भाग 21
वैदेही वैष्णव मध्यमवर्गीय परिवार की चुलबली लड़की हैं। जिसे किताबे पढ़ना पसन्द है। उसे अगर किताबी कीड़ा कहे तो यह सम्बोधन उसके लिए अधिक उपयुक्त होगा। उसका किताब पढ़ने का शौक इस कदर बढ़ गया कि वह अपनी दिनचर्या का अधिकांश समय किताब पढ़ने में ही बीता देती है। उसके हाथ कोई भी किताब लग जाती तो वह उसे पूरा पढ़ने के बाद ही छोड़ती थी, फिर चाहें वह उपन्यास ही क्यों न हो।
उसकी इस आदत से घर वाले हैरान-परेशान रहते थे, क्योंकि किताब पढ़ते समय वह किताबों की दुनिया में इस कदर खो जाती कि अगर उसके कमरे के बाहर ढोल भी बजा दो तो उसे सुनाई न दे। वैदेही की माता जी सुमित्रादेवी उसकी इस आदत से नाराज होकर कहती- अगर यही रंग-ढंग तेरे ससुराल में रहे तो तू तो हमारी नाक ही कटवा देगी।
वैदेही- (हँसकर) : तो फिर मैं शादी ही नहीं करूँगी माँ, किताबों को ही अपना जीवनसाथी बना लूँगी। पर किताबों से दूर रह पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
वैदेही के जन्मदिन पर उसकी मित्र राधिका ने उसे उपहार में एक किताब दी। जो काफी पुरानी सी लग रहीं थी। उस किताब में सत्यघटना पर आधारित ऐतिहासिक कहानियां थी। इस किताब को पढ़ने की उत्कंठा वैदेही को अक्सर अपनी मित्र के घर की ओर ले जाती, पर वैदेही किताब पढ़ने में हर बार ही असफल हो जाती। उसकी असफलता की वजह राधिका की दादी थीं जो किताब को हमेशा ही अलमारी में बंद रखती। राधिका ने कई बार चाबी चुराने का प्रयास किया पर दादी की सतर्क निगाहें हर बार राधिका की चोरी पकड़ लेती।
कुछ महीने पहले ही राधिका की दादी का स्वर्गवास हो गया था। इसलिए वैदेही के जन्मदिन पर सबसे अच्छा तोहफा वह किताब ही थी। जिसे सुनहरे रंग के चमचमाते पेपर से सजाकर राधिका ने वैदेही को उपहार स्वरूप दे दिया। वैदेही भी किताब को पाकर आश्चर्य से अपनी आंखों को बड़ा करते हुए राधिका से लिपट गई।
दिनभर की व्यस्तता के बाद वैदेही ने रात को किताब को देखा। उसने किताब के मुख्यपृष्ठ को गौर से देखा, जिस पर दो तलवारों से क्रॉस बना हुआ था। और तलवारों के सिरों पर धनुष टिका हुआ था, देखने पर आकृति दिल की तरह लगतीं। किताब के पन्ने भूरे रंग के हो गए थे जो इस बात के प्रमाण थे कि यह किताब अत्यधिक पुरानी है।
जैसे ही वैदेही ने किताब खोली, उसके कमरे का दरवाजा थरथराने लगा। वैदेही को लगा उसका छोटा भाई आशु उसे परेशान करने के लिए शरारत कर रहा हैं। इसलिए उसने किताब को पलंग पर रखा और दरवाजे के पास खड़ी हो गई। दरवाजे की थरथराहट शांत हो गई। वैदेही फिर पलंग की ओर जाने लगीं, तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। इस बार वैदेही ने तुंरत दरवाजा खोल दिया तो देखा वहाँ कोई नहीं था। वह कुछ देर दरवाजे पर खड़ी रहीं फिर पलंग पर आकर बैठ गई। तभी उसने नोटिस किया कि किताब पलंग पर नहीं हैं। वह किताब को ढूंढने लगी।
वैदेही (मन ही मन बुदबुदाते हुए)- यहीं तो रखी थी। तभी उसे किताब फर्श पर पड़ी हुई दिखीं। उसने किताब को उठाया और अपने बुकशेल्फ में रख दिया। दिनभर की थकावट के कारण उसे नींद आने लगीं थीं। वह बत्ती बुझाकर सो गई।
