपनी सखी राजकुमारके हाथों सौंप दी और अपने-अपने कर्तव्यपालनका उपदेश दिया। फिर दोनोंसे विदा लेकर दिव्य गतिसे अपने अभीष्ट स्थानपर चली गयी। ऋतध्वजने मदालसाको बिठाया और स्वयं भी उसपर सवार हो पाताललोकसे जाने लगे।

पातालकेतुको यह समाचार मिल गया और वह दानवोंकी विशाल सेना राजकुमारके सामने आ डटा। राजकुमार भी बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने हँसतेबाणोंका जाल-सा फैला दिया और त्वाष्ट्र नामक दिव्य अस्त्रका प्रयोग पातालकेतुसहित समस्त दानवोंको भस्म कर डाला। इसके बाद वे अपने नगरमें जा पहुँचे। घोड़ेसे उतरकर उन्होंने माता-पिताको प्रणाम किया। भी सास-ससुरके चरणोंमें मस्तक झुकाया। ऋतध्वजके मुखसे सब सुनकर मातापिता बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पुत्र और पुत्रवधूको हृदयसे उनका मस्तक सँघा | मदालसा पतिगृहमें बड़े सुखसे रहने लगी। वह प्रातः काल उठकर सास-ससुरके चरणोंमें प्रणाम करती और पतिको सेवाओंसे सन्तुष्ट रखती थी।

तदनन्तर एक दिन राजा शत्रुजित्ने राजकुमार ऋतध्वजसे कहा- 'बेटा! तुम प्रात:काल इस अश्वपर सवार हो ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये इस पृथ्वीपर वेचरते रहो।' राजकुमारने 'बहुत अच्छा' कहकर पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की। प्रतिदिन पूर्वाह्नमें ही पृथ्वीकी परिक्रमा करके पिताके चरणों में नमस्कार करते । एक दिन घूमते हुए वे यमुनातटपर गये। वहाँ पातालकेतुका छोटा भाई आश्रम बनाकर मुनिके वेषमें रहता था। राजकुमारने मुनि जानकर उसे किया। वह बोला- 'राजकुमार! मैं धर्मके लिये यज्ञ करना चाहता हूँ; मेरे पास दक्षिणा नहीं है। तुम अपने गलेका यह आभूषण दे दो और यहीं मेरे आश्रमकी रक्षा करो। मैं जलके भीतर प्रवेश करके वरुण-देवताकी स्तुति करता हूँ। उसके बाद जल्दी ही लौटुंगा।' यों कहकर तालकेतु जलमें घुसा और मायासे अदृश्य हो गया। राजकुमार उसके आश्रमपर ठहर गये। मुनिवेषधारी तालकेतु राजा शत्रुजित्के नगरमें गया। वहाँ जाकर उसने कहा— ‘राजन् ! आपके पुत्र दैत्यों के साथ युद्ध करते-करते मारे गये। यह उनका आभूषण है।' यों कहकर जैसे आया था, उसी प्रकार लौट गया। राजकुमारकी मृत्युका दुःखपूर्ण सुनकर नगरमें हाहाकार गया। राजा-रानी तथा रनिवासकी स्त्रियाँ व्याकुल होकर विलाप करने लगीं। मदालसाने उनके गलेके आभूषणको और पतिको मारा गया सुनकर तुरंत ही अपने प्यारे प्राणोंको त्याग दिया। शोक दूना हो गया। राजा शत्रुजित्ने किसी प्रकार धैर्य धारण किया और रानी तथा अन्तः पुरके अन्य लोगोंको भी समझा-बुझाकर शान्त किया। दाह-संस्कार किया गया। उधर तालकेतु यमुना-जलसे निकलकर पास गया और कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसने उनको घर जानेकी दे दी। राजकुमारने तुरंत अपने नगरमें पहुँचकर पिता-माताको प्रणाम । उन्होंने पुत्रको छातीसे लगा लिया और नेत्रों से आँसू बहाने लगे। सब बातें मालूम हुईं। मदालसाके वियोगसे उनका हृदय रो उठा। दुनिया सूनी हो गयी। उन्होंने मदालसाके लिये जलांजलि दी और यह की, “मैं मृगके समान विशाल नेत्रोंवाली गन्धर्वराजकुमारी मदालसाके अतिरिक्त दूसरी किसी स्त्रीके साथ भोग नहीं करूंगा। यह मैंने सर्वथा सत्य कहा इस प्रकार प्रतिज्ञा करके उन्होंने स्त्री-सम्बन्धी भोगसे मन हटा लिया और समवयस्क मित्रोंके साथ मन बहलाने लगे। इसी समय नागराज अश्वतरके दो पुत्र मनुष्यरूपमें पृथ्वीपर घूमनेके लिये निकले। राजकुमार ऋतध्वजके साथ उनकी हो गयी। उनका आपसका प्रेम इतना बढ़ गया कि नागकुमार एक क्षण भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे। वे दिनभर पातालसे गायब रहते थे। एक दिन पूछनेपर उन्होंने ऋतध्वजका सारा वृत्तान्त सुनाकर पितासे कहाहमारे मित्र ऋतध्वज मदालसाके सिवा दूसरी किसी स्त्रीको स्वीकार न करनेकी प्रतिज्ञा कर चुके हैं। मदालसा पुनः जीवित हो सके तो कोई उपाय करें।' नागराज बोले- 'उद्योगसे सब कुछ सम्भव है। प्राणीको कभी निराश नहीं होना चाहिये।' यों कहकर नागराज अश्वतर हिमालयपर्वतके प्लक्षावतरण तीर्थमें, जो सरस्वतीको उद्गमस्थान है, जाकर अपने पुत्रोंके मित्र राजकुमार ऋतध्वजके हितार्थ दुष्कर तपस्या करने लगे। सरस्वती देवीने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन और वर माँगनेको कहा। अश्वतर बोले- 'देवि! मैं और मेरा भाई कम्बल संगीतशास्त्रके पूर्ण मर्मज्ञ हो जायँ ।' सरस्वतीदेवी 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गयीं। अब दोनों भाई कम्बल और अश्वतर कैलासपर्वतपर गये और भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेके लिये तालस्वरके साथ उनके गुणोंका गान करने लगे। शंकरजीने प्रसन्न होकर कहा- 'वर माँगो।' तब कम्बलसहित अश्वतरने महादेवजीको प्रणाम करके कहा – 'भगवन् ! कुवलयाश्वकी पत्नी मदालसा जो अब मर चुकी है, पहलेकी ही अवस्थामें मेरी कन्याके रूपमें प्रकट हो। उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण बना रहे। पहले ही जैसी उसकी कान्ति हो तथा वह योगिनी एवं योगविद्याकी जननी होकर मेरे घरमें प्रकट हो ।' महादेवजीने कहा'नागराज ! तुम श्राद्धका दिन आनेपर यही कामना लेकर पितरोंका तर्पण करना और श्राद्धमें दिये हुए मध्यम पिण्डको शुद्ध भावसे खा लेना। इससे वह तत्काल ही तुम्हारे मध्यम फणसे प्रकट हो जायगी।' नागराजने वैसा ही किया। सुन्दरी मदालसा उनके मध्यम फणसे प्रकट हो गयी। नागराजने उसे महलके भीतर स्त्रियों के संरक्षणमें रख दिया। यह रहस्य उन्होंने किसीपर प्रकट नहीं किया। -

