भाग 22
अशोक कहानी सुना ही रहा था कि इस बार राघव को अपने पीछे को हलचल महसूस हुई। उसने पलटकर पीछे की ओर देखा।
इसी बीच मीनू ने कहा- क्या हुआ कोई है, ऐसा ही लगा ना तुझे ?
हां मुझे लगा कि ठीक मेरे पीछे कोई खड़ा है। राघव ने कहा।
मुझे भी उस समय ऐसा ही लगा था कि ठीक मेरे पीछे कोई खड़ा है। पर तू ही कह रहा था कि मेरे पीछे कोई होता तो तुझे नजर आता। वैसे मुझे भी तेरे पीछे कोई नजर नहीं आया है, पर ऐसा महसूस जरूर हुआ था कि कोई तो है।
हां, मुझे भी ऐसा ही लगा कि कोई मेरे पीछे खड़ा है।
मुझे भी तो लगा ही था ना कि किसी ने मेरा हाथ पकड़ा है। मानसी ने कहा।
तुम लोगों भूतों की कहानी सुनकर डर गए हो, इसलिए तुम लोगों को ऐसा लग रहा है। सब तुम्हारे मन का भ्रम है। चल अशोक तू अपनी कहानी शुरू कर। साहिल ने कहा।
साहिल किसी एक को अहसास हुआ होता तो मान लेते कि यह किसी का वहम है, पर यहां सभी कुछ अजीब महसूस हुआ है। मीनू ने कहा।
हां मुझे, मानसी को, शीतल को भी तो ऐसा ही महसूस हुआ था। कहीं ऐसा तो नहीं कि जंगल और सैनिकों के बारे में जो कहानी यहां प्रचलित है वो सच हो। कोई सैनिक हमें परेशान कर रहा हो। राघव ने कहा।
ओह कमऑन यार। ये 21वीं सदी है और तुम लोग पढ़े-लिखे भी हो, तुम भी भूत-प्रेत की बातों में विश्वास करते हो। मैं नहीं मानता कोई भूत है। जंगल है, हवा चल रही है, या कोई जानवर रास्ता भटककर इधर से गया होगा। उसने आग देखी तो इस ओर नहीं आया और चला गया। तुम लोग भी कहां भूत-प्रेत के बारे में सोचने लगे। साहिल ने कहा।
यार सदि 21वीं हो या 18वीं भूत-प्रेत तो होते ही है। अशोक ने कहा।
तुने कभी भूत को देखा है क्या ? अगर देखा है तो मुझे भी दिखा, मैं भी भूत को देखना चाहता हूं। भूत कैसे दिखते हैं तू बता सकता है क्या ? साहिल ने कहा।
तुझसे बहस नहीं करना चाहता। चल अब आगे की कहानी सुन। अशोक ने कहा। अशोक ने फिर अपनी कहानी को आगे बढ़ाना शुरू किया।
पूर्णिमा का दिन भी आ गया जब करुनासिन्धु शर्मा ने सुमित्रादेवी के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। और वे घर का मुआयना करने आए। उन्होंने मुख्य द्वार पर ही कुछ दबाव सा महसूस किया, जैसे कोई उन्हें अंदर प्रवेश से रोक रहा हो। अपनी जेब से उन्होंने नींबू निकाल कर उसे काले धागे से बांध कर नींबू को घर के हर कोने में फिराना शुरू किया। नींबू हर जगह शांत ही रहा। अंत में करुनासिन्धु ने वैदेही के कमरे में प्रवेश किया। कमरे के दरवाजे पर नींबू हल्का सा हिला।
संकेत पाते ही करुनासिन्धु तेजी से कमरे में नींबू को घुमाने लगे। बुकशेल्फ के करीब जाते ही नींबू घड़ी के लोलक की भाँति तेज गति से झूलने लगा। करुनासिन्धु ने बुकशेल्फ से उस किताब को जैसे ही बाहर निकाला नींबु फटकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। करुनासिन्धु ने तुरन्त किताब को अभिमंत्रित धागे से बाँध दिया। किताब को लकड़ी के पाटे पर रख कर उस पर सिद्ध की हुई भभूत को छिड़कते हुए करुनासिन्धु बोले- कौन हैं तू ?