रात करीब 3 बजे वैदेही की नींद किसी के फुसफुसाने से खुल गई। उसे महसूस हुआ जैसे कोई उसके कमरे में ही बात कर रहा था। अपनी आँखों को मसलते हुए जब वैदेही ने बुकशेल्फ की तरफ देखा तो वह धक से रह गई। वहां उसे एक लंबा-चौड़ा नौजवान दिखा। वैदेही ने हड़बड़ी में बत्ती जलाई तो देखा वहाँ कोई नहीं था।
इस दृश्य को देखने के बाद वैदेही असमंजस में पड़ गई कि जो देखा वह आँखों का भ्रम था या हकीकत। वैदेही भूत-प्रेत जैसी बातों पर विश्वास नहीं करती थी, इसलिए ऐसा कोई विचार उसके मन में नहीं आया और वह फिर से सो गई। अब तो घर में रोज कुछ न कुछ ऐसा घटित होने लगा जिससे सब भयभीत रहने लगे।
एक दिन वैदेही की माताजी सुमित्रादेवी की साड़ी में आग लग गई। एक सुबह आशु सीढ़ी से उतरते समय फिसल गया और उसे गम्भीर चोट आई। ऐसे ही एक दिन वैदेही के पिता सुरेंद्र की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया और वह बाल-बाल बच गए। इन सभी अनहोनी से परिवार के सभी सदस्य समझ गए कि ग्रहदशा सही नहीं चल रहीं हैं। वैदेही की माताजी धार्मिक महिला हैं, इसलिए वह ज्योतिषशास्त्र को बहुत मानती हैं। घर या घर के सभी सदस्यों से सम्बंधित हर कार्य वह शहर के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य करुनासिन्धु शर्मा से पूछकर ही करतीं थीं। इस समस्या के निदान हेतु उन्होंने करुनासिन्धु जी से भेंट करना चाही पर करुनासिन्धु जी यात्रा पर गए हुए थे।
समय की गाड़ी के पहिए कब ठहरते हैं, वह तो हर परिस्थिति में अनवरत चलते रहते हैं। उसी के साथ वैदेही के जीवन की गाड़ी भी ठीक तरह से चल रहीं थी। कहते हैं, समय की गति बड़ी बलवान होती हैं। कभी-कभी जिंदगी में ऐसे मोड़ भी आ जाते हैं जब इंसान को अपनी बेहद अजीज वस्तु से भी दूरी बनानी पड़ जाती है। ऐसा ही एक मोड़ वैदेही की जिंदगी मे आया।
एक दिन वैदेही कार्यक्षेत्र से अपने घर जा रहीं थीं। रास्ते में वेल्डिंग की दुकान थी, जहां लोहे की पत्तियां काटी जा रहीं थीं। दुर्भाग्यवश लोहे का एक छोटा सा टुकड़ा तेजी से उड़ता हुआ वैदेही की आँख में चला गया। दर्द से तिलमिला कर वैदेही ने तुरन्त गाड़ी रोकी, वह दर्द से कराह रहीं थीं तभी एक राहगीर ने उसे देखा और उसे अपनी गाड़ी से घर छोड़ दिया। वैदेही को तुरन्त अस्पताल ले जाया गया और डॉक्टर ने तुरंत ऑपरेशन का कह दिया।
लोहे का टुकड़ा आंख को चीरता हुआ रेटिना तक जा पहुंचा, जिसके कारण आँख के पर्दे में छेद हो गया। ऑपरेशन के बाद डॉक्टर द्वारा वैदेही को किताब न पढ़ने की सख्त हिदायत दी गई। वैदेही के साथ हुए इस हादसे से सुमित्रादेवी का शक और भी पक्का हो गया कि हो न हो हमारे घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश हो गया हैं।
करुनासिन्धु शर्मा भी यात्रा से लौट आये थे। उन्होंने सुमित्रादेवी को पूर्णिमा के दिन आने का समय दे दिया। वैदेही अब गुमसुम सी रहने लगी थी, किताबों से दूरी ने उसके जीवन को नीरस बना दिया था। वह राधिका की दी हुई उस किताब को देखती रहती जिसे वह पढ़ नहीं पाई थी।
वैदेही को हर रात अपने कमरे से अजीब सी आवाजे सुनाई देती। कभी उसे लगता जैसे कोई उसके कमरे में ही तलवारबाजी कर रहा हो, कभी उसे किसी भारी भरकम सी आवाज की अट्हास सुनाई देती तो कभी कोई आकृति दिखाई देती। इन सब बातों को वह अपने दिमाग की स्थिति मानकर कभी गम्भीरता से नहीं लेती।
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