तदनन्तर नागराज अश्वतरने अपने पुत्रोंसे कहा- 'तुम राजकुमार ऋतध्वजको यहाँ बुला लाओ।' नागकुमार उन्हें लेकर गोमतीके जलमें उतरे और वहींसे खींचकर उन्हें पातालमें पहुँचा दिया। वहाँ वे अपने असली रूपमें प्रकट हुए। ऋतध्वज नागलोककी शोभा देखकर चकित हो उठे। उन्होंने नागराजको प्रणाम किया। नागराजने आशीर्वाद देकर ऋतध्वजका भलीभाँति स्वागतसत्कार किया। भोजनके पश्चात् सब लोग एक साथ बैठकर प्रेमालाप करने लगे। नागराजने मदालसाके पुनः जीवित होनेकी सारी कथा उन्हें कह सुनायी। फिर तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपनी प्यारी पत्नीको ग्रहण किया। उनके स्मरण करते ही उनका प्यारा अश्व वहाँ आ पहुँचा। नागराजको प्रणाम करके वे मदालसाके साथ अश्वपर आरूढ़ हुए और अपने नगरमें चले गये। वहाँ उन्होंने मदालसाके जीवित होनेकी कथा सुनायी। मदालसाने भी सास-ससुरके चरणोंमें प्रणाम किया। नगरमें बड़ा भारी उत्सव मनाया गया।

राजा कुछ कालके पश्चात् महाराज शत्रुजित् परलोकवासी हो गये। ऋतध्वज और मदालसा महारानी। मदालसाके गर्भसे प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ। राजाने उसका नाम विक्रान्त रखा। मदालसा यह नाम सुनकर हँसने लगी। इसके बाद समयानुसार क्रमशः दो पुत्र और हुए। उनके नाम सुबाहु और शत्रुमर्दन रखे गये। उन नामोंपर भी मदालसाको हँसी आयी। इन तीनों पुत्रोंको उसने लोरियाँ गानेके व्याजसे विशुद्ध आत्मज्ञानका उपदेश दिया। बड़े होनेपर वे तीनों ममताशून्य और विरक्त हो गये।

तत्पश्चात् रानी मदालसाके गर्भसे चौथा पुत्र उत्पन्न हुआ। जब राजा उसका नामकरण करने चले तो उनकी दृष्टि मदालसापर पड़ी। वह मन्द-मन्द मुसकरा रही थी। राजाने कहा— 'मैं नाम रखता हूँ तो हँसती हो । अब इस पुत्रका नाम तुम्हीं रखो।’ मदालसाने कहा- 'जैसी आपकी आज्ञा। आपके चौथे पुत्रका नाम मैं अलर्क रखती हूँ।' 'अलर्क !' यह अद्भुत नाम सुनकर राजा ठठाकर हँस पड़े और बोले– ‘इसका क्या अर्थ है?' मदालसाने उत्तर दिया, – 'सुनिये ! नामसे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं है। संसारका व्यवहार चलानेके लिये कोई-सा नाम कल्पना करके रख लिया जाता है। वह संज्ञामात्र है, उसका कोई अर्थ नहीं। आपने भी जो नाम रखे हैं, वे भी निरर्थक ही हैं; पहले 'विक्रान्त' इस नामके अर्थपर विचार कीजिये। क्रान्तिका अर्थ है गति। जो एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाता है, वही विक्रान्त है। आत्मा सर्वत्र व्यापक है, उसका कहीं आना-जाना नहीं होता; अतः यह नाम उसके लिये निरर्थक तो है ही, स्वरूपके विपरीत भी है। आपने दूसरे पुत्रका नाम 'सुबाहु' रखा है। जब आत्मा निराकार है, तो उसे बाँह कहाँसे आयी? जब बाँह ही नहीं है तो सुबाहु नाम रखना कितना असंगत है। तीसरे पुत्रका नाम ‘शत्रुमर्दन' रखा गया है; उसकी भी कोई सार्थकता नहीं दिखायी देती। सब शरीरों में एक ही आत्मा रम रहा है; ऐसी दशामें कौन किसका शत्रु है और कौन किसका मर्दन करनेवाला ? यदि व्यवहारका निर्वाहमात्र ही उसका प्रयोजन है तब तो अलर्क नामसे भी इस उद्देश्यकी पूर्ति हो सकती है।

राजा निरुत्तर हो गये। मदालसाने उस बालकको भी ब्रह्मज्ञानका उपदेश सुनाना आरम्भ किया। तब राजाने रोककर कहा- ‘देवि! इसे भी ज्ञानका उपदेश देकर मेरी वंश-परम्पराका उच्छेद करनेपर क्यों तुली हो? इसे प्रवृत्तिमार्गमें लगाओ और उसके अनुकूल ही उपदेश दो।' मदालसाने पतिकी आज्ञा मान ली और अलर्कको बचपनमें ही व्यवहार-शास्त्रका पण्डित बना दिया। उसे राजनीतिका पूर्ण ज्ञान कराया। धर्म, अर्थ और काम तीनों शास्त्रों में वह प्रवीण बन गया। बड़े होनेपर माता-पिताने अलर्कको राजगद्दीपर बिठाया और स्वयं वनमें तपस्या करनेके लिये चले गये। जाते समय मदालसाने अलर्कको एक अँगूठी दी और कहा- 'जब तुमपर कोई संकट पड़े तो इस अँगूठीके छिद्रसे उपदेशपत्र निकालकर पढ़ना और इसके अनुसार कार्य करना।' अलर्कने गंगायमुनाके संगमपर अपनी अलर्कपुरी नामकी राजधानी बनायी, जो आजकल रैलके नामसे प्रसिद्ध है। कुछ कालके बाद अलर्कको भोगों में आसक्त देख उनके बड़े भाई सुबाहुने काशिराजकी सहायतासे उनपर आक्रमण किया। अलर्कने संकट जानकर माताका उपदेश पढ़ा। उसमें लिखा था

सङ्गः सर्वात्मना त्याज्य: स चेत्त्यक्तुं न शक्यते।
से सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम् ॥
सर्वात्मना हेयो हातुं चेच्छक्यते न सः ।
कामः मुमुक्षां प्रति तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम् ॥

‘संग (आसक्ति)-का सब प्रकार के त्याग करना चाहिये; किंतु यदि उसका त्याग न किया जा सके तो सत्पुरुषों का संग करना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषों का संग ही उसकी ओषधि है। कामना को सर्वथा छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि वह छोड़ी न जा सके तो मुमुक्षा (मोक्ष की इच्छा) - के प्रति कामना करनी चाहिये, क्योंकि मुमुक्षा ही उस कामना को मिटाने की दवा है।'

इस उपदेश को अनेक बार पढ़कर राजा ने सोचा, मनुष्यों का कल्याण कैसे होगा? मुक्ति की इच्छा जाग्रत् करने पर और मुक्तिकी इच्छा जाग्रत् होगी सत्संग से। ऐसा विचारकर अलर्क ने महात्मा दत्तात्रेयजी की शरण ली और वहाँ ममतारहित विशुद्ध आत्मज्ञान का उपदेश पाकर वे सदा के लिये कृतार्थ हो गये। इस प्रकार महासती मदालसा ने अपने पुत्रों का उद्धार करके स्वयं भी पति के साथ परमात्मचिन्तनमें मन लगाया और थोड़े ही समय में मोक्षस्वरूप परमपद प्राप्त कर लिया। मदालसा अब इस लोकमें नहीं है; किंतु उसका नाम सदाके लिये अमर हो गया। (मार्कण्डेयपुराण)