किताब इस तरह से हिलने लगी मानो खुद को अभिमंत्रित धागों से मुक्त करना चाहती हो। एक बार फिर करुनासिन्धु ने भभूत को किताब पर छिड़का।
इस बार कमरे में धुँआ सा फैल गया, जिसमें एक हट्टा-कट्टा नौजवान दिखाई दिया। जिसका पहनावा सैनिक की तरह था। वह हाथ में तलवार लिए हुए था। उसका क्रोधित चेहरा ऐसा लग रहा था, जैसे वह अपने क्रोध की आग से सबको भस्म कर देगा।
करुनासिन्धु ने उससे बड़े ही मधुर वचनों में कहा- वीर पुरूष कौन हो तुम ? इस पुस्तक से तुम्हारा क्या सम्बंध हैं ?
मधुर वचनों को सुनकर नौजवान कुछ शांत हुआ। वह करुनासिन्धु से कहने लगा- हे श्रेष्ठ ! मेरा अभिवादन स्वीकार करें।
मैं वत्स जनपद का एक साधारण सैनिक अमरसिंह हूं। महाराज उदयन ने मेरी योग्यता से प्रसन्न होकर मुझे सेना का प्रमुख बना दिया था। मुझे सैनिक सम्बंधित चर्चा के लिए राजमहल जानें का अवसर प्राप्त हुआ। एक समय की बात हैं, राजकुमारी फुलकुँवर उपवन में विहार कर रहीं थीं तभी मैंने उनकी और आतें एक बाज को देखा और दूर से ही निशाना लगाकर राजकुमारी को बाज के घात से सुरक्षित कर दिया। राजकुमारी मुझ पर आसक्त हो गई और मुझे भी उनसे प्रेम हो गया।
मैं अपनी प्रेमकथा को भोजपत्रों पर लिख दिया करता था। जिनको संकलित करके मैं एक पुस्तक का रूप देना चाहता था। मैंने अपनी लिखी प्रेमगाथा अपने परम मित्र व महाराज के राजकवि को दे दी। उसने मेरे भोजपत्रों को अक्षरसः पुस्तक का रूप दे दिया। मैंने पुस्तक राजकुमारी को उपहार स्वरूप भेंट कर दी।
दुर्भाग्यवश पुस्तक युवराज फूलचंद ने पढ़ ली। उन्हें यह भय था कि उनकी अयोग्यता के कारण महाराज मेरे और फुलकुँवर के प्रेम को स्वीकार करके मेरा विवाह फुलकुँवर से करवा देंगे और सम्भवतया मुझे राज्य सिंहासन सौंप देंगे। फूलचंद ने मुझे धोखे से एकांत में बुलवाया और मेरी हत्या करके राज्य के सबसे बड़े तांत्रिक द्वारा मेरी आत्मा को मेरी लिखी पुस्तक में डाल दिया।
मैंने युवराज को श्राप दिया कि तुम कभी राजसिंहासन प्राप्त नहीं कर सकोगे, और शीघ्र ही तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। मेरी प्रेमगाथा सिर्फ फुलकुँवर के लिए हैं अन्य कोई भी इस पुस्तक को पढ़ने का प्रयास करेगा तो उसके जीवन में समस्या आना शुरू हो जाएंगी व पुस्तक को पूरा पढ़ लेने पर उसकी मृत्यु निश्चित होगीं।
करुनासिन्धु- आर्य ! तुम्हारी कथा अत्यंत दुःखद हैं। पर क्या यह हमेशा शापित किताब रहेगी ?
अमरसिंह- आप विद्वान हैं, आप वेदपाठी हैं। आप मुझे इस पुस्तक से मुक्त करें।
करुनासिन्धु ने अथर्ववेद की ऋचाओं द्वारा अमरसिंह की आत्मा को शापित किताब से मुक्त करा दिया।
वैदेही के घर होने वाले सारे उपद्रव भी शांत हो गए। वैदेही की आँखे भी स्वस्थ हो गई। उसने शापित किताब को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया।
वाह यार किताब में भूत। ये अच्छा आइडिया था। मुझे काफी पसंद आया। साहिल ने कहा।
हां ये कहानी भी कुछ अलग थी। सबसे अच्छी बात हमारे वेदों के द्वारा एक आत्मा को मुक्ति मिल गई। हमारे वेदों की महानता का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। राघव ने कहा।